एक खास अंधविश्वास जिसे विज्ञान भी मानता है || आचार्य प्रशांत, वेदांत पर (2021)

Acharya Prashant

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एक खास अंधविश्वास जिसे विज्ञान भी मानता है || आचार्य प्रशांत, वेदांत पर (2021)

प्रश्नकर्ता: आपने बताया कि ज्ञान वो होता है जो ज्ञान को धारण करने वाले को ही ख़त्म कर देता है। फिर साथ में दूसरी बात ये भी आयी कि जो बड़े-बड़े वैज्ञानिक हैं, ये लोग भी हैं वो ख़ुद अन्धविश्वासों में फॅंसे हुए हैं। तो क्या इसका फंडामेन्टल रीज़न (मौलिक कारण) ये है कि जो भी पढ़ा जाता है— विज्ञान या कोई भी चीज़, कोई पढ़ता है कुछ तो वो मेनली (मुख्यत:) जॉब (नौकरी) पाने के लिए या कुछ?

आचार्य प्रशांत: नहीं, जो भी वजह होती है वो अहम् की वजह होती है। हो सकता है कि वो नौकरी और पैसे के लिए न पढ़ रहा हो, वो कहे कि मेरी तो बचपन से ही विज्ञान में रुचि थी। पर वो रुचि भी अहम् की थी न? वो अहम् को मिटायेगी नहीं। वो तो एक अजीब ही जादू होता है जब अहम् अपने प्रति व्यर्थता बोध से भर जाता है और ख़ुद को मिटाने के लिए आनन्दपूर्वक कष्ट में उतर जाता है। वो तो एक अजीब बात होती है।

वैज्ञानिक भी अगर विज्ञान पढ़ रहा है तो क्या कर रहा है? वो कह रहा है एक मैं हूँ, एक दुनिया है, मैं दुनिया के बारे में जानना चाह रहा हूँ। सारी बात ही द्वैतात्मक तल पर है न? पूरी डयुलिस्टिक (द्वैतवादी) बात है न ये? ये मैं हूँ (शरीर की ओर इशारा करते हुए), ये दुनिया है (बाहर की ओर इशारा करते हुए) और ये मेरे रिसर्च पेपर (शोध पत्र) हैं। बस। तो इसमें कहीं से भी ये भाव तो है ही नहीं न कि मैं कौन हूँ? मैं हूँ ही क्यों? हो सकता है बड़े-से-बड़ा वैज्ञानिक हो लेकिन वो बात तो अभी भी ख़ुद को और दुनिया को सच मानकर ही कह रहे हैं। ‘ये दुनिया है जो सच्ची चीज़ है, मुझे उसके बारे में ये खोज लेना है, ये कर लेना है और ये मैंने छाप दिया फलाने जर्नल (पत्रिका) में अपना पेपर।

समझ में आ रही है बात?

उसमें अभी ये नीयत कहाँ उठी है कि ये मैं कौन है जिसको ये दुनिया दिखायी दे रही है; ये मैं कौन है, जिसने ये लैब (प्रयोगशाला) खड़ी कर दी, जो लैब में सुबह जाता है, कुछ प्रयोग करता है, फिर वापस आता है, फिर सोचता है, ये बुद्धि आती कहाँ से है? ये बुद्धि क्या चीज़ है? बुद्धि की उत्पत्ति क्या है। ये तो उसको भी सवाल उठ ही नहीं रहे न? चाहे बड़े-से-बड़ा वैज्ञानिक हो या कोई भी वैज्ञानिक हो। ले-देकर के है तो वो उसी आयाम में — ‘मैं हूँ, दुनिया है’; ‘मैं हूँ, दुनिया है’; ‘मैं हूँ, दुनिया है’; ‘मैं हूँ, दुनिया है।’ इसीलिए वास्तव में पूछिए तो कोई बहुत बड़ा वैज्ञानिक भी है वो उस साधारण से मुमुक्षु से नीचे की चेतना के तल का है जो मुमुक्षु पूछ ले, ‘ये मैं चीज़ क्या है? मैं आ कहाँ से गया? ये सब शारीरिक प्रक्रियाऍं जो चल रही हैं इनके बीच में ये ‘मैं-मैं’ कौन करने लग गया? ये शरीर है (अपने शरीर की ओर इशारा करते हुए), शरीर के भीतर ये मैं कौनसी चीज़ आ गयी, यहाँ खोजो, सब काट-कूट दो तो ‘मैं’ तो कहीं दिखायी देगा नहीं। तो ये मैं कहाँ से आ गया?’ जो व्यक्ति ये सवाल पूछ दे, भले ही उसने ये सवाल बिलकुल अभी आरम्भ किया हो पूछना, वो व्यक्ति बड़े-से-बड़े वैज्ञानिक से थोड़ा ऊपर का हो गया। ये बात उनको थोड़ा अखरेगी जो विज्ञान प्रेमी हैं। पर विज्ञान प्रेमी, मैं भी हूँ, विज्ञान का बहुत आदर करता हूँ, उस पूरे आदर के साथ में ये कह रहा हूँ कि विज्ञान जब बड़ी-से-बड़ी खोज भी करता है तो भी वो खोज, वो पूरी खोज भी अन्तरगामी जिज्ञासा के पहले चरण से भी निचले स्तर की है।

कोई हो जो भीतर की ओर एक क़दम चला हो, और कोई हो जो बाहर दस हज़ार क़दम चल आया। ये भीतर की ओर जो एक क़दम चला है इसने ज़्यादा बड़ा काम कर दिया है, क्योंकि ये ज़्यादा मुश्किल और ज़्यादा आवश्यक काम है। मुश्किल भी है, आवश्यक भी है। विज्ञान हज़ार क़दम आगे चलाता है। खोजी के लिए हज़ार क़दम अन्दर चलना तो बड़ा मुश्किल है। अगर वो भीतर की ओर एक-दो क़दम भी उठा ले तो मैं कह रहा हूँ वैज्ञानिक से ऊपर का हो गया। क्योंकि हमारी प्रकृति नहीं है कि हमें ये प्रश्न प्राकृतिक रूप से उठे कि उस मशीन को देखने वाला ‘मैं कौन हूँ?’ ‘मैं पूरे ब्रह्माण्ड को देख रहा हूँ। मैं पूछ रहा हूँ कि उस तारे का अभी तापमान कितना होगा? वो तारा कितने दिन पहले मिट गया? नया ब्लैकहोल कहाँ बन रहा है?’ ये सारे प्रश्न हमें प्राकृतिक रूप से उठ सकते हैं, उठेंगे ही।

एक बच्चे को भी प्राकृतिक रूप से प्रश्न उठते हैं न? मम्मा, ‘वो क्या टिमटिमा रहा है?’ (आसमान की ओर इशारा करते हुए) वो बच्चा होता है तभी से वो तारे के बारे में जिज्ञासा करने लगता है, वो बड़ा हो गया तो वो पूरे कॉसमॉस (ब्रह्माण्ड) के बारे में जिज्ञासा करेगा। वो कहेगा, बड़े वाला टेलिस्कोप (दूरबीन) लगाओ, बड़ी लेबोरेट्री (प्रयोगशाला) बनाओ। पर वो काम अभी भी वही कर रहा है जो प्रकृति उस छोटे से बच्चे से करवा रही थी, जब उसने पूछा था ‘मम्मा, वो क्या है?’ ये काम उससे कौन करवा रहा था? प्रकृति करवा रही थी। वो बड़ा हो गया वैज्ञानिक बन गया — मैं वैज्ञानिक का पूरा सम्मान करता हूँ, बहुत सम्मान करता हूँ। उसके बाद ये कह रहा हूँ कि काम तो अभी भी वही कर रहा है जो छोटे बच्चे ने करा था। हाँ, छोटा बच्चा अगर आलसी होगा तो वो तारों के बारे में कल्पनाऍं करनी शुरू कर देगा। वैज्ञानिक ने इतना ज़रूर करा कि आलस को अपने पर हावी नहीं होने दिया। उसने कहा, ‘कल्पना नहीं करूॅंगा। तारों में अगर मुझे रूचि है, तो मैं तारों का तथ्य जानूँगा। यथार्थ जानूँगा।’ ठीक है? तो इस बात का श्रेय वैज्ञानिक को मिलना चाहिए। लेकिन फिर भी ये बात तो अपनी जगह है ही कि छोटे बच्चे की भी रूचि थी तारे में। और वैज्ञानिक की भी रुचि है? (तारे में)।

प्राकृतिक रूप से न छोटे बच्चे की रुचि थी स्वयं में, न वैज्ञानिक की रुचि है स्वयं में, क्योंकि प्राकृतिक रूप से हो नहीं सकती। तो ये जो ज़्यादा मुश्किल, ज़्यादा महत्वपूर्ण काम है ‘भीतर को जाना’, ये जो कर ले वो फिर बहुत बड़ा आदमी है।

प्र: तो जिस वैज्ञानिक ने अहम् के बारे में जिज्ञासा नहीं करी है, जो नहीं जानता है अहम् के बारे में, तो वो वलनरेबल (असुरक्षित) बाबा जी के भी चपेट में आने के लिए?

आचार्य: हाँ, बिलकुल, बिलकुल, बिलकुल, एकदम सही पकड़ा। बहुत बड़ा वैज्ञानिक हो सकता है, पर अगर उसने अहम् के विषय में जिज्ञासा कभी नहीं करी है तो बहुत सम्भावना है कि वो किसी-न-किसी अन्धविश्वास में फँसा हुआ होगा, होगा-ही-होगा। और अन्धविश्वास देखिए बस यही नहीं होते हैं कि आप उड़ते हुए साॅंपों में यक़ीन करना शुरू कर दें, अन्धविश्वास और भी पचास तरीक़े के होते हैं। मुझे पता है, उदाहरण के लिए ‘मुझे पता है कि मैंने जो आविष्कार किया उसका प्रयोग कहाँ होना चाहिए, मैं जानता हूँ।’ ये भी अन्धविश्वास है न? मैं जानता हूँ, मैं ऐसे चलूँगा, मैं वैसे चलूँगा। अपने बारे में मिथ्या धारणा रखना भी बहुत बड़ा अन्धविश्वास है। अन्धविश्वास यही नहीं है कि सामने पेड़ है, और मैं कहूँ ये जो पेड़ है इसकी पूजा करने से भूत भाग जाते हैं तो मैं अन्धविश्वासी हूँ, सामने के पेड़ के बारे में ही नहीं अपने बारे में भी अगर तुम व्यर्थ की बातें सोचे बैठे हो तो तुम अधविश्वासी ही तो हो। तो अपने बारे में तो बड़े-से-बड़ा वैज्ञानिक है ही अन्धविश्वासी। और जब तुम्हें अपने बारे में अन्धविश्वास है तो आपने बिलकुल ठीक कहा कि वलनेरेबिलिटी (अरक्षितता) है, एक कमज़ोरी है कि आप बाहर के भी अन्धविश्वास कहीं-न-कहीं स्वीकार कर लोगे, और ऐसा होता भी है।

आप वैज्ञानिकों को देखिए वो विज्ञान में बहुत पहुॅंचे हुए होंगे, लेकिन वो जाने कैसी बातें कर रहे होंगे। अभी ये जो महामारी (कोरोना) इतनी फैली है, इसका बहुत बड़ा कारण वैज्ञानिकों का अन्धविश्वास है। भारत में ये जो दूसरी अभी लहर आयी है, इसको लेकर के भारत के ही वैज्ञानिकों का एक बड़ा वर्ग था जो मॉडलिंग (प्रतिरूपण) कर के कह रहा था कि भारत की पीक (शिखर) तीस हज़ार पर आ जाएगी। तीस हज़ार केसेस (मामलों) पर भारत की पीक (शिखर) आ जाएगी। और वो पीक (शिखर) पच्चीस अप्रैल के आस-पास आ जाएगी। उन्हें अपना बड़ा विश्वास है कि हमनें जो मॉडलिंग (प्रतिरूपण) करी है वो सत्य ही है। कोई भी मॉडल (प्रतिरूप) कभी सत्य नहीं होता, पर उन्हें पूरा विश्वास है, वो ट्वीट करे जा रहे हैं अपने मॉडल (प्रतिरूप) को ले-लेकर। और इनमें से बहुत सारे लोग सरकार के सलाहकार हैं।

समझ रहे हो?

फिर जब तीस हज़ार की जगह रोज़ साठ हज़ार होने लगे तो उन्होंने अपना मॉडल (प्रतिरूप) अडजस्ट (अनुकूलित) कर दिया। अब वो मॉडल को अडजस्ट कर रहे हैं, ताकि मॉडल साठ हज़ार दिखा दे। और उन्होंने अपना कर्व (वक्र) दिखा दिया कि नहीं साहब पीक (शिखर) पेंतीस (हज़ार) पर नहीं साठ (हज़ार) पर आएगी। पूरा दिखा दिया साठ हज़ार पर आएगी। और आगे बढ़कर एक लाख आने लग गया। उन्होंने फिर से कह दिया, ‘नहीं-नहीं पीक एक लाख पर आएगी।’ तो जितने होते आ रहे हैं केस (मामले) वो अपना मॉडल अडजस्ट करके दिखाये जा रहे हैं कि साहब पीक अब इतनी आएगी, इतनी आएगी।

अब चार लाख हो गये। वो अभी भी यही दिखाने की कोशिश कर रहे हैं कि नहीं हमारा तो मॉडल सही था। यही तो अन्धविश्वास है। और क्या है? अपने ऊपर व्यर्थ विश्वास। मैंने मॉडल बनाया न। मैंने नतीजा (कन्क्लूज़न) निकाला न, तो सही ही होगा। वरना तो ये भी मान सकते थे न कि हमसे ग़लती हो गयी। ये नहीं मानेंगे। ‘मैं’ नहीं मानना चाहता कि वो ग़लत है कभी भी। ये मूल अन्धविश्वास है। और वैज्ञानिक को देख लीजिए। वैज्ञानिक हैं, स्टैटिस्टिशयन (सांख्यिकीविद) हैं। ग़लत अनुमान पर पहुॅंचे हुए हैं, और उसी पर टिके हुए हैं। ये अन्धविश्वास नहीं है? ग़लत चीज़ पर न टिकने के लिए आपको क्या चाहिए? आपको एक ऐसा अहम् चाहिए जिसमें विनय हो। वो अध्यात्म से आता है। वो कोई सीखी हुई चीज़ नहीं हो सकती, वो कोई मॉरल वैल्यू (नैतिक मूल्य) चीज़ नहीं हो सकती। वो ‘बोध’ होता है अपनी निस्सारत का, अहम् की अशक्तता का, अपनी सीमाओं का। कि जान ही कितना सकता है, ‘मन’।

ऐसा व्यक्ति जो अहम् के प्रति जिज्ञासा कर चुका है, और अहम् की सीमाओं और क्षुद्रताओं से परिचित है, उसे बिलकुल देर नहीं लगती है अपनी ग़लती स्वीकार कर लेने में। वो कहता है, ‘अहम् तो वैसे भी ग़लतियों का ही पिंड है। शरीर की एक-एक कोशिका में ग़लतियॉं भरी हुई हैं।’ जानते हैं न शरीर की मृत्यु भी क्यों होती है? ग़लतियों के कारण। जब तक आप बूढ़े होते हैं, आपकी जो कोशिकाऍं होती हैं वो बदल चुकी होती हैं। क्योंकि कोशिकाओं में अभी वो पर्फेक्शन (पूर्णता) नहीं है कि जो अगली कोशिका वो पैदा करें उनमें जो जनेटिक मेटेरियल (आनुवंशिक सामग्री) जा रहा है वो पूर्ण रूपेण बिलकुल सही-सही ट्रांसफर (प्रतिस्थापित) हो सके। इसलिए जो बच्चा पैदा होता है उसकी बात दूसरी होती है, उसकी आप खाल देखिए, उसके अंगों को देखिए, और जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जाती है वैसे-वैसे जो आपकी नयी कोशिकाऍं पैदा हो रही हैं पुरानी कोशिकाओं से वो भ्रष्ट होती जाती हैं, वो करप्टेड (भ्रष्ट) होती हैं। तो ये शरीर ही परफेक्ट (उत्तम) नहीं है।

नहीं समझ में आ रही बात?

भाई, यही आपका शरीर है तो बूढ़े आदमी की कोशिकाऍं इतनी गड़बड़ कैसे हो जाती हैं? चाहे वो उसकी मांसपेशियों की कोशिकाऍं हों, चाहे त्वचा की हों, चाहे हड्डी की हों, चाहे उसके हृदय की हों, चाहे यकृत की हों, कहीं की हों, गुर्दे की हों। कहीं से ये कैसे हो जाता है कि उसके सारे अंग कमज़ोर हो जाते हैं? क्योंकि ये शरीर ही ग़लतियों का पिंड है। ग़लतियाँ भरी हुई हैं, हमारी सेल्स (कोशिकाओं) में ग़लतियाँ भरी हुई हैं। जो जीनोम (आनुवंशिक सामग्री) है हमारा वही ग़लत है। और उसी से उठा है अहंकार, तो वो सही कैसे हो सकता है?

आध्यात्मिक आदमी ने अपने प्रति जिज्ञासा की होती है तो वो जानता है कि अहंकार को तो ग़लत होना ही होना है। क्योंकि अहंकार की जो माँ है ये शरीर, ये प्रकृति, वही ग़लत है तो उसका बेटा तो ग़लत होगा-ही-होगा। जिस मस्तिष्क से चेतना उठ रही है उस मस्तिष्क में ही न जाने कितने दोष हैं। तो चेतना पूर्ण या शुद्ध कैसे हो सकती है? चेतना निर्दोष हो कोई सवाल ही नहीं है। चेतना में तो विकार होंगे-ही-होंगे। तो वो तत्काल विनम्रता के साथ अपनी ग़लती मान लेता है। पर जिसने कभी आत्म जिज्ञासा नहीं करी, अपनी प्रकृति को जानने की कोशिश नहीं करी, वो व्यक्ति तना खड़ा रहता है कि मैं कह रहा हूँ न, मैं कह रहा हूँ न। अब वो विज्ञान के क्षेत्र में कह रहा होगा, वहाँ भी तना खड़ा रहेगा। दुनिया के बारे में हो सकता है कुछ जानता हो, अपने बारे में कुछ नहीं जानता। तो इसलिए मूर्ख बनेगा और दूसरों की मौत का कारण बनेगा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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