प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी, मैं दिल्ली से हूँ , उम्र 25 साल। जिस उम्र में हूँ उसमें विपरीत लिंगी के प्रति थोड़ा-सा आकर्षण हो ही जाता है। हालाँकि ये पहली बार नहीं है, बीते समय के अनुभव रहे हैं। उससे ये पता चला कि मुझे इस दिशा में नहीं जाना है। कोशिश करती हूँ, अपनी ओर से जो भी कर सकती हूँ; बातचीत को ख़त्म कर देती हूँ, दूरी बना लेती हूँ, लेकिन दिमाग में कहीं न कहीं ये चलता रहता है। उस व्यक्ति के विषय में विचार चलता रहता है। जिस वजह से कोई भी काम करने में अटक जाती हूँ, पूरी तरीके से। तो इससे डील कैसे करूँ? मुझे समझ नहीं आता।
आचार्य प्रशांत: कोई भी काम मत करो न, बढ़िया काम करो, अच्छा काम करो। अच्छे काम से दो फ़ायदे होते हैं — पहली बात, मन में वासना का बवंडर नहीं उठता बहुत; दूसरी बात, अच्छा काम करोगे तो अपने लिए आदमी भी फिर अच्छा ही चुनोगे। अच्छा काम, अच्छा हो जाना, वासना को भी अब सही दिशा दे देता है, चैनलाइज़ कर देता है। आप महिला हैं, आपके जीवन में पुरुष तो आएँगे। पुरुषों के जीवन में महिलाएँ तो आएँगी। प्रश्न ये है कि कौन-सा पुरुष आएगा, किसलिए आएगा। ऐसा तो कुछ बंधन है नहीं अध्यात्म में कि विपरीत लिंगी से संपर्क वर्जित है। ऐसा तो कुछ भी नहीं है। विपरीत लिंगी से नहीं बात करनी तो फिर आधी सृष्टि को छोड़ना पड़ेगा। कहाँ जाओगी चुन-चुन के खोजने कि पुरुष दिखे ही नहीं? वो तो सारे चारों तरफ हैं। पुरुषों से हर दिशा में, हर क्षेत्र में संबंध बनने ही हैं।
जीवन बेहतर करो, मन बेहतर करो, काम बेहतर करो; बेहतर लोगों से संबंध बनाओ।
देखो, हमारी सेक्सुअल ड्राइव (वासना का ज़ोर) प्राकृतिक भी नहीं होती। ठीक से समझना, वो एक अर्थ में एक स्प्रिचुअल कंपनसेशन (आध्यात्मिक मुआवज़ा) होती है। अगर सिर्फ़ प्राकृतिक होती तो सिर्फ़ उतनी ही होती जितनी जानवरों में पाई जाती है। और जानवर कभी भी हाइपर सेक्सुअल नहीं होते; ऐसा नहीं होता है। जानवर होते हैं, साल में उनका कुछ समय आता है, उस समय मेटिंग (संसर्ग) कर लेते हैं। उसके अलावा वरना वो मस्त रहते हैं — उड़ रहे हैं, गा रहे हैं, खा रहे हैं, सो रहे हैं। उनका यही काम रहता है।
मनुष्य ही है जो मैडली सेक्सुअल हो गया है — ‘कामी नर कामुक सदा, छः ऋतु बारह मास’। छः ऋतु, बारह मास तो कोई जानवर कामुक नहीं रहता। मनुष्य है जो हर समय, हर जगह बस इसी फेर में रहता है। क्या वजह है? एक और चीज़ है जो मनुष्य मात्र की विशिष्टता है। वो क्या? मनुष्य ही है जिसको मुक्ति की प्यास होती है। है न? और मनुष्य ही है जो हर समय कामुक रहता है। अब इन दो बातों को जोड़िएगा।
चूँकि आपकी मुक्ति का उपक्रम, कार्यक्रम ठीक से नहीं चल रहा तो इसलिए आप मुआवज़े के तौर पर, भरपाई, कंपनसेशन के तौर पर सेक्सुअली हाइपर एक्टिव हो जाते हो। जानवर? उसको तो मुक्ति चाहिए ही नहीं, तो उसका जो सेक्सुअल कार्यक्रम है वो प्रकृति के अंतर्गत नियमबद्ध रहता है। जो नियम है प्रकृति का, उतने ही नियम में उसका कार्यक्रम चलता है। चिड़िया को पता है कितने साल, कितने महीने में अंडे देने है; उसका वैसे ही रहेगा। उसे आप बदल नहीं सकते हो। बहुत न कम करा सकते, न बहुत ज़्यादा करा सकते, अपने अनुसार वो चलती है।
मनुष्य तो! और ऐसी मनुष्य की अनंत लिप्सा है कि पचास का, सत्तर का हो गया है, उसके बाद भी जाकर वो मेडिकल ट्रीटमेंट लेता है कि मुझे अभी और भोगना है। तमाम तरह की दवाइयाँ और उपचार आते हैं कि अभी तुम और लगे रहो। ख़त्म ही नहीं होता क्योंकि अहंकार ख़त्म नहीं होता, अहम् वृत्ति ख़त्म नहीं होती। बात समझ में आ रही है?
आपको जो चीज़ चाहिए, चूँकि वो आपको नहीं मिल रही है, जो चीज़ सचमुच चाहिए, इसलिए आप एक दूसरी दिशा में एकदम अंधे हो करके, पागल की तरह दौड़े जाते हो; पूरी ज़िंदगी दौड़े जाते हो। पचास, सत्तर क्या, अस्सी, नब्बे साल वाले! आप लड़कियों से बात करिएगा, वो कहेंगी कि बस वगैरह में जिनको दादाजी बोल कर के बगल में बैठ जाओ या हाथ थमा दो कि खड़े हो जाएँ, उनकी नज़रें भी वैसे ही होती हैं। नब्बे साल का होगा लेकिन भीतर अभी जवानी बद-बद, बद-बद कर रही होगी। क्यों? क्योंकि उम्र मिली थी मुक्ति के लिए, उम्र मिली थी चेतना को एक ऊँचा मुक़ाम देने के लिए। वो करा भी नहीं और बेईमानी इतनी है कि वो अभी भी नहीं करना है। उसकी जगह पर, उसके विकल्प के तौर पर क्या करना है? सेक्सुअल एडवेंचर्स!
तो, इतनी बार इतने लोगों ने आकर के वही चीज़ पूछी है; कभी भावना के तौर पर कि किसी से लगाव है, कभी सीधे-सीधे देह के तौर पर पूछ लिया। उत्तर हमेशा एक रहेगा — वो करो जो करने के लिए पैदा हुए हो। नहीं तो किसी-न-किसी तरह के झूठे विकल्प में फँसोगे। और नंबर एक विकल्प हमेशा यही होता है — सेक्स। उसके अलावा भी विकल्प होते हैं। पैसा भी विकल्प होता है।
एडिक्शंस (नशे) कई तरीके के, वो भी विकल्प होते हैं। कई तरह के एडवेंचर्स , वो भी विकल्प होते हैं। पर दुनिया भर में जो एक सर्वमान्य, नंबर एक विकल्प है अध्यात्म का, वो यही है। असल में हमारी पूरी सभ्यता, पूरी सामाजिक व्यवस्था ही अध्यात्म के विकल्प पर टिकी हुई है। सेक्स की नियमित आपूर्ति मिलती रहे इसलिए विवाह कर लो। अब नियमित आपूर्ति रहेगी सेक्स की तो बच्चे पैदा होंगे ज़रूर। और बच्चे जब एक बार पैदा हो गए, फिर मुक्ति का कोई सवाल ही नहीं। बस ठीक, फँसे रहो! समझ में आ रही है बात?
हम जानवर नहीं हैं। नहीं हैं न? इस बात को याद रखो। सुनने में बहुत लगेगा कि कैसी ओल्ड-फैशन्ड बात कर रहे हैं — पहली दोस्ती किताबों से होनी चाहिए। कहिए, ‘ये लो, इन्होंने प्राइमरी टीचर जैसी बात कर दी!’ मेरे पास और कोई बात है नहीं, मैं क्या बताऊँ। कोई और तरीका अगर उपयोगी होता तो मैं सुझा देता। ज्ञान के अतिरिक्त मनुष्य का और कोई नहीं सहारा। और ज्ञान से ये नहीं होगा कि ज़िंदगी भर कुँवारी रह जाओगी, कोई लड़का नहीं मिलेगा; ज्ञान से ये होता है कि जो मिलेगा, वो ढंग का मिलेगा। फालतू लोगों से बचे रहोगे ज़िंदगी में। ये कोई छोटी बात है?
