आचार्य प्रशांत: और जो परेशान हो, अपनी ज़िन्दगी को लेकर के, वो बच्चों का वीडियो गेम खेलने लग जाए तो अपने साथ कोई इंसाफ़ या उपकार तो नहीं कर रहा, या कर रहा है?
परेशान हो बहुत चीज़ों को लेकर, ज़िन्दगी के झंझट हैं, ये है, वो है, और लग गये कोई गेम खेलने। वो जो गेम खेल रहे हो तुम, वो थोड़ी देर के लिए नशे की तरह तुम्हें ये भुलवा देगा कि तुम कितने परेशान हो। लेकिन कोई भी नशा हो, दिक्क़त ये है कि उतर जाता है। नशा करने में दिक्क़त ये नहीं है कि चढ़ जाता है, भाई चढ़ गया था तो चढ़ा ही रहता। जब तक चढ़ा था तब तक तो मौज ही लग रही थी, सब उपद्रव भूल गये, गम ग़लत हो गया। सारी चीज़ें भुला गयीं। नशे के साथ दिक्क़त क्या है? उतर जाता है। और जब उतर जाता है तो बड़ा श्मशान, बड़ा बंजर, बड़ा वीरान छोड़ जाता है। और जब छोड़ जाता है वीरान तो आप कहते हो, ’अब दुबारा नशा चाहिए’, ये फिर गन्दी लत लग गयी।
प्रकृति के खेल में जो फँसेगा वो वैसे ही फँस गया जैसे नशे में फँसा जाता है। थोड़ी देर के लिए सुकून मिल जाएगा, उसके बाद फिर चिड़चिड़ाहट, तनाव, बेचैनी, पागलपन, खिसियाहट।
किसी विपरीत लिंगी की ओर आकर्षित होने भर की बात नहीं है, मुद्दा ज़्यादा व्यापक है। हम कुछ भी कर रहे हों, आमतौर पर नब्बे-पंचानवे प्रतिशत बार हम प्राकृतिक उद्वेगों को अपनी मर्ज़ी का नाम देकर के उन्हें सत्यापित कर देते हैं, प्रमाणित कर देते हैं, जायज़ ठहरा देते हैं और उनके पीछे-पीछे चिपक जाते हैं, लग लेते है। भीतर से कोई भी लहर उठ सकती है भाई, कुछ भी।
आप अभी रात में बहुत ज़बरदस्त तला-भुना खाना खा लें और मिर्च वगैरह खाने की आपकी आदत न हो, ठूँस-ठूँसकर आपको मिर्च खिला दी जाए, उसके बाद बिलकुल हो सकता है कि एक आदमी जो आपको आमतौर पर ज़रा पसन्द नहीं आता था, अब नागवार हो जाए। पहले तो वो सिर्फ़ नापसन्द था, अब क्या हो जाए? नागवार हो जाए। नागवार समझते हो न? बर्दाश्त ही नहीं हो रहा। पहले तो वो बगल में बैठता था तो बस मुँह ऐसे कर लेते थे कि इसको कौन देखे, कौन इससे बात करे, और अभी-अभी बिलकुल पेट भी जल रहा है, मुँह भी जल रहा है, ऊपर से लेकर नीचे तक हर दिशा में आँत जल रही है, अब वो आकर के बगल में बैठेगा तो भीतर से विचार उठ सकता है कि अब इसको थप्पड़ क्यों न मार दूँ।
और आपको लगेगा कि ये विचार आपका है, ये विचार आपका नहीं है, ये मिर्च का काम है। ये काम मिर्च का है। अब जैसे ही कहा जाता है कि काम मिर्च का है तो बड़ा बेइज़्ज़ती-सी लगती है। कहे, 'मिर्च नचा रही है हमें?' हाँ, ऐसा ही है। केला खा लिया, व्यवहार बदल जाएगा, विचार बदल जाएगा। सेब खा लिया, कुछ और हो जाएगा। ऐसा नहीं कि बिलकुल उल्टे हो जाएँगे, कि पूरब जा रहे थे, केला खाया तो पश्चिम चलने लगेंगे। ज़रा सूक्ष्म तरीक़े से परिवर्तन आता है और समय के साथ वो जो सूक्ष्म परिवर्तन है, वो जो ज़रा-ज़रा से अन्तर हैं, वो जुड़-जुड़कर बड़े हो जाते हैं, स्थूल हो जाते हैं, बहुत ज़्यादा प्रभावी हो जाते हैं।
ऐसे ही थोड़े ही होता है कि कवि कविता लिखने के लिए महीने के कुछ ख़ास दिनों की प्रतीक्षा करते हैं कई बार। कई बार कहते हैं कि हम पहाड़ पर चढ़ेंगे तो होगा। कोई कहता है, 'नहीं, वो पूर्णिमा आएगी तब कविता आएगी।' ये क्या बात है? ये यही बात है। समझो कि मामला बहुत हद तक प्रकृति से प्रभावित हो रहा है। ये हुआ नहीं कि समझ लो अपने नब्बे प्रतिशत दुखों से तो छुट्टी मिल गयी। क्योंकि नब्बे प्रतिशत हमारे दुख बिलकुल बेवजह होते हैं। होते तो शत प्रतिशत हैं, पर ये जो नब्बे प्रतिशत वाले हैं इनको तो एक झटके में ख़ारिज किया जा सकता है, ये बिलकुल ही बेकार के हैं।
ये ऐसा है कि जैसे आप बैठे हैं और आपके बगल में कोई है, और उसको आपने आज बढ़िया मूली-चना ये सब खिला दिया है, आप ही ने खिला दिया है, होशियारी हमारी! और फिर वो आपके बगल में बैठकर के डकार मार दे ज़ोर से और आप रो पड़ें कि इतना बड़ा अपमान हो गया हमारा, इसने हमारे बगल में बैठकर डकार मारी और बिलकुल हमारे मुँह पर मार दी! और उसके बाद आप दौड़ रहे हैं इधर-उधर कि ऍफ़आईआर कर दूँगा या इसको गोली मार दूँगा। दुख झेल रहे हैं न?
अभी जिस तरीक़े से मैंने बताया, आप कहेंगे कि हम इतने बुद्धू थोड़े ही हैं कि कोई डकार मारे तो हम ऍफ़आईआर कर दें। पर ज़्यादातर ऍफ़आईआर ऐसे ही होते हैं। हमें पता भी नहीं चलता कि दूसरा व्यक्ति जो कर रहा है वो डकार सदृश ही है, वो किसी प्राकृतिक लहर में बहता हुआ कर गया जो कर रहा था, उसे होश ही नहीं है, आधे नशे में है। प्रकृति पहला नशा है। जीव का पहला नशा प्रकृति है, वो कर गया, अब काहे इतना ख़फ़ा होते हो? लेकिन वो जो कर गया, वही आप भी कर रहे हैं। न वो समझा कि ये खेल प्रकृति का है, न आप समझे कि आपके भीतर जो क्रोध उठ रहा है वो भी प्रकृति का ही खेल है। समझ में आ रही है बात?
ऊँचा कुछ करने से वंचित रह जाएँगे। और बहुत ताक़त है प्रकृति की व्यवस्था में, टूटेगी नहीं। टूटेगी नहीं, कुछ ऐसा भी नहीं होगा कि आप उसमें फँसे रह गये तो आप बिलकुल ज़लालत की ज़िन्दगी जिएँगे, ऐसा कुछ नहीं होने वाला, बस वंचित रह जाएँगे। जैसे कोई रेलवे स्टेशन पर बैठकर के, गुड्डे-गुड़िया का खेल खेलने लग गया और उसके सामने से एक-एक करके ट्रेन निकलती जाए। मनोरंजन तो उसने अपना कुछ कर लिया, सस्ता, लेकिन जहाँ उसे जाना था वहाँ पहुँचने से वंचित रह गया।
कोई बताने नहीं आएगा, बिलकुल कोई बताने नहीं आएगा कि आप ग़लत खेल में फँसे हुए हैं। क्यों कोई बताने नहीं आएगा? क्योंकि अधिकांश लोग आपके ही जैसे हैं, वो भी उन्हीं खेलों में फँसे हुए हैं जिनमें आप फँसे हुए हैं, तो कौन आएगा सावधान करने कि फँसे हुए हो? कोई नहीं आएगा। एकदम कोई नहीं बताएगा कि एक-एक पल करके ज़िन्दगी बीतती जा रही है। और जो नुक़सान हो रहा होगा, चूँकि वो एक झटके में नहीं होता तो इसीलिए कभी भी झटका लगेगा ही नहीं। आपको अचानक कोई आकर के बता दे कि आपका दस लाख का नुक़सान हो गया है तो आप उठकर बैठ जाते हैं, कहते हैं कि बताओ कहाँ है, क्या है, कैसे हुआ, बताओ!
