प्रश्नकर्ता: (माताजी से प्रश्न पूछते हुए) आपकी तरफ़ से कुछ सुनना चाहूँगा। कुछ चीज़ें जो बस़ हमने कल फ़िल्मों में देखी। और मुझे लगता है की फ़िल्म में जो दिखाया गया वो बहुत कुछ था। उसने बहुत कुछ चीज़ें फैक्ट्स (तथ्य) थे, पर आपके साथ कुछ ऐसा हुआ या जो आपने देखा मैं आपसे जानना चाहूँगा।
माताजी: बाप और बेटे को बाँध के रखते और औरत और लड़कियों के कपड़े-सपड़े फाड़कर रखते थे उनके सामने, किसको यह सहन होता। इसीलिए…
प्र: जब आप ही सुनते थे। नारे लगते थे। आपने कहा की घर से। मस्ज़िदों से ऐसी आवाज़ आती थी। कि कश्मीरी पंडित या तो कन्वर्ट हो जाए या तो भाग जाए और जो पंडिताइन हैं उनको यहीं छोड़ दें तो आपको कैसा लगता था, एक औरत होने के नाते?
माताजी: यह सुनकर ही हम पागल हो गए थे कि हमें आज़ादी चाहिए, हमें औरतें चाहिए। लेकिन आदमी लोग नहीं चाहिए, वो भाग जाओ यहाँ से। और एक ही जैसे हर मस्ज़िद से आवाज आती थी। इंसान तो उसी वक़्त जिनके दिल कमज़ोर होते थे यह सुनकर बेहोश हो जाते थे।
प्र: आप और बाक़ी औरतें जिनसे आपकी बात हुई होगी, जब यह स़ब सुनते थे। तो मन में क्या आता था, अब क्या करेंगे क्या सोचते थे। अगर ऐसा बोला जा रहा है, बार-बार बताया जा रहा है।
माताजी: जब हम ऐसा सुनते थे कि यह लोग ऐसा चाहते हैं, कि औरतें और लड़कियाँ यहीं रहे और मर्द सारे भाग जाएँ। हम सोचते थे कि हम कहीं भाग जाएँ, कहीं छुपकर बैठ जाए, कुँवारी लड़कियों को लेकर कहीं भाग जाएँ, कहीं छुप जाएँ। हम जो भी थे हमारी पापा की जो बहनें थी, मेरी बहनें, मसेरी बहनें, अपनी बहन – सबको लेकर हम भाग गए। बेश़क दो दिन हमने कुछ नहीं खाया। लेकिन हम सात बच तो गए। इज्ज़त बच गई, हमने यही सोचा कि हमारी इज़्ज़त बच जाए।
प्र: वैसे हमने काफ़ी पुरानी कुछ कहानियाँ सुनी है जैसे राजपूत औरतों के साथ हुआ था। उन्होंने एक साथ अपनेआप को आग लगा दी थी। कुछ कुएँ में कूद गई थी। तो ऐसा कुछ हुआ, ऐसा कुछ सुना आपने कि भई अगर ऐसा कुछ हुआ कि यदि हम पकड़े गए तो हम जान दे देंगे।
माताजी: जो हमारे घर में थी। हम आठ-दस इकट्ठे थे। हम भी यही सोचते थे। अगर कोई भी अन्दर आये हमारे घर में। हम यही करेंगे। हम इकठे मिट्टी का तेल डालकर ख़ुद को जला लेंगे। तब तो हम स्टोव जलाते थे तो वहाँ पर मिट्टी का तेल हर घर में होता था। लालटेन जलाना पड़ता था रोशनी के लिए। तो हमने भी यही सोच रखा था, मिट्टी का तेल। डाल के हम अपनेआप को जला लेंगे। लेकिन यह चीज़ें बर्दाश्त नहीं करेंगे।
प्र: ऐसा हुआ कहीं, कभी किसी ने ऐसा किया ?
माताजी: हमारे निकलने के बाद, बहुत सारों ने किया भी। जो दूर-दूर गाँव में लड़कियाँ अकेली थीं उनको ज़्यादा शैली के सिवा कोई सहारा नहीं था। वो कोई खेती-बाड़ी करते थे वही सहारा था। फिर उनका निकलना मुश्किल हो गया। उन्होंने वहाँ ऐसा किया है। सच में यही होता था।
प्र: (पिताजी से प्रश्न पूछते हुए) उस समय उन्नीस-सौ-नब्बे में जो हुआ था क्या वो अचानक हुआ या प्लानिंग थी ?
