प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, चिन्तन और कार्य में क्या अन्तर है?
आचार्य प्रशांत: चिन्तन और कार्य में कोई अन्तर नहीं होता, बिलकुल कोई अन्तर नहीं होता, लेकिन चिन्तन भी अपनेआप में काम होता है, एकदम होता है। लेकिन कार्य, गति को ही नहीं माना जा सकता। बहुत हिले, बहुत हिले लेकिन हिल-डुल करके वापस वहीं आ गए जहाँ थे, तो कोई कार्य नहीं हुआ।
फिज़िक्स आपने पढ़ी है, उसमें भी वर्क की परिभाषा क्या होती है? फ़ोर्स इनटू डिस्प्लेसमेंट (बल गुणा विस्थापन), तो वो तो हो गया फिज़िकल वर्ल्ड में, फिज़िक्स में। साईकिक वर्ल्ड में, अन्दरूनी दुनिया में भी, काम किसी चीज़ को तभी मानेंगे जब उसमें डिस्प्लेसमेंट शामिल हो, काहे का डिस्प्लेसमेंट? जो आपका केन्द्र है, द सेन्टर शुडबी डिस्प्लेस्ड (केन्द्र की विस्थापना होनी चाहिए)। तो अगर आपके चिन्तन से आपका सेंटर डिसप्लेस हो रहा है तो, तो कम हुआ, नहीं तो बस थकान हुई, खाया-पिया कुछ नहीं, गिलास तोड़ी बारह आना ।
खूब सोचते रहे, खूब सोचते रहे, और ऐसे-ऐसे (उंगली से इशारा करते हुए) घूमते रहे, सेंटर क्या है, सेंटर क्या है? अपनी जगह कायम हैं, उसी सेंटर के इर्द-गिर्द ऐसे-ऐसे,ऐसे घूम रहे हैं। तो वर्क कितना किया फिर? ज़ीरो। तो थिंकिंग (सोचना), चिन्तन-मनन इनको बिलकुल माना जा सकता है काम, अगर थिंकिंग आपके केन्द्र में परिवर्तन ला रही हो पर अगर उल्टा है कि आप अपने केन्द्र पर जमे रहकर के, अडिग रहकर के, सोचे जा रहे हैं, सोचे जा रहे हैं, कल बोला था न वृत्ताकार सोच, चक्रीय सोच, और इस सोच से केन्द्र पर कोई असर नहीं पड़ रहा है, क्योंकि सोच ही केन्द्र के इर्द-गिर्द है, तो कोई वर्क नहीं हुआ।
इसी तरीके से, फिज़िकल वर्ल्ड में भी, फिज़िकल वर्क तो हो गया अगर आपने बस ये उठाकर (रुमाल उठाकर रखते हुए) यहाँ से यहाँ रख दिया। मैंने हाथ चलाया, मैंने ये उठाकर यहाँ से यहाँ रख दिया, किसी फिज़िसिस्ट से पूछेंगे वो बता देगा भाई इतने जूल्स ऑफ एनर्जी लग गई, इतना वर्क हो गया। पर अन्दरूनी तौर पर, इसको यहाँ से उठाकर यहाँ रखना वर्क तभी माना जाएगा, जब अन्दरूनी डिस्प्लेसमेंट हुआ हो।
क्या इसको यहाँ से उठाकर यहाँ रखने में भीतर मैंने कुछ बदला? अगर नहीं बदला, तो करते रहो बाहर कितनी भी मेहनत, आन्तरिक प्रगति कुछ नहीं होगी। ज़्यादातर लोग देखा नहीं बाहर बिलकुल जी तोड़ मेहनत करते हैं, लगे रहते हैं ज़िन्दगीभर, हड्डियाँ उनकी चूरा बन जाती हैं। उनके चेहरों पर लिखा होता है, इस आदमी ने मेहनत बहुत करी है ज़िन्दगी में।
