एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति। स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥२.७२॥
हे अर्जुन! यही ब्रह्मस्वरूप में अवस्थिति है। इस अवस्था को पाकर मनुष्य संसार में मोहित नहीं होता। मृत्यु के समय भी इस ब्राह्मी स्थिति में प्रतिष्ठित रहकर वह ब्रह्मस्वरूपता के आनन्द को प्राप्त करता है।
श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय २, श्लोक ७२)
आचार्य प्रशांत: हे अर्जुन! यही ब्रह्मस्वरूप में अवस्थिति है। इस अवस्था को पाकर मनुष्य संसार में मोहित नहीं होता। अन्त में भी इस ब्राह्मी स्थिति में प्रतिष्ठित रह वो ब्रह्मस्वरूपता के आनन्द को पाता है। यही ब्राह्मी स्थिति है, जिसको कभी स्थितप्रज्ञता बोल सकते हो, कभी निर्ममता बोल सकते हो, कभी निष्काम कर्मयोग का पालन बोल सकते हो। यही ब्राह्मी स्थिति है। इसके विषय में फिर से एक यहाँ पर विशेष बात — अन्त की बात कर रहे हैं यहाँ पर श्रीकृष्ण, और जो हमारे सामने अनुवाद है वहाँ पर अन्तकाल को शारीरिक मृत्यु कहा गया है अनुवाद में। नहीं, देखिए, श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि ब्राह्मी स्थिति को जो पा लेता है वो मृत्यु के समय भी इसमें प्रतिष्ठित रहता है, और आनन्द पाता है।
आपका आनन्द क्या शारीरिक मृत्यु छीनती है? आपको अभी — आप आनन्द में हैं क्या अभी? नहीं, आनन्द में तो नहीं हैं। आप मर रहे हैं क्या अभी? आप मर भी नहीं रहे हैं। इसका मतलब आपका आनन्द छीनने वाली बात शारीरिक मृत्यु नहीं, कुछ और है। शारीरिक मृत्यु तो किसी एक पल में आपका आनन्द छीनती होगी, पर आप तो आनन्द विहीन सदा रहते हैं। तो फिर कौन आपको परेशान करे रहता है? अन्तकाल। वो परेशान करे रहता है।
अन्तकाल माने वो क्षण नहीं जब आप अस्सी साल के हो जाएँगे, और आप अपनी अन्तिम साँस लेंगे। वो अन्तकाल नहीं है। अगर वो अन्तकाल ही बहुत बड़ी समस्या होती तो जिसको अस्सी साल में मरना है वो पचहत्तर-अठहत्तर साल तो आनन्द में रहता कम-से-कम, अभी तो नहीं मर रहा। किसी और अन्तकाल की बात हो रही है। मन है जहाँ सब आरम्भ हैं, मन है जहाँ सारे अन्त हैं। और मन में जो कुछ भी उदित होता है, मन में ही उसका अन्त भी हो जाता है।
कृष्ण कह रहे हैं, ‘जब मन की लहरों का अन्त हो रहा होगा, जब तुम्हारी आशाएँ और पहचानें मिट रही होंगी, तुम उस समय भी आनन्द में अवस्थित रहोगे अगर तुम्हें अपने ब्रह्म स्वरूप का ज्ञान हो गया है तो।’ आपको क्या चीज़ शान्ति से और आनन्द से बिलकुल उखाड़कर फेंक देती है? जब आपकी कामनाएँ अपूर्ण रह जाती हैं, चूर्ण हो जाती हैं, उस समय आनन्द हो, शान्ति हो, ये सब बहुत दूर की बातें हो जाती हैं न? तो आनन्द से आपको दूर रखता है कामनाओं का अन्त, न कि शरीर का अन्त।
शरीर का अन्त तो एक बार होता है। कौन उसको लेकर के चिन्तित, व्यथित रहता है, रोज़ाना। आप रहते हैं? आप आज दिन में दस बार तनाव में गये होंगे, दस में से कितनी बार आपका तनाव आपकी मृत्यु को लेकर के था? कितनी बार? बोलिए। हाँ, आप जब बीमार वगैरह हो जाते हैं तब ज़रूर अपनी मृत्यु के बारे में कभी सोच लेते होंगे, पर बीमार भी आप कितनी बार पड़ते हो। बहुत कम लोग होंगे जो अस्सी की ज़िन्दगी जियें और सत्तर साल बीमार ही रहें। बहुत कम होंगे।
