एकाग्रता और आदतों का प्रभाव || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2017)

Acharya Prashant

13 min
219 reads
एकाग्रता और आदतों का प्रभाव || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2017)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, किसी काम में पूरी तरह डूब नहीं पाता और मन यहाँ-वहाँ भागता है, एकाग्र नहीं हो पाता। मन को एकाग्र कैसे करूँ?

आचार्य प्रशांत: छोटी बीमारी हटाना चाहते हो, या बड़ी बीमारी?

प्र: बड़ी बीमारी।

आचार्य: बड़ी बीमारी हट गई तो छोटी अपने आप हट जाएगी।

अक्सर जो काम तुम कर रहे होते हो, वो इस लायक ही नहीं होता कि मन आकर उसमें ठहर जाए। हम मन के साथ ज़बरदस्ती करते हैं। हम मन से कहते हैं, “तू वो काम कर जिसमें तुझे कोई चैन नहीं दिख रहा”। अब तुम ज़्यादा ज़बरदस्ती करोगे तो हो सकता है मन कुछ समय के लिए मान भी जाए। इस ज़्यादा ज़बरदस्ती को कहते हैं ‘एकाग्रता’।

एकाग्रता हिंसा है मन के साथ। लेकिन हम चाहते वही हैं कि किसी तरीके से मन को कहीं ले जाकर रख दें।

मन ख़ुद जानता है कि उसे कहाँ नहीं रुकना। कहाँ रुकना है, इसका उसे पता नहीं होता। लेकिन वो ये जानता है कि वो चैन के लिए आतुर है; परेशानी कोई नहीं झेलना चाहता न। तो यही मन का स्वभाव है, मन को चैन चाहिए। जो काम तुम मन को दे रहे हो, मन को उसमें कोई चैन दिखाई नहीं दे रहा, तो मन इसीलिए उस काम में लगता नहीं है। ये है बड़ी बीमारी।

छोटी बीमारी ये है कि मन नहीं लग रहा है और बड़ी बीमारी ये है कि तुम जिस काम में मन लगाना चाह रहे हो, वो काम इस लायक ही नहीं है कि उसमें मन लगे।

कोई काम ऐसा ढूँढो जो इतना सच्चा हो कि मन उससे इंकार कर ही ना सके। फिर सवाल पूछने की ज़रुरत ही नहीं रहेगी कि, “मन कैसे लगाऊँ?” मन दौड़-दौड़ कर लगेगा, मन ख़ुद लगेगा।

अभी-भी तुम्हारा मन जिन दिशाओं में भागता है, वो दिशाएँ चैन का ही तो वादा कर रही हैं न। भले ही वो मूर्खतापूर्ण दिशाएँ हों, पर वो वादा यही करती हैं कि यहाँ चैन मिल जाएगा। मन फिर इसीलिए उधर को भागता है। चाहिए है चैन, परेशानी से मुक्ति, झंझट से मुक्ति, ये जो दिमाग़ में खचपच चलती रहती है, इससे आज़ादी। मन यही माँगता है।

या तो तुम मन को साबित कर दो कि जो तुम मन से कराना चाहते हो, वो करके तुम्हें इस खटपट से आज़ादी मिल जाएगी। अगर ये साबित कर दोगे, तो मन तुम्हारी बात मान जाएगा। पर तुम ये साबित भी नहीं कर पाते। ज़्यादातर तो ये होता है कि तुम्हारी बात अगर मन मानेगा, तो उसकी खटपट और बढ़ जाएगी। तो मन कहता है, “मैं तुम्हारी बात मानूँ क्यों? जितना मैं तुम्हारी बात मानता हूँ, उतना मेरी झंझट और बढ़ती जाती है।”

तो फिर वो क्या करता है? फिर वो तुम्हारी बात अनसुनी करता है। तुम कहते हो, “चल क़िताब में लग जा”, वो कहता है, “क़िताब में लगकर आज तक क्या मिला?” तुम कहते हो, “सुन ले जो बोल रहे हैं”, वो कहता है, “बहुतों को सुन रहे हैं, आज तक क्या मिला?” या तो तुम उसे साबित कर दो कि, “अब मिलेगा जो तू चाहता है, और वही मिलेगा जो तू वास्तव में चाहता है।”