इतनी अच्छी-अच्छी फ़िल्में हैं, क्यों नहीं देखते हो? अब तो नेटफ्लिक्स वगैरह का ज़माना है। कहीं भी, यहीं से शुरुआत कर लो, गूगल सर्च कर लो कि टॉप हंड्रेड मूवीज़ कौन-सी हैं, जो आज तक बनी हैं। उनको देख लो। और विशेषकर भारत से बाहर की पिक्चरें देखो। अपने यहाँ का जो काम-धाम है उसमें तो पैदा ही हुए हो, उसमें तो लथपथ ही हो। देखो कि बाक़ी दुनिया किस तरह से जीती है, उनकी सोच कैसी है, उनके ढर्रे कैसे हैं, उनके विचारों ने भी क्या ऊँचाईयाँ ली हैं। ये भी तो देखो। खेला करो। बहुत सारा जो सेक्सुअल कार्यक्रम होता है वो सिर्फ़ इसलिए होता है क्योंकि शरीर थका हुआ नहीं है। शरीर को थकाओ, रोज़ एक घण्टा, दो घण्टा। उससे ज़िंदगी के लिए कोई स्पोर्ट्स भी सीख लोगे। फिर भले तुम उम्र में बढ़ जाओगे लेकिन जो चीज़ सीख ली है, वो अपने साथ रहेगी।
तो स्पोर्ट्स में जाओ, अच्छी मूवीज़ देखो, ऊँची किताबें पढ़ो, ढंग के लोगों की संगत करो। इसके अलावा अब तुम्हें मैं क्या और तरीके बताऊँ? अपने छोटे से सर्किल में सीमित मत रहो, यात्राएँ किया करो। जितना संभव हो दूर-दूर जाओ, देखकर आओ कि दूसरी संस्कृतियाँ कैसी होती हैं, दूसरे लोग कैसे बातचीत करते हैं, उनके क्या तरीके हैं, उनके क्या आदर्श हैं — ये सब जानना ज़रूरी है। इन सब चीज़ों में जब समय लगाओगे तो ये लड़के-लड़की का कार्यक्रम थोड़ा कम हो जाएगा। और फिर कोई गुनाह नहीं है कि लड़के से रिश्ता बना लिया तो, बनेगा ही। पर पहले भी कहा हूँ, अभी भी कह रहा हूँ, 99% रिश्ते हम ग़लत लोगों से बनाते हैं। बनाना ही होगा जब, आएगा समय, कोई ढंग का मिल जाएगा, बनाना रिश्ता।
प्र: आचार्य जी, पहले भी रहे हैं और काफ़ी बिटर एक्सपीरियंस (कड़वे अनुभव) रहे हैं, इसलिए।
आचार्य: तो फिर काहे को तुम्हें और उसमें रेल चलानी है? हो गया! अब किताबों को मौका दो।
प्र: धन्यवाद आचार्य जी।
प्र२: प्रणाम आचार्य जी, जब से मैं जुड़ा हूँ आपकी शिक्षाओं से, तो मैंने अपनी वृत्तियों को पहचानना, वृत्तियों को देखना प्रारंभ किया। परंतु कभी-कभी ऐसा होता है जीवन में कि हम वृत्तियों से लड़ रहे होते हैं, देख रहे होते हैं, उनका ऑब्ज़र्वेशन कर रहे होते हैं, परंतु काफ़ी बार हारना भी पड़ता है हमें वृत्तियों से। हम देख पाते हैं और बाद में हमें एहसास भी होता है कि हम हारे, इसी समय हारे। और फिर एक घृणा का भाव मन में उत्पन्न होता है, एक तरह की नकारात्मकता अंदर आती है उन चीज़ों से। फिर ऐसा लगता है कि वही चीज़ बार-बार रिपीट हो रही है। लगातार हम वृत्तियों को देखते हैं, कभी-कभी सफल भी होते हैं उन्हें रोकने में, लेकिन अधिकतर समय फिर हमें हारना पड़ता है। उसके बाद फिर वही घृणा के शिकार हो जाते हैं और कुछ समय फिर मन हट जाता है उन चीज़ों से। लगता है नहीं देखना उन चीज़ों को। लेकिन, सर अधिकतर समय जो है वो घृणित-जीवन जैसा लगता है कि एक घृणित-जीवन में जा रहा है अधिकतर समय।
आचार्य: घृणा आती है, अच्छी बात है। वो घृणा क्या कहती है? वृत्ति छा गई, हार गये, सही काम नहीं किया, वृत्ति की दिशा चल दिये, ठीक है। बाद में समझ में आया, घृणा उठी। अब वो घृणा कह क्या रही है आपसे?
प्र२: कह रही है कि जो भी हुआ, सही नहीं हुआ और आगे नहीं होना चाहिए। लेकिन, सर!
आचार्य: तो इसमें क्या समस्या है?
प्र२: लेकिन आचार्य जी, आगे भी वो चीज़ें होती हैं। हम कोशिश करते हैं, अधिकतर कोशिश करते हैं कि उनको देख पायें, रोक पायें। लेकिन फिर भी वो चीज़, आपको इतना सुनने के बाद भी अगर वो चीज़ होती है तो, वो घृणा और गहरा जाती है और ज़्यादा गहरी बैठ जाती है।
आचार्य: अभी उतनी गहरी हो नहीं पा रही है न, घृणा! घृणा अगर यही कह रही है कि ऐसी चीज़ दुबारा नहीं होनी चाहिए तो फिर तुम्हें और गहरी घृणा चाहिए। जो कुछ भी अपने काम आता हो, हमें मंज़ूर है। अगर अतीत के ढर्रों से घृणा ही आपको मुक्ति दिला दे तो बुराई क्या है घृणा में? जो भी साधन हमारे साध्य की ओर ले जाए, हमें मंजूर है। तो घृणा में कोई नहीं बुराई है। घृणा आपकी असफल हो रही है क्योंकि घृणा पूरी नहीं है। कहीं-न-कहीं रियायत कर रहे हो। कह रहे हो, ‘नहीं, नहीं, हम इतने भी बुरे नहीं हैं। घृणा के इतने भी हम पात्र नहीं हैं।’ और करो घृणा न! बस एक चीज़ नहीं होनी चाहिए कि घृणा आपसे बोल दे कि तुम मुक्ति के काबिल ही नहीं हो तो अब प्रयास ही मत करना!
घृणा जब तक ये कह रही है, 'देखो, तुम कर सकते थे पर तुमने किया नहीं। इसलिए तुम नालायक हो', तब तक ये घृणा शुभ है। अगर स्वयं से घृणा हो रही है और घृणा का वक्तव्य है कि 'बेटा तुम जीत सकते थे, पर तुम जीते नहीं, नालायकी दिखाई है तुमने', तब तक इस घृणा में क्या बुराई है? लेकिन घृणा अगर ये बोलने लग जाए कि तुम आदमी ही छिछोरे हो और तुम्हारी जीत की कोई संभावना है नहीं, तब घृणा समस्या है। दम दिखाओ न और! और जान लगाओ। घृणा तुमसे यही तो कह रही है।
घोड़ों की दौड़ में एक गधा भी घुस गया और हार भी गया, हारेगा ही। तो घृणा करोगे क्या उससे? उसको तो छोड़ दोगे, हँस दोगे उस पर, माफ़ कर दोगे। कहोगे — ‘बेचारा! ये तो जीत सकता ही नहीं था, इसका दुर्भाग्य कि ये फँस गया दौड़ में। हार गया तो इसमें क्या! इसने कोई अयोग्यता नहीं दिखाई। कोई इसकी कमी नहीं है। ये तो गधा है ही।‘ पर गधों की दौड़ में घोड़ा घुस गया। घुस भी गया और हार भी गया। तो अच्छा है न, करो उससे घृणा और लगाओ उसको दो बढ़िया से। घृणा भी एक प्रकार का सम्मान हुई न? गधे से घृणा क्यों नहीं की? क्योंकि गधा है। और घोड़ा से घृणा क्यों की? क्योंकि गधा नहीं है। ये सम्मान है।
अहंकार से घृणा आत्मा के प्रति सम्मान है। अहंकार से घृणा एक तरह से अहंकार की भी संभावना के प्रति सम्मान है। ‘देखो, तुम इससे बेहतर हो सकते थे, तुम जीत सकते थे, तुम जीते नहीं।‘ अगर अहंकार ऐसा होता कि कुछ कर ही नहीं सकता तो कौन उससे घृणा करेगा! ‘ठीक है, तू पड़ा रह! तेरी तो नियति ही है कीचड़ में लोटना!‘ नहीं, उसकी नियति नहीं है। दम दिखाओ, जान लगाओ।