ग़लत निर्णयों का कारण क्या? ग्रंथों का दुरुपयोग कैसे? || (2019)

Acharya Prashant

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ग़लत निर्णयों का कारण क्या? ग्रंथों का दुरुपयोग कैसे? || (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम!

आपसे प्रश्न पूछा गया था कि – “मुक्ति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा क्या है?” तो आपने कहा था कि – “मुक्ति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा हम स्वयं ही हैं, क्योंकि हम ही ने बंधनों का चुनाव कर रखा है।” मगर आचार्य जी, इन बंधनों के चुनाव के पीछे कोई-न-कोई कारण तो है ही, चाहे वो सही हो या ग़लत हो, लेकिन कारण है तो।

कर्म करते हुए हम कैसे ख़ुद को इस ग़लत चुनाव से बचाएँ? कृपया सांसारिक जीवन की व्यवहारिकता को ध्यान में रखते हुए मार्गदर्शन करने की कृपा करें।

आचार्य प्रशांत: तो प्रश्नकर्ता मुझे पहले ही चेतावनी दे रहे हैं कि – “कोई अव्यवहारिक उत्तर मत दे दीजिएगा आचार्य जी। सांसारिक लोगों के लिए कोई व्यावहारिक बात बताईए।” क्या व्यवहारिक बात बताऊँ? तुम कह रहे हो कि – “बंधन चुने गए हैं, तो उनके पीछे कोई कारण है। कारण चाहे सही हो, चाहे ग़लत हो, कारण तो है।”

अरे भाई, तुम कभी किसी ग़लत रास्ते भी चल देते होगे, कहीं जाना है पर रास्ता ग़लत चुन लिया। एक बार समझ में आ गया कि रास्ता ग़लत चुन लिया, तो ये थोड़े ही कहोगे कि -“ग़लत रास्ते पर हम आए, तो कोई कारण तो होगा। भले ही हमें भ्रम हुआ, तो भ्रम होने के पीछे भी तो कोई वजह तो होगी। हमें नशा भी हुआ, तो नशे का भी कुछ सबब तो होगा।”

इतनी बातें करते हो क्या? या सीधे ये कहते हो कि – “रास्ता ग़लत है, समझ में आ गया। चुपचाप मुड़ जाओ, सही रास्ता पकड़ो।” या बैठकर ये विश्लेषण करोगे कि – ग़लती के पीछे प्रयोजन क्या था? कोई प्रयोजन नहीं था। माया भ्रम है।

‘भ्रम’ माने – वो जो है ही नहीं। वो जो है ही नहीं, उसके पीछे क्या प्रयोजन होगा? नशे में हो सकता है तुमको पचास आकृतियाँ दिख जाएँ। क्या तुम नशा उतरने के बाद ये पूछोगे कि, “उन आकृतियों के पीछे प्रयोजन क्या था”?

क्या प्रयोजन था? कुछ भी नहीं। नशा था, कुछ व्यर्थ दिख रहा था। अब नशा उतर गया, अब हमें कोई व्यर्थ की चीज़ दिखाई नहीं देती।

व्यवहारिकता की तुमने बात की है, मैं समझ रहा हूँ कि तुम क्या कह रहे हो। तुम ये कह रहे हो कि – “वो जो ग़लत कारण था, भले ही शाब्दिक, और शास्त्रीय, और किताबी तौर पर आचार्य जी आप ग़लत ठहरा दें, भले ही बौद्धिक तल पर हम मान लें कि वो चीज़ ग़लत थी, पर देखिए अब तो नेह लग गया न। बात दिल की है। और ग़लत निर्णय अतीत में भले ही कर लिया हो, पर अब छोड़ा नहीं जाता।”

भले ही कोई कितना समझा ले, या हमारी भी बुद्धि प्रमाणित कर दे कि ग़लती हो गई, पर हो गई तो हो गई। ‘अहम्’ कहता है, “ग़लती भी है तो मेरी। जैसी भी है, मेरी है।” तुम्हारी एक सड़ी हुई, खटारा बाइक खड़ी हो सामने, एकदम बर्बाद, और कोई आकर उसका हैंडल हिलाना शुरु कर दे। तुम उसको रोको, और वो कहे, “खटारा तो है, क्या तू इसकी बात कर रहा है?” तुम बोलोगे, “जैसी भी है, मेरी है। जैसी भी है, मेरी है!”

यही रवैय्या रहता है ज़िंदगी की ग़लतियों को लेकर के हमारा – “जैसी भी है – खटारा है, बर्बाद है, जानलेवा है – मेरी है। छूना नहीं।” उसके साथ अहम् जुड़ा है न! अब वो खटारा, जोकि बाहर खड़ी ही इसीलिए है क्योंकि छः बार उसने तुम्हारी टाँग तुड़वाई थी, छः बार तुम उसपर से गिरे थे, कभी उसका टायर निकलकर भाग जाता था, कभी उसकी चैन टूट जाती थी, कभी कुछ होता था, कभी कुछ होता था।

छः बार टूटने के पश्चात, तुमने उसको बाहर खड़ा कर दिया है, खूब दुःख भोगा है उससे। और अब उसमें कुछ नहीं है। वो यूँ ही खड़ी है दस साल से। उसने तुम्हें दुःख भी खूब दिया है, उसमें कोई मूल्य भी नहीं है, वो यूँही खड़ी हुई है। और कोई आकर थूक दे उसपर, तो गला पकड़ लोगे उसका। क्या?

