
प्रश्नकर्ता: गुड इवनिंग सर। आई एम अ टीचर। कई बार क्या होता है कि आपको पता होता है कि आप लाइफ़ में बिल्कुल सेट होते हो कि मुझे ये काम करना है, नॉट जस्ट बिकॉज़ ऑफ़ सोसाइटी। आप किसी से भी अफेक्टेड नहीं होते, फैमिली से भी नहीं होते और सोसाइटी से तो आपका कोई लेना-देना ही नहीं होता। लेकिन स्टिल आप इतनी बार फेलियर को फेस करते हैं, कि हैं तो हम ह्यूमन बीइंग ही।
बाहर की सोसाइटी, फैमिली हमें भले ही अफेक्ट न करे, लेकिन हमें अपने अंदर पता होता है कि हमारी लाइफ़ में क्या चल रहा है। तो हम कई बार बहुत ड्रेन आउट फील करते हैं। जब हमें बार-बार फेलोअर मिलता है उस चीज़ में, तो हम ड्रेन आउट फील करते हैं। और नेक्स्ट डे जब आप एक बार के लिए फ्रस्ट्रेटेड हो के सोच भी लें तो यार, क्या कर रहे हैं? छोड़ो न। नेक्स्ट डे फिर वही चीज़ आपके माइंड में होती है क्योंकि आप दूसरी चीज़ पर शिफ्ट हो ही नहीं पाते। वो आपके फैक्टर से आ रही है, वो चीज़।
तो ऐसी कंडीशन में एक इंसान क्या करे, जब वो ख़ुद ही ख़ुद को इंटेरोगेट करने लग जाए कि एम आई दैट कैपेबल? तो ऐसी कंडीशन में वो इंसान क्या करें?
आचार्य प्रशांत: नहीं, आपने जो काम चुना है अगर आप जानते हैं कि ज़रूरी है।
प्रश्नकर्ता: बिल्कुल ज़रूरी है।
आचार्य प्रशांत: तो अगले दिन दोबारा करोगे, अलग तरीके से करोगे।
प्रश्नकर्ता: बिल्कुल करेंगे।
आचार्य प्रशांत: तो बस।
प्रश्नकर्ता: लेकिन वो फ्रस्ट्रेशन रहती है।
आचार्य प्रशांत: फ्रस्ट्रेशन से ज़्यादा बड़ी चीज़ ज़रूरत है न। कुछ ज़रूरी है, तो है।
प्रश्नकर्ता: लेकिन फिर भी कई दिन ख़राब हो जाते हैं उसमें।
आचार्य प्रशांत: तो दिन ख़राब हैं, उसके साथ भी काम करो, क्या करोगे?
प्रश्नकर्ता: बिल्कुल ड्रेन आउट फील करते हो।
आचार्य प्रशांत: ड्रेन आउट कुछ तब होगा न, जब ड्रेन आउट होने के लिए कुछ आप बचा कर रखोगे।
प्रश्नकर्ता: एनर्जी लेवल बिल्कुल लो चला जाता है कई बार।
आचार्य प्रशांत: ये ज़िंदगी का प्याला है (एक कप को हाथ में उठाते हुए)। इसको ड्रेन आउट करके दिखाओ। इसमें कुछ भी ड्रेन आउट क्यों नहीं हो सकता? अरे, अभी एक बूंद बची हुई है, (उसको पी लेते हैं) इसे कहते हैं, ड्रिंक इट टू द हिल्ट। करो न। मुझे करके ड्रेन आउट दिखाओ न, कुछ बचा होगा, तो करोगे ना ड्रेन आउट। जब जितना समय है, जितनी ऊर्जा है, जो कुछ भी है तुम्हारे पास, सब कुछ तुमने सही काम में लगा दिया, तो अब ड्रेन आउट होने के लिए बचा?
प्रश्नकर्ता: मैं वो कहना चाह रही हूँ कि आप इंटरनली जितना ग्रो करना चाहते हो, आप उस लेवल पर नहीं पहुँच पा रहे हो, सब कुछ करने के बाद।
आचार्य प्रशांत: इंटरनल ग्रोथ नहीं होती, इंटरनल बस लव होता है। आप जो चीज़ें माँग रहे हो, वो बाहरी होती हैं। आप एक रिज़ल्ट की उम्मीद रखोगे कि मैं कुछ काम करूँगी, उसकी वजह से मुझे कुछ रिज़ल्ट मिलेगा। तब तो फ्रस्ट्रेशन ही मिलेगा।
काम ज़रूरी होते हैं, रिज़ल्ट पर हमारा हक़ नहीं होता। कोई काम ज़रूरी हो सकता है, और ज़रूरी से ज़रूरी काम भी आपकी उम्मीद और आशा अनुसार रिज़ल्ट लेकर आएगा, इसका कोई भरोसा नहीं होता। और काम ज़रूरी है, तो जो कुछ तुम्हारे पास है, सब दे दो न उसको।
इतना थक जाओ कि फ्रस्ट्रेट होने के लिए भी एनर्जी न बचे।
जब फ्रस्ट्रेशन में समय बीत रहा हो, जब माथा पीटने का मन कर रहा हो, तो तुरंत याद आना चाहिए कि यार, इतना भी समय कहाँ है कि मैं उदास हो पाऊँ। इतना भी समय कहाँ है कि मैं अपनी हार का मातम मनाऊँ। और अगर मेरे पास ये समय है, तो ये समय तो मैं चुरा रही हूँ न अपने असली काम से। ये समय मैं अपने काम में लगाऊँगी।
प्रश्नकर्ता: नहीं, वो चीज़ नेचुरली हो जाती है।
आचार्य प्रशांत: नेचुरल नहीं है। वो तब होता है जब आप काम से ज़्यादा रिज़ल्ट से प्यार करते हो।
प्रश्नकर्ता: वो ज़्यादा टाइम तक रहेगा।
आचार्य प्रशांत: आप सुन नहीं रहे हो।
प्रश्नकर्ता: एक सेकंड।
आचार्य प्रशांत: आपने पाँच मिनट पहले ही ले लिया है। आप मुझे सुना रहे हो, या समझना चाहते हो बात को?