पिताजी: मैं यह समझता हूँ कि यह जो उन्नीस-सौ-नब्बे का जनवरी का महीना था। उससे एक साल पहले या उससे ज़्यादा टाइम (समय) पहले की यह पूरी प्लानिंग थी। बहुत सिक्रेटली (गुप्त रूप) से जहाँ-जहाँ मौका मिला, घर में या मस्ज़िद मे इसकी प्लानिंग (तैयारी) कर रहे थे।
ये बिलकुल किसी को पता था, क्योंकि साल का अंत आते-आते, पहले बम फोड़ा और फिर एक को मारा फिर दो को मारा। कोई जज था, उसने किसी को फ़ैसला सुनाया था। उसको मार दिया। मारने की बात दूर है, उसके बाद उसके पूरे मोहल्ले को बाहर निकालकर उसके ऊपर पेशाब करवाते थे। ताकि लोगों में दहशत हो जाए। कश्मीरी पंडित डरा रहा जनवरी तक और जनवरी में भी जब उनको लगा कि यह नहीं जा रहे हैं। तो उन्होंने, उनको जो करना था उस काम में उन्होंने तेजी लाई।
और उन्नीस जनवरी की रात को पूरे कश्मीर में जो भी वहाँ तेल के टीन होते है क्योंकि वहाँ तेल के बड़े-बड़े टीन होते है उसे लाकर और लकड़ियाँ लाकर छतों पर चढ़कर छत में टीन दबाकर रख दिया। और जहाँ-जहाँ मस्ज़िद थे वहाँ से ऐलान कर दिया कि चौबीस घंटे में कश्मीर खाली करो। और हमें बनाना है यहाँ पाकिस्तान। और जो आपकी माँ, बहनें हैं और बेटियाँ हैं, उनको यहाँ छोड़ो। और मर्द लोग चौबीस घंटे में यहाँ से खाली करो।
और उस रात के बाद मेरी माँ, आपकी दादी रातभर बाथरूम में रही। बिलकुल ऐसा हुआ कि हमें समझ नहीं आ रहा था करना क्या है और दूसरे दिन जितने भी हमारी महिलाएँ थीं उन सभी को हमने गाड़ी करके वहाँ से निकाल दिया।
प्र: जब आचार्य जी, मेरी पेरेंट्स (माता-पिता ) से बात हो रही थी तो बहुत से इनसीडेंट्स ( घटनाएँ) जो उन्होंने बताए और जो फ़िल्म मे नहीं थी। वो मैं आपको बताना चाहूँगा। वे लोगों को सिर्फ़ मारते नहीं थे, वहाँ पर लाश को जमा करके उस पर पेशाब करते थे, लाश पे भी ऐसे बिलकुल बर्बरता दिखाते थे।
दिल दहलाने वाली घटनाएँ जो मैंने घर पर भी सुना और मूवी में भी देखा कि स्पेसिफिकली (मुख्य-रूप से ) इस बात का ऐलान होता था कि कश्मीर, यहाँ से छोड़े, कश्मीरी मर्द निकल जाएँ पर औरतों को यहीं छोड़ दें।
आचार्य प्रशांत: देखो, यही तो जानवर की ताक़त होती है न,वो आपमें डर का संचार करना चाहता है। देखो यही तो जानवर की ताक़त होती है न, वो आपको डराना चाहता है। कभी दो जंगली जानवरों को लड़ते हुए देखना, वो अपने दाँत दिखाते हैं एक-दूसरे को, अपने पंजे दिखाते हैं एक-दूसरे को। वो एक-दूसरे से मानसिक, मनोवैज्ञानिक युद्ध लड़ते हैं पहले। तो यह बर्बर सेनाओं का या बर्बर दलों का एक पसंदीदा तरीक़ा रहा है कि दुश्मन को जब मार दो, तो उसका सिर काट लो और उसके कटे हुए सिर की बेइज़्ज़ती करो या उसके मृत शरीर पर टट्टी, पेशाब कर दो।
जो तुम अभी बता रहे हो। यह कुछ नहीं है, यह साइकोलॉजिकल वारफेयर है इसका इस्तेमाल उनको ही डराने के लिए किया जा सकता है जो मानसिक रूप से बहुत पक्के लोग न हों। तो जब वो देखते हैं कि हमारे साथी का सिर काट दिया गया है, हमारे साथी की लाश पर कोई पेशाब कर रहा है, तो भीतर से काँप जाते हैं, हिल जाते हैं। पाकिस्तानी सेना यह करती है अक्सर।