लेकिन उनकी भीतरी दुनिया खाली, खोखली, कुछ नहीं, क्योंकि वो सारी मेहनत, भीतर के केन्द्र को बदलने, उठाने के लिए नहीं की गई होती है, वो सारी मेहनत भीतर के डरे हुए केन्द्र को बचाने के लिए की गई होती है।
मैं बहुत डरता हूँ कहीं मुझसे मेरी ये चीज़ छिन न जाये, कहीं मुझसे मेरी वो चीज़ छिन न जाए, तो मैं क्या कर रहा हूँ? मैं जाता हूँ, मैं खूब सारे पैसे कमाता हूँ बाहर खूब सारी मेहनत करके। वो जो आप बाहर खूब सारी मेहनत करके खूब सारे पैसे कमा रहे हैं वो सिर्फ़ इसलिए कमा रहे हैं, क्योंकि आप अपनी आन्तरिक असुरक्षा को बचाए रखना चाहते हैं। आप भीतरी तौर पर एक डरे हुए आदमी हैं इसीलिए बाहरी तौर पर आप बहुत मेहनत करते हैं।
जो लोग कॉलेज, हॉस्टल वगैरह में रहे हैं, उन्होंने देखा होगा, बहुत सारे छात्र होते थे, जो बहुत मेहनत पढ़ाई में करते ही इसीलिए थे क्योंकि वो बहुत डरे हुए होते थे। कल एग्ज़ाम है और रात भर सोया नहीं, रात भर फटी हुई हैं आँखें उसकी। तुम्हें क्या लग रहा है उसको प्रेम हो गया है अपने विषयों से? ‘मुझे फ्लूइड मेकैनिक्स में पेटेंट निकालना है अपने नाम का’, कुछ नहीं। उसे तुम बतादो कि कल उसे मिल जाएँगे अस्सी प्रतिशत, प्रोफ़ेसर दरिया-दिल है, तुरन्त सो जायेगा। फटी आँखें ऐसे बस बन्द (इशारे से दिखाते हुए), सो जाओ।
वैसे ही हम हैं, हम बहुत मेहनत करते हैं। दुनिया, जितनी करनी चाहिए उससे कई गुना ज़्यादा मेहनत कर रही है पर वो सारी मेहनत का कुल अंजाम कुछ नहीं, बल्कि पतन है क्योंकि हम मेहनत, अपनेआप को बढ़ाने के लिए नहीं, अपनेआप को बचाने के लिए कर रहे हैं।
ये दो बहुत अलग-अलग तरह की मेहनत होती हैं। अपनेआप को बचाने के लिए कितनी भी मेहनत कर लो, कब तक बचाओगे? हैं न? ‘बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाएगी?’ तुम इतने ज़्यादा नाज़ुक स्थिति में हो कि उस स्थिति को बदले बिना तुम खुदको सुरक्षित करना चाहोगे, कब तक कर लोगे?
सिर पर तलवार लटकती ही रहेगी, वो लटक रही है बिलकुल महीन धागे से। वो गिरनी है, तय है लेकिन तुम अपनी स्थिति को बदलना नहीं चाहते। तुम कह रहे हो, ‘बैठा तो मैं वही रहूँगा जहाँ बैठा हूँ पर मैं ऐसे कुछ काम करता हूँ कि तलवार गिरे नहीं या गिरे भी तो हेलमेट-वेलमेट पहनकर रखेंगे। क्या खूब कमाएँगे, खोपड़ा मज़बूत बनाएँगे।‘
जबकि कुल तुम्हें करना क्या है? डिस्प्लेसमेंट, जहाँ बैठे हो वहाँ से हट जाओ। वो डिस्प्लेसमेंट करने को भी राज़ी नहीं होती है, उसी को वर्क कहते हैं कि जिस तलवार के नीचे बैठे हो, वहाँ से हट जाओ बेटा। वहाँ बैठे-बैठे काहे इतनी मेहनत कर रहे हो? रोज़ सुबह गाड़ी उठाकर भागते हो, स्टार एमप्लौई ऑफ-द-मंथ (महीने का श्रेष्ठ कर्मचारी) कहलाते हो।
समझ में आ रही है बात?