आपके बैंक से दस लाख रुपये बिना आपकी अनुमति के निकाल दिये गए, आपको तुरन्त झटका लग जाता है न? और यही कुछ ऐसा प्रबन्ध किया जाए कि किसी तरीक़े से आपके खाते से दो-पाँच-दस रुपये बीच-बीच में धीरे-धीरे किसी बहाने से निकलते रहे। हर दूसरे दिन, तीसरे दिन, कभी दस रुपया, कभी पन्द्रह रुपया निकल रहा है, कभी इस बहाने से, कभी उस बहाने से। तो आप आपत्ति करने जाएँगे ही नहीं, ख़ासतौर पर तब नहीं जाएँगे आपत्ति करने अगर उसी तरीक़े से वो रुपये सबके खातों से निकल रहे हों, आप कहेंगे, ‘ये तो प्रथा है, ऐसा तो होता ही है।’ और आपको पता ही नहीं चलेगा कि कुछ साल बीतते न बीतते, ब्याज के साथ वो सब राशि दस लाख हो गयी है। इस दस लाख के नुक़सान पर आप कोई आपत्ति नहीं करेंगे, बल्कि ये कहेंगे कि ये तो जीवन की सामान्य व्यवस्था है, ऐसा तो सबके साथ होता है। इसीलिए प्रकृति को जानने वालों ने माया भी कहा है।
प्रकृति को ही माया कहा गया है। वो झटका नहीं मारती, वो धीरे-धीरे, धीरे-धीरे लगातार आपके जन्म के पहले क्षण से लेकर के मौत के क्षण तक, आपको वंचित रखती जाती है, बस वंचित रखती जाती है, और कुछ नहीं। जिएँगे आप, पूरा जिएँगे। बस कुछ रहेगा जीवन में जो हो सकता था, होने नहीं पाया, क्योंकि निचले तल के खेलों में फँसकर रह गये, एक सम्भावना थी जो अपूर्ण चली गयी।
बात समझ रही हैं?
इसीलिए अध्यात्म प्रति पल का ध्यान है। एक झटके में दस लाख नहीं लिये जा रहे आपसे, कब लिये जा रहे हैं? लगातार, धीरे-धीरे-धीरे। लगातार अगर सतर्क नहीं हो, तो रोक नहीं पाओगे वो जो नुक़सान हो रहा है, पता ही नहीं लगेगा। खुश रहोगे, कहोगे, ’मस्त चल रही है ज़िन्दगी।’
इसीलिए साहब गा गये हैं, "लागा गठरी में चोर, तोरी गठरी में लागा चोर मुसाफ़िर।" वो ये नहीं कह रहे हैं कि चोर आया है और गठरी चुराकर, या लूटकर, डकैती करके भाग गया है। वो कह रहे हैं, ‘वो जो चोर है न, वो गठरी में लगा हुआ है, वो गठरी में ही जैसे घुसकर बैठ गया है, और धीरे-धीरे प्यार से गठरी साफ़ होती जा रही है।’ हाँ, उस गठरी में हमेशा इतना रहेगा कि आपका काम चलता रहे। तो आपको कभी अचानक चेतावनी नहीं महसूस होगी, अचानक आपको कभी झटका नहीं लगेगा, कोई अचानक असुविधा नहीं लगने वाली। एक दिन पहले गठरी का जो वज़न था, एक दिन बाद गठरी का जो वज़न है आप लेंगे तो उसमें मामूली सा अन्तर रहेगा। ऐसा लगेगा ही नहीं कि चोर लगा हुआ है गठरी में। वो चोर गठरी में ऐसे ही लगा होता है, वो रोज़ लूटता है, हर घंटे लूटता है। जितनी बार आप शारीरिक तरंगों को अपने विचारों का, अपनी भावनाओं का नाम देती हैं, उतनी बार वो लूटता है।
तो आपने जो मुझे पूरा क़िस्सा बताया, उसका समाधान ये है कि वो क़िस्सा ही बदल दीजिए। वो किस्सा वो था ही नहीं जो आपने बताया। आपने कहा कि आपको आकर्षण हो गया। क़िस्सा बदलिए, आपको आकर्षण नहीं हुआ, आँखों को हो गया, मस्तिष्क को हो गया, स्त्री हैं आप तो जो शरीर की स्त्रैण ग्रन्थियाँ हैं, उनको पुरुष के प्रति आकर्षण हो गया। ये ऐसा ही है। ये लोग क्यों इधर-उधर फुस-फुस डालकर महकते हुए घूमते हैं? क्योंकि उनको पता है, आकर्षण ऐसे ही होता है, आँख से हो गया, नाक से हो गया। क़िस्सा ही बदलिए, वो सब हुआ ही नहीं जो आपको लग रहा है कि हुआ। आप कहेंगे कि प्रेम हो गया। अरे! प्रेम हुआ कहाँ था?