अभी कुछ साल पहले भी करा था कि भारतीय सैनिक का उन्होंने सिर काट दिया था। यह करते हैं। वो इसलिए करते हैं क्योंकि उनको पता है कि ऐसा करके वो द़हशत फैला पाएँगे। तुम कभी भी यह सुनिश्चित नहीं कर पाओगे कि युद्ध में कोई तुम्हारा सिर न काट दे। सिर तो देखो, कट सकता है; तुम कभी भी सुनिश्चित नहीं कर सकते कि अगर तुम्हारी लाश गिरी है तो तुम्हारी लाश के साथ कोई दुर्व्यवहार न करे, तो दुर्व्यवहार कर सकता है। लेकिन एक चीज़ तुम सुनिश्चित कर सकते हो कि ऐसा अगर कोई करेगा भी तो उसका तुम अपने मन पर असर नहीं पड़ने दोगे क्योंकि वो यह जो कुछ कर रहा है एक उद्देश्य के साथ कर रहा है। और उसका उद्देश्य है तुमको कँपा देना, तुम्हें खौ़फ में ला देना और खौ़फ में आना या न आना यह तुम्हारे हाथ में है। यह चुनाव तुम्हें करना होगा और यह चुनाव तुम सिर्फ़ एक ऊँची चेतना और गहरी समझदारी के साथ ही कर सकते हो।
अगर तुम में ऊँची चेतना नहीं है, तुममें गहरी समझदारी नहीं है तो तुम या तो बहुत डरकर बैठ जाओगा यह सब देखकर के कि मेरे साथी की लाश के साथ बर्बरता हो रही है या फिर तुम्हारे भीतर से इतना आक्रोश उठेगा कि तुम बैल की तरह जाके भिड़ जाओगे और मारे जाओगे।
तो यह सारी टुच्ची चीज़ें होती हैं और इनका युद्ध में समझ लो आयुध की तरह अस्त्र की तरह ही इस्तेमाल होता है, जिसमें एक चीज़ यह भी शामिल है कि दुश्मन की जो स्त्रियाँ हैं उनको पकड़ लेंगे, उनको ग़ुलाम बना लेंगे या उनका बलात्कार करेंगे। वही जो तुम अभी बोल रहे थे कि कहते थे कि सब कश्मीरी मर्द चले जाएँ और अपनी स्त्रियाँ पीछे छोड़ जाए वगैरह-वगैरह।
जानवर तो जानवर के तरीक़े से ही लड़ेगा न, इंसान तो जानवर की पूरी व्यवस्था समझता है और यह समझ ही उसे जानवर के भय से भी मुक्त कर देती है। और जानवर पर जीत भी दिला देती है। क्या बोले ऐसे इंसान को जो तुमसे आकर के कह रहा हो कि तुम भाग जाओ और अपनी पत्नी को छोड़ जाओ ताकि मैं अपनी हवस पूरी करूँ उसपर और बलात्कार करूँ उसका। जानवर के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है ऐसा इंसान।
जानवर को हराने के लिए जानवर नहीं बन सकते आप। आप जानवर को हराने के लिए जानवर बन गए तो जानवर जीत गया, यह बहुत बड़ी जीत हो गई जानवर की। जानवर को हराने के लिए तो आपको और ज़्यादा इंसान बनना पड़ेगा। और जानवर जब भी हारा है इंसान से हारा है। जानवर और जानवर की तो काँटे की टक्कर रहती है हमेशा, वहाँ कोई नहीं जीतता। इंसान मने क्या? जिसके पास चेतना है वो इंसान कहलाता है।
समझ रहे हो बात को?
एक व्यक्ति है जो लड़ रहा है क्योंकि उसे बोला गया है कि जीतोगे तो पैसा मिलेगा और औरत मिलेगी, यह जानवर है। और एक व्यक्ति है जो लड़ रहा है क्योंकि उसे धर्म को जिताना है वो लड़ रहा है क्योंकि सच्चाई के लिए लड़ना ज़रूरी है उसका निष्काम युद्ध है यह इंसान है। ऐसे इंसान का जब भी जानवर से सामना होगा यह इंसान हार नहीं सकता। फिर कह रहा हूँ मर सकता है, हार नहीं सकता और ज़्यादा संभावना यही है कि जानवर हारेगा। क्योंकि जानवर के सामने जो उद्देश्य है जो लक्ष्य है जो लालच है वो बहुत छोटी चीज़ का है
यही लालच दिया जाता है कंचन-कामिनी, अगर जीतोगे तो पैसा मिलेगा और स्त्री भोगने को मिलेगी। यही मिलता है। और इसमें यह भी जोड़ दी जाती है अगर मरोगे तो जन्नत मिलेगी। जन्नत भी क्यों जोड़ दिया जाता है? क्योंकि वहाँ अच्छा बढ़िया खाने-पीने का सुविधा आराम है और हूरें मिलेंगी।
तो यह सब तो देखो, इस तरह के लालच में फँसना ही जानवर की निशानी है, तुम्हे जानवर नहीं बन जाना है। निष्काम युद्ध जो कर रहा है जो हार-जीत की सोचे बिना सिर्फ़ सच्चाई के लिए लड़ रहा है उसे कौन हरा सकता है! वो तो युद्ध शुरू होने से पहले ही जीत गया।
और देखो सारी लड़ाइयाँ बंदूकों से, तोप-तलवारों से लड़ी भी नहीं जाती, जीवन तो प्रतिपल युद्ध है इसलिए तो गीता चाहिए न, ताकि निष्काम कर्म क्या होता है सीख सको।
निष्काम कर्म ही निष्काम युद्ध है प्रत्येक कर्म एक प्रकार का युद्ध ही है क्योंकि कर्म तो संघर्ष की पृष्ठभूमि में ही होता है। ठीक है न? अगर कोई विपरीत ताक़त नहीं है तो कर्म शब्द का कोई औचित्य ही नहीं है न जब भी आप कहते हो मैंने कुछ किया तो उस करने में यह बात शामिल होती है कि करने में श्रम लगा। और श्रम का अर्थ ही होता है कि कोई विरोधी ताक़त मौजूद थी वरना श्रम क्यों लगता। तो निष्काम कर्म माने निष्काम युद्ध, निष्काम कर्म माने निष्काम संघर्ष और उसी को बढ़ा दो तो निष्काम युद्ध।
जो निष्काम होकर युद्ध कर रहा है वो नहीं हारेगा, वो नहीं हारता। और जो कामना के वशीभूत होकर युद्ध कर रहा है कि जीत जाऊँगा तो पैसा मिलेगा या स्त्री मिलेगी उसको हराना तो बहुत आसान है। वो हारा हुआ ही है। वो तो लड़ाई शुरू होने से पहले ही हार चुका है उसको तो बस थोड़ा-सा धक्का देना है और गिर जाएगा। लेकिन धक्का देने के लिए कोई अर्जुन जैसा चाहिए और अर्जुन की परिभाषा क्या? जो सिर्फ़ कृष्ण की सुनता हो।
आप अगर ऐसे व्यक्ति हैं जो कृष्ण के अलावा बहुतों की सुनते हैं अपने बॉस की सुन ली, अपने पति की, पत्नी की सुन ली उसकी सुन ली-उसकी सुन ली – मीडिया की सुन ली, समाज की सुन ली, प्रथाओं-परंपराओं की सुन ली। तो आप अर्जुन हो ही नहीं सकते।
अर्जुन तो वो जो सिर्फ़ कृष्ण की सुनता है, जो सिर्फ़ कृष्ण की सुनेगा, अपराजेय कैसे जीतोगे उसको? और याद रखना कृष्ण ने कभी अर्जुन को ऐसा कोई भरोसा नहीं दिलाया कि अर्जुन लड़ो जीत जाओगे। उन्होंने बस यही कहा कि लड़ो क्योंकि लड़ना ही धर्म है जीत हो हार हो हमें नहीं पता। पर लड़ना धर्म है तो लड़ो।
पिताजी: आपने ख़ैर पिक्चर में देख लिया है। तो उन्होंने एक सेंट्रल आइडिया (केन्द्रीय जानकारी ) दिया कि हुआ क्या है। अगर बताने बैठेंगे तो ऐसा बहुत कुछ हुआ है। और यह जो है बिलकुल मतलब जो यह एपिसोड (घटना क्रम) हुआ है यह बिलकुल सही दिखाए गए है। एपिसोड (घटना क्रम) बड़े सारे है। हजारों में लोग मरे हैं।
प्राइवेट पार्ट, नाख, आँखें निकाली, जो दिखाया गया है सीन वो रिकॉर्डेड है वो न्यूज़ पेपर में आया है वहाँ। पूरा प्लान हिसाब से था। तो हम दो-तीन लाख कश्मीरी क्या कर सकते थे। हमें किसी से कोई दुश्मनी नहीं है, न हमारा कोई धर्म सिखाता है कि हमें बदला लेना है हमारा। जीओ और जीने दो के हिसाब वाला धर्म है और यही हम चाहते हैं।
आपने सीन देखा मैं उसको एक्टिंग करके बताता हूँ। जब उनकी डेथ होती है तो उनका पोता खड़ा होता है। वो कहता है सीना पेतो-पेतो, सीना पेतो-पेतो, मामा यितों-यितों। यही सीन मेरे पिताजी के मरने पर हुआ। उनको ज़बरदस्त लगाव था कश्मीर के साथ। दादाजी मेरे पहले मर गए थे। तो पिताजी, बिलकुल उनकी डेथ (मृत्यु ) उन्नीस-सौ-छियानवे में ऐसी हुई है। यह कहते हुए (सीना पेतो-पेतो, सीना पेतो-पेतो, मामा यितों-यितों) वो मर गए। उनको बहुत लगाव था कश्मीर से। यह चीज़ें ऐसी है कि हम भुला नहीं सकते हैं।
पूरा प्लान था, कोई इंटरनेट कनेक्शन नहीं थे कोई वाट्सएप नहीं था। लोग हिंदू हों, मुसलमान हों, सिख हों, तीन-तीन, चार- चार किलोमीटर पैदल चलें। मुझे पूरा याद है इतना। उस पूरे गाँव में हिंदू गाँव में तो वहाँ एक-दो पढ़े-लिखे कश्मीरी पंडित थे, पढ़े-लिखे सब थे लेकिन अपनी ज़मींदारी में अपना करते थे।
पढे -लिखे नौकरी करने वाले एक-दो थे। तो बाक़ी जो कश्मीरी पंडित थे। बीस-पचीस वहाँ रहते थे। पाँच-दस घर थे तो बीस-बीस लोग थे तो पूरा गाँव उनका ही था। और दो वहाँ मुसलमान घर थे। वो लेट तक निकले ही नहीं वहाँ से उस गाँव से।
तो जब निकले नहीं तो उनको लगा कि सबकी तो बढ़ गई ज़मीन। सब कश्मीरी पंडितों की बढ़ गई ज़मीन। तो यह जाते नहीं यहाँ से। तो उन्होंने फिर एक दिन शाम को ग्यारह बजे। पूरे गाँव को मेरे ख़याल में उन्हीं दो घरों में जो घर के दो बच्चे थे मुसलमान उन्होंने आर्मी के भेस में उनको वहाँ लाया। और पूरे-के-पूरे गाँव को रातों-रात ग्यारह बजे ख़त्म कर दिया। उसमें से एक ही बच्चा बच गया था जो डर के मारे ऊपर कोयले की बोरी में छुपा था। डर के मारे, और वो बिना खाना खाए वो रहा। और चौबीस घंटे बाद उसको वहाँ से आर्मी ने रिकवर किया। ख़त्म हो गया था पूरा गाँव।
आज भी वो सारा ज़मीन किसी के पास होगा, किसी ने बेचा होगा तो बेचा होगा। वो निकले नहीं तो पूरे गाँव को उड़ा दिया। तो दो घर जो बचे हैं, तो वो अब पूरे गाँव के मालिक हैं।
प्र: कश्मीर के पूरे इंसीडेंट (घटना) का मैं, एक और चीज़ जो काफ़ी मन को दहला दिया था। इस फ़िल्म का अंत भी उससे होता है कि एक पीछे गड्डा खोदा हुआ है, सामने लाइन से कश्मीरी पंडित हैं और एक-एक करके गोली मारी जा रही है। तो मुझे बड़ी हैरानी हुई कि जब वो इंसीडेंट (घटना) हुआ भी था। पिताजी ने बताया कि ऐसा हुआ था। एक आदमी है वो गोली चला रहा है उसके बावज़ूद भी, अब आपको पता है मरने वाले हो कोई रिटालिएशन (प्रतिक्रिया) नहीं है।
वहाँ पर, शरीर पर ही बात आ गई है एकदम, तो ऐसा क्या था कि चलो, ठीक है। आप डरे थे पहले, लेकिन अब तो पता ही है कि अब मरने ही वाले हो, फिर किस बात का डर था?
आचार्य: खौ़फ की यही पहचान है न? खौ़फ में आप जिस चीज़ को बचाना चाहते हो खौ़फ के कारण ही उस चीज़ को नहीं बचा पाते। और खौ़फ, भय आपको बिलकुल पत्थर बना देता है। आपको लकवा मार जाता है जब आपको डर होता है तो।
और डर किस बात का है कि अब देह गई वो आ रहा है वो मुझे गोली मार देगा। तो देह गई, और देह बच सकती थी अगर आपको इतना खौ़फ न होता तो। खौ़फ इसी बात का था की देह गई। और देह गई क्योंकी खौफ़ था, खौ़फ कम होता - तो हो सकता था देह बच भी जाती।
इतने लोग हो इतने लोग, सौ-दो सौ लोग हो। और चार बंदूकधारी है, चार सौ लोग इन चार लोगों पर अगर टूट पड़ो तो उनकी ए-के फोर्टी सेवन भी कितनी काम आयेंगी उनके, क्योंकि वो जो चार लोग है वो तुम्हारे बीचों-बीच आ गए हैं। अगर वो चार दूर हो, तो उनसे नहीं जीता जा सकता। दूर है और दूर से गोली चलाकर चार सौ को साफ़ कर देंगे। पर चार अगर तुम्हारे बीचों-बीच आ गए है तो चार सौ लोगों को कुछ नहीं करना है बस़ जा के उन पर गिर जाना है। गोलियाँ चलेंगी - दस मरेंगे, बीस मरेंगे, चालीस मरेंगे। लेकिन बाक़ी बच जाएँगे। लेकिन जैसा हमने कहा न खौ़फ में आपको लकवा मार जाता है। और सबसे दुखद बात यह है कि डर में आप जिस चीज़ को बचाना चाहते हो उस चीज़ को आप खो देते हो ठीक इसी कारण से कि आप डर गए थे। डर के उसको नहीं बचा पाओगे।
प्र: आपने इस पूरी वार्ता की शुरुआत इस बात से की थी कि हम अपनी आइडेंटिटी इसलिए नहीं लेते हैं क्योंकि उसके साथ कर्तव्य आता है। तो मैं भरपूर कोशिश करूंगा अब ख़ासकर। जो मुझे पूरे डिस्कशन ( वार्तालाप) में। सबसे इम्पोर्टेंट प्वॉइंट (मुख्य बिंदु ) दिख रहा है कि आपने नफ़रत के बारे में बात की थी जो मुझे लग रहा है कि पनप रही है,और पनपेगी।
आचार्य: वो बात ऐसी है कि देखो अगर यह जो फ़िल्म है जो देख के आए हो उसका कुल अंजाम यह निकालता है कि एक समुदाय में दूसरे के प्रति नफ़रत खड़ी हो जाती है तो यह तो बहुत व्यर्थ परिणाम है बहुत घातक परिणाम है, इतिहास से सीखा जाता है। और एक ईमानदार आदमी की पहली कोशिश हमेशा यह होती है कि अपनी गलतियाँ ढूंढे अपनी कमजोरियों पर नजर डाले। क्योंकि उसका उद्देश्य होता है ख़ुद को बलवान बनाना ख़ुद को अपनी कमजोरियों से मुक्त करना। तो तथ्य बहुत जरूरी होते हैं बिलकुल मैं मान रहा हूँ कि इतिहास के तथ्यों को छुपाया नहीं जाना चाहिए। ठीक है जो भी कुछ हुआ कश्मीर में पंडितों के साथ। वो बात अगर सामने लाई जा रही है तो बिलकुल ठीक है क्योंकि तथ्य तो तथ्य है, तथ्य छुपाना तो बेईमानी होती है नहीं छुपाया जाना चाहिए तथ्य। लेकिन वो तथ्य सामने लाया गया। और कुल अंजाम बस़ यह कि एक नफ़रत का माहौल बना और यह हुआ तो फिर आपने क्या सीखा।
प्र: तथ्य आचार्य जी एक एक्सरे की तरह है कि आपने देख लिया कि क्या प्रॉब्लम है उसका इलाज बहुत जरूरी है जो आपने बताया कि बात समझना कि आप वेदांत के पास आए।
आचार्य: होना यह चाहिए कि अगर आपने यह तथ्य देखा तो आप समझो कि आपकी दुर्बलता वाकई कहाँ है आपकी दुर्बलता है आपके आध्यात्मिक अज्ञान में। और अगर अपनी असली दुर्बलता को नहीं पहचानोगे तो बार-बार हारते रहोगे। आक्रोश युद्धों में जीत नहीं दिला देगा एक ठंडी ताक़त चाहिए होती है, गर्म उफ़ान से बड़े युद्ध नहीं जीत- जाते। ठंडा लोहा देखा है मजबूत ठंडा लोहा, वो जीतता है, यह जो गर्मजोश होता है यह एक-दो दिन चल सकता है बहुत दूर तक नहीं ले जा सकता किसी को।
प्र: तो जितना जरूरी आचार्य जी फैक्ट(तथ्य ) है जो आया सामने। उतना जरूरी है कि आपने जो-जो समझाया है अभी वो पहुंचे लोगों तक, क्योंकि मुझे नहीं लगता कि फैक्ट देख के आपको कुछ भी यह बात समझ में भी आएगी।
आचार्य: हाँ, अब एक भूल यह है कि आपको तथ्य ही नहीं पता था, कि उन्नीस-सौ-नब्बे में कश्मीर में क्या हुआ। लोगों को तथ्य ही नहीं पता, वो एक भूल थी और दूसरी भूल यह होगी कि आपको तथ्य पता चल गया तो उसका आपने निष्कर्ष यह निकाला बस कि अब तो हमें दूसरे समुदाय के प्रति आक्रोश और नफ़रत से भर जाना है।
प्र: जी, एक विसियस-सर्कल हो जायेगा फिर।
आचार्य: फिर दूसरे समुदाय को अगर आप दूसरा ही मानते हैं उसको अलग मानते हैं तो फिर उसको अपने मामले ख़ुद सुलझाने दीजिये आप पहले अपने घर का कचरा साफ़ करिए और अपने घर में कुछ व्यवस्था क़ायम करिए।
प्र: तो सरकार ने आचार्य जी इस फिल्म को काफी क्षेत्रों में टैक्स फ्री कर दिया है।
आचार्य: अब वो सरकार जाने कि, किस उद्देश्य से टैक्स फ्री कर रही है। उद्देश्य सपष्ट होना बहुत ज़रूरी है।
प्र: मैं यही सोच रहा था कि ज़्यादा ज़रूरी यह है कि जो बात की कड़ी अपने जोड़ी है वो जुड़ जाए, वो बहुत-बहुत ज़रूरी है पहुंचना। वरना ऐसा हुआ कि किसी ने फैक्ट देखा कि मुझे कैंसर है और वो हार्ट-अटैक से मर गया फैक्ट देखकर।
आचार्य: यह बड़ी विचित्र चीज़ होती है, मेरे साथ गलत हुआ तो इसलिए अब मैं तुम्हारे साथ गलत करूँगा। इसको इंसाफ़ नहीं कहते यह बदला कहलाता है, न्याय चेतना के क्षेत्र का शब्द है और बदला जानवर के क्षेत्र का शब्द है। अगर आप बदले की भाषा में बात कर रहे हो तो आप जानवर से भी अलग कुछ नहीं हो। आप अगर बदले की भाषा में बात कर रहे हो तो आप जानवर ही हो फिर।
न्याय बिलकुल दूसरी चीज़ होती है। न्याय चेतना से जुड़ा शब्द है। अधिकांशत: हम न्याय के नाम पर जो करते हैं वो बदला होता है बस तो वो न्याय होता ही नहीं। पशु में बदला खूब चलता है, पशुओं में बदला चलता है। न्याय बिलकुल अलग बात है। न्याय की शुरुआत स्वयं से होती है। हमारे न्यायालयों में भी जो काम होता है वो अधिकांशत: न्याय नहीं है। वहाँ कुछ नियमों का पालन हो जाता है। एक उनकी कार्य प्रणाली है। न्याय बिलकुल अलग बात है। न्याय क्या है- यह जानने के लिए फिर से आपको ‘दर्शन’ की ओर जाना पड़ेगा वेदांत और गीता की ओर जाना पड़ेगा।
प्र: आप आचार्य जी काफी ज़ोर देते हैं तथ्यों पर, उसे जानने को। पर मुझे अभी इस पूरी वार्ता से एक बात समझ में आयी है कि, तथ्यों के साथ-साथ, साथ-साथ बिलकुल आ जाना चाहिए, यह बात भी कि उस तथ्य के बाद, आगे क्या हुआ।
आचार्य: क्योंकि तथ्य अपनेआप में एक बड़ी निष्पक्ष और मूक चीज़ होती है आप उस तथ्य का क्या इस्तेमाल कर लोगे वो आपके केंद्र पर निर्भर करता है, आप कौन हो। तो तथ्यों को जानना आवश्यक है लेकिन तथ्यों को सही केंद्र से जानना और आवश्यक है नहीं तो आप तथ्य का पता कर लोगे कि ऐसा ऐसा हुआ था सचमुच हुआ था, हुआ था बिलकुल हुआ था और उसके बाद आपकी जो प्रतिक्रिया होगी वो बिलकुल ही व्यर्थ होगी ऐसा बिलकुल हो सकता है आप जानवर बन गए, जानवर बन जाओगे, जानवर नहीं बनना है।
प्र: बचपन में संस्कृत की क्लास में एक श्लोक था उसमें ऐसा बोलते थे कि सत्यम बुर्यात, असत्यम न बुर्यात, अप्रिय सत्यम न बुर्यात। मतलब प्रॉपर्ली (सही तरीके से ) जैसे आपने बोला कि फैक्ट के साथ -साथ यह बहुत जरूरी है कि सही चीज़ पहुँचे। मैं अपनी ओर से पूरी कोशिश करूंगा की असली तथ्य लोगों तक पहुंचे। दूसरी खास कर मुझे ऑबवियसली (स्पस्टत: ) कश्मीरी कम्युनिटी में बहुत आगे तक यह बात पहुंचे।
आचार्य: देखो किसी चीज़ को उसके व्यापक परिपेक्ष्य में देखना बहुत ज़रूरी होता है, जब आप कहते हो घर खाली करा दिया गया,तो एक तल पर तो बात बिलकुल ठीक है कि यह घर है बड़ा घर है वहाँ जो रहने वाला था उसे खाली करा दिया गया। घर सिर्फ ईट-पत्थर का नहीं होता न, घर तो थोड़ा सुक्ष्म होता है, कि नहीं हो सकता? अब एक अंधी पश्चिमी संस्कृति भारतीयों पर छा गई और भारतीय युवाओं ने अपनी संस्कृति का घर खाली कर दिया। मैं इसको एक्सोडस (बहिर्गमन ) क्यों न कहूँ। मैं क्यों न कहूँ इसको बहिर्गमन। और यह भी हो उसी कारण से रहा है कि क्या- ताक़त की कमी। तो सनातनियों को तो उनके घर से कई-कई तरीकों से बाहर खदेड़ा जा रहा है आज भी।
हम ऐसा क्यों बोलते हैं कि उन्नीस-सौ-नब्बे में ही कुछ विशेष हो गया है, वो तो आज भी हो रहा है। आपके घर का बच्चा या बच्ची किस तरीके से सनातनी है मुझे बता दीजिये। आप कहते होंगे कि आप एक हिंदू हैं, आपका कोई उपनाम है, आप अपनेआप को कुछ बोलते होंगे खन्ना, वर्मा, शर्मा, कुमार, कुछ आपने उपनाम लगाया होगा। आपके घर में जो बच्चे हैं जवान होते बच्चे हैं या किशोर बच्चे हैं वो किस तरीके से हिंदू हैं बस़ यह बता दीजिये। हाँ इतना है कि वो राखी बाँध लेते हैं, टीका लगा लेते हैं, आप बोलते हैं तो ठीक है कर लो। दिवाली पर पटाखे चला लेते हैं, होली पर रंग खेल लेंगे; वरना उनमें हिंदू जैसा क्या है? बताइए।
तो क्या यह एक्सोडस (बहिर्गमन) नहीं है? क्या यह पलायन नहीं है कि हिंदू धर्म का घर छोड़कर के वो बच्चा बाहर निकल गया है। हिंदू धर्म की छत्रछाया छोड़कर के हिंदू धर्म की छत के नीचे से वो बाहर निकल गया, पता नहीं कहाँ को निकल गया वो। यह एक्सोडस (बहिर्गमन ) नहीं है? यह पलायन नहीं है क्या? और यह ज़्यादा ख़तरनाक पलायन नहीं है? और यह भी उसी वजह से होता है – ताक़त की कमी से और वो ताक़त आती है सिर्फ़ बोध से, समझ से, ज्ञान से, बल के बिना दुनिया में कुछ नहीं और बल सिर्फ़ अध्यात्म से आता है।
प्र: इसी फिल्म में आचार्य जी कश्मीर में एक पैरलल (समानांतर ) चीज़ चल रही थी फिल्म में कि कुछ स्टूडेंट्स हैं। जो कॉलेज में पढ़ाई कर रहे हैं उनकी एक फैकल्टी है वो उनको एक तरह से कंडीशन (अवस्थापित करना ) कर ही है एक पैरलल नेरेटिव (समानंत वर्णात्मक कहानी ) देते हुए आई थिंक (मैं सोचता हूँ ) जैसे अभी आपने बताया, तो वो भी एक बहिर्गमन है, क्योंकि कोई आपको आप के घर में बैठ के वो करवा रहा है जो वो चाहता है। और आप अंजाने में करे जा रहे है क्योंकि आपको व्यापक जानकारी नहीं है, अध्यात्म कि जानकारी नहीं है
आचार्य: बिलकुल-बिलकुल एक पूरी पीढ़ी को यह बता दिया गया है कि हिंदू धर्म का मतलब है पिछड़ापन, जातिवाद, छुआछूत, अंधविश्वास तो इसलिए हिंदू धर्म दुनिया का सबसे बेकार धर्म है। एक पूरी पीढ़ी है जो अपनेआप को हिंदू कहने में, शर्म अनुभव करती है। यह पलायन नहीं हो गया। और यह सब कुछ आपके सामने हो रहा है और आप इतने निर्बल हैं कि रोक नहीं पा रहे। यह लगभग वही बात नहीं है कि आपको बाँधकर के आपके घर के सदस्यों के साथ दुराचार किया जा रहा है और आप कुछ कर नहीं सकते।
वहाँ पर आतंकवादी कर रहे थे, यहाँ शिक्षा व्यवस्था कर रही है। आतंकवादी बंदूक लेकर कर रहे थे, यह कलम ले कर कर रहे हैं। आतंकवादी बंदूक दिखा कर के आपके सामने आपके बेटे-बेटी के साथ दुराचार कर रहा है और शिक्षा व्यवस्था कलम का इस्तेमाल करके आपके सामने आपके बच्चों का मन ख़राब कर रही है। देखिये न उनको स्कूलों, कॉलेजों में क्या पढ़ाया जाता है और मैं यह नहीं कह रहा कि स्कूल कॉलेज अच्छे नहीं है इसलिए बच्चे ख़राब हो रहे हैं। मैं कह रहा हूँ स्कूल कॉलेजों में जो पाठ्यक्रम ही तय किया गया है।
उसके बहुत सारे अंश, क्या बहुत विशाल और बहुत घातक नहीं है। क्या बहुत कुछ है जो छुपाया नहीं जा रहा है उस