लेकिन परेशान आप हमेशा रहते हो। मौत से आप हमेशा नहीं डर रहे, लेकिन परेशान आप हमेशा हो, माने आपकी परेशानी का कारण दूसरा है। शारीरिक मृत्यु आपकी व्यथा का कारण नहीं है। अन्य तरीके के अन्त हैं जो आपको व्यथित करे रहते हैं। वो कौन से अन्त हैं? मैंने एक प्रयास आरम्भ करा है किसी दिशा में, क्या वो सफल होगा? कहीं उसका असफल अन्त तो नहीं हो जाएगा। कुछ मिल गया है मुझे बड़ा रसीला, बड़ा प्रिय, बड़ा मोहक; कहीं उसका अन्त तो नहीं हो जाएगा।
मन विषयों को पकड़ता है, और जिस भी विषय से उसे थोड़ा भी सुख मिलता है, उस विषय को वो अमर, कालातीत रखने की कामना करता है। कहता है, ‘जो मिल गया है ये छिने नहीं।’ पर इस आस का अन्त हो जाता है।
मन संसार के बारे में हज़ार धारणाएँ बनाता है। वो सब धारणाएँ तथ्यों से टकराकर चूर हो जाती हैं। लो, धारणाएँ भी मिट गयीं। और ये सबकुछ प्रतिदिन होता है। वो सबकुछ जिसे आप चिरंजीवी करना चाहते हैं, वो सबकुछ जिसको आप बनाये, बचाये रखना चाहते हैं, वो रोज़ आपकी आँखों के सामने मिटता है। बाहरी दुनिया तो छोड़िए, आपके भीतर रोज़ आपका अपना संकल्प भी टूटता है, मिटता है, बिखरता है। आप कहते हैं, ‘आज इतना कुछ कर डालूँगा।’ कर पाते हैं क्या? लो हो गया अन्त। और अन्त लगातार होता रहेगा।
श्रीकृष्ण यहाँ कह क्या रहे हैं इस अन्तिम श्लोक में अध्याय के। कह रहे हैं, ‘अन्त लगातार चलते रहेंगे, जो उठेगा वो गिरेगा भी। लेकिन अगर तुमने जान लिया कि ये उठने, गिरने के प्रपंच से तुम अलग हो, तो इन सब खेलों के बीच, द्वैतों के बीच, धूप-छाँव, ज्वार-भाटा के बीच भी तुम शान्त और आनन्दित रह पाओगे। लेकिन जो आ रहा है, तुमने उससे अपनी पहचान जोड़ ली। जो जा रहा है, तुमने उससे अपना सम्बन्ध जोड़ लिया, तो फिर तो भूल जाओ कि शान्ति।’ समझ में आ रही है बात?
मृत्यु का उल्लेख जब भी आये शास्त्रों में, विशेषतया वेदान्त में, तो स्पष्ट रहिये कि वेदान्त सबसे कम महत्व देता है शरीर को। तो अगर मृत्यु की बात हो रही है, और मृत्यु की बात बहुत महत्व के साथ करता है वेदान्त, और शरीर को महत्व देता नहीं, तो शारीरिक मृत्यु की तो बात नहीं ही हो रही होगी न? ये भूल हमने बहुत बार करी है। और इस भूल का भारत ने बड़ा हर्जाना भी भरा है, क्योंकि गीता के मूल उपदेश से ही भ्रमित हो गये हम।
वास्तव में, हम शरीर भाव रखने वाले लोग हैं। तो जहाँ हमारे सामने शब्द आया ‘अन्त’, हमें लगता है शरीर के ही तो अन्त की बात हो रही होगी। क्यों? क्योंकि हमारे मन में हर समय शरीर ही नाच रहा है। देहाभिमान यही है न, तुम्हारे मन में हर समय शरीर-ही-शरीर नाच रहे हों। तो ‘अन्तकाल’ शब्द तुम्हारे सामने पड़ा, तत्काल तुमने उससे क्या निष्कर्ष कर लिया कि शरीर के ही तो अन्तकाल की बात हो रही है। नहीं, गीता का ये सारा प्रवचन शरीर को थोड़े ही दिया जा रहा है। ये सारी बात मन को समझायी जा रही है। तो मन के ही अन्तकाल की बात हो रही है। शरीर थोड़े ही लाभ पाएगा कृष्ण का सन्देश सुनकर। लाभ तो मन पाता है न? लाभ का आकांक्षी भी मन ही होता है। बेड़ियों में भी मन ही होता है, मुक्त भी मन ही होता है। सब गुरुओं ने सदा सम्बोधित भी मन को ही करा है। तो शरीर की मृत्यु का क्या अर्थ है? कुछ नहीं। उसकी बात हो ही नहीं रही यहाँ पर।