सूत्र ये है कि काम ऐसा चुनो जिसमें तुम्हें एकाग्रता की ज़रुरत ही न पड़े, प्रेम काफ़ी हो; “मुझे अपने काम से प्यार है। बड़ी मौज में होता है मेरा काम। अब एकाग्रता क्यों चाहिए? अपने आप होता है मेरा काम, अब एकाग्रता क्यों चाहिए? बल्कि हालत ये है कि काम ना करूँ तो बेचैन हो जाऊँगा।” अब देखो, कोई कोशिश ही नहीं करनी पड़ेगी मन लगाने की; मन अपने आप ही लग जाएगा।

काम ध्यान से चुनो, और ये हिम्मत रखो कि जो काम चुनने लायक नहीं है, उसे ठुकरा दो।

“ये काम चुनने लायक नहीं है। भले ही नुक़सान होता दिखता हो, उस काम को तो मैं ठुकरा देता हूँ। और जो काम चुनने लायक हो, उसमें फ़ायदा होता नहीं भी दिख रहा हो, तो भी उसे करूँगा। उस काम को करना ही फ़ायदा है, मैं और कोई फ़ायदा क्यों चाहूँगा? मैं उस काम को कर पा रहा हूँ, ये ही बड़े हर्ष की बात है। मुझे और कोई फ़ायदा क्यों चाहिए उस काम से?”

प्र२: आचार्य जी, अपने किसी निकट व्यक्ति की किसी लत के कारण हमें काफ़ी परेशानी से गुज़रना पड़ रहा हो, तो उससे हम कैसे बच सकते हैं?

आचार्य: सबसे पहले तुम पर जो असर पड़ रहा है, तुम उस असर से बाज़ आ जाओ।

तुम जिसको बदलना चाहते हो, उसकी स्थिति जब तक तुम्हें ख़राब कर देती है, परेशान कर देती है, उद्वेलित कर देती है, तब तक तुम उसे बदल नहीं पाओगे।

ऐसे समझो, तुम्हें मान लो कोई विषाणु लग गया, कोई वायरस ; मैं चिकित्सक हूँ। तुम्हारी चिकित्सा करने के लिए सबसे पहले ये ज़रूरी है न कि कहीं मुझे भी वही बीमारी न लग जाए? मैं तुम्हारी जिस स्थिति को बदलना चाहता हूँ, सबसे पहले तो ये ज़रूरी है न कि कहीं ख़ुद मेरी भी वैसी ही स्थिति ना हो? तो किसी के बर्ताव से अगर तुम परेशान हो जाती हो, तो परेशान हालत में तो तुम किसी का उपचार नहीं कर पाओगी।

दूसरों की समस्या हल करने के लिए सबसे पहले तो ये ज़रूरी है कि उसकी समस्या कहीं तुम्हारी समस्या ना बन जाए। किसी की बीमारी हटाने के लिए सबसे पहले ये ज़रूरी है कि उसकी बीमारी तुम्हारी बीमारी ना बन जाए। तुम स्वस्थ रहो। वो बीमार है, और तुम उसको तब तक स्वास्थ्य तक ला सकते हो, जब तक तुम स्वस्थ हो। पर तुम भी बीमार, वो भी बीमार, तो अँधा अँधे को सहारा नहीं दे पाएगा।

हमारा खेल उल्टा चलता है। हम कहते हैं, “अच्छा आदमी वो है जो दूसरे के दुःख में दुखी हो।” ऐसा ही होता है न? किसी को दुखी देखो, वो रोए जा रहा है और तुम एक आँसूँ न बहाओ, तो वो कहेगा, “ये बड़ा पत्थर दिल आदमी है, ये दोस्त नहीं है मेरा।” ये बड़ी उल्टी बात है। ऐसा चलना आत्मघाती है।

दूसरे के दुःख का इलाज करना है, तो सबसे पहले तुम स्वयं दुःख से अस्पर्शित रहो। जब तुम स्वयं दुःख से अस्पर्शित हो, तुमने सिद्ध कर दिया कि दुःख से मुक्ति संभव है।

“देखो, मैं हूँ न दुःख से मुक्त। मेरे पास भी दुखी होने का कारण था। तू दुखी था, तेरे कारण मैं भी दुखी हो सकता था। कारण के होते हुए भी मैं दुखी हुआ नहीं। अगर कारण के होते हुए भी मैं दुखी हुआ नहीं, तो कारण के होते हुए भी आवश्यक नहीं है कि तू दुखी हो। तेरे पास भी तेरे दुःख का कोई तो कारण होगा। मेरे पास भी दुःख का कारण था। क्या मैंने उस कारण को महत्त्व दिया? अगर कारण के होते हुए भी मैं दुःख से अस्पर्शित रह सकता हूँ, तो तू भी अस्पर्शित रह सकता है दुःख से, कारण होते हुए भी।”

प्र३: क्या इसको हम ऐसे समझ सकते हैं कि अगर किसी को शराब की लत है और वो बहुत पीता है, तो उससे हमें विचलित नहीं होना है?

आचार्य: दो ही बातें होंगी अगर कोई पी रहा है। या तो उसके प्रभाव में आकर तुम्हें भी आदत लग जाएगी। अब पियक्कड़-पियक्कड़ को क्या सहारा देगा? या फिर तुम इस तरह से प्रभावित हो जाओगी कि ये बुरा आदमी है। अब अगर वो बुरा आदमी है, तो तुम जो उसको मदद दोगे, उसकी सीमा बँध जाएगी, क्योंकि वो बुरा है तुम्हारी नज़रों में।

तुम्हारी नज़र में जो बुरा है, वो कितनी मदद का हक़दार हुआ? बहुत ज़्यादा नहीं न? एक हद तक तुम मदद करोगे, फिर कहोगे, “ये तो बुरा आदमी है ही, इसकी और मदद क्यों करूँ मैं?”

तो इस रूप में प्रभावित मत हो जाना कि तुम उसके आचरण के कारण अपने मन में उसकी छवि बना लो। दूसरे की छवि बनाना माने दूसरे से प्रभावित हो जाना।

तुम ग़ौर से बस देखो कि क्या हो रहा है, बिलकुल अछूते रहकर के। अब तुम्हारा जो भी कर्म होगा, वो सामने वाले के लिए मदद जैसा होगा। अब तुम जान जाओगे कि ये जो कर रहा है, अपने ही दुःख का कारण बन रहा है। ज़रुरत नहीं है, फिर भी दुःख पा रहा है। ये जानना बहुत ज़रूरी है – ज़रुरत नहीं फिर भी दुःख पा रहा है।

जब तुम ये देख लेते हो कि ज़रुरत नहीं है फिर भी दुःख पा रहा है, तभी तो उसे ये कह पाओगे कि दुःख को छोड़ दे। अगर दुःख ज़रूरी ही है, तो फिर दुःख को कैसे छोड़ोगे? तुम्हें ये दिखना चाहिए कि उसका दुःख ग़ैर-ज़रूरी है। अगर दुःख ग़ैर-ज़रूरी है, तो उसका दुःख तुम्हारा दुःख नहीं बनेगा, क्योंकि दुःख ग़ैर-ज़रूरी है।

दूसरी बात, अगर उसका दुःख ग़ैर-ज़रूरी है, तभी तुम उसके पास जाकर कह पाओगे, “देख, छोड़ दे, दुःख ग़ैर-ज़रूरी है।”

प्र४: एक विद्यार्थी के लिए पढ़ने का सही समय क्या है?

आचार्य: ये तो तुम्हारे माहौल पर है कि तुम कब पढ़ सकते हो और कब नहीं, एक उत्तर नहीं हो सकता इसका। सिद्धान्त मैं बता सकता हूँ।

सिद्धान्त ये है कि पढ़ने के लिए हर समय सर्वोत्तम है। हर समय ही सर्वोत्तम है। हाँ, जिन समयों पर तुम पाओ कि परिस्थितियाँ ठीक नहीं हैं, बिलकुल प्रतिकूल हैं, तो तब कह दो कि इन-इन समयों में नहीं पढ़ सकता। जो समय फिर बचे, उसको कहो कि ये सब उपलब्ध है पढ़ने के लिए।

चौबीस घण्टे में से ये ना कहो कि कब-कब पढ़ा जा सकता है। चौबीस घण्टे में से बस ये कह दो कि इस समय और इस समय पढ़ा नहीं जा सकता। बाकी जितना समय है, उसमें तो पढ़ा ही जा सकता है। क्या बाधा है?

प्र५: आचार्य जी, मुझे क्रोध बहुत जल्दी आता है। और अगर कोई काम समय पर पूरा ना हो तो मैं तनाव भी बहुत लेता हूँ। इसको कैसे ठीक करूँ?

आचार्य: जब तनाव नहीं रहता है, तब तनाव लो, क्योंकि वो अब आने ही वाला है। अच्छा है कि पहले से ही पता चल जाए कि आ गया है। जब तनाव नहीं रहता, तो उन क्षणों में तुम असावधान हो जाते हो। जब असावधान हो जाते हो, दरवाज़े खुले छोड़कर सो जाते हो, तो कौन घुस आता है?

प्र४: चोर।

आचार्य: चोर का नाम है तनाव।

जैसे अभी तुम्हें तनाव अपेक्षतया कम है, अभी सावधान रहो, आने ही वाला है। अभी थोड़ा-सा तनाव पैदा कर लो, अभी थोड़ी-सी चिंता कर लो। किस बात की? कि चिंता आने वाली है। आकर तुम्हें अकस्मात झटका दे दे, इससे अच्छा है कि थोड़ा सतर्क ही रह लो।

जब गुस्सा ना हो, तब याद कर लो कि बहुत देर से ग़ुस्सा नहीं हो। इसका मतलब विस्फोट होने ही वाला है, “छः घण्टे हो गए किसी पर चिल्लाया नहीं। अब पक्का है कि थोड़ी ही देर में किसी पर विस्फोट होगा। छः घण्टे हो गए!”

प्र६ : आचार्य जी, बहुत बार ऐसा होता है कि हमारी गलती नहीं होती है, फिर भी हमें भुगतना पड़ता है। परिस्थितियाँ ऐसी बन जाती हैं कि मन तनावग्रस्त हो जाता है और उसकी वजह से हमसे गलती भी हो जाती है।

आचार्य: तुम्हारा ये सवाल ही बड़ा एकपक्षीय है। तुम्हें ये तो याद है कि कभी-कभी जब तुम्हारी गलती नहीं भी होती तब भी तुम्हें भुगतना पड़ता है, पर तुम्हें ये याद नहीं है कि तुम्हें बहुत कुछ ऐसा मुफ़्त में मिल गया है, बिना उसके लिए योग्यता या पात्रता रखे।

बिना गलती के सज़ा मिल गई, तुम्हें बुरा लगता है; बिना पात्रता के फल मिल गया, उसकी तुम बात नहीं करते। अगर दोनों की बात कर लो, तो ये सवाल अपने आप हट जाएगा।

कभी गिनती की है कि बिना पात्रता के क्या-क्या मिला है?

अभी सत्र चल रहा है, तुमने यहाँ होने की पात्रता थोड़े ही दर्शाई थी। बातचीत तो ख़त्म हो चुकी थी। यूँ ही मन में उठा कि थोड़ी देर के लिए और बात कर लेते हैं।

मिलता नहीं है क्या मुफ़्त में बहुत कुछ? कभी वो याद आता है? और दो-चार चीज़ें जो छिन जाती हैं, उनकी कितनी शिकायत करते हो।

हमारी हालत तो ऐसी है कि कोई हमें मुफ़्त की थाली दे दे, और उसमें एक कटोरी कम हो, तो हम शिकायत कर देंगे। पूरी थाली मिल गई है, वो मुफ़्त की थी, उसमें एक कटोरी कम है तो हम शिकायत कर रहे हैं कि कटोरी क्यों कम है! और इतनी बड़ी जो थाली मिली है मुफ़्त की, उसकी बात हम क्यों नहीं कर रहे? पूरी थाली भी छिन जाए, तो भी तुम्हें शिकायत करने का क्या हक़ है? मुफ़्त की थी।

ये ज़िंदगी तुमने पात्रता से अर्जित की? अगर ज़िंदगी भी छिन जाए, तो शिकायत करने का क्या हक़ है?

जब मन में शिकायत का भाव नहीं रहेगा, तो वो सब कर्म भी नहीं बचेंगे जिनके कारण तुम्हें बाद में अफ़सोस करना पड़ता है। शिकायत बहुत बुरी बला है। जिसके मन में शिकायतों ने डेरा जमा लिया, वो सारे ऊटपटाँग काम करेगा। और शिकायत मन में डेरा तभी जमा सकती है, जब तुम्हें थाली ना दिखे, और तुम कटोरियाँ गिनो। थाली सब को मिली है, प्रमाण ये है कि जन्म सब को मिला है। और जन्म के लिए ना तुमने कोई दस्तावेज़ दिए थे, ना अर्ज़ी दी थी, ना कोई पात्रता दिखाई थी।

साँस चल रही है न, कैसे? और अटकने लगेगी तो शिकायत करोगे। चल रही है, इसको लेकर तुम में धन्यवाद कभी नहीं उठेगा। कभी इस बात का शुक्रिया अदा किया है किसी को भी—ऊपर वाले को, नीचे वाले को, दाएँ-बाएँ वाले को—कि साँस चल रही है? किया है? पर साँस अगर अटकने लग जाएगी तो शिकायत ज़रूर करोगे, “ये ग़लत हो रहा है मेरे साथ!”

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories