एक युवक, जिसे अपने पैजामे और नाड़े पर गज़ब भरोसा था || आचार्य प्रशांत (2023)

Acharya Prashant

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एक युवक, जिसे अपने पैजामे और नाड़े पर गज़ब भरोसा था || आचार्य प्रशांत (2023)

आचार्य प्रशांत: अभी हम ऋषिकेश में हैं, इससे थोड़ा सा आगे पड़ता है कोड़ियाला। तो कोड़ियाला में शिविर हुआ था आज से आठ-एक साल पहले की बात होगी। तो उसमें ज़्यादातर जो आये थे, वो कॉलेज के ही सब थे छात्र-छात्राएँ थे। बड़ी बढ़िया वो जगह थी जहाँ पर हुआ था। वहाँ पर बिजली नहीं थी और ठंड का मौसम था।

लालटेनें दी जाती थीं, लालटेनों के प्रकाश में रात में सारी बातचीत होती थी, चर्चा होती थी। देर रात तक चलती थी और बीच में वो लकड़ियाँ जला देते थे, तो उसी में। कोई सुख-सुविधाएँ वगैरह कुछ भी नहीं थीं वहाँ पर, बस वो टेन्ट होते थे और बिलकुल ख़ाली जगह वहाँ पर, किसी का कोई हस्तक्षेप नहीं। ऊपर से बहुत नीचे पैदल उतरकर नीचे आना पड़ता था। तो वहाँ आगे बहुत सुन्दर प्रवाह था गंगा का, वैसा बहुत कम देखने को मिलता है।

तो जो वहाँ पर थे कैम्प वाले प्रबन्धक जो थे, उन्होंने तट पर एक भारी खूँटा गाड़ा हुआ था, गहरा। मोटा और गहरा। ठीक है? रोहित (स्वयंसेवक) थे उसमें — ओमकार वाला, याद आ जाएगा तुम्हें। तो खूँटा गाड़ा हुआ था और खूँटे से उसने बाँधी हुई थी बड़ी एक लम्बी और मोटी रस्सी। किस उद्देश्य से? बोल रहे थे कि पता था कि ये सब लड़के हैं, ये सब उतरेंगे और जाएँगे उसमें।

ठीक है, तो जा सकते हो क्योंकि दिन में सूरज आ जाता था तो थोड़ी सी गर्मी हो जाती थी, अब जा सकते हो। लेकिन बोलता था कि ये पकड़कर रखना। क्या, ये रस्सी। और इतनी लम्बी है कि जितने लोग चाहो उतने लोग इसे पकड़ सकते हो। तो जहाँ भी रहो सब अपना पकड़े रहो, बड़ी लम्बी थी। तो ठीक है।

रात में सत्र चलें उसमें सब बिलकुल मग्न हो जाएँ, मस्त हो जाएँ और गा रहे हैं, झूम रहे हैं और बात भी ऐसी और उम्र भी ऐसी। तो सुबह का वक़्त, रात में ठंड भी खूब थी; उठे, बढ़िया सूरज निकला, गर्म-गर्म लगा पानी में जाएँगे। तो उसमें से एक है, उसको देखा वो एकदम आँख बन्द करके पानी में पड़ा हुआ है। और बाक़ी सब लोग अपना रस्से को पकड़े हुए हैं, वो अलग बहता हुआ निकला जा रहा है आगे की ओर। और बिलकुल मस्त है, बिलकुल मस्त है।

तो चिल्लाये लोग, ‘अरे! क्या कर रहा है? पकड़-पकड़, रस्सा पकड़, रस्सा पकड़, बह जाएगा!’ रहा होगा मुश्किल से अठारह-बीस साल का रहा होगा, तो वो वहीं से अपना मस्ती में उत्तर देता है, ‘अरे, पकड़ रखा है रस्सा, कोई दिक्क़्त नहीं है।’ और हमें दिख रहा है कि पानी उसको लिये जा रहा है। ठीक है। बोले, ‘अरे! रस्सा पकड़।’ बोला, ‘पकड़ रखा है।’

तभी पीछे से एक जाता है, उसको किसी तरीक़े से हाथ बढ़ाकर पकड़ता है, ‘क्या पकड़ रखा है?’ तो देखते हैं कि भाई साहब ने अपने पजामे का नाड़ा पकड़ रखा था। वो अपने पजामे का नाड़ा पकड़े हुए था और सोच रहा था मैंने रस्सा पकड़ रखा है, ये द्वैत कहलाता है।

तुमने पजामे को पकड़ रखा है और पजामे ने किसे पकड़ रखा है, तुमको पकड़ रखा है। नहीं समझे? तुम पजामे के भरोसे हो और पजामा ही किसके भरोसे है, तुम्हारे भरोसे। ऐसे लोग बह जाते हैं। तो द्वैत सबसे बड़ा भ्रम और सबसे बड़ा दुख माना गया है। तुम जिसके भरोसे हो, वो तुम्हारे भरोसे है, तो दोनों को कौन बचाएगा? ठीक है।

समझ रहे हो बात को?

तुमने जिसको बनाया है तुम्हारी रक्षा के लिए, वो आश्रित है तुम्ही पर, तो अब तुम्हें कौन बचाएगा? इसी बात को लेकर के तो फिर ज्ञानियों ने अध्यात्म के क्षेत्र में कल्पना की बड़ी निन्दा करी है। वो बोलते हैं, ‘तुम कल्पना करके पता नहीं कितनी चीज़ें सोच लेते हो कि फ़लाना लोक है और फ़लानी शक्ति है, और वो हम को आकर के बचा लेंगे।’

अरे! जो अपने अस्तित्व के लिए तुम पर आश्रित है, वो तुमको आकर कैसे बचा लेगा? जिसको रूप-रंग, आकार, कहानी तुम देते हो, माने वो तुमसे छोटा हुआ न? हमने एक सूत्र कहा था कि कार्य कारण से बड़ा नहीं हो सकता, तो जो तुमने बनाया है वो तुमसे बड़ा तो नहीं हो सकता।

जो तुम्हारी कल्पना से उठा है, जो तुम्हारे मन से रचा है, वो तुमसे बड़ा तो हो नहीं सकता। जो तुमसे बड़ा नहीं, वो तुम्हें आकर कैसे बचा लेगा?

बात समझ में आ रही है?

तुम उसके आश्रित हो ऐसा तुम्हें लगता है, जबकि तथ्य ये है कि वो तुम्हारे आश्रित है। दोनों एक-दूसरे के आश्रित बैठे हुए हों, दोनों को कोई बचाएगा नहीं।

तुमने नाड़े को पकड़ रखा है, ठीक है? और तथ्य ये है कि तुम अगर पजामे को छोड़ दो, तो नाड़ा बह जाए। नाड़ा भी बचा बस इसीलिए है क्योंकि नाड़े ने तुमको पकड़ रखा है। तो दोनों को कौन बचाएगा? ये द्वैत कहलाता है, इसको कहते हैं शून्यता। शून्यता माने न इधर, न उधर, कहीं कुछ नहीं है, खाली डब्बा, बेकार की बात। ये शून्यता है — खाली, कुछ नहीं।

समझ में आ रही है बात?

तो हमें नहीं मालूम कि हम ये कहें कि हमसे सारा संसार है, हम उस संसार को प्रक्षेपित करते हैं, या ये कहें कि संसार से हम हैं। संसार से हम हैं, ठीक है? लेकिन इसमें भी फिर ज्ञानियों ने ये कहा है कि चूँकि सारी बात — ये दो हैं भले ही अहम् और संसार — लेकिन सारी बात यहाँ किसकी मुक्ति के सन्दर्भ में होती है, अहम् की मुक्ति के।

तो जब अहम् की मुक्ति के सन्दर्भ में होती है, तो ये कहना बेहतर है कि अहम् से संसार प्रक्षेपित है। यही बात आपको अष्टावक्र गीता में बार-बार सुनने को भी मिलती है कि अहम् से संसार प्रक्षेपित है। बराबर ही सही ये बात भी है कि संसार से अहम् बनता है। संसार से अहम् बनता है और अहम् से संसार बनता है। संसार तरीक़े-तरीक़े से अहम् का निर्माण करता है और फिर अहम् तरीक़े-तरीक़े से संसार का निर्माण करता है। तो ये आपस में ऐसे एक आप कह सकते हो कि एक सर्कुलर, क्लोज़्ड फीडबैक लूप है।

तुमसे मैं बना, मुझसे तुम बने; तुमसे मैं बना, मुझसे तुम बने। ऐसे चलता रहता है। ठीक है? लेकिन चूँकि हम बात अहम् की मुक्ति की कर रहे हैं, संसार की मुक्ति तो बात नहीं कर रहे। ये दो हैं — अहम् और संसार। संसार की मुक्ति की तो बात नहीं कर रहे हैं, अहम् की मुक्ति की बात कर रहे हैं। तो ये कहना थोड़ा ज़्यादा उपयोगी रहता है — सच्चा नहीं, उपयोगी — उपयोगी रहता है कि संसार की रचना अहम् से है, अहम् आगे है संसार पीछे है। वही बात यहाँ कही जा रही है कि:-

“पहले पूत पीछे माई, एक अचम्भा देखा रे भाई।”

समझ में आ रही है बात अब ये?

वैसे ही आगे है, अगला:-

“पहले जनम पुत्र को भयऊ।”

पहले कौन जन्मा, पहले पुत्र जन्मा।

“बाप जनमिया पाछे।”

बाप बाद में जन्मा। ‘अरे, ऐसा कैसे हो सकता है! बाप नहीं था तो बेटा कहाँ से आ गया?’ यहाँ पर बाप किसको बोला जा रहा है? इसी प्रकृति को। जहाँ पर पहले अभी माँ बोला गया पिछली साखी में, उन्हीं को यहाँ पर बाप बोला जा रहा है। अब मज़ेदार बात समझो, आप जिससे भी आये हो, आप जिससे भी आये हो, हो दोनों प्रकृति के ही क्षेत्र में। अब यहाँ पर जो बाप पूत हैं, बाप पूत दोनों को मान लिया गया है प्रकृति के प्रवाह में एक के बाद एक आने वाली कड़ियाँ।

प्रकृति अगर एक शृंखला है, एक प्रवाह है, तो उसमें एक कड़ी के बाद जो दूसरी कड़ी आती है, उसमें से पहली को बोल दिया, ‘बाप’ और दूसरी को बोल दिया ‘बेटा।’ अब एक बात तो ये सही है कि बेटा ही होता है, तो वो बाप को बाप का रूप देता है। ठीक है? इसको आप भाषा में ऐसे भी कह सकते हो कि व्यक्ति होता है, व्यक्ति को बाप तो बेटा ही बनाता है न। क्या ऐसा हो सकता है कि बेटा न हो फिर भी अपनेआप को आप बाप बोलो? तो जब जन्म होता है तो बेटे का भी होता है और बेटे के साथ-साथ बाप का भी होता है।

इसको ये भाषायी तरीक़ा हो गया कहने का। और आध्यात्मिक तरीक़ा हो गया है ये कहने का कि बाप का जो भी रूप है वो बेटे की दृष्टि में है न। बेटे के अलावा तो बाप को बाप कोई और बोलता नहीं, बेटे के अलावा बाप को कोई और बाप बोलता है क्या? तो जब बेटा आता है, तो फिर वो अपनी नज़र से बाप का निर्माण करता है।

जब बेटा पैदा हो जाता है तो अपनी नज़र से बाप का निर्माण करता है। ठीक है? और चूँकि ये दोनों प्रकृति के ही प्रवाह में, उसी शृंखला में दो कड़ियाँ हैं, तो हैं तो दोनों प्रकृति में ही न? दोनों जब प्रकृति में ही हैं तो दोनों भोगने में किसको लगे रहते हैं, प्रकृति को ही भोगने में लगे रहते हैं। तो आगे जो बात कही, बड़ी रोचक है। कह रहे

“बाप पूत के एकै नारी।”

बाप और बेटा, इन दोनों की एक ही नारी है। दोनों बाप और बेटा मिलकर एक ही स्त्री को भोग रहे हैं। “बाप पूत के एकै नारी।” इसी बात को, आज हमारे पास साखी नहीं है, आप लोग खोज लीजिएगा — कबीर साहब अन्यत्र कहते हैं कि बड़े अचम्भे की बात है कि बेटा माँ को, महतारी को नारी बना रहा है। जो बेटा है वो महतारी को नारी बना रहा है।

एक अपनी उक्ति थी उस पर आप लोगों ने पोस्टर भी बनाया था कि प्रकृति माँ है, पत्नी नहीं; उसे पूजो, भोगो नहीं। कुछ इस तरह का था, याद है? प्रकृति माँ है, पत्नी नहीं। तो प्रकृति माँ है, लेकिन आप भोगते भी किसको हो, प्रकृति को ही। तो उसी बात को लेकर के सन्तों ने कहा है कि जो महतारी है, हम उसी को नारी बना लेते हैं अपनी। जो माँ है उसको हम पत्नी बना लेते हैं।

समझ में आ रही है बात?

देखो, ये, ये रिश्ते अध्यात्म के क्षेत्र में पहुँचकर उतने सीधे-साधे नहीं रह जाते जितने हमको अपने परिवार में, समाज में दिखाई देते हैं। और इन्हीं रिश्तों का उपयोग करके हमें कुछ गहरी बातें सिखायी जा रही हैं, उनको समझना पड़ेगा।

अब इस पर आइए जो तीसरा है, वो भी ऐसा ही है कि मैं पहले जन्मा और बड़ा भाई बाद में जन्मा। आमतौर पर पहले जन्म किसका होगा, बड़े भाई का होगा। नहीं, तो कारणता का जो सिद्धान्त हमारे मन में बैठा हुआ है उसको चुनौती दे रहे हैं। कह रहे हैं, ‘जैसे तुम सोचते हो न कि पहले ये आता है फिर वो आता है, नहीं, वैसी बात है नहीं। अगर पहले ये आ रहा है बाद में वो आ रहा है तो मामला रेखीय हो गया, मामला रेखात्मक नहीं है; मामला द्वैतात्मक है।

रेखा में हमेशा एक बिन्दु पहले आता है दूसरा बाद में आता है, यहाँ पर दोनों बिन्दु एक साथ आते हैं। यहाँ ऐसा नहीं है कि ये आया फिर ये आया, ये बात समय की नहीं है, यहाँ दोनों एक साथ आते हैं। ये इससे आता है, ये इससे आता है, दोनों एक-दूसरे पर आश्रित रहते हैं। ये न रहे तो ये मिट जाएगा, ये न रहे तो ये मिट जाएगा; जब पाये जाएँगे दोनों एक साथ पाये जाएँगे। ये वही सिक्के के जैसे दो चेहरे ।

समझ में आ रही है बात?

तो क्या कह रहे हैं नागार्जुन, एक के बिना अनेक सम्भव नहीं है। एक माने, एक माने अहम्, अनेक माने प्रकृति। एक के बिना अनेक सम्भव नहीं है। तो ये तो सबको लगता है कि अनेक से एक आता है कि प्रकृति से जीव आता है, अहम् आता है। ये तो सबको लगता है, ये हम देखते भी हैं कि प्रकृति माँ है उससे सब जीवों का जन्म होता है, ये तो हम देखते भी हैं।

समझाने वाले हमें और आगे ले जाना चाहते हैं, वो कह रहे हैं, 'अनेक से तो एक आता है, वो ठीक बात, लेकिन एक के बिना अनेक भी सम्भव नहीं है; द्रष्टा के बिना दृश्य सम्भव नहीं है', दृश्य माने अनेक। द्रष्टा के बिना दृश्य सम्भव नहीं है और भोगी अहम् के बिना भोग्य विषय सम्भव नहीं है।

माने तुम सब जो विषयों को भोगने में लगे रहते हो, वो बेटा तुम्हारी भोग वृत्ति के ही प्रक्षेपण हैं। जो कुछ तुम भोगना चाहते हो वही तुम्हारे सामने विषय बनकर उपस्थित हो जाता है। तुम्हारी भोगने की इच्छा न हो तो वो विषय तुम्हारे सामने भोग्य वस्तु की तरह आएगा ही नहीं। तुम्हारी भोगने की इच्छा न हो तो वो विषय आएगा नहीं।

देखो, ये जो कार्य कारण का सिद्धान्त होता है न, इसको सब ने बहुत चुनौती दी है, बहुत चुनौती दी है। इसको आप जैसे सोचते हो ये वैसा नहीं होता है। एक कहानी सुनाता हूँ, तो सूफ़ी कहानी है। तो एक सूफ़ी सन्त होते थे, उन्होंने सब त्याग दिया था, सब त्याग दिया था। पर वो जहाँ रहते थे वहाँ पानी ज़रा कम होता था। थोड़ा सा वो सूखा इलाका था, रेत ज़्यादा पानी कम। तो वो कहते थे, ‘बाक़ी सब तो छोड़ ही रखा है, मैं दो चीज़ें अपने साथ रखता हूँ।’

तो वो एक तो रस्सी रखते थे अपने साथ छोटी सी और एक छोटा पात्र, तो उसी पात्र में वो रस्सी बाँध देते थे कि कहीं भी पानी मिलेगा तो निकालने के काम आएगा। ‘क्योंकि मैं जैसे क्षेत्र में रहता हूँ, वहाँ पानी तो बहुत होता नहीं।’ भारत के नहीं थे, उधर भारत से पश्चिम की तरफ़ वहाँ बहुत पानी नहीं पाया जाता इतना।

तो एक दिन वो जाते हैं एक जगह पर — प्यासे थे पानी नहीं मिल रहा था, तो देखते हैं कि एक कुआँ है और उस कुएँ में एक हिरण पानी पी रहा है। वो खुश हो जाते हैं, कहते हैं, ‘अरे, बहुत इतना समय बीत गया पानी नहीं मिला था और कुएँ से हिरण पानी पी रहा है, बढ़िया पानी होगा!’ और कुएँ में पानी लबालब बिलकुल, छलछला रहा है, जैसे ये भरा हुआ है (पानी से भरा गिलास दिखाकर)।

समझ लो कुँआ, इतना पानी, इतना भी नहीं, इतना भरा हुआ है, भरा हुआ है (गिलास के पानी के ऊपरी तल पर ऊँगली से संकेत करते हुए) और मस्त अपना हिरण वहाँ से पी-पाकर के चला गया। तो ये भी गये उसके पास, कुएँ के पास कि जल्दी से पानी पी लें, तो जब ये जाते हैं तो क्या पाते हैं, ये पाते हैं कि पानी इतना (आधा) हो गया (आधे के संकेत हेतु गिलास का आधा पानी पीकर)।

जब हिरण था तो पानी कहाँ था, पानी कहाँ था, यहाँ ऊपर बिलकुल (गिलास के ऊपरी भाग पर संकेत करके), कुएँ के मुँह तक पानी भरा हुआ था बिलकुल। और हिरण भग गया पानी-वानी पीकर। तो ये गये पानी लेने, तो पानी देखते हैं नीचे चला गया। इनको आँखों पर यक़ीन नहीं आया, बोले, ‘अभी तो हमने देखा कि पानी ऊपर तक था, हिरण पानी पी रहा था। हम आये हैं तो पानी नीचे चला गया।’

तो ये वहाँ बैठने लगे, बोलते हैं, ‘ये कैसे हो गया, या अल्लाह! पानी अभी देखा था, नज़ारा हमने।’ तो तभी आकाशवाणी होती है, वो बोलते हैं कि हिरण के पास रस्सी भी नहीं है और हिरण के पास वो मटका भी नहीं है, तो हिरण के लिए पानी यहाँ तक था। तुम्हारे पास रस्सी है न, तो इसलिए पानी यहाँ तक है। तुम्हारे पास चूँकि बड़े साधन हैं, इसीलिए साध्य तुमसे दूर चला गया।

तुम्हारे पास साधन बहुत हैं इसीलिए साध्य तुमसे दूर चला गया। तुम्हारे पास होशियारी, चतुराई बहुत है, इसीलिए जो तुम पाना चाहते हो मुश्किल हो गया। अब आप सोचोगे कि आमतौर पर तो रस्सी कारण बनती है प्यास मिटाने के कार्य को करने का। प्यास क्या है? रस्सी क्या है, रस्सी कारण बनती है, सहायक बनती है एक अर्थ में। और कार्य क्या है, कि पिपासा मिटे। ठीक है न, प्यास मिटे।

तो आमतौर पर तो ये होता है। बोले, ‘नहीं, उल्टा है, उल्टा है, तुम सोच रहे हो कि ये पहले नीचे था। तुम सोचते हो कि पानी दूर होता है, तुम सोचते हो कि पानी दूर होता है इसलिए रस्सी की ज़रूरत होती है। तुमने पहले किसको रखा है, तुमने पहले पानी की गहराई को, पानी की जो दुष्प्राप्ति है, जो पानी की तुमसे दूरी है तुमने उसको पहले रखा है।

तुम कह रहे, ‘वो पहले है, भई पानी दूर है तो हमें रस्सी चाहिए।’ आकाशवाणी हुई कि तुम बात को समझे ही नहीं हो, चूँकि रस्सी है, इसलिए पानी दूर है। तुम सोचते हो पानी दूर है इसलिए रस्सी चाहिए, नहीं बाबा नहीं, चूँकि तुम्हारे पास रस्सी है इसलिए पानी दूर है। हिरण के पास रस्सी नहीं थी तो पानी दूर नहीं था’

तो जानने वालों ने हमेशा जो हमारे दिमाग में साधारण कॉज़ेशन (कारणता) का सिद्धान्त चलता है उसको चुनौती दी है तरीक़े-तरीक़े से। ठीक है।

समझ में आ रही है बात ये?

अब यहाँ पर जो अभी उदाहरण लिया वो पूरे तरीक़े से द्वैत का नहीं था, लेकिन कारणता को समझने में फिर भी वो सहायक हो रहा था। तो क्या कह रहे हैं नागार्जुन, 'एक के बिना अनेक सम्भव नहीं है और अनेक के बिना एक सम्भव नहीं है।' दिस कैन नॉट एग्ज़िस्ट विदाउट दैट एंड दैट कैन नॉट एग्जिस्ट विदाउट दिस, एंड हेंस इट इज़ ऑल जस्ट बोगस, बोगस-बोगस। कुछ नहीं है, फ़ालतू।

अत: प्रत्ययों पर निर्भर होकर उत्पन्न होने वाली वस्तुओं के निर्धारण करने का कोई आधार नहीं बनता — प्रत्यय माने मानसिक विचार, प्रत्यय। प्रत्यय से आशय आइडिया , मतलब जो मानसिक है। अतः जो कुछ भी मानसिक है वो सब वस्तुएँ निराधार हैं। माने मन जिन भी वस्तुओं का अनुभव करता है वो सब अनुभव निराधार है।

माने ये जो पूरा संसार है, जो तुम्हारे अनुभव में आता है, पूरा संसार निराधार है। तुम ही हो जो तरीक़े-तरीक़े से तुम्हें ही दिखाई दे रहे हो। तुम ही हो जो कई तरीक़ों से तुमको दिखाई दे रहे हो। पश्चिम में इसको ऐसे भी कहते हैं, 'द लॉज ऑफ़ द यूनिवर्स आर द लॉज ऑफ़ कॉन्शियसनेस। (ब्रह्मांड के नियम चेतना के नियम हैं।)'

जिसको आप सोचते हो कि लॉज़ ऑफ़ प्लेनेटरी मोशन (ग्रहीय गति के नियम) है या लॉज़ ऑफ़ एटमिक मोशन (आणविक गति के नियम) है, वो सब वास्तव में लॉज़ ऑफ़ कॉन्शियसनेस है। जो नियम तुम्हें बाहर का लग रहा है वो नियम भीतर का है और भीतर से तुम उसको बाहर प्रक्षेपित करते हो। ये सब ऐसा ही है आज।

अच्छा, इतना समझ लो कि प्रकृति के प्रवाह में हमें अपने नाड़े के भरोसे मत बहना। कोई ऐसा रस्सा पकड़ो जो तट से तुम्हें जोड़कर रखे। अपने ही भरोसे मत बहने लग जाना — नाड़ा माने मैं, मेरा, मैं बह रहा हूँ मेरे के भरोसे। मैं जीव, मेरा नाड़ा, अपने ही भरोसे मत बहने लग जाना। तट के भरोसे रहना तो बह नहीं जाओगे। उसके बाद तुम जो सरिता है प्रकृति की, उसमें जो भी तुमको कल्लोलें करनी हैं वो कर लेना, नहा लेना, उछल-कूद कर लेना, जो करना सब कर लेना, लेकिन फिर भी बचे रहोगे मरोगे नहीं, बहोगे नहीं, अगर तुम्हारा नाता तट से जुड़ा हुआ है।

लेकिन तुमने जिस रस्से को पकड़ रखा है वो तट तक नहीं जाता, वो तुम्हारे ही पजामे तक जाता है। तो बेटा तुम्हें लगेगा तो कि तुमने किसी को पकड़ रखा है, पर तुमने जिसको पकड़ रखा है वो तुमसे भी ज़्यादा असहाय है, निरुपाय है। तुम तो फिर भी थोड़ी चेतना रखते हो, कुछ कर सकते हो, सोचो तुम बह रहे हो तो चिल्लाओगे, ‘आओ, बचाओ-बचाओ, बचाओ-बचाओ', हो सकता है कोई बचा भी दे। तुम बह रहे हो तो हाथ-पाँव चलाओगे। और सोचो तुम्हारा नाड़ा, माने तुम्हारा पजामा और नाड़ा बहे जा रहे हों, वो कभी चिल्लाते भी हैं कि बचाओ? वो तो एकदम ही असहाय हैं।

तो जो तुमसे भी ज़्यादा असहाय है, तुम उसके भरोसे ज़िन्दगी जी रहे हो। जो तुमसे भी ज़्यादा असहाय है, जो अपनी हस्ती के लिए तुम पर आश्रित है तुम उसके भरोसे ज़िन्दगी जी लोगे क्या? अब समझ में आ रहा है क्यों सन्तों ने कहा था, जब लोगों को देखा कि वो जा-जाकर के अपनी ही कल्पनाओं को पूज रहे हैं तो कहा कि:-

"तासे तो चक्की भली, पीस खाय संसार।”

कह रहे हैं, ‘जो सब तुम पर आश्रित हैं, तुम्हारे ही द्वारा रचित हैं, तुम उनके भरोसे ये भवसागर पार करने की सोच रहे हो, कैसे कर ले जाओगे?’ कि सीट बेल्ट की जगह अपने गले में अपनी ही टाई लपेट ली और जाकर गाड़ी भिड़ा दी। और फिर कह रहे हो कि अरे! पता नहीं काहे गर्दन टूट गयी, बाँधा तो था। क्या बोला जा रहा था, क्या बाँधो, सीट बेल्ट। और बाँधी कहाँ, टाई बाँध ली, खु़द ही अपने ही गले में ऐसे टाई बाँध ली, बोले, ‘बाँध रखा है देखो, वैसे ही जैसे।’ उन्होंने कहा, ‘ सीट बेल्ट बाँधो।’

उन्होंने वेस्ट बेल्ट बाँध ली, बोले, ‘बेल्ट ही लगानी थी न, बेल्ट लगा रखी थी। बेल्ट तुमने भी लगायी, बेल्ट हमने भी लगायी, तुम्हें कुछ नहीं हुआ हमारा मुँह टूट गया, ये नाइंसाफ़ी क्यों,’ क्योंकि बेटा, तुम अपने ही भरोसे थे, तुमने बाँधा तो था, पर तुमने उसको अपने ऊपर बाँधा था जो ख़ुद तुम्हारे भरोसे है। जो ख़ुद तुम्हारे भरोसे है।

सीट बेल्ट तुम्हारे भरोसे नहीं होती। सीट बेल्ट किसके भरोसे होती है, वो गाड़ी की मज़बूती के भरोसे होती है। सीट बेल्ट कहती है, ‘कुछ भी हो जाए, गाड़ी का ढाँचा एकदम बिखर नहीं जाएगा।’ तो वो तुमको गाड़ी के ढाँचे से चिपकाकर रखती है ताकि तुम उछल न जाओ और तुम्हारा मुँह जाकर के स्टीयरिंग में न घुस जाए और सौ और काम।

और जो वेस्ट बेल्ट होती है, साधारण बेल्ट जो आप बाँधते हो कमर में, वो आपके ही भरोसे होती है। आप गिरोगे तो वेस्ट बेल्ट भी आपके साथ गिरेगी, पर आप गिरोगे तो सीट बेल्ट आपके साथ नहीं गिरेगी। तो किसी ऐसे के भरोसे रहा जाता है जो आप से स्वतन्त्र हो। द्वैत में समस्या ये है कि आप जिसके भरोसे हो वो आपसे स्वतन्त्र नहीं है, वो आपका ही निर्माण है। वो आपको कैसे बचा लेगा, कैसे बचा लेगा?

समझ में आ रही है बात?

ये सब क्यों बताया जा रहा है, ताकि आप अहम् भरोसे रहना छोड़ दो, ताकि आपको ‘मेरे’ पर जितना यक़ीन है वो टूटे। ये ऐसी सी बात है कि आप रात में निकल पड़े हो किसी बहुत निर्जन इलाक़े में, जहाँ पर चोर-लुटेरे घूमते हैं और थोड़ा चाँद है, मान लो पूर्णिमा के आसपास के दिन हैं, रात है।

और कोई पूछ रहा है कि कैसे, अकेले कैसे निकल आये? ‘अकेले कैसे निकल आये? यहाँ कोई आपको लूट-लाट लेगा?’ बोले, ‘अकेले थोड़े ही आये हैं, ये भी तो हमारे साथ है पीछे, ये हमारी रक्षा करेगा। मेरा रक्षक मेरे साथ है, मैं अकेला नहीं हूँ। वो मुझे हमेशा रक्षा देता है, हमेशा मुझे बचाकर रखता है।’ बोले, ‘कौन है तुम्हारे साथ?’ बोले, ‘ये छाया मेरी।’

‘पागल, वो छाया तो तुमसे भी ज़्यादा निरुपाय है, असहाय है, बेसहारा है। वो तुम्हारी ही छाया है। तुममें तो फिर भी थोड़ा दम होगा, उस छाया में तो तुम्हारे जितना भी दम नहीं है। और तुम अपनी छाया के भरोसे इस निर्जन जंगल में निकल पड़े हो लुटने के लिए।’ हम ऐसे जीते हैं, इसलिए आज का ये सत्र है और इसलिए आचार्य नागार्जुन का ये सूत्र है और इसलिए सन्त कबीर की ये साखियाँ हैं।

ऐसे का भरोसा मत करो जो तुमसे भी ज़्यादा कमज़ोर हो, ऐसे का भरोसा मत करो जो तुम्हारा ही प्रक्षेपण है। अब समझ में आ रहा है कि क्यों सन्तों ने कहा है कि संसार का भरोसा मत कर लेना?

“ये संसार कागज़ की पुड़िया, बूँद पड़े घुल जाना है।”

इसमें कोई दम नहीं है, इसके सहारे तुम भवसागर पार नहीं कर पाओगे। जो कोई संसार के भरोसे रहेगा वो डूबेगा। क्यों डूबेगा, क्योंकि तुममें तो फिर भी कुछ दम होगा, संसार तो तुमसे भी ज़्यादा बेदम है, तुम्हारी ही छाया है संसार।

कौन अपनी छाया से बल प्राप्त कर सकता है? किसकी छाया उसकी रक्षा कर सकती है? तो इसलिए फिर वैराग्य आता है। वैराग्य कोई नैतिक बात नहीं होती, वैराग्य के पीछे घोर विज्ञान है। वैराग्य का विज्ञान यही है कि अपनी छाया के भरोसे ज़िन्दगी थोड़े ही काट देंगे। वैराग्य मतलब संसार से राग नहीं रखना है — संसार माने छाया।

हमारी छाया, हमारा गार्ड, हमारा प्रहरी, हमारा पहरेदार, हमारा रक्षक, हमारा पीएसओ (निजी सुरक्षा अधिकारी) थोड़े ही हो सकती है, कि सकती है? हो सकती है? कह रहे हैं, ‘अरे! देखो मस्त’ और अभी थोड़ा सा सामने को ढला हुआ है चाँद, तो छाया अपनी कैसी दिखाई दे रही है? ये लम्बी। बोले, ‘ये देखो, नौ फुट का हमने रखा पहरेदार।’

और बहुत खुश हो रहे हैं, ‘अरे! अकेले थोड़े ही हैं, हम पाँच फीट के हैं, पहरेदार देखो पीछे’ — वो लम्बा दिखाई दे रहा है बिलकुल, क्योंकि चाँद सामने है पीछे, छाया लम्बी हो गयी है — ‘ये देखो, क्या लम्बा है! आए तो डकैत, मेरा पहरेदार है, पटक-पटककर मारेगा, पटक-पटककर।’

बोले, ‘तुम्हारे इसके पास तो कोई बन्दूक-वन्दूक तो है नहीं?’ बोले, ‘बन्दूक कैसे नहीं है, देखो अब।’ और अपनी इतनी सी दिखाई तो वहाँ ये इतनी लम्बी दो नाली दिखायी दी छाया में। बोल रहे हैं, ‘ये देखो इसकी।’ बोले, ‘अच्छा, तुमने ऐसा किया, तभी दिखायी दी।’ बोले, 'नहीं, छुपाकर रखता है। ये हम इशारा देते हैं, हमारा सेवक है न, जो हम ऐसे इशारा देते हैं कि मार। ये मेरा इशारा है, ‘मार', जैसे मैंने ऐसा इशारा किया वैसे ही वो इतनी लम्बी निकाल लेता है।’

बोले, ‘अच्छा’, बोल रहे, ‘देखना, — ये किया (बंदूक दिखाने का संकेत करते हुए) और खट्ट से छाया ने इतना लम्बा निकाल लिया, ‘देखा, ऐसा हमारा क़ाबिल और आज्ञाकारी पहरेदार है ये, अभी मार देगा।’ ज़्यादातर लोग ज़िन्दगी ऐसे ही जीते हैं। तुम जिसके भरोसे हो उससे तुम्हें कोई सुरक्षा नहीं मिलने वाली।

तुम जिसके भरोसे हो, धोखा खाओगे, वहाँ से कोई सुरक्षा नहीं पाओगे। वो ऐन मौक़े पर घात करेगा। फिर तुम कहोगे, ‘विश्वासघात हो गया।’ विश्वासघात हो गया क्या, उसने कहा था विश्वास करो? तुम्हारी छाया ने कहा था मुझ पर विश्वास करो? विश्वासघात नहीं हुआ है; भ्रम घात हुआ है।

तो महायान में जो आचार्य नागार्जुन का माध्यमिक दर्शन है, वो कहता है, ‘इधर भी शून्य और उधर भी शून्य (अपनी तरफ़ और फिर सामने की तरफ़ इशारा करते हुए)।’ ये है शून्यवाद। ये वास्तव में द्वैत से भिन्न नहीं। शून्यवाद और अद्वैतवाद बिलकुल एक हैं, बिलकुल एक हैं।

बेचारे शंकराचार्य, उनको तो बहुत लोगों ने इसीलिए बोल दिया प्रछन्न बौद्ध। बोले, ‘ये जितनी बातें अद्वैतवाद में बोल रहे हैं, वो सारी बातें तो शून्यवाद में भी हैं।’ और जो बात कही बिलकुल ठीक है। अद्वैतवाद की बातें सब शून्यवाद में मौजूद हैं। थोड़ा अन्तर है।

शंकराचार्य बाद में आये हैं, क़रीब चार–पाँच–सौ साल बाद में आये हैं नागार्जुन के, तो उनको और मौक़ा था कि वो और बातों को सम्वर्धित भी कर पाये हैं और साफ़ कर पाये हैं। तो उन्होंने पीछे के जितने दर्शन थे सबको पढ़ा और वो बड़े विद्वान थे, पीछे का सब उन्होंने पढ़ा था ये उनको लाभ मिला था। किसी भी पीढ़ी को ये लाभ मिलता है कि पीछे की पीढ़ियों का सारा ज्ञान उसको उपलब्ध रहता है।

तो उपनिषदों से लेकर के फिर सांख्य, मीमांसा, न्याय, वैशेषिक, पतंजलि, योग ये सबकुछ — बौद्ध, जैन दर्शन, ये सबकुछ जो है शंकराचार्य को उपलब्ध था। तो वहाँ से फिर उन्होंने वेदान्त का मर्म सामने लाकर के रखा और बताया कि वेदान्त का मर्म अद्वैत मात्र है; वेदान्त अद्वैत ही है।

सब ऊपर-ऊपर से गया, एकदम कुछ नहीं? या अभी भी सोच रहे हो कि ऐसा कैसे हो सकता है कि हम नहीं होंगे तो सूरज नहीं होगा? ऐसा ही है, बेटा। तुम जो कहा करते हो न, ‘दी यूनिवर्स।' दी यूनिवर्स कुछ नहीं होता। जैसे तुम होते हो वैसा ही यूनिवर्स होता है। आज भी आपको जैसा ये ब्रह्माण्ड प्रतीत हो रहा है, वैसा इसलिए प्रतीत हो रहा है क्योंकि ह्यूमन कॉन्शियसनेस (मानवीय चेतना) आज एक तरह की है।

और इसीलिए जब विज्ञान ' द यूनिवर्स' की बात करता है और विज्ञान ये भी कहता है कि आज से इतने बिलियन साल या ट्रिलियन साल पहले यूनिवर्स ऐसा था, तो जानने वाले कहते हैं कि साइंस इज बेस्ड ऑन इम्परफेक्ट फिलोसॉफिकल फाउंडेशन। क्योंकि किसी समय यूनिवर्स कैसा है, ये तो उस समय की चेतना बताएगी न। आप आज के मनुष्य की चेतना को लेकर के आज से एक ट्रिलियन वर्ष पूर्व के यूनिवर्स का अनुमान लगाना चाहते हो, पर ऐसा तो होता नहीं।

किसी भी समय विश्व कैसा है, ये तो उस समय का जीव बताएगा न। जीव आज जैसा है, उसके कारण आज जगत जैसा है वैसा है। लोग कहते हैं, ‘इतने बरस पहले विश्व ऐसा था।’ उतने बरस पहले ये भी तो बता दो चेतना कैसी थी? जैसी चेतना रही होगी विश्व वैसा रहा होगा। आप आज की चेतना का इस्तेमाल उस समय के विश्व को जानने के लिए नहीं कर सकते।

समझ में आ रही बात ये?

कैसे समझ में आ रही है, बड़े-बड़े वैज्ञानिकों को नहीं समझ में आयी (मुस्कुराते हुए)।

YouTube Link: https://youtu.be/ayZPK4xRyDU?si=rWXGjXJBdONzEhaZ

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