तुम स्वयं को आत्मा जान पाओ, इसके लिए बहुत आवश्यक है कि तुम इस शरीर को और बरसाती कीड़े को एक जानो। बहुत उठना है तो अपनेआप को बहुत गिरा हुआ मानना पड़ेगा। पहले मानना पड़ेगा कि हमारा जीवन, हमारा जन्म, हमारी कामनाएँ, हमारी वासनाएँ और हमारी मृत्यु बरसाती कीड़े जैसी ही है, इससे ज़्यादा कुछ नहीं हैं हम।
जिसने मान लिया कि देह तो बरसाती कीड़े की ही मिली है हमको, वो बरसाती कीड़ा होने से मुक्त हो जाता है। और जो ये नहीं जानता, जो मानना नहीं चाहता कि बरसाती कीड़ा भर ही है ये देह, वो पूरा जीवन फिर कीड़ा ही बनकर जीता है। जो जान गया वो कीड़ा है, अब कीड़ा नहीं रहा वो। और जो मानने को तैयार नहीं कि कीड़े से हटकर कुछ और नहीं हैं हम, उसको दंड ये मिलेगा कि वो जिस बात को ठुकराये जा रहा है वही बात उसकी ज़िन्दगी बन जाएगी। तुम नहीं मान रहे कि तुम कीड़े हो, तुम पूरी ज़िन्दगी कीड़े की जियोगे।
तुम हँसने लगो इस देह पर, तुम हँसने लगो अपनी भावनाओं पर, तुम हँसने लगो अपने सब क्रियाकलापों पर, तुम हँसने लगो अपने विचारों और उद्देश्यों पर, तुम हँसने लगो अपने सम्बन्धों और अपनी कामनाओं पर, और कह दो, ‘कीड़ा, कीड़ा हूँ मैं!’ क्योंकि जो कुछ तुम कर रहे हो वो कीड़ा भी करता है। जो कीड़ा जान लिया अपनेआप को, कीड़ा नहीं रहा अब।
तीसरे अध्याय का आज आरम्भ कर देते हैं। ट्रेलर दिखा देते हैं। आपकी उत्सुकता एक हफ़्ते तक प्रज्वलित रहेगी। कैसे शुरू होता है तीसरा अध्याय, कर्मयोग?
तो इतना समझा दिया श्रीकृष्ण ने, इतना समझा दिया, जानो, जानो, जानो। तुम कौन हो, ये जानो। तो अर्जुन क्या तर्क करते हैं? अध्याय का आरम्भ किस तर्क से होता है? अर्जुन कहते हैं, ‘अरे, कृष्ण, अगर जानना ही सबकुछ है, तो मुझसे करवा क्यों रहे हो? मैं जानूँगा न, करने की क्या ज़रूरत है?’ श्लोक है —
अर्जुन उवाच ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन। तत्किं कर्मणि घोरे माँ नियोजयसि केशव॥३.१॥
अर्जुन कहते हैं कि अगर कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ है तो तुम मुझसे ये घोर कर्म क्यों करवा रहे हो, केशव?
श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय ३, श्लोक १)
आचार्य: श्लोक है, अर्जुन कह रहे हैं, ‘हे कृष्ण! यदि कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ है, तो हे केशव! तुम मुझे ऐसे हिंसक कर्म में क्यों ढकेल रहे हो? क्यों नियुक्त कर रहे हो?’
वृत्ति का खेल, अर्जुन के पुराने संस्कार चिल्ला रहे हैं। इतनी ज़ोर से चिल्ला रहे हैं कि कृष्ण की आवाज़ सुनाई ही नहीं दे रही, अर्जुन को। जो थोड़ा बहुत सुनाई देता भी है, अर्जुन उसका प्रयोग करना चाहते हैं कृष्ण को ही गलत, भ्रमित प्रमाणित करने में। कृष्ण की ही बात का उपयोग करके कृष्ण से कह रहे हैं, ‘देखो, गलत कहा न आपने?’
अगर कृष्ण गलत हैं, तो कृष्ण की जिस बात का उपयोग करके कृष्ण को गलत सिद्ध कर रहे हो, वो बात भी तो गलत है। तो कृष्ण गलत कैसे सिद्ध हुए? लेकिन जब मोह, और संस्कार, और अतीत चित्त पर हावी रहते हैं, तो व्यक्ति को एकदम नहीं दिखाई पड़ता अपनी दुर्बुद्धि और अपने कुतर्क का खोखलापन।
एक सज्जन से बातचीत हुई थी एक शिविर में, आज से तीन साल पहले। तो मेरी ही एक किताब ले आये। उसके एक अध्याय से उन्होंने एक-दो बातें पढ़ीं। बोले, ‘देखिए, आपने ही ऐसा कहा है, और अब जो आप बात कह रहे हैं, आपकी कही बात के विपरीत है। और आपने ऐसा कहा इसीलिए हम इस पर चले, और फिर ऐसा-ऐसा हमारे साथ हुआ। मैंने कहा, ‘आप जो मुझे बात सुना रहे हो, उसका वो अर्थ नहीं है जो आप निकाल रहे हो।’ बोल रहे हैं, ‘कैसे नहीं है? मैंने पढ़ा है, मैंने समझा है। ये जो लिखा हुआ है इसका वही अर्थ है जो मैं आपको बता रहा हूँ।’
मैंने कहा, ‘नहीं, इसका वो अर्थ नहीं है जो आप समझ रहे हैं।’ बोल रहे हैं, ‘आप गलत बोल रहे हैं, इस किताब में जो लिखा हुआ है उसका अर्थ मैं बिलकुल समझ गया हूँ, और वही है जो मैं आपसे कह रहा हूँ।’ मैंने कहा, ’बाकी सब बातें तो ठीक हैं, पर वो किताब मेरी है। वो जो बात उसमें लिखी है वो मैंने कही थी, तो शायद मैं थोड़ा ज़्यादा जानता होऊँगा कि मैंने क्या कहा।’ बोले, ‘नहीं, हम बता रहे हैं आपको, आपने क्या कहा।’
वो मेरी ही कही बात का प्रयोग करके मुझे ही गलत सिद्ध कर रहे थे। क्यों? ताकि उन्होंने अपने अनुकूल जो अर्थ कर लिया है मेरी बात का, उस पर चलने की उनको सुविधा रहे। वो ऐसे पाँच-सात मिनट तक करते रहे। बात का अन्त तब हुआ जब स्थिति एकदम हास्यास्पद हो गयी, लोगों ने हँसना ही शुरू कर दिया। लोगों के लिए वो मनोरंजन हो गया, पर साहब को अभी भी नहीं समझ में आया कि लोग हँस क्यों रहे हैं। वो बोले, ‘लेकिन मैंने तो बहुत ध्यान से पढ़ा है, मुझे इसका अर्थ पता है।’ वो अन्त तक यही कहते रहे। मैंने कहा, ‘पर मैंने कहा है न, तो शायद मुझे भी पता होगा।’ बोले, ‘नहीं, मैंने पढ़ा है, इसलिए मुझे पता है।’
हम जो करना चाहते हैं वो पहले आता है, और करने के पक्ष में कारण और तर्क हम बाद में आविष्कृत करते हैं।
ये अच्छे से समझ लीजिएगा। इसीलिए कई बार कोई व्यक्ति जो करने जा रहा हो उसके पक्ष में उसके पास जो भी तर्क हों आप उनको धराशायी कर दें तो भी आप पाएँगे कि वो व्यक्ति करता वही है जो उसे करना है। और आप उससे पूछेंगे, ‘क्यों करा?’ तो ईमानदार होगा तो बोल देगा, ‘बस करना था।’ ईमानदार नहीं होगा तो कोई नया तर्क बता देगा। बोलेगा, ‘आपने मेरे पुराने तर्क काट दिये, पर मुझे एक नया मिल गया, इसलिए मैंने कर डाला। तर्क की बात ही नहीं है। ईमानदारी इसमें है कि बोल दो, ‘वृत्ति बहुत मचल रही थी, कर डाला।’ और कोई तर्क है नहीं।
वृत्ति का एक ही तर्क होता है, उसका मचलना। बहुत जोर से मचल गयी, कर डाला। और कोई तर्क ही नहीं है। क्यों अपना समय खराब कर रहे हो तर्क गढ़-गढ़ कर? ज़रूरत क्या है, सीधी घोषणा करो। जानवर हैं, भौंकने का मन करा, भौंक दिया। अब तर्क क्या बताएँ इसमें।
समझ में आ रही है बात?
अब क्या कह रहे हैं कृष्ण, और क्या सुन रहे हैं अर्जुन? कृष्ण समझा रहे हैं निष्काम कर्मयोग, और अर्जुन कह रहे हैं, ‘आपने यही तो कहा न कि कर्म से श्रेष्ठ ज्ञान है, तो मुझे ज्ञानी बन जाने दीजिए न, मुझे योद्धा क्यों बना रहे हैं? मैं तो ज्ञानी बनने के लिए ही तैयार बैठा हूँ। मुझे जंगल जाने दो। ये लड़ाई-झगड़ा मुझे करना ही नहीं है। मैं जंगल जाऊँगा, मैं बाल घुटाऊँगा, मैं पंडित बन जाऊँगा, मैं अहिंसा का उपदेश दूँगा, मैं सन्त कहलाऊँगा। बड़ी कीर्ति होगी मेरी, विप्रवर अर्जुन! जो सत्ता, सिंहासन सब छोड़कर के संन्यास की शरण में आ गये। मुझे जाने दो न, कर्म में क्या रखा है? ज्ञान आपने दे ही दिया। आप जब मेरे पास हो, मुझे ज्ञान की क्या कमी है।’
कृष्ण किस कर्म को मना कर रहे हैं? कृष्ण मना कर रहे हैं शरीर जनित और संसार जनित सकाम कर्म को। कृष्ण उस कर्म को मना कर रहे हैं जो शारीरिक वृत्तियों और सामाजिक संस्कारों से आता है।
कृष्ण कह रहे हैं, ‘जानो कि वो कर्म व्यर्थ है।’ तो ज्ञान श्रेष्ठ है, अन्धे कर्म से। ज्ञान निस्संदेह श्रेष्ठ है, बिलकुल कह रहे हैं कृष्ण, पर किससे श्रेष्ठ है? अन्धे कर्म से। जहाँ पर ज्ञान नहीं है, तुम जानते कुछ नहीं बस करे जा रहे हो। क्यों करे जा रहे हो? क्योंकि तुम संस्कारित हो। वैसे कर्म से कृष्ण ने सिद्ध करा है कि ज्ञान श्रेष्ठ है। पर जब ज्ञान होता है तो उसी ज्ञान के साथ होती है निष्कामता, माने निष्काम कर्म।
ज्ञान, सकाम कर्म, अन्धे कर्म को काटता है, और ज्ञान ही निष्काम कर्म को जन्म देता है। तो कृष्ण मना कर रहे हैं कर्म को, पर किस कर्म को मना कर रहे हैं? सकाम कर्म को, संस्कारित कर्म को। और अर्जुन यहाँ बिलकुल छुपा जाते हैं कि एक और प्रकार का कर्म है, कृष्ण जिसकी स्तुति कर रहे हैं।
कृष्ण जिसका उपदेश दे रहे हैं वो बात अर्जुन एकदम दबा गये। बोले, ‘कर्म तो आपने मना करा न कि हम सब जीवन भर जो कर्म करते हैं, वो सारे कर्म हमारे कहाँ से आते हैं? हमारे पुराने संस्कारों से आते हैं, और हमारी शारीरिक वृत्तियों से आते हैं, हमारी पशुता से आते हैं। तो आपने कहा न कि कर्म नहीं करना है।’ यहाँ तक तो ठीक कहा अर्जुन ने, पर कृष्ण ने कुछ और भी तो कहा है न? क्या कहा है? कि जो ज्ञानी होता है वो कामना पर नहीं चलता, फिर वो निष्काम कर्म करता है। निष्काम कर्म की बात अर्जुन एकदम दबा गये, क्योंकि उसमें असुविधा है।
कर्म की समस्या का यही आखिरी उत्तर है — कर्म तो तुम्हें करना ही पड़ेगा। इसी अध्याय में आगे एक श्लोक में कृष्ण बिलकुल यही बात कहते हैं। कहते हैं, ‘कर्म से कौन बच सकता है? जिस क्षण तक साँस ले रहे हो, कर्म तो तुम प्रतिपल कर रहे हो। कोई नहीं बच सकता कर्म से। बस, ये देख लो कि तुम्हारा कर्म आ कहाँ से रहा है — भीतर के बेहोश अन्धेपन से या तुम्हारी निष्कामता से। उसी निष्कामता को आत्मा भी कह सकते हैं, क्योंकि मन हमेशा कामुक होता है, और आत्मा ही निष्काम होती है। आत्मा को कुछ नहीं चाहिए, क्यों? क्योंकि वो पूर्ण है। तो आत्मा सदैव निष्काम होती है।