प्र: मेरी है।

आचार्य: “टाँग भी टूटी थी, तो किसकी? मेरी।” अब मैं तुम्हें क्या समझाऊँ। और कुछ समझना ही चाहते हो, तो आज घण्टा-डेढ़-घण्टा पहले मैंने बात की थी कंधे मज़बूत करने की।

होना तो ये चाहिए, कि ये जो खटारा है, इसको हटाकर तुम नई बाइक खड़ी कर दो, क्योंकि तुम्हारे पास जगह भी ज़्यादा नहीं है। छोटी-सी तुम्हारी सामर्थ्य है, थोड़ी ही तुम्हारे पास जगह है, थोड़ा ही तुम्हारे पास समय है। होना तो ये चाहिए कि इस खटारा को फेंको, बेच दो। बेच दो इस खटारा को, और कुछ पैसे लगाकर अपने बच्चे के लिए एक छोटी-सी साइकल ले आओ।

पर तुम कहोगे, “नहीं! मेरी है।”

फिर अब ज़िम्मेदारी तुम्हारे ऊपर है कि नई बाइक भी लेकर आओ, और उसके लिए जगह भी बनाओ, क्योंकि पुराना तो तुम हटाने से रहे। ये बड़ी ज़िद है तुम्हारी, ये पूरी आसक्ति है तुम्हारी। “इसी बाइक पर मैंने पहली डेट की थी। इसी बाइक पर उसका दुपट्टा उड़ा था। कैसे बेच दूँ इसको, भले ही छः बार टाँग तुड़वा चुका हूँ?” तो ठीक है, रख लो इसको। लेकिन फिर जगह बनाओ नई बाइक के लिए भी। हो सकता है नई आ जाए, तो नई को देखकर इस पुरानी से तुम्हारा मोह छूटे।

पुरानी अगर हटा नहीं सकते हो, तो कम-से-कम इतनी जगह बनाओ कि पुरानी रहे, और नई भी आ जाए। हो सकता है नई को देखकर पुराने से मोह छूटे तुम्हारा। ये करना पड़ेगा। पुराने को रखे रहो, नए के लिए भी जगह बनाओ। नया आकर पुराने को बेदखल करेगा। और कोई तरीका नहीं है।

प्र: कोई भी ग्रन्थ पढ़ते हैं, तो उसकी एक-आध लाइन लेकर अपने आप से फ़िट कर लेते हैं। जैसे, “करे करावे आपे आप मानस के कुछ नहीं हाथ।” जो भी हमारी ग़लतियाँ हैं सब वही करा रहा है, हमने तो कुछ नहीं किया। तो जब वो करा रहा है, तो हम कर रहे हैं, अगर हम ऐसा मानें तो ये तो अहंकार ही है। बस हम स्वीकार नहीं करते हैं।

आचार्य: ये बड़ी बेअदबी है। ये बड़ा असम्मान है।

ग्रन्थ न पढ़ना बेहतर है, ग्रन्थ का दुरुपयोग करने से।

ये तो अहंकार ने बड़ा ही अनर्थ कर दिया। पहले तो वो ग्रन्थ को छूता नहीं था, और अब क्या कर रहा है? छूकर के अब उसको इस्तेमाल कर रहा है ख़ुद को सजाने के लिए। सोचिए कैसा लगेगा कि एक वहशी आदमी, दरिंदा समान, आए और ग्रंथों के पन्ने फाड़-फाड़ कर अपने लिए कागज़ का मुकुट बनाए, और कुछ करे।

दरिंदा अपनी सजावट के लिए धर्मग्रंथों का प्रयोग कर रहा है। दरिंदे का क्या नाम है? अहंकार।

शेक्सपियर ने बोला था ‘मर्चेंट ऑफ़ वेनिस‘ में, शाइलॉक के बारे में, “द डेविल कैन कोट स्क्रिप्चर्स फॉर हिज़ ओन पर्पज़ (शैतान अपना स्वार्थ साधने के लिए ग्रंथों से भी उद्धृत कर सकता है)।” और ये शाइलॉक का किरदार ऐसा था, इसे पैसा न मिले तो लोगों का माँस रखवा लेता था।

“*द डेविल कैन कोट स्क्रिप्चर्स फॉर हिज़ ओन पर्पज़*”।

तो सिर्फ़ इसलिए कि कोई बार-बार श्लोक पढ़ देता है, उद्धरण बता देता है, या कोई दोहा बोल देता है, उसको आध्यात्मिक मत मान लीजिएगा। संभावना ये भी है कि वो अध्यात्म का दुरुपयोग कर रहा होगा। वो अध्यात्म का उपयोग कर रहा है ख़ुद को सजाने के लिए, और वो अध्यात्म का उपयोग कर रहा है दूसरों को गिराने के लिए।

अध्यात्म कायदे से वो बन्दूक है, जो अपने ऊपर चलती है कि तुम मिट जाओ। लेकिन अध्यात्म अगर ग़लत हाथों में पड़ जाए, तो ये वो बन्दूक हो जाता है जो दूसरों पर चलती है, ताकि तुम उनपर राज कर सको।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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