गलत जगह ढूंढ रहे सुख को || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

Acharya Prashant

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गलत जगह ढूंढ रहे सुख को || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

श्रोता: आचार्य जी, आपने जैसे कहा कि, जो भी काम करो उसमें डूब कर पूरी तरह से करो, तो क्या यह सम्भव है क़ि हम एक काम करते रहें और दूसरा विचार-सोच हमारे दिमाग मे ना आये।

आचार्य प्रशांत: नहीं, संभव तो है ही है, संभव क्यों नहीं है।

श्रोता: आचार्य जी, ऐसा होता नहीं है कि ये काम कर रहे हैं कुछ देर किया फिर दूसरी चीज़ या बातें दिमाग़ मे आती हैं, फिर ये बात आती रहती है, फिर वो बात आती है।

आचार्य जी: उसकी वजह है। बैठो, क्या नाम है?

श्रोता: सदाकत ​हुसैन।

आचार्य जी: ​ उसकी वजह है ​सदाकत, तुम जो कुछ भी करते हो, तुम उसको नहीं करते हो तुम्हें उसके माध्यम से कुछ चाहिए होता है। तुम जो भी कुछ कर रहे होते हो तुम वास्तव में वो नहीं कर रहे होते हो। तुम उसको सिर्फ इसलिए कर रहे होते हो, क्योंकि निशाना कहीं और होता है। तुम यहाँ पढ़ने आये हो क्या वास्तव में तुम यहाँ पढ़ने आये हो, या निशाना है डिग्री पर, या निशाना है नौकरी पर? तुम यहाँ पढ़ने आये हो ईमानदारी से बताओ, कितने लोग पढ़ोगे यदि बता दिया जाए की डिग्री नहीं मिलती है।

श्रोता: कोई नहीं पढ़ेगा।

आचार्य जी: तो पढ़ने नहीं आये हो ना? तुम यहाँ पर क्या करने आये हो, डिग्री लेने। इसका अर्थ यह भी है अगर आज तुम्हें यह कह दिया जाए की बिना पढ़े डिग्री मिलेगी और कोई सवाल नहीं उठायेगा, उसकी पूरी वैधता होगी तो, तुम पढ़ोगे नहीं। तुम कहोगे ठीक, पढ़ तो हम डिग्री के ही लिए रहे थे। डिग्री मिल गई, बात ख़त्म।

तुम जो भी कुछ करते हो, तुम उसे नहीं करते, उसके माध्यम से कुछ और पाना चाहते हो।

तुम खेलते हो तो तुम खेलने के लिए नहीं खेलते हो। तुम खेलते हो ताकि तुम जीतो।

तुम किसी के पास जाते हो तो तुम इस कारण नहीं जाते की उसके पास जाने मे कुछ है। तुम उसके पास इसलिए जाते हो ताकि पास जाकर तुम्हें कुछ आगे का लाभ हो जाए।

तुम दो अक्षर बोलोगे भी तभी जब कोई लाभ दिखता होगा। तो हम कुछ भी करते कहाँ हैं। निग़ाहें तो हमेशा आगे पर है की हमें कुछ और मिल जाएगा। तो ज़्यादा महत्वपूर्ण क्या है की जो हम कर रहे हैं या जो हमे मिल जाएगा? अगर मैंने तय ही कर लिया है कि मुझे कुछ आगे पाना है, तो ज़्यादा महत्वपूर्ण क्या हुआ कि जो मैं अभी कर रहा हूँ या जिसके माध्यम से मुझे कुछ और पाना है?

श्रोता: जो मुझे पाना है।

आचार्य जी: अब मन के सामने बड़ी विषम स्थिति है कि कर तो ये रहा हूँ पर चाहिए कुछ और। कर तो ये रहा है, क्या कर रहा है? मान लो पढ़ाई कर रहा है। कर रहा है पढ़ाई और चाहिए नौकरी। मन कहता है ये तो बड़ी गड़बड़ है। स्थिति समझ रहे हो क्या है? तुम कुछ ऐसा कर रहे हो की तुम्हें कुछ चाहिए ही नहीं है, तुम्हें चाहिए क्या है? नौकरी। और तुम कर क्या रहे हो?

श्रोता: (सभी एक साथ ) पढ़ाई।

आचार्य जी: तो अब मन किधर को भागेगा?

श्रोता: नौकरी की तरफ।

आचार्य जी: अब नौकरी भी तुम इसलिए नहीं कर रहे हो क्योंकि तुम्हें नौकरी से प्यार है, तो नौकरी भी क्यों कर रहे हो?

श्रोता: पैसे के लिए।

आचार्य जी: तो मन वहाँ भी नहीं ठहरेगा। यह सब कब हो रहा है जब किताब सामने खुली हुई है। किताब का उद्देश्य तो था की नौकरी मिल जाए तो मन उड़ा और नौकरी पर बैठ गया। अच्छा नौकरी का उद्देश्य क्या है? पैसा, तो मन उड़ा और जा करके पैसे पर बैठ गया। करोड़ो की गड्डियाँ लगी हुई हैं और तुम उस पर बैठे हुए हो और नाच रहे हो। पर पैसा तो सिर्फ कागज़ का टुकड़ा है, नोट है। तुम्हें वो भो नहीं चाहिए। तुम्हें उसके भी माध्यम से कुछ और चाहिए, क्या चाहिए?

श्रोता: गाड़ी, बंगला।

आचार्य जी: ठीक है। तुम्हें बहुत बड़ी गाड़ी चाहिए। पर गाड़ी का भी तुम क्या करोगे? गाड़ी को क्या तुम कन्धे पर रख कर घूमोगे? मन उड़ा और गाड़ी पर जा कर बैठ गया पर मन को गाड़ी भी नहीं चाहिए और यह सब कब हो रहा है जब सामने किताब खुली हुई है। अब मन जाकर के गाड़ी में बैठा हुआ है, ठीक है।

मन को वास्तव में गाड़ी भी नहीं चाहिये, गाड़ी तो लोहा होती है, क्या करोगे लोहे का? मन को गाड़ी के माध्यम से भी कुछ और चाहिए, क्या चाहिए?

अंततः मन को क्या चाहिए? किसी तरीके का सुख, प्लेज़र ठीक है ना, वो आखरी है। मन उससे ज्यादा कुछ माँगता नहीं है।

मन कहेगा की आखिर में सुख चाहिए और सुख यही है की मौज मनाओ, तो मौज अभी क्यों ना मनाएँ? क्या करना है इस किताब का? वो दरवाज़े पर खड़ा हुआ है मेरा लफंगा दोस्त, वो पीछे दो चार है वो आनन्द… आनन्द। और वो आनन्द को उपलब्ध कराने वाले लोग। अंततः मुझे जो चाहिए तो वो उपलब्ध करने वाले यह हैं तो, आओ! चलो! सड़क पर घूम कर आते हैं। अब किताब रखी हुई है और सड़क पर लफंगई चल रही है, क्योंकि अंततः तो तुम्हें वो ही चाहिए था, मिल गया।

तुम यह कहते ही क्यूँ हो की जब हमकुछ करते हैं तो हमें दूसरी चीज़ के विचार आते हैं।

विचार उसी चीज के आते हैं जो तुम्हें आखिरकार चाहिए।

जब तुमने तय ही कर रखा है की आखिर में सुख चाहिए की अंततः आख़िर में तुम्हें सुख ही चाहिए तो सुख ही सुख के विचार आते हैं। सुख कैसा भी हो सकता है जब तुम पढ़ने बैठोगे तो तुम्हें शारीरक सुख के विचार आएँगे, इंटरनेट ​खोल लो गे या कुछ खाना पीना शुरू कर दोगे या इधर-उधर भागोगे।

चील होती है वो बहुत ऊँचा उड़ती है, वो बहुत ऊँचा चली जाती है पर वो कही भी चली जाए पर उसकी नज़र हमेशा ज़मीन पर इतना सा मरा हुआ चूहा पड़ा होगा, उसपर ही होती है। ऊपर जाती भी इसीलिए है की दूर से देख सके ​की कहाँ मरा हुआ चूहा ​पड़ा है और उसी को उठा ले। वैसे ही हमारा मन है, तुम पढ़ हो या कुछ भी कर रहे हो अंततः तुम्हें लुच्चई वाला सुख ही चाहिये, कितना भी ऊँचा उड़ लो पर अंततः ​तुम्हें सुख वही चाहिए। तो मन उधर को ही भाग लेता है की चलो, उसको दूर क्यों रखे अभी उठा लेते हैं। जब आख़िर में वही चाहिए और तुम अपने आस ​-​ पास भी तो यही देखते हो कि जो ऊँचे से ऊँचे हो गए हैं पर उन्हें तलाश उसी चीज़ की है जो नीचे से नीचे वाले की है।

समाज में जो सबसे नीचे है उसे भी वही चाहिए जो समाज में सबसे ऊपर बैठा हुआ है। तो तुम कहते हो की जीवन का अर्थ ही यही है ​कि इन्हीं को पा लूँ। भई! मैं कुछ भी बन जाऊँ, मैं ​दुनिया का राष्ट्रपति बन जाऊँ, तो भी तुम देखते हो की ​दुनिया का बड़े से बड़े नेता भी उन्हीं चीज़ो को चाहा रहा है जो एक छोटे से छोटे आदमी चाहा रहा है। उनका आकर बड़ा हो सकता है पर चीज़ वही है। तो तुमने भी वही सब चाहते पाल रखी है और तुम ​उन्हीं​ चाहतो के पीछे दौड़े रहे हो, बाकी सारे काम बहाना है, झूठे हैं। आखिर में तुमको वही चाहिए।

दो – चार चीज़ें हैं वो, ​दूसरों से इज्जत मिल जाए, थोड़ा पैसा मिल जाए, मन में सुरक्षा की भावना रही आए और शारीरिक आवश्यकताएँ… सेक्स वगैरा। और तुम देखते हो कि पूरी ​दुनिया में इन तीन – चार चीज़ों के अलावा किसी को कुछ चाहिए ही नहीं, सब इन्हीं के पीछे भाग रहे हैं। तुमने भी in चीज़ों को पकड़ रखा है इज्ज़त, पैसा, सुविधाएँ, सेक्स। तो अब पढ़ने में मन कहाँ से लगेगा, इन चारों में पढ़ना तो शामिल है नहीं था। अंततः तो तुमको यही चार चीज़े चाहिए। तो तुम इन्हीं चार चीज़ों के पीछे भागते हो और ये चार चीज़ें तुमको अभी प्रचुरता से मिलने लग जाएँ तो बस हो गया, क्या पढ़ना है, क्या करना है?

इन चार में से कुछ भी अगर अभी उपस्थित हो जाए तो तुम उधर को ही निकल लोगे।

मन को लेकिन उम्मीद बाकी है अगर तुमने भेजा है मन को तो तुम उसे खींच भी सकते हो। मालिक तुम ही हो, तुम्हीं ने रवाना किया है तो तुम ही वापस बुला सकता हो। उसके लिए तुम्हें अपनी मान्यताएँ बदलनी होंगी। उसके लिए तुम्हें पहले ये सोचना छोड़ना होगा की दुनिया इसीलिए है ताकि इसे खूब भोगो। तुम्हारी जो लगातार *(प्लेज़र)*सुख की तलाश है तुम्हें थोड़ा इससे हटना पड़ेगा।

भाई! हम सब के मन मे ज़िंदगी का बड़ा गहरा खाखा खींचा हुआ है। तुम सब गहराई से ये मान कर के बैठो हो की जीवन ऐसा है और इसलिए है और तुम आओगे और कहोगे, “आचार्य जी, जीवन मे सम्मान तो मिलना ही चाहिए दूसरों​ से।”

यह तुमने मान ही लिया है की सम्मान बड़ी कीमती चीज़ है और जब तुमने गहराई से मान ही लिया है बिना जाँच-पड़ताल किए, बिना अपनी नज़रों से देखे बिना स​वा​ल-जवाब किए, जब तुमने मान ही लिया है तो मन लगातार उसी की ओ भाग रहा है। वही तुम्हारा वैल्यू सिस्टम बन चूका है। तुमने कीमत ही उसी को दी है वही मूल्य है तुम्हारे। वही मूल्य है तो मन उन्हीं की तरफ भागता है क्योंकि तुमने ही कहा है मन से की यह चीज़ कीमती है। तुमने ही कहा है मन से की भोग कीमती है, लम्पटगिरी कीमती है।

तुम देखते नहीं हो ​कि तुम्हारी जो फिल्मे आती है उसमे गुड लाइफ किसको दिखाया जाता है, इसमें क्या दिखाया तुम्हारा जो हीरो है उसके लिए ऊँची से ऊँची बात क्या होती है की बहुत अच्छा जीवन मिल गया तो वो क्या करता है? वो यह करता है वो गोवा पहुँच जाता है और नंगा होकर नाचता है, ठीक। और हर दूसरी फिल्म में तुमको यही पाठ पढ़ाया जा रहा है की अगर तुम भी इसी स्थिति में आ सको तो तुम अपना भाग्य समझना और पूरी ​कोशिश​ करो की एक दिन यह तुम्हें भी नसीब हो जाए। और तुम्हारी सारी कोशशें ही इसलिए है की तुम भी एक दिन गोवा में या किसी यूरोपियन शहर की किसी *बींच* पे, तुम भी वैसे ही नाच सको। तुमने उस बात को सोख लिया है अपने भीतर, और तुम ही नहीं,​ जो सबसे ऊँची से ऊँची यूनिवर्सिटीस में पढ़ रहे हैं न वो पढ़ इसी खातिर रहे हैं, किस खातिर? कि एक दिन उस मँहगी बीच पर नंगा हो कर नाचूँगा।

चील बहुत ऊँची उड़ रही है पर उसकी नजर ठीक वही पर है जहाँ नीचे उड़ते कौवे की है।

नीचे से देखोगे तो ऐसा लगेगा की चील, ऊँची है और कौवा नीचा है। ना, दोनों एक बराबर हैं। दोनों की नज़र एक ही जगह है — मरे हुए चूहे पर, सड़े हुए चूहे पर। फर्क नहीं पड़ता की तुम यहाँ पढ़ रहे हो या किसी आई.आई.टी या दुनिया की सबसे बड़ी यूनिवर्सिटी में पढ़ रहे हो, चीज़ सब को एक ही चाहिए ‘भोग।’ भोगने को मिल जाए। तुम थोड़ा कम भोग पाओगे​​ शायद। वो थोड़ा ज़्यादा भोग लेंगे पर है सब एक बराबर।

सब एक ही रेस दौड़ रहे हैं। सबको एक ही चीज़ चाहिए।

अब जो तम्हें चाहिए, मन उधर को ही जाता है। अब तुम्हें ताज्जुब क्यों होता है ​कि मन बिखरा-बिखरा क्यों रहता है, मन भागा-भागा क्यों रहता है। तुम ही ​ने तो शिक्षा दी है मन को, इन्हीं ​लोगों को तुमने आदर्श बनाया है। तुमसे पूछा जाए ​कि ​तुम्हारा आदर्श कौन है, तो इसी तरह के तो लोग हैं या जिनके पास बहुत इज्जत है या खूब पैसा है और वो दुनिया को खूब भोग रहे हैं। यही लोग तो तुम्हारे आदर्श हैं और कौन हैं तुम्हारे आदर्श?

इन्हीं के पीछे तो भाग रहे हो और इन्हीं के जैसे तो हो जाना चाहते हो। फिर जब तुम खबरे पढ़ते हो की फलाना उद्योगपति स्विज़टेरलैंड में छुट्टियाँ मना रहा है तो तुम कितनी हसरतों के साथ, बिलकुल लार टपक जाती है, काश हम होते इसकी जगह और फलाना है वो अपनी एयरलाइन्स पर चार नंगी लड़कियाँ लेके अपने साथ घूम रहा है, और तुम्हारा दिल मचल जाता है की यह लड़कियाँ पागल है​ जो ​उस बुड्ढे ​के साथ, अरे! हम है न। यह तुम्हारे आदर्श हैं। गलत बोल रहा हूँ?

श्रोता: (सभी एक साथ) सही बात है।

आचार्य जी: इन्हीं जैसा तो तुम बन जाना चाहते हो।

जितने लोगों को तुम सत्ता में चुनते हो, जितने लोगों को तुमने ऊँची सी ऊँची गद्दीयों पर बैठा रखा है तुम अच्छे से जानते हो वो महापतित हैं। उसके बाद भी तुम उनके पीछे जाते हो और तुम अच्छे से जानते हो की उनमें कुछ हत्यारे भी, कुछ बलात्कारी भी हैं और भ्रष्ट तो सभी है, तब भी तुम उन्हें अपना नेता मानते। कारण स्पष्ट है कि ​तुम्हें वही चाहिए जैसा वो हैं। अगर वो सामर्थ दिखा पाते है किसी की हत्या करके तो कहीं न कहीं तुम्हारे मन में भी वही इच्छा है ​कि मुझमें भी इतनी सामर्थ हो कि जो मुझसे भिड़े उसकी हत्या ही कर दूँ और सरे आम करवा दूँ। तुम्हें इस बात में बड़ी दबंगई जान पड़ती है।

तुममें से कई लोग उनके पीछे चलना चाहोगे और अगर तुम्हें यह बता दिया जाए ​कि शहर में कितना दबंग आदमी है जिसको चाहे पिटवा सकता है, जिसको चाहे मरवा सकता है तो तुममें से बहुत कम होंगे जिनके मन में घृणा जागेगी। तुम में से कितनो​ के मन में उसके प्रति आदर आ जाएगा, अरे वाह! बड़ा बाहुबली है। काश! हममें भी इतनी ताकत। काश हममें भी होती।

ऐसे ही लोग तुम्हारे आदर्श बने है ना, तुम्हीं ने बनाया है ना, और किसने बनाया है? तो फिर मन तो उधर को भागेगा ही। फिल्में आती है, एक से एक सड़ी हुई फिल्में और तुम जाके कभी सौ रुपए, कभी दो सौ रुपए, कभी तीन सौ रुपए का टिकट लेकर देख आते हो। और दूसरी भी फिल्में आती हैं जो तुम्हे पसंद नहीं आएँगी, जहाँ पर तुम फिल्म देखने जाते हो उसी के आस पास दूसरी फिल्म लगी होगी पर तुम उसको देखोगे। तुम वही फिल्म देखोगे जिसमें की गुंडा तीन-चार जीप को उठा कर फेक रहा होता है क्योंकि तुम्हारी गहरी इच्छा यही है ​कि तुम भी यही करो। इसी कारण तुम्हारा हीरो है, अन्यथा वो तुम्हारा हीरो कैसे हो सकता था। तो गहरी इच्छा है, मैं भी तीन-चार जीपे उठा-उठा कर फेंक रहा हूँ। तो तुम्हारा पढ़ाई में मन कैसे लगेगा?

तुम तो कहोगे जीप खड़ी है, तुम धीरे से सरक कर जाओगे और कोशिश (हाथ ऊपर की तरफ इशारा करते हुए) करने। इच्छा तो वही है तुम्हारे करने की।

अभी मैं यहाँ पर आया इधर सारी(हाथ से बायीं तरफ इशारा करते हुए) बैठे हुए पुरुष पक्ष है और इधर (हाथ से दायी तरफ इशारा करते हुए)लड़कियाँ बैठी थी फिर बीच में एक कतार छोड़ दी गयी थी और फिर कुछ लड़के बैठे थे। अब ऐसा तो अस्तित्व मे कहीं देखने में नहीं आता। ​जहाँ कही भी स्वस्थ समाज है वहाँ इस तरह का काम कभी देखने को नहीं मिलेगा। क्योंकि वहाँ पर पुरुष, स्त्री में और लड़को और लड़कियों में सवस्थ सम्बन्ध होते हैं सहज, सरल कोई उसमें दबाना छुपाना नहीं है​। नहीं है, कोई मन में कालीमा घुली हुई नहीं है।

जब तुम उन लोगों की फिल्म देखने जाते हो जो दो हाथों से दो जीप उठाते हैं तो तुम साथ में यह भी देखते हो की लड़कियों के साथ बिलकुल खुले आम दना-दन नाच रहे हैं और हजार तरह की बतमीज़ियाँ ​कर रहे हैं और उनकी इस बत्तामीज़ी को लड़की बड़े प्यार से ले रही है। अब यही तुम्हारे आदर्श हैं तो तुम्हारी भी गहरे में वासना यही सब करने की है। इसी कारण तुम लड़कियों से सहज नहीं हो पाते। तुम उसे कभी एक व्यक्ति की तरह देख ही नहीं सकते, तुम उसे कभी एक दोस्त तरह देख ही नहीं सकते। तुम्हें​ उसमें​ बस एक नाचता हुआ शरीर दिखई पड़ता है।

क्यों भाई अगर तुम एक हीरो हो तो वो एक हीरोइन क्यों नहीं है? उसे हीरोइन होना ही पड़ेगा। अरे! भई! गोवा बीच ​पर तुम अकेले थोड़ी नाचोगे, किसी फिल्म में आज तक कोई अकेला नाचता हुआ नज़र आया? आस ​-​ पास होनी चाहिए ना पाँच-दस बिकनीधारी।

तो अब इसी कारण तुम लड़कियों से सहज हो ही नहीं पाते, दूर-दूर रहते हो। उस बिचारी लड़की को पता भी है कि ​उसमें​ तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है उसमें। उसके बाद तुम कहते हो, और आते है मेरे पास कॉलेज्स में,यूनिवर्सिटी में जाता हूँ तो आएँगे, मैं लड़कियों से बात क्यों नहीं कर पाता? अरे! क्योंकि तुम्हें​ वो लड़की दिखती ही नहीं है। तुमको आइटम गर्ल दिखई देती हैं।नहीं, यही स्थिति लड़कियों की भी है। ऐसा नहीं है की इधर मामला साफ़ है मामला बिलकुल।

गुंडे तुम्हारे आदर्श हैं, बलात्कारी तुम्हारे आदर्श हैं, हत्यारे तुम्हारे नेता हैं। लूटपाट करने वाले किसी भी तरीके से, जान ले कर के दौलत इकट्ठे करने वाले, इन सब को तुम पूज रहे हो और इन्हीं की तरफ तुम्हारा मन भाग रहा है। बेटा, गलती तुम्हारी नहीं है बचपन से तुम्हें बताया यही गया है। अरे! टाटा ,बिरला ,अम्बानी जैसे हो जाओ, बिना यह जाने की यह लोग हैं कौन? सच्चाई क्या है इनकी? कहानी क्या है इनकी?

आज भी स्कूलों , कॉलेजों में शिक्षा व्यवस्था है वो तुम्हारे सामने बड़े आदर्श रख देती है और तुम थोड़े भोले हो और तुम उन आदर्शों को पकड़ कर बैठ जाते हो ​कि​ यही तो लोग हैं ऊँचे, इन्हीं के पीछे चलना चाहिए। और ऐसा नहीं है कि ज़िन्दा आदर्श हों, पुराने भी। इसको बना लो आदर्श उसको बना लो आदर्श। अरे! यह इतिहास पुरुष है इन्होंने यह कर दिया था। थोड़ा करीब जाकर के ध्यान से देखो की क्या कर दिया था। गठरी में साँप मत बाँधो।

तुमसे अभी कहूँ अगर कि दस महापुरषों के नाम लिखो तो सारी पोल खुल जानी है। देखना कैसे-कैसे लोगों के नाम लिखते हो। दस में तो शायद बच जाओ चलो की दो-चार बड़े व्याख्यात नाम हैं उनको लिख दिया। अभी कहूँ पचास के लिखो फिर देखना, फंस जाओगे। और ऐसा नहीं की तुमने पचास पाल नहीं रखे हैं तुमने पचास नहीं, पाँचसौ पाल रखे हैं।

दुनिया की जितनी गंदगी है उसको तुमने आदर्श स्थापित कर रखा है। कोई गुंडा होगा तुम्हारे कस्बे का, वो तुम्हारा आदर्श होगा, और तुम्हें बड़ा फक्र होता होगा यह बोलते हुए। अरे! तुम जानते नहीं की हम किसको जानते हैं? हम पुनेठा भईया को जानते हैं, होता हैं ​कि ​नहीं होता और तुम्हें बोलते हुए यह शर्म नहीं आएगी कि ​उस आदमी पर पचास मुकदमें दर्ज हैं तब भी मैं उसको जनता हूँ। यह शर्म की बात थोड़ी ना होती है यह तो फक्र की बात होती है कि हम पुनेठा भईया को जानते हैं।

कोई भ्रष्ट आदमी होगा, वो तुम्हारे शहर में होगा। तुम बड़े विस्मय के साथ बताओगे, अरे! उसके पास करोड़ो की दौलत है। तुम त्रस्कार के साथ नहीं कहोगे ये बात। तुम नहीं पूछोगे की एक सरकारी ऑफिसर की जिसकी बहुत हो गया तो चालीस हजार या साठ हजार रुपये तन्खा होती है वो करोड़ो कहाँ से पा रहा है? तुम तो इस बात को भी बड़ी श्रेष्ठा समझते हो ​कि कोई खूब घूस उगा लेता है। समझते हो कि​ नहीं? अरे! हमारे ताऊ जी उस पोजीशन पर हैं, बहुत पैसा है। और जिससे बोल रहे हो वो भी नहीं पूछेगा​ कि ​कैसे है पैसा, कैसे है? ये सीधे-सीधे तो सवाल करना तो हम भूल ही गए, हैं। नहीं, ठीक-ठीक बताओ कि कैसे है पैसा?

माँ बाप भी होंगे की बेटा कम्पीटशन की तैयारी कर ले, लाखो बरसेंगे और बेटा पूछ भी नहीं रहा ​कि ​माँ लाखो कैसे बरसेंगे, तुम मुझे किस दिशा भेज रही हो, माँ ही हो या दुश्मन हो?

जो असली कलाकार है वो भूखों मर रहे हैं। एक फिल्म आई थी, शिप ऑफ़ थिसियस , उसको तुम देखने तो पहुँचे नहीं होगे तुमने उसका नाम भी नहीं सुना होगा। ज़्यादातर हैरत से देख रहे है की इंग्लिश फिल्म है क्या? नहीं इंग्लिश फिल्म नहीं है। दो भाषाओं में थी। समझ जाते अगर देखते तो और उसका जोकॉन्टेक्स्ट था वो भारतीय ही था पर तुमने नहीं देखी होगी। पर दबंग एक, दो, तीन, चार, पाँच, छ: सब देख ली है। क्योंकि छ: तक देख लिए हो तो इतना पैसा दे दिया उसके प्रोडूसर को की अब सात भी आएगी और तुम तैयार बैठे हो की सात आएगी नहीं की हम पहुँच जाएँगे देखने।

बड़ा मजा है ​गाली-गलोच में, गैंग ऑफ़ वासेपुर, बिलकुल माँ-बहन चल रही है। आ… हा… हा… मजा आ गया दिल भर आया, क्या चुन-चुन कर गाली दी है। वासेपुर मे कबूतर एक पंख से उड़ता है और दूसरे पंख से अपनी बचा कर रखता है। देखो खिल गया चेहरा, अभी तक सोये हुए थे। आचार्य जी, दो-चार और सुनाइये उसी सेडायलॉग। तुम्हे वही चाहिए, वही तो चाहिए।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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