कर्म का प्रश्न व्यक्ति के लिए सदा बड़ा गम्भीर रहा है। ‘क्या करूँ?’ अगर आपको मिलेंगे दस समस्याग्रस्त लोग, तो उसमें से आठ का सवाल यही होगा। ‘अब क्या करूँ?’ उत्तर कृष्ण से सुन्दर शायद ही कभी किसी ने दिया हो। वो मत करो जो तुम्हारा मन तुमको करने की तरफ़ फेंक रहा है। तुम्हारी अन्धी वृत्तियाँ तुम्हें बेहोशी में नचा देना चाहती हैं। तुम नाच मत जाना।
तुम जानो अपनेआप को, वो जानना ही आत्मा है। बोध ही आत्मा है। और जब जानोगे तो उस जानने से एक नया साफ़, सशक्त कर्म उठेगा, उसको निष्काम कर्म कहते हैं। तुम वो काम करो।
तुम वो काम करो जो तुम्हारे बोध से फलित होता है। वो करो। लेकिन तुम्हारे बोध से फलित कोई काम तुम तब कर पाओगे न, जब पहले तुमको दिखाई दे कि जो काम पहले से कर रहे हो वो बेहोशी से आ रहा है, अन्धकार से आ रहा है, अज्ञान से आ रहा है। इसी को तो बोध कहते हैं, ‘जानना।’ जान गया कि मैं अभी तक जिस राह चल रहा था वो राह मेरी है ही नहीं। जान गया कि मैं एकदम बेहोश हूँ और जीवन पथ पर लड़खड़ाता, लुढ़कता-पुढ़कता, ठोकरें खाता पता नहीं किस दिशा को बढ़ा जा रहा हूँ। मैं जान गया। मैं जान गया, मैं जग गया। जगने के बाद मैं गति करूँगा। अब वो गति अलग होगी, उस गति को कहते हैं निष्काम कर्म। निष्काम कर्म है एक जगे हुए आदमी का जीवन। वो जो कुछ भी करता है उसमें निष्कामता होती है।
कामना अन्धी है, क्योंकि कामना तुम्हारी है ही नहीं। कामना में कोई बोध नहीं, कामना में कोई प्रकाश नहीं। तुम्हें पता है, तुम्हारी कामना कहाँ से आती है? तुमने चयन किया अपनी कामना का? बस आ जाती है, छा जाती है। इसलिए उसको कहते हैं ‘अन्धी।’ उसे कुछ नहीं पता। उसको बस ये पता है कि चढ़ जाना है, पकड़ लेना है, छा जाना है, पूरा अधिकार कर लेना है, कब्ज़ा जमा लेना है, और जीव को अपना गुलाम बना लेना है। अन्धी है, उस पर नहीं चलते।
तो क्या चलते ही नहीं हैं? नहीं, चलते हैं, बड़े वेग से चलते हैं, बड़े बोध से चलते हैं, और अब ऐसा चलते हैं कि रोके नहीं रुकते। आत्मा से चलते हैं, निष्कामता से चलते हैं। तो तीसरे अध्याय के पट भी अब खुल चुके हैं।
Quotes:
हम जो करना चाहते हैं वो पहले आता है, और करने के पक्ष में कारण और तर्क हम बाद में आविष्कृत करते हैं।
जब मोह, और संस्कार, और अतीत चित्त पर हावी रहते हैं, तो व्यक्ति को एकदम नहीं दिखाई पड़ता अपनी दुर्बुद्धि और अपने कुतर्क का खोखलापन।
जिस क्षण तक साँस ले रहे हो, कर्म तो तुम प्रतिपल कर रहे हो। कोई नहीं बच सकता कर्म से। बस ये देख लो कि तुम्हारा कर्म आ कहाँ से रहा है? भीतर के बेहोश अन्धेपन से या तुम्हारी निष्कामता से। उसी निष्कामता को आत्मा भी कह सकते हैं।
तुम स्वयं को आत्मा जान पाओ, इसके लिए बहुत आवश्यक है कि तुम इस शरीर को और बरसाती कीड़े को एक जानो।