गहरी निराशा में भी एक ये बात याद रहे || आचार्य प्रशांत (2023)

Acharya Prashant

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गहरी निराशा में भी एक ये बात याद रहे || आचार्य प्रशांत (2023)

प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी, मैं अभी बहुत दबाव में हूँ। पिता जी को दिल का दौरा पड़ा था, उनको लेकर अस्पताल पहुँचा और आगे का इलाज करवाया। पर अस्पताल पहुँचकर मैं बहुत हिल गया। एक साल से मैं आपको सुन रहा हूँ। हम आपसे सीखते हैं कि हम असंग हैं, सच्चिदानन्द हैं, वो सब भूल जाते हैं। आपने कहा है कि मौत को याद रखिए, मौज को साथ रखिए, तो जब मौत दिखती है तो मौज को साथ में कैसे रखें? जब ऐसी परिस्थिति आती है तो कुछ समझ में नहीं आता।

आचार्य प्रशांत: अभी आपके पिताजी को आपकी ज़रूरत है, है न? और आपके लिए भी आवश्यक है कि आप उनके लिए जो अच्छे-से-अच्छा हो सकता है वो करें। आप उनके लिए अच्छे-से-अच्छा तभी कर पाऍंगे जब भीतर से आप एकदम स्थिर और स्थायी रहेंगे। भीतर अगर दृढ़ता, स्थिरता नहीं है तो जो फिर बाहरी स्थितियॉं होती हैं उनमें व्यक्ति ग़लत निर्णय लेने लगता है। और भीतर की ही स्थिरता को आत्मा कहते हैं।

तो ये तो छोड़िए कि अध्यात्म से आपने जो सीखा वो ऐसी स्थिति में आप भूलने लगते हैं, ऐसी ही स्थिति में अध्यात्म से आपने जो सीखा, उसको पकड़कर रखना और ज़रूरी हो जाता है, क्योंकि अब जो मुद्दा है, जीवन-मृत्यु का है, संवेदनशील है। है न? कई तरीक़े के आपको निर्णय करने पड़ेंगे। हो सकता है इलाज लम्बा चले, उसमें आपको धैर्य दर्शाना पड़ेगा। और ये सब बातें माॅंगती हैं कि मन आत्मस्थ रहे। नहीं तो टूटने के, बिखरने के, ग़लत फ़ैसले लेने के बहुत मौके रहते हैं, सम्भावना रहती है।

अध्यात्म और किसलिए होता है? इसीलिए तो कि बाहर जब बहुत तरीक़े के तूफ़ान चलें, तो भी आपका केन्द्र डगमग न होने लगे। आत्मा ऐसी होती है जैसे भीतर — बहुत तरीक़े से उसको बोलते हैं पर एक तरीक़ा ये भी है — जैसे भीतर एक खूॅंटा गड़ा हो गहरा और उस खूॅंटे से बॅंधा हुआ है आपका जीवन। अब बाहर हवाएँ चल रही हैं, आँधिया हों, कुछ हों, वो आपको उड़ाकर नहीं ले जा सकतीं, क्योंकि आप उस खूॅंटे से बॅंधे हुए हो। और ऐसे ही समय में तो उस खूॅंटे की सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है न। नहीं तो ये सब ऑंधियाँ, चक्रवात आपको न जाने कहाँ को उठा ले जाऍंगे, कहाँ को पटक देंगे।

तो बहुत-बहुत आपने अच्छा करा है कि आपने इस स्थिति में आज सत्र को सुना, बात भी कर रहे हैं। ये स्थिति को उत्तर देने के सबसे अच्छे तरीक़ों में से एक है। देखो, क्या होता है, जिस चीज़ को जितना महत्त्व दोगे — गणित आप थोड़ा समझिएगा — आप जिस चीज़ को जितना महत्त्व दे रहे हो, उसके सामने तुलनात्मक रूप से अपनेआप को कितना महत्व दे रहे हो? मैं अगर कह रहा हूँ कि अभी एक स्थिति है, बहुत-बहुत बड़ी है, अगर स्थिति बहुत-बहुत बड़ी हो गयी, तो स्थिति की तुलना में मैं कैसा हो गया? छोटा हो गया। और अगर मैं छोटा हो गया, तो मैं उस स्थिति से निपटूॅंगा कैसे?

तो स्थिति को बड़ा बनाकर मैंने स्वयं ही घोषित कर दिया, तय कर दिया कि अब मैं उस स्थिति का सामना कर ही नहीं पाऊॅंगा। क्योंकि स्थिति अगर बड़ी है तो उसका सामना करने के लिए मुझे उस स्थिति से और बड़ा होना चाहिए न। अगर चुनौती बड़ी है तो मुझे कैसा होना चाहिए? और ज़्यादा बड़ा होना चाहिए चुनौती से। लेकिन हम जब किसी स्थिति को अपने लिए बहुत बड़ा बनाते हैं, तो उस स्थिति के सामने हम और छोटे हो जाते हैं। और अगर आप छोटे हो गये, काँपने लग गये, तो बताओ अब उस स्थिति का मुकाबला कौन करेगा?

तो इसीलिए कभी कोई भी स्थिति हो उसको बड़ा मत बनाइए। बड़ा बनाने में एक मान्यता ये भी रहती है कि उसको बड़ा मानूँगा तभी तो गम्भीरता से प्रयास करूँगा न। ये हमें बचपन से सिखाया भी जाता है — ‘गम्भीर हो जाओ, गम्भीर हो जाओ। देखो बड़ी बात है, इसको मज़ाक में नहीं लेते, गम्भीर हो जाओ।’ पर फिर मैं कह रहा हूँ कि अगर ख़तरा, चुनौती ये बड़े हैं तो इनके आगे आप क्या हैं, ये बड़ा प्रश्न हुआ, है न?

एक तो होता है कहना कि बाहर कुछ भी रहे कितना भी बड़ा रहे, मैं उससे बड़ा हूँ। लेकिन हमारे साथ ऐसा नहीं होता। हम जब बाहर की चीज़ को बड़ा कहते हैं, तो हमारा तुलनात्मक मन हमें उस चीज़ के आगे छोटा बना देता है। और प्रश्न फिर ये आता है कि आप छोटे हो गये तो उस बड़ी चीज़ का मुकाबला कौन करेगा? आप तो छोटे हो गये, कौन करेगा मुकाबला? और आप जितने छोटे होते जाते हो वो चीज़ उतनी और बड़ी होती जाती है। वो जितनी बड़ी हो जाती है आप उतने और …।

तो कुल मिलाकर निष्कर्ष तय कि अब आप हारोगे। कुछ जान नहीं पाओगे क्या करना है, क्या नहीं करना है, हर तरीक़े से टूटोगे। वो नहीं होने देना है।

अहम् का आत्मा ही सहारा है। पैदा हुए हो तो जगत में विचरण तो करोगे ही, पर आत्मा के खूॅंटे से बॅंधकर करो। कटी हुई पतंग मत बन जाओ। पतंग बहुत ऊँचे उड़े भली बात है, लेकिन नीचे डोर किसी जानकार विशेषज्ञ के हाथ में होनी चाहिए न। आत्मा के हाथ में डोर रहे, उसके बाद जीवन जितना ऊँचा उड़ना हो उड़े। आत्मा की उड़ान सम्भव इसी बात से हो पाती है कि नीचे ज़मीन से डोर बॅंधी हुई है। जो जितना बॅंधा रहेगा उतना ऊँचा उड़ेगा। अपनेआप को बाॅंधकर रखो। जो चीज़ केन्द्रीय है उसको बिलकुल पकड़कर चलो।

प्र: प्रणाम आचार्य जी, जब से ग्रन्थों को पढ़ना शुरू किया है ख़ुद को जानना शुरू किया है, तो देखा है कि अपने विचारों, भावनाओं और अनुभवों को थोड़ा दूर से देखने लगा हूँ। पर जब शरीर में तीव्र दर्द होता है तो ये बात असम्भव हो जाती है। पूरा ध्यान शरीर पर आ जाता है। पथरी के दर्द में मैंने दर्द को साक्षी भाव से देखा था, तो थोड़ी राहत मिली थी। पर जब निम्न रक्तचाप हुआ और साॅंस आना बन्द हो गयी, तो साक्षी भाव से देखा नहीं जा रहा था। ऐसे में शरीर के बन्धनों से मुक्ति असम्भव लगती है आचार्य जी, कृपया मार्गदर्शन करें।

आचार्य: नहीं, वो क्षण सिर्फ़ उसकी बात नहीं हो सकती है। हम उस क्षण की बात करते हैं जब पथरी का दर्द ही उठ गया या साॅंस ही आनी बन्द हो गयी, उस क्षण में आपको क्या बताया जाए कि उस क्षण में क्या करना है? वहाँ आपका जो चुनौती को, उस स्थिति को उत्तर होगा, वो वही होगा जिसका आपने उस क्षण से पहले के करोड़ों क्षणों में अभ्यास करा है।

यहाँ इतने लोग बैठे हैं, सब बीमार पड़ेंगे। बीमारी को सब क्या जवाब देने वाले हैं? वैसे ही जवाब देने वाले हैं जैसा जीवन रहा है। जैसा आपका जीवन होता है, वैसी ही आपकी जीर्णता होती है, वैसी ही आपकी जरा होती है और वैसे ही फिर आपकी मृत्यु भी होती है।

साल में एक दिन मान लीजिए मैं बीमार पड़ता हूँ। अपनी बीमारी को मैं क्या जवाब दूॅंगा वो इस पर ही तो निर्भर करता है न, तीन-सौ-चौंसठ दिन जो स्थितियाँ रही हैं जीवन की, उनको मैं प्रतिदिन क्या जवाब देता रहा हूँ। उसी हिसाब से मैं अपनी बीमारी को जवाब दूॅंगा। रोज़-रोज़ अगर मैं कमज़ोरी का अभ्यास करता रहा हूँ, तो बीमारी के सामने मज़बूत कैसे खड़ा हो जाऊॅंगा, कैसे? लेकिन मैं कितना कमज़ोर हो गया हूँ, कमज़ोरी का अभ्यास कर-करके ये मुझे पता बस बीमारी के क्षण में ही चलता है।

पेड़ को दीमक ने खा भी लिया हो तो खड़ा तो रहता ही है। और हो सकता है कि बाहर से बड़ा मज़बूत दिख रहा हो — चौड़ा उसका तना है, मस्त खड़ा हुआ है। यही लगेगा आपको क्या मज़बूत पेड़ है, क्या मज़बूत पेड़ है। पर दीमक उसको रोज़-रोज़, रोज़-रोज़ तीन-सौ-चौंसठ दिन खाती रही है। और तीन-सौ-पैंसठवें दिन आघात हुआ। कोई चीज़ आकर उस पेड़ से टकराती है ज़ोर से। सामान्यता वो किसी पेड़ के लिए बड़ी बात नहीं होती, लेकिन वो पेड़ ढह जाता है।

तो हमारी जिज्ञासा ये जो तीन-सौ-पैसठवें दिन की घटना है इसको लेकर होनी चाहिए क्या? ये तो कोई बड़ी बात थी ही नहीं। कोई साइकिल वाला था वो आकर पेड़ से टकरा गया। बहुत साइकिल वाले जाकर पेड़ से टकराते रहते हैं, पेड़ो का क्या बिगड़ जाता है? अच्छे, जो बढ़िया दमदार वृक्ष होते हैं, उनसे जाकर कोई साइकिल चलाते-चलाते जाकर भिड़ गया, पेड़ का पत्ता नहीं गिरता, पेड़ को क्या अन्तर पड़ता है। पर इससे एक साइकिल वाला बच्चा आकर भिड़ा और पेड़ ही गिर गया पूरा। तो जो तीन-सौ-चौंसठ दिन चल रहा था, उस पर ध्यान दीजिए न!

दीमक रोज़ आपको खा रही थी धीरे-धीरे, यही चीज़ तो अभ्यास कहलाती है। जो रोज़-रोज़ होता है और धीरे-धीरे होता है उसको ही तो अभ्यास कहते है। रोज़ आपको खा रही थी दीमक। तो इसीलिए यहाँ लोगों ने पोस्टर बना रखा है न कि वीरता अभ्यास माॅंगती है, छोटी-छोटी बातों में पीठ मत दिखा दिया करो।

ये जो छोटी-छोटी बातों में प्रतिदिन हम झूठ बोल देते हैं, कमज़ोरी दिखा देते हैं, बेईमानी कर देते हैं, ये हमको कुल मिलाकर बड़ा भारी पड़ता है। और फिर जिस दिन परीक्षा का मौक़ा आता है उस दिन हम पाते हैं कि हमारे पास कुछ नहीं है। ज़िन्दगी परीक्षा ले रही है और हम अनुत्तीर्ण खड़े हैं। फिर हम कहते हैं, ‘हाय-हाय! आज हमारे साथ कुछ बुरा हो गया। अरे! आज क्या हो गया, क्या हो गया?

बड़े दर्द का हम क्या सामना करेंगे अगर हम छोटे दर्द को ही पीठ दिखाते हैं, मुझे बताइए तो? बड़े दर्द का आप कैसे सामना करोगे अगर आप छोटे दर्द को ही पीठ दिखा देते हो। शरीर तो जड़ पदार्थ होता है और जड़ पदार्थ तो अभ्यास पर चलता है। “रसरी आवत जात ते सिल पर पड़त निशान।” वहाँ तो अभ्यास से काम होता है, जितनी बार करोगे उतना वो होता रहेगा।

जो लोग खेलने जाते हैं, वो क्या कर रहा है? वो बैक हैंड मारे ही जा रहा है, मारे ही जा रहा है। कोच (प्रशिक्षक) बोल रहा है आज ढाई सौ बैक हैंड मारने हैं। काहे को मारने? मसल मेमोरी (माँसपेशियों की याददाश्त), ये सिल पर पड़त निशान वाली ही तो बात है। इतनी बार करो कि ये जो जड़ पदार्थ है इस पर निशान पड़ जाए, मसल मेमोरी। तो उस पर तो निशान पड़ना चाहिए न। रोज़-रोज़ उसको आप जो अभ्यास दोगे वो वैसे ही हो जाता है।

कल गीता सत्र हो रहा था, तो उसमें मैंने बोल दिया कि मैं सोया नहीं हूँ पूरे दिन, चौबीस-तीस घंटे, पता नहीं कितने हो रहे हैं। उसके बाद आज सुबह आठ बजे तक वो सत्र चलता रहा। उसके बाद यहाँ बिजली की समस्या हो गयी, तो गर्मी बहुत थी काहे को नींद आये। उसके बाद दोपहर में मुझसे मिलने लोग आ गये, उसके बाद कुछ और काम आ गया। तो मैं दो-ढाई घंटे कल के बाद से अभी सो कर यहाँ बैठा हूँ और मेरी आँखें इस वक्त भी चढ़ी हुई हैं।

मैं जब आपके सामने आकर बैठा था, उस वक्त पर शरीर ये बोल रहा था कि शब्द नहीं दूॅंगा। तू आ जा बैठ जा यहाँ पर, मैं शब्द ही नहीं दूॅंगा। क्योंकि ये जो ब्रेन है ये भी शरीर का ही हिस्सा है न, ये सहयोग करने से इनकार कर रहा था। ‘कोई बात नहीं, लाओ गर्मा-गर्म चाय, जगेगा कैसे नहीं तू!’ मैं अभी भी पूरी तरह जगा हुआ नहीं हूँ, मैं थोड़ा-बहुत बेहोश अभी भी हूँ — ये अभ्यास करना पड़ता है। और ये कोई मेरी व्यक्तिगत बहादुरी की बात नहीं है। कोई इतनी बड़ी चीज़ नहीं है, आपको भी करनी होगी। क्योंकि ये तो बहुत ही गन्दी चीज़ है। (अपने शरीर की और इशारा करते हुए)

अभी जवान हो आप, जैसे-जैसे उम्र बढ़ेगी, देखना क्या करता है ये आपके साथ। कहीं का नहीं छोड़ता। आदमी की पूरी गरिमा नष्ट कर देता है, हमें ये भिखारी बना देता है, ये हमको बिलकुल कीचड़ में लुटवा देता है — देह ऐसी चीज़ होती है।

बीमार आदमी की दुर्दशा देखिए, जाइए कभी। आप पैलिएटिव केयर सेंटर्स चले जाइएगा, साधारण अस्पताल नहीं, जहाँ पर जो मरणासन्न रोगी होते हैं बिलकुल, उनको अन्त समय में थोड़ी राहत दी जा रही होती है। वहाँ जाकर देखिए कि शरीर कैसे हमें घुटने टेकने पर मजबूर कर देता है। अच्छा तगड़ा आदमी रहा होगा। तगड़ा आदमी, ये उसका मुॅंह, क्या उसकी झब्बा दाढ़ी, ऐसे बढ़िया गाल, सब फूला हुआ। इतना सा मुॅंह हो जाता है। इतना सा मुॅंह हो जाता है, यहाँ से ऐसे-ऐसे लार बह रही होती है, आँखें ऐसे गड्ढे में धॅंस गयी हैं — शरीर ये चीज़ है।

आपकी सारी गरिमा तोड़ देता है शरीर। कौनसा आत्म-सम्मान अगर शरीर का ही सामना नहीं कर सकते तो, क्योंकि आख़िरी चुनौती तो यही बनता है यही।

कहीं पर मैंने पढ़ा था कि एक राजा था और वो ज़बरदस्त राजा था। अब वो मैं आपको पूरी तरह बता नहीं पाऊँगा। मैंने बचपन में इसको पढ़ा था और पढ़कर के धक सा रह गया था। वो एक छोटी सी बात थी लेकिन एकदम छप गयी थी।

तो वो राजा था और वो एकदम बीमार पड़ा हुआ है, एकदम बीमार पड़ा हुआ है। वो ज़िन्दगी भर बड़ा योद्धा रहा था। कहते थे उसकी तलवार से पूरी दुनिया थर्राती थी। दिग्विजयी राजा। तो वो बीमार पड़ा है, तो वैद ने कहा, ‘अब यही कर सकते हैं कि इन्हें जो चीज़ें पसन्द हैं वो दिखाओ। क्या पता उसी मन से इनका शरीर थोड़ा सम्भले।’

तो पूछा — बड़ी मुश्किल से उसने आँख खोली — पूछा आपको क्या चाहिए? बोलता है, ‘मेरी तलवार, मेरी तलवार लेकर आओ।’ और उसकी तलवार लायी गयी उसके पास। राजा ने उसको उठाने की कोशिश की, उठाने की कोशिश की, तलवार हिली भी नहीं। तलवार हिली भी नहीं। और फिर जब मैंने पढ़ा था तो उसमें एक छोटा सा पैराग्राफ था कि यही वो तलवार थी जो उसकी उँगलियों में नाचा करती थी और जिसके सामने पूरी दुनिया थर्राया करती थी। वो तलवार आज उससे हिल भी नहीं रही थी। और फिर आगे था कि उसकी आँखों से दो बूॅंद आँसू गिरे और वो मर गया।

तो ये होता है शरीर जो आपका सारा राजत्व छीन लेता है। सारी आपकी मालकियत ख़राब कर देता है, अगर शरीर से आपको निपटना नहीं आता तो।

बहुत सारे लोग यहाँ मेरी अपनी ज़िन्दगी में और संस्था में रहे हैं, वो मुझे कठोर कहते हैं। वो कहते हैं कि और कुछ इनको बताओ तो बता दो, लेकिन कभी ये मत बताना कि बीमार हो। क्योंकि बता दोगे कि बीमार हो तो कहेंगे, ‘ठीक है, आज ड्योढ़ा काम कर दे। रोज़ जितना करता है उससे डेढ़ गुना ज़्यादा कर दे। बीमार आदमी को लेकर इनमें कोई ही सहानुभूति नहीं है।’

नहीं है, बिलकुल नहीं है। क्योंकि अभी तुम ये कह तो पा रहे हो न कि बीमार हो, कल कोमा में जाओगे, तब कह भी नहीं पाओगे कि बीमार हो। और कल की तैयारी आज ही हो सकती है। आज की बीमारी बहुत छोटी है। आज इससे निपटने की तैयारी कर लो, कल बहुत बड़ी बीमारी आने वाली है। शरीर अपनेआप में बीमारी है एक। कल बहुत बड़ी बीमारी आएगी, आज उसकी तैयारी करो बाबा! और ऐसा नहीं कि तुम्हें उस बीमारी से डॉक्टर निजात दिला देंगे, नहीं दिला सकते।

बुढ़ापे वाली बीमारी से क्या डॉक्टर कोई मदद करेगा तुम्हारी? अन्ततः निपटना तो ख़ुद को ही पड़ता है। अल्ज़ाइमर्स (भूलने की बीमारी) हो गया, ऐसा नहीं है एक दिन में मार देगा। धीरे-धीरे करके आपकी चेतना मिटती जा रही है। मस्क्युलर डिस्ट्रॉफ़ी हो गयी। धीरे-धीरे करके आप पा रहे हो कि ये पूरा जो हाथ ही ऐसे, ये सब मॉंसपेशियाँ सिकुड़ती ही जा रही हैं। और ये सब होने हैं। कैंसर भी एक दिन में नहीं मार देता। वो भी कई बार महीने, कई बार कई साल लेता है। धीरे-धीरे आप मरते जा रहे हो। उतने साल आपको जीना है न, कैंसर के साथ भी जीना है। हम इतने लोग यहाँ बैठे हैं, हम में से कइयों को कैंसर होगा। हमें कैंसर के साथ भी जीना है। कोई दो साल जिये कैंसर के साथ, कोई हो सकता है छ: साल, आठ साल जिये कैंसर के साथ।

तो अपनी वो गरिमा बरक़रार रखनी आनी चाहिए कि कैंसर भी है तो भी गरिमा है; मर नही गये, झुक नहीँ गये। बड़ा गन्दा हो जाता है। एक आदमी जो इतनी शान से जिया होता है, डायपर (लंगोट) लगा दिया उसको। उससे उसका पेशाब नहीं रुक रहा, उससे उसका मल नहीं रुक रहा। एक आदमी जिसका वैभव, जिसकी गरिमा निराली थी और आप क्या पा रहे हो कि उसके कपड़े गन्दे हैं, उसको कैथेटर (मूत्र निकास नलिका) लगाना पड़ रहा है — ये कर देता है शरीर हमारे साथ।

तो निपटना आना चाहिए कि तू तो करेगा ही जो तुझे करना है, पर हमें तू नहीं मजबूर कर पाएगा घुटने टेकने को, हम तब भी अपने हिसाब से रहेंगे।

समझ में आ रही है बात?

छोटी-छोटी बातों में, आप जवान हो ये मत कर दिया करो, यहाँ दर्द हो गया, वहाँ दर्द हो गया। दर्द के साथ जीना सीखो, बल्कि थोड़ा सा न ऐसे हो जाओ, वो क्या बोलते हैं अंग्रेज़ी में जिनको ख़ुद को दुख देने में एक आनन्द आता है? मैसोचिस्ट।

अपनेआप को दर्द देने में थोड़ा सा मज़ा लेना सीखो! सहज ही तब अनुभव करो जब कहीं-न-कहीं दर्द हो रहा हो। कहो, ‘अब ठीक है आज, कुछ कमी सी लग रही थी ज़िन्दगी में, आज कहीं दर्द नहीं है।’ वो है न गाना, ‘जब दर्द नहीं था सीने में, क्या ख़ाक मज़ा था जीने में!’

तो कहीं-न-कहीं कुछ-न-कुछ गड़बड़ रहनी चाहिए। उसके बिना फिर खेलने में, जीने में क्या मज़ा! आप मैदान पर उतरे हों खेलने के लिए, सबकुछ ठीक ही है तो क्या मज़ा आएगा। कुछ तो ग़लत होना चाहिए, कुछ ग़लत होना ही चाहिए, फिर खेलते हैं।

मैं ये नही कह रहा, जान-बूझकर ग़लत कर लो। जितना तन को स्वस्थ रख सकते हो, आप ज़रूर रखिए। लेकिन उसके बाद भी ये मानकर चलिए कि ये बड़ी बेईमान चीज़ है। आपको नहीं पता चलेगा ये भीतर अपने क्या तैयार कर देगा। ज़्यादातर लोगों का कैंसर काहे नहीं ठीक होता? वो पता ही तब चलता है जब बिलकुल आख़िरी स्टेज पहुँच चुका होता है तब तो पता चलता है। और कितनी ही बीमारियॉं हैं जो छुप-छुपकर भीतर बैठी रहती हैं।

हम इतने लोग यहाँ बैठे हुए हैं, अभी सबका हो जाए टेस्ट, किसी को कुछ निकलेगा छोटा-मोटा, किसी को कुछ। कुछ-न-कुछ पनप रही होगी छोटी-मोटी बीमारी, वही आगे चलकर विकराल रूप ले लेती है। तो उसके साथ करना, देखना, खेलना, ये सब आना चाहिए।

आ रही है बात समझ में?

नहीं मन कर रहा है उठने का, उठो! नहीं मन कर रहा है चलने का, चलो!

प्र: एक और प्रश्न ये था कि मैंने ऐसा पढ़ा था और सत्संग में भी सुना था कि अखंड ध्यान से ही भगवत् प्राप्ति होती है, खंड-खंड से कुछ होता नहीं है। तो मेरा प्रश्न ये था कि ऐसे मौक़ों पर तो हम बिलकुल ध्यान में हो ही नहीं पाते।

आचार्य: क्या बोला आपने, अखंड न? अखंड माने अभ्यास। जब तीन-सौ-पैंसठवें दिन राम नाम लोगे तो वो कहलाता है खंडित ध्यान। और अखंड माने तीन-सौ-चौंसठ दिन लगातार। उसी को मैंने अभ्यास बोला। जिसको आप अखंड बोल रहे हो, उसी को अभ्यास बोल रहा हूँ। है न ये कि कहें कबीर ता दास की, कौन सुने फ़रियाद।

सुख में भूला बैठा रहा, दुख में करता याद। कहें कबीर ता दास की, कौन करे फ़रियाद॥

~ कबीर साहब

यही है अखंड ध्यान। कि ध्यान अखंड रखो न तब तुम्हारी बात हो। जिस दिन दुख आ जाएगा उस दिन तो सब पहुँच जाते है मुॅंह उठाकर — ‘अरे राम! ये क्या हो गया!’

‘अच्छा आ गये, तीन-सौ-चौंसठ दिन कहाँ थे? और जो तुम्हारा तीन-सौ-चौंसठ दिन मालिक था उसी से जाकर फ़रियाद करो, हमारे पास अब काहे के लिए आये हो?’

दर्द में भी कर्तव्य निभाते चलना यही है राम नाम का सुमिरन। इससे बड़ा सुमिरन दूसरा नहीं होता। मुझे मेरा धर्म पता है, मैं धर्म को दर्द में भी निभाऊँगा। यही रामनामी है, यही है माला फेरना, यही जप है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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