घर बैठकर रोटी और बिस्तर तोड़ने की आदत || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

10 min
176 reads
घर बैठकर रोटी और बिस्तर तोड़ने की आदत || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्न: आचार्य जी, जब मैं अकेला लेटा रहता हूँ, तो मैं अपने बारे में चिंतन कर पाता हूँ, कि – “मैं ऐसे क्यों जी रहा हूँ। मैं अपने ऐसे कर्मों को छोड़ क्यों नहीं देता।” लेकिन जैसे ही परिवार के माहौल में या दोस्तों के बीच आता हूँ, तो सब भूल जाता हूँ ।

आचार्य प्रशांत जी: तो क्यों आ जाते हो दोस्तों में?

प्रश्नकर्ता १: बचपन से ही।

आचार्य प्रशांत जी: अभी बच्चे हो?

प्रश्नकर्ता १: कठिन लगता है।

आचार्य प्रशांत जी: तो मत छोड़ो।

प्रश्नकर्ता १: उससे निकल नहीं पा रहा हूँ।

आचार्य प्रशांत जी: कठिन है इसीलिए नहीं निकल पा रहे हो। मत निकलो। जीवन में आसान तो एक ही काम है – खाओ, पियो, मस्त पड़े रहो। घर में भैंस बंधी देखी है? गले में पड़ी हो रस्सी, दूध दो, चारा खाओ, जुगाली करो। पड़े रहो। क्यों भई, कठिनाई कौन झेले?

तुमसे किसने कहा है कि जिन लोगों के बीच जीवन और मति दोनों भ्रष्ट हो जाते हैं, उनकी ओर बार-बार जाओ? तुमसे किसने कहा ऐसे माहौल में रहो, जहाँ तुम्हारी चेतना का ह्रास हो जाता है? क्यों जाते हो ऐसे लोगों के पास जो तुम्हारा चित्त कलुषित कर देते हैं?

और वहीं रहना है, तो यहाँ क्यों आए हो?

ये दोनों तरफ़ की बात नहीं चलेगी।

मैदान में जो उतरे उसे चुनना पड़ता है कि तलवार भांजनी है या नहीं। मैदान में उतर भी आओ, और तलवार भी न चलाओ, तो बड़ी बुरी मौत मरोगे।

तलवार चलाने का दम नहीं है, या इरादा नहीं है, तो अभी मैदान में ही मत उतरो। बाहर बैठे रहो। मैदान में उतर आए, और फ़िर कह रहे हैं कि – “बड़ा कठिन है तलवार चलाना।” तुम्हारे लिए कठिन है, दूसरों के लिए नहीं है। माया की पूरी फ़ौज है, उसे कोई कठिनाई नहीं है। वो बड़ी आसानी से तुम्हारे सीने में तलवार उतार देगी।

नशेड़ी नशे का अभ्यस्त हो जाए, तो उसे नशा आसान ही लगेगा न।

कठिनाई और आसानी, ये तो हमारे अभ्यास और संस्कारों पर निर्भर करते हैं। एक के लिए जो कठिन है, दूसरे के लिए आसान है। *ऐसा इसीलिए थोड़े ही है कि दोनों की आत्मा अलग-अलग है, बल्कि इसीलिए है क्योंकि दोनों का अभ्यास अलग-अलग है।* अभ्यास करना पड़ेगा न, उसी को ‘साधना’ कहते हैं। साधो।

और बात-बात में लाचारी और निरहीयता का रोना तो रोया मत करो – “मैं क्या करूँ, मेरे दोस्तों ने बिगाड़ दिया मुझको।”

दोस्त आकर जबरन अपहरण करके ले जाते हैं तुमको?

कह रहे हैं, “दोस्त ऐसे हैं कि वो नशा करा देते हैं। नहीं, पीनी नहीं थी, दोस्तों ने पिला दी।” हमने नहीं सुना कि तुम कहो कि – “ज़हर नहीं पीना था। दोस्तों ने पिला दिया, तो पी गए।” शराब तो कह देते हो कि दोस्तों के पिलाने के कारण पी ली, ज़हर भी पी लेते उनके पिलाने से। ज़हर क्यों नहीं पीते उनके पिलाने से? तब तो अचानक होश आ जाता है कि – “दोस्त होंगे तो होंगे। ज़हर थोड़े ही पी लूँगा।” कह देते हो या नहीं? जब दोस्तों को धकिया देते हो, और कह देते हो कि – “ज़हर नहीं पीलेंगे तुम्हारे कह देने से,” तो शराब भी क्यों पी लेते हो उनके कह देने से?

दोस्तों पर इल्ज़ाम मत लगाओ, शराब में मज़ा तुम्हें आता है। ज़हर में मज़ा तुम्हें नहीं आता, तो नहीं पीते। शराब में तुम्हें मज़ा आता है, तो पी लेते हो। दोस्तों की आड़ ले रहे हो। परिवार वालों की आड़ ले रहे हो, सीधे बोलो न घर में बैठे-बैठे मुफ़्त की रोटी खाने में मन लग गया है। दोष परिवार वालों को क्यों दे रहे हो?

बहुत सम्भव है कि तुम्हारे परिवार वालों को अगर यहाँ बुलाया जाए, तो वो कहें, “हम कहाँ चाहते हैं कि इतना बड़ा जवान घोड़ा घर में बैठा रहे। हम तो खुद चाहते है कि ये बाहर निकले, कमाए। पर घर बैठता है, रोटी तोड़ता है। हम करें क्या? छाती का बोझ है।” बोलो ऐसी बात है कि नहीं?

लड़के यहाँ आते हैं, लड़के भी क्यों कहूँ – युवा, मर्द। पच्चीस-पच्चीस, तीस -तीस साल के। वो कहते हैं, “घरवालों के कारण मैं, घर पर पड़ा हूँ, कोई काम नहीं करता। और घर का माहौल कुछ ऐसा है कि काम करने की प्रेरणा नहीं मिलती।” सारा दोष घरवालों का है। घरवालों से बात करो, तो घरवाले क्या कहेंगे? “छाती पर पीपल उग आया है। निकलता ही नहीं घर से। खाट तोड़ता है, रोटी तोड़ता है। खाट तोड़ता है, रोटी तोड़ता है।”

बात बराबर है न?

देखो बेटा, बार-बार याद रखो कि हम न देवता हैं, न गन्धर्व हैं, न ऋषि -मुनि हैं, न ज्ञानी-योगी हैं। हम साधारण मानव हैं, और साधारण मानव पशु के बहुत निकट होता है। कोई पशु आपत्ति नहीं करता अगर उसे आराम से रोटी मिल रही हो तो। कि करता है?

कुत्ता तुम्हारे दरवाज़े पड़ा रहेगा, बस उसे रोज़ दो रोटी डाल दिया करो। ऐसे ही हैं हम। आराम से रोटी मिल रही हो, हम किसी के भी दरवाज़े का कुत्ता बनने को तैयार हो जाते हैं। बात सुनने में कड़वी लगेगी, पर मैं मजबूर हूँ। सच्चाई तो बोलनी पड़ेगी न।

अभी-भी मेरी बात सुनकर जो तुम्हें कठिनाई हो रही है, वो कठिनाई ये नहीं है कि तुम्हारी मान्यताएँ टूट रही हैं, क्योंकि दिल-ही-दिल जानते तो तुम पहले से ही थे, जो मैं अभी कह रहा हूँ। मैं तुम्हें कोई नई जानकारी नहीं दे रहा हूँ। मेरी बात सुनकर तुमको कठिनाई ये हो रही है अभी कि मेरी बात पर चलोगे तो मेहनत करनी पड़ेगी। ये है कठिनाई।

कौन नहीं चाहता नवाबों-सा जीवन? कौन ठुकरा देगा कि महल मिल जाए, पचास नौकर-चाकर मिल जाएँ, मुफ्त की करोड़ों की संपदा मिल जाए। अकूट विलासिता के साधन मिल जाएँ। ठुकरा दोगे क्या? दिल पर हाथ रखकर बताना।

प्रश्नकर्ता १: हाँ ।

आचार्य प्रशांत जी: मिला नहीं है, तब तक बोल रहे हैं बेबाकी से। इतिहास गवाह है कि जिन्हें मिलता है, उनमें से कोई एक बुद्ध ही होता है जो इन्हें ठुकरा पाता है। इतनी आसानी से न कहिए कि – “हाँ, हाँ, मिलेगा तो ठोकर मार देंगे।” मानवता के चार-हज़ार साल के इतिहास में दो-चार ही बुद्ध हुए हैं, जिन्होंने मिला हुआ राज-पाठ ठुकरा दिया। बाकियों ने राज-पाठ पाने के लिए, बापों और भाईयों की हत्या की है। नहीं ठुकरा पाओगे। नवाबी का जीवन मिल रहा हो, नहीं ठुकरा पाओगे।

अब बड़ी नवाबी न सही, तो छोटी नवाबी ही सही – घर के छोटे नवाब। बहुत सारे नौकर-चाकर न सही, तो माँ तो है न। वही, पराँठे! सुबह-शाम पराँठे बनाकर खिला देती है, करना क्या है? कपड़े भी धुल जाते हैं, खाना भी मिल जाता है, पत्नी भी है। भोग-विलास का भी प्रबंध है। करना क्या है मेहनत करके, काम करके?

वाजिद अली शाह के किस्से सुने हैं?

श्रोतागण: नहीं ।

आचार्य प्रशांत जी: अरे! फ़िर क्या सुना है? कहानी कहती है कि आक्रमण हुआ था, वो लड़ने नहीं गए। क्योंकि जो नौकर उनको जूते पहनाया करता था, वो उस दिन छुट्टी पर था, या मिल नहीं रहा था, या गायब था। तो बैठे हुए हैं कि जूते पहनाने वाला नौकर तो आए, तब तो जाएँगे लड़ने।

ये छोटी-मोटी सुविधाएँ नहीं होती जो घर पर मिलती हैं, इनकी बड़ी कीमत है। खाना तुम नहीं बनाते, कपड़े तुम नहीं धोते, बिस्तर तुम नहीं लगाते, झाड़ू-पोंछा तुम नहीं करते। ये कोई हल्की बात है? होटल है पूरा। और कमाते भी तुम नहीं हो।

(हँसी)

(प्रश्नकर्ता की ओर देखते हुए) अब आया न मज़ा। पहली बार मुस्कुरा रहे हो !

प्रश्नकर्ता २: जीवन में कुछ पैटर्न (ढर्रे) देखने को मिलते हैं, जैसे कहीं भी समय पर न पहुँचना, अनुचित समय पर नींद आना, किसी-भी काम को लगातार बहुत समय तक न करना। इसको कैसे ठीक किया जाए?

आचार्य प्रशांत जी: अभी हम थोड़ी देर पहले कह रहे थे न, बुद्धि अहम का उपकरण है। अब पता है तुम्हें कि नींद का पैटर्न है। तो बुद्धि का प्रयोग करो, और अपने आप को कोई काम दे दो। कह दो कि – “यहाँ बैठे-बैठे जो बात हो रही है, मैं उसके नोट्स बनाऊँगा,” नींद नहीं आएगी। देर से पहुँचते हो, तो देर से पहुँचने पर जो नुकसान होता हो, उसका ठीक-ठीक अनुमान लगा लो, अपने ऊपर कड़ा दण्ड निश्चित कर लो। देर से पहुँचने की जो कीमत है, उसको बढ़ा दो। खुद ही देर से नहीं पहुँचोगे।

यहाँ कैसे आए?

प्रश्नकर्ता २: ट्रेन से। लेकिन एक ट्रेन छूट गई थी।

आचार्य प्रशांत जी: फ्लाइट का टिकट कराना अबकी बार, नहीं छोड़ोगे। ट्रेन थी, इसलिए छूट गई। कीमत बढ़ा दो। देर से आने की जो कीमत है, उसको बढ़ा दो। अपने ऊपर जो अर्थ-दण्ड लगना है, उसको बढ़ा दो। ट्रेन छूटी तो हज़ार-बारह सौ का टिकट रहा होगा। जब पता होगा कि सीधे आठ हज़ार का लगेगा झटका, तब मुश्किल होगा फ्लाइट छोड़ना।

दो ही चीज़ें होती हैं देखो – या तो बोध का मार्ग, या योग का मार्ग। भारत ने दोनों को ही आज़माया है, दोनों ही सफल रहे हैं। बोध का मार्ग कहता है – “जानो, और जानने के फलस्वरुप तुम्हारे कर्म और निर्णय बदलेंगे। भीतर प्रकाश उदित होगा, तो तुम्हारे जीवन में दिखाई देगा। तुम्हारे सब कर्मों में दिखाई देगा।” ये ‘बोध’ का मार्ग है। योग का मार्ग दूसरा है। वो कहता है – “ढर्रे मृत होते हैं। उनको अगर प्रकाश से तोड़ेंगे, तो बड़ा समय लगेगा।” “तो उनको विधियों से तोड़ो।”

ऐसे समझ लो कि किसी व्यक्ति का शरीर है, मैं अपना उदाहरण ले लेता हूँ। आंतरिक रूप से स्वस्थ शरीर हो सकता है। पर ये हाथ है, इसमें ये कन्धा जाम हो गया है। इसको खोलने की एक विधि है कि – कुछ मत करो। उसका नाम होता है ‘सुपरवाईज़ड नेग्लेक्ट’। कुछ मत करो, इसको छोड़ दो, कुछ समय बाद ये अपने आप चलने लगेगा। इसमें साल-दो साल कुछ भी लग सकता है। बस अपने आंतरिक स्वास्थ्य का ख़याल रखो। भीतर सब मामला ठीक होना चाहिए – विटामिन, मिनरल – ये सब ठीक हैं, तो ये हाथ भी कभी -न-कभी खुल ही जाएगा।

एक मार्ग ये है।

दूसरा मार्ग ये है कि – योग कर लो, थोड़ा खींच-तान दो, ये तो ढर्रा है, इसका बोध से क्या लेना-देना? यहाँ जो है, वो तो जड़ पदार्थ है जो फँस गया है, चिपक गया है। आसक्ति है एक तरह की। तो उसको एक विधि से तोड़ दो।

तुम विधि ही लगा लो।

सर्वश्रेष्ठ ये रहता है कि दोनों रहें – आंतरिक प्रकाश भी, और बाहरी उपाय भी।

मैं कहा करता हूँ कि भीतर अगर प्रकाश है, तो बाहर का उपाय तुम स्वयं खोज लोगे। पर उपाय खोज लो। अगर वाकई दिखाई दे रहा है कि जीवन में कुछ ढर्रे हैं, जो सब ज्ञान पाकर भी टूट नहीं रहे हैं, तो उनको तोड़ने के लिए, उसी ज्ञान का उपयोग करके कुछ विधि आविष्यकृत कर लो।

ठीक है?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories