एक खतरनाक इंसान जिससे दूरी ज़रूरी है || आचार्य प्रशांत, वेदांत पर (2021)

Acharya Prashant

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एक खतरनाक इंसान जिससे दूरी ज़रूरी है || आचार्य प्रशांत, वेदांत पर (2021)

आचार्य प्रशांत: जो कुछ भी तुम्हारे लिए अर्थपूर्ण हो रहा है, आन्तरिक -आग्रह, आवेग, भावनाएँ, विचार, कामनाएँ-वासनाएँ, स्वयं को उनसे पराया मानो और उनको स्वयं से। मत कह दो मेरा मन ऐसा कर रहा है। कह दो मन ऐसा कर रहा है, मन का काम है। मत कहो मेरी इच्छा उठ रही है, तुम्हारी इच्छा नहीं है। तुम कहाँ इच्छा के स्वामी हो, तुम कह रहे हो तुम्हारी इच्छा है? इच्छा इतनी छोटी चीज़ है, तुम्हारी इच्छा कैसे हो सकती है। इच्छा अगर तुम्हारी हो गई, तुम इच्छा जितने छोटे हो जाओगे।

एक दूरी बनाओ। वो दूरी स्वयं से, बहुत ज़रूरी है। दूसरों से दूरी रखते हो तो कोविड से बचते हो, खुद से दूरी रखते हो तो अंहकार से बचते हो। समझ में आ रही है बात? और खुद के ज़्यादा सम्पर्क में रहने से, स्वयं से लिप्त रहने से जो संक्रमण होता है, वो किसी भी जीवाणु-कीटाणु से मिले संक्रमण से कहीं ज़्यादा घातक है। जब इन्फेक्शन (संक्रमण) लगता है वायरस (विषाणु) का, तो इतना तो कह पाते हो न कि वायरस (विषाणु) मुझे लग गया और वायरस (विषाणु) एक बाहरी चीज़ है जो मुझे लग गई है और दवाई लेते हो उस बाहरी चीज़ को मारने की।

जब अंहकार का इन्फेक्शन लगता है, संक्रमण लगता है तो ये नहीं कहते हो कि कोई बाहरी चीज़ आकर-के लग गई है। कहते हो ये तो मैं ही हूँ। ये तो मैं ही हूँ। जबकि जिसको मैं बोल रहे हो, तुम हो नहीं। कभी ऐसा बोलते हो कि मैं कोविड हूँ, ये तो नहीं बोलते हो न? तुम कहते हो हमेशा ये कि कोविड दूसरी चीज़ है मुझे आकर-के लग गई, गलत हो गया, कोविड को हटा देना है। वायरस बाहरी चीज़ है, बाहर से आकर मुझे लग गई, मुझे उसको हटा देना है।

पर दुनियाभर के प्रभाव तुम पर बाहर से आकर लग जाते हैँ, तब ये नहीं कह पाते हो कि मुझे कोई बाहरी चीज़ लग गई। तुम पर प्रभाव लगते हैं, तुम प्रभावित हो जाते हो। तुम प्रभावित हो गए। अब तुम पर जो प्रभाव है वो तुम्हारी पहचान बन गया। तुम प्रभाव के अनुसार ही सोचोगे, चलोगे, विचार करोगे, योजना करोगे, बात समझ रहे हो? अब ऐसी कोई सम्भावना नहीं रह जाती है कि तुम ये भेद कर सको कि मैं कौन हूँ और दूसरा कौन है।

वो जो दूसरा है वही मैं बन जाता है। वो जो दूसरा है, जो पराया है, वो जो मैं बन जाता है, तब आवश्यक हो जाता है कि तुम इस नकली ‘मैं’ से पराए हो जाओ। जब पराया आकर के बन गया है ‘मैं’ तो तुम इस नकली ‘मैं’ से हो जाओ पराए। दुनियाभर के साँप तुम्हारे घर में आकर के रहना शुरू कर दें, दुनियाभर के साँप तुम्हारे घर में आकर के रहना शुरू कर दें, तो तुम्हारें लिए बेहतर यही है न कि तुम अपने घर से पराए हो जाओ। बात समझ में आ रही है?

क्योंकि वो कहने को तुम्हारा घर है, वो तुम्हारा है कहाँ? वो साँपों का है, उस घर में रहोगे, मारे जाओगे। अंहकार ऐसी ही चीज़ है। तुम्हें लगता है कि वो ‘मैं’ है, वो ‘मैं’ नहीं है, उसमें सब परायों का कब्ज़ा है। उस पर तुम्हारें शरीर का कब्ज़ा है, तुम्हारी शिक्षा का कब्ज़ा है, तुमने जो पढ़ाई-लिखाई करी, तुमने जो टीवी में, मीडिया में सुन लिया, तुम्हें जो घरवालों से सीख मिल गई, तुमने इधर-उधर से जो उड़ती हुई बातें सुन लीं, माहौल से तुमनें जो कुछ सोख लिया। ये सब दुनिया-भर के साँप हैं, जो तुम्हारें घर में घुस आए हैं। इनके साथ रहोगे तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा, कष्ट, मौत। चूँकि ये सब ‘मैं’ बन गए हैं, इसीलिए तुम कह दो मैं, ‘मैं’ नहीं। समझ रहे हो बात को?

वो सब जो ‘मैं’ नहीं हैं, वो क्या बना गए ‘मैं’, तो तुम कह दो अगर ये ‘मैं’ है, तो मैं, ‘मैं’ नहीं। फिर तुम्हीं मैं बोलो, मैं, ‘मैं’ नहीं। तुम दूर हो जाओ। इसे कहते हैं पराया होना, इसीलिए परम आत्मा। दूर हो जाओ। जो कुछ भी तुम्हें अपने बारे में लगता हो, जितना भी तुम अपने बारे में जानते हो, इस एक व्यक्ति से दूरी बना लो। जिसको तुम कहते हो ‘मैं’। वो कोई और है, मैं नहीं हूँ। उसकी शक्ल परिचित है, नाम जाना-पहचाना है, पुराना सा ऐसा लगता है जैसे कोई रिश्ता है उससे, पर वो मैं हूँ नहीं।

घर होगा शायद हमारा, पर उस घर के बाशिंदे अब बिलकुल कोई और हैं। न जाने किना लोगों ने कब्ज़ा कर लिया उस घर पर। मुझे दूर ही रहने दो भाई उनसे।

तुम्हारें घर में डकैत घुस आएँ बन्दूकें लेकर के तो तुम बैठे रहोगे कि मेरा घर है, मेरा घर है या घर छोड़ के दूर भागोगे? समझ में आ रही है बात? खुद को बचाना हो तो दूर हो जाओ। तुम्हारे विचार तुम्हारे नहीं हैं। तुम्हारा कुछ भी तुम्हारा नहीं है। जैसा और जितना तुम अपनेआप को जानते हो, तुम हो ही नहीं।

तो क्या हम कोई अस्तित्व ही नहीं रखते? नहीं, उस अर्थ में बिलकुल नहीं जिस अर्थ में तुमने आज तक अपनेआप को जाना है। इतना ही कहूँगा। जितना अपनेआप को जाना है, वो तो सब नकली ही है। तो क्या हमारे बारे में कुछ भी असली नहीं? नकली को छोड़ दो, क्या पता उत्तर मिल जाए। क्या पता उत्तर की ज़रूरत शेष न रहे।

कोई सान्त्वना नहीं देना चाहूँगा ये कहकर कि पुराना नकली घर छोड़ दो, या घर में साँप या डकैत घुस आए हैं घर छोड़ दो तो कोई असली घर मिल जाएगा, कोई बढ़िया ठिकाना मिल जाएगा। इस तरह का मैं कोई लालच या कोई सान्त्वना नहीं देना चाहता। बस इतना कहूँगा जो नकली है उसको छोड़ दो। क्या पता उसको छोड़कर पता चले कि घर की ज़रूरत ही नहीं है। क्या पता, उसको छोड़कर पता चले कि जहाँ भी हो अपने घर में ही हो, चार-दीवारी व्यर्थ है। समझ में आ रही है बात? इंसान में, इंसान में यही अन्तर होता है। एक इंसान जो अपना ग़ुलाम होता है, दूसरा इंसान जो अपने से ज़रा दूर होता है। कितनी दूरी कितनी निरन्तरता के साथ रख पा रहें हो स्वयं से, इसी से सब तय हो जाना है। शरीर यंत्रवत है। उसके संचालक तुम नहीं हो। विचार, शरीर की ज़मीन पर उगा हुआ घास-फूस जैसा है। न ज़मीन तुम्हारी है, न वो घास-फूस तुम्हारा है। ऐसे ही खाली ज़मीन पड़ी हो कुछ-न-कुछ तो उस पर उग ही आता है न, विचार और भावनाएँ ऐसे ही हैं। पराई ज़मीन पर जो कुछ उगा है, वो तुम्हारा कैसे हो गया ये बता दो? जब शरीर की ज़मीन ही पराई है तो इस ज़मीन पर जितनी भी शाक-तरकारी उठती है, पेड़-पौधे पैदा होते हैं, वो तुम्हारे कैसे हो गए बताओ ज़रा? समझ में आ रही है बात?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम! प्रश्न है, मैं से पराए होने में, मैं ही मैं से पराए होने का खेल, खेल सकता है। इससे सावधाना कैसे रहें? आचार्य: जो कुछ भी ‘मैं’ के साथ जुड़ा हो, चाहे वो मैं’’ को छोड़ने के बाद जुड़ा है, ‘मैं’ को छोड़ने से पहले जुड़ा है, जो कुछ भी जुड़ा हो, उससे पराए होते रहो। ये प्रक्रिया आजन्म चलानी है। साहब ने कहा है न—

“देह धरे का दंड है”।

ये देह धरने का दंड है। आजन्म तुम्हें स्वयं के विरुद्ध ही दौड़ लगानी पड़ेगी। मनुष्य पैदा होने का दंड ये मिलता है कि तुम्हें अपनी ही छाया के खिलाफ दौड़ लगानी पड़ती है, लगातार। ये दौड़ तुम जीत नहीं सकते। बस इतना हो सकता है कि दौड़ते, दौड़ते, दौड़ते, दौड़ते, दौड़ते, मिट जाओ तुम, ख़र्च हो जाओ तुम, घिस जाओ तुम। जीत नहीं सकते इस दौड़ को। तो दौड़ने का उद्देश्य ये नहीं कि एक दिन अपनी छाया को हरा दोगे दौड़ में। वो नहीं होने का है। तुम्हारे अस्तित्व के साथ अहम् वैसे ही जुड़ा रहना है, जैसे शरीर के साथ छाया। ये तो तुम सपने में भी खयाल करना मत कि एक दिना ऐसा आएगा कि तुम तुम रहोगे और अहम् नहीं रहेगा। ये वैसी सी बात है कि तुम कहो शरीर रहेगा और छाया नहीं रहेगी। ऐसा नहीं होने का। तो फिर मैं क्यों कह रहा हूँ कि दौड़ना है फिर भी। छाया को दौड़ में हरा देना है। छाया को दौड़ में ऐसे नहीं हराना है, कि एक दिना ऐसा आएगा कि तुम आगे निकल जाओगे छाया पीछे छूट जाएगी।

दौड़ना है ताकि खर्च हो जाओ, ख़त्म हो जाओ, गल जाओ, मिट जाओ दौड़-दौड़ कर। तो ये जिस बात की आपने आशंका व्यक्त की है, उसको आप एक आशंका या सम्भावना मत मानिए। उसको एक निश्चितता मानिए, वो तय-शुदा बात है। क्या? कि ‘मैं’ एक चीज़ को छोड़ेगा तो दूसरी चीज़ को पकड़ लेगा। तो आपको कहीं भी कोई विश्राम नहीं मिलना है। कि साहब अब तो हमारा हो गया, इसीलिए तो मैं ये ऐनलाइटमेंट (प्रबोधन) वगैरह को लेकर के थोड़ा कुपित रहता हूँ। क्योंकि वहाँ भाव ही यही रहता है कि हम तो अपनी छाया को पीछे छोड़ आए।

या तो ये कह दो कि तुम बचे नहीं या ये कह दो कि अभी छाया साथ लेकर चल रहे हो। ऐसा नहीं हो सकता कि तुम तो हो छाया नहीं है। हर जीवित व्यक्ति को अपनी आखिरी साँस तक सर्तक रहना होगा। स्वयं को मिटाने के ही अभियान में जुटे रहना होगा। और इतना और समझ लो ये जो खुद को मिटाने वाली बात है, ये भी कभी आखिरी नहीं होनी। ऐसा हो सकता है तुम मिट जाओ और पुन: पैदा हो जाओ, वापस आ जाओ।

भीतर से अंहकार गया है, पर अंहकार जिस ज़मीन पर पैदा होता है वो तो अभी शेष है न? पौधे को तुमने जड़ से उखाड़ दिया। कौनसा पौधा? अंहकार का पौधा, तुमने जड़ से उखाड़ दिया। पर जिस ज़मीन पर वो पौधा पैदा होता है, वो ज़मीन तो अभी शेष है न। वो ज़मीन क्या है? शरीर। जिस दिन तक शरीर है, उस दिना तक पूरी सम्भावना है कि अहम् वापस भी आ सकता है। हो सकता है कि तुमने उसको आमूल उखाड़ दिया हो, जड़ से उखाड़ दिया हो। लेकिन वापस वो फिर लौट सकता है। इसीलिए ये साधना तो उम्र भर की है।

कभी भी बहुत सुनिश्चित होकर के विश्राम में मत बैठ जाना कि अब तो हमारा काम समाप्त हुआ, हमें तो आध्यात्म की आख़िरी मंज़िल मिल गई, न। तुम्हारे पंछी को आकाशों के पार आकाशों में उड़ान भरते रहनी है, भरते रहनी है, भरते रहनी है। और फिर एक आकाश के बाद दूसरा आएगा, फिर तीसरा आएगा, फिर चौथा आएगा, फिर पाँचवा आएगा। तो जब कोई आखिरी मुक्ति है ही नहीं तो मुक्ति का प्रयत्न ही क्यों किया जाए? क्योंकि कुछ तो करना है न, कुछ तो करना है तो यही करो।

ये सर्वोच्च काम है इसलिए करो। मुक्ति, मुक्ति के प्रयत्न के परिणाम में नहीं है। मुक्ति, मुक्ति के प्रयत्न में है। परिणामस्वरूप नहीं मिलेगी मुक्ति। तुम मुक्ति के पुजारी हो गए इसलिए मुक्ति है। किससे मुक्ति है? घटिया काम से मुक्ति है। तुम और कोई घटिया काम करते, उससे मुक्ति मिल गई न। अब तुम सर्वोच्च काम कर रहे हो। सर्वोच्च काम क्या? मुक्ति का उपक्रम। ये ही मुक्ति है।

तो मुक्ति कोई आखिरी अवस्था नहीं है कि ये देखिए साहब ये मुक्त हो गए हैं, वो मुक्त होकर के बैठ हुए हैं, कि इनको तो आखिरी अवस्था मिल गई है, फाइनल स्टेट (अन्तिम अवस्था) मिल गई है, न। मुक्ति कोई आखिरी अवस्था नहीं है। मुक्ति एक सतत प्रक्रिया है।समझ आ रही है बात?

और चूँकि वो एक प्रक्रिया है इसीलिए कभी भी वो बाधित भी सकती है। कोई भी बहाव कभी भी टूट भी सकता है, प्रक्रियाएँ बहाव जैसी होती हैं। समझ में आ रही है बात ये साफ़-साफ़? मुक्ति का प्रयत्न करते रहना है, इसलिए नहीं कि मुक्ति कोई हलवाई के दुकान की जलेबी जैसी है कि प्रयत्न करते रहोगे, करते रहोगे तो एक दिन वहाँ पहुँच जाओगे और जलेबी उठाओगे और खा लोगे। मुक्ति ऐसी कोई चीज़ नहीं है। बात सीधी सी ये है कि अब जन्म लिया है तो जो भी है, पचास-साठ-अस्सी साल जीना तो है ही। तो कोई घटिया काम क्यों करें? घटिया काम से मुक्ति ही मुक्ति है। कुछ ऊँचा करेंगे।

उच्चतम लक्ष्य के लिए कर्म करना यही निष्काम कर्म है। यही श्री कृष्ण की पूरी सीख है। इसी में मुक्ति है। जीव हो तुम, शरीरधारी, देही हो। देही को मुक्ति भी बन्धनों के मध्य ही मिलेगी। मुक्ति इसलिए नहीं है कि एक दिन तुमने सारे बन्धन तोड़ डाले। मुक्ति इसमें होगी कि बन्धन होंगे अपनी जगह, हमें देखो, हमारे शौर्य को देखो, हमारी गरिमा को देखो, हमारे प्रताप को देखो। जीवन की एक क्षण भी ऐसा नहीं रहा जब हमने बन्धन स्वीकार कर लिए, हम निरन्तर संघर्षरत रहे। ये मुक्ति है। बन्धनों के मध्य मुक्ति है।

हमने बन्धन माने नहीं, मुक्ति कहाँ है अब? हमने बन्धन जब माने ही नहीं तो बताओ बन्धक कौन, बताओ मुझे? मना के हारे हार, मन के जीते जीत। अब बात समझ में आ रही है इसका क्या मतलब है? मैंने बन्धन माने ही नहीं, ऐसा नहीं कि बन्धन थे नहीं। बन्धन हैं इसका प्रमाण क्या? (शरीर की ओर इशारा करके समझते हुए) यही तो बन्धन है। ये तो है, ये तो जिस दिन तक होम नहीं हो जाओगे, राख नहीं हो जाओगे उस दिन तक है, तो बन्धन तो है।

हम इन बन्धनों के बीच में मुक्त हैं। बन्धन कट नहीं गए, पर जीवन हमारा लगातार समर्पित रहा जो उच्चतम हम कर सकते हैं इन बन्धनों के मध्य, वो करने में, ये मुक्ति है। बन्धनों के बीच भी जो अधिकतम और उच्चतम करा जा सकता है, हम वही करते रहें, ये मुक्ति है। मुक्ति इस में नहीं है एक दिन हम इस शरीर से फुर्र से चिड़िया की तरह बाहर उड़ गए और इधर-उधर जाकर देख रहे ऐसा है, वैसा है। हम तो जीवात्मा हो गए हैं। लल-लल-ला। ये सब परी-कथाएँ, ये बाल-कथाएँ हैँ। ये सब छोटे बच्चों को बहलाने के काम आती हैं। ये व्यस्कों के लिए नहीं है। आ रही है बात समझ में कुछ?

‘’देह धरे का दंड है, सब काहू को होय। ज्ञानी भुगते ज्ञान से, अज्ञानी भुगते रोय ।।‘’

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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