आपने तो अपनी स्थिति का ख़ुद ही निदान कर लिया है, आपने तो अपना चिकित्सक बनकर ख़ुद ही अपनेआप को बता दिया है कि मेरी बीमारी का अमुक नाम है। आपको जो बीमारी लग रही है कि हुई, वो हुई ही नहीं थी, वो प्रेम था ही नहीं। प्रेम और प्रकृति साथ-साथ नहीं चलते भाई! प्रकृतिगत आकर्षण या विकर्षण का प्रेम से कोई लेना-देना नहीं है।
आपको लगेगा कि मुझे धोखा हो गया है या अपमान हो गया है या कुछ और हो गया, ये सब बातें हमारे भीतर जन्म से पहले से भरी हुई हैं। और इन सब बातों का, इन सब भावनाओं का कुल औचित्य एक है — शरीर बना रहे, और शरीर की जो धातु है, कोशिकाओं में जो केन्द्रीय तत्व है, उसे डीएनए बोलना है तो डीएनए बोल लो, या गुणात्मक सामग्री बोलनी है तो वो बोल लो, वो बढ़ती रहे आगे और ज़्यादा प्रसारित होती रहे, फैलती रहे, यही है।
प्रकृति का यही खेल आनन्द की बात हो सकता है, अगर आप उससे उलझें नहीं, उसको समझें। हमने बार-बार कहा, प्रकृति हेय नहीं है, उसकी निन्दा वगैरह नहीं करनी है। ये नहीं करना है कि छी-छी-छी गन्दी बात है, शरीर गन्दी चीज़ है, ये सब नहीं करना है। बस उलझना नहीं है। और उलझना क्यों नहीं है? कोई नैतिक कारण नहीं है। मैं वो सब नहीं कह रहा हूँ कि शरीर मल-मूत्र का घर है, इससे उलझो मत इत्यादि, इत्यादि। मैं कह रहा हूँ उलझना इसलिए नहीं है क्योंकि उलझ गये तो क्या नष्ट करेंगे? समय। इसलिए नहीं उलझना है। बाक़ी कोई गन्दगी नहीं है प्रकृति में। प्रकृति कुल है क्या? रसायन ही तो है।
ये कहाँ की बुद्धि है कि कह दो कि कोई रसायन अच्छा होता है, कोई रसायन गन्दा होता है? कोई आये और बोले, 'नहीं, जितने एसिड्स होते हैं वो गन्दे होते हैं, छी-छी, सलफ्यूरिक एसिड , और एल्कलाइन मामला सब बढ़िया होता है, सोडियम हाइड्रोऑक्साइड नमो नमः।' तो ये मूर्खता की बात है न? जब सब रसायन-ही-रसायन हैं, तो उसमें क्या किसी का पक्ष लें, क्या किसी को नीचे करें। बस बात ये है कि ये जो पूरी रासायनिक खेलबाज़ी है उसमें हम नहीं उलझ सकते, हमें कुछ और करना है। जो काम हमें करना है वो काम हम पूरा कर लें और पूरा करते चलें, तो फिर ये प्रकृति का खेल अच्छा है। कि देख रहे हैं, सामने देवी नाच रही हैं। ठीक है, नाचो, हम देख रहे हैं। द्रष्टा भर हैं हम, फिर ठीक है।
जैसे बचपन में होता था न कि पहले पढ़ाई पूरी कर लो फिर टीवी देखना, होता था न? और पढ़ाई पूरी कर ली है फिर टीवी गये देखने तो ठीक है, और पढ़ाई छोड़कर टीवी देख रहे हो तो ऐसा नहीं है कि पाप-वाप लग जाएगा, बस वंचित रह जाओगे।