प्रश्नकर्ता: क्लियर करना चाहती हूँ।
आचार्य प्रशांत: क्लियर ये है कि आप जो काम चुनो, वो ऐसा होना चाहिए कि आप उसे पूरी ज़िंदगी भर करो। और आउटपुट उसमें तब भी ना आए, तो भी आपको ये ना लगे कि ज़िंदगी बर्बाद गई। बस हो गया।
प्रश्नकर्ता: वही फीलिंग है, बट।
आचार्य प्रशांत: बट कुछ नहीं होता फिर उसमें।
प्रश्नकर्ता: एक बात।
आचार्य प्रशांत: अरे बट होता ही नहीं, तो क्या सुन लूँ? बट होता ही नहीं उसमें।
प्रश्नकर्ता: मतलब अगर हम उस पोज़िशन पर किसी पोज़िशन की डिमांड नहीं करनी है, बस लाइफ़ लॉन्ग उस काम को करते चले जाना है। चाहे वो पोज़िशन आपको मिले या न मिले, इट डज़ंट मैटर?
आचार्य प्रशांत: उस काम को नहीं होता कि लाइफ़ लॉन्ग एक ही काम पकड़ा जाता है।
बार-बार मैंने आज वर्ड एक यूज़ किया — डायनेमिक। वो चीज़ भी बदलती है। मुझे इस समय पता है क्या ज़रूरी है, और मैं अपनी पूरी ताक़त से उसको करूँगा। मेरे पास ये सोचने के लिए भी टाइम और एनर्जी नहीं होना चाहिए कि उसमें आगे क्या होगा। वो सोचने के लिए अगर टाइम एनर्जी चुराओगे, तो फ्रस्ट्रेट हो जाओगे। क्योंकि उस टाइम और एनर्जी का इस्तेमाल फिर तुम अपने फ्रस्ट्रेशन के लिए करोगे।
बी सो कंप्लीटली डेडिकेटेड दैट यू डोंट होल्ड एनीथिंग टू स्पेंड इन फ्रस्ट्रेशन। कहते हैं न, लड़ाई इतनी ज़ोर से करी, इतनी ज़ोर से करी कि हार भी गए, तो कोई ग़म नहीं है। क्योंकि अब और मैं कर क्या सकता था इससे ज़्यादा। आपको फेलियर का ग़म होता ही इसीलिए, क्योंकि आपको पता होता है कि अभी आप कुछ और कर सकते थे। तो फिर आप एक मातम मनाते हो कि थोड़ी सी और मेहनत कर ली होती तो सक्सेस मिल जाती।
जिसने सब कुछ कर लिया, उसको अब सक्सेस, फेलियर, रिज़ल्ट से फ़र्क़ नहीं पड़ेगा, क्योंकि वो इससे ज़्यादा कुछ कर ही नहीं सकता था। अब वो इतना थक गया है, उसने अपने आप को इतनी पूरी तरह दे दिया है कि उसके पास अब रोने के लिए भी समय नहीं है। वो बिल्कुल ड्रेंड आउट हो गया है। ठीक है?
प्रश्नकर्ता: बिल्कुल यही पोज़िशन है।
आचार्य प्रशांत: बस हो गया।
प्रश्नकर्ता: उसके बाद भी इंसान को वो चीज़ कंटिन्यू करनी चाहिए?
आचार्य प्रशांत: अरे भाई, कैसा सवाल है? अगर आपको मुझसे ये पूछना पड़ रहा है कि जिस चीज़ से आपको प्यार है, वो कंटिन्यू करना चाहिए कि नहीं, तो आप ये बताइए कि प्यार है भी?
प्रश्नकर्ता: वो इंसान करना चाह रहा है।
आचार्य प्रशांत: आप करना चाह रहे हो, तो मैं कौन हूँ बताने वाला?
प्रश्नकर्ता: मतलब ये जेन्युइन रिलेशनशिप है, पागलपन नहीं। ये पागलपन नहीं है न, ये जेन्युइन रिलेशनशिप है?
आचार्य प्रशांत: आप एक बात बताओ, आप जवान लोग हो। मेरी तो अब ट्रेन छूट गई। आपको प्यार वग़ैरह कुछ पता है? ये चीज़ें किसी से पूछ के करी जाती हैं? अगर सचमुच कोई चीज़ ऐसी है जिसने यहाँ (हृदय की ओर इंगित करते हुए) से आपको पकड़ लिया है बिल्कुल, तो आप किसी से पूछोगे कि अब मैं इसको कल चाहूँ कि न चाहूँ? तुम जानो और तुम्हारा दिल जाने। और चाह रहा है, तो मैं कौन हूँ फिर, मैं कोई नहीं हूँ।
मैं अगर मना भी कर दूँ, तो भी वो काम करो। मैं हूँ कौन? कोई भी कुछ नहीं है। जिसको भगवान बोलते हैं, वो भी मना कर दे, तो भी वही काम करो। ख़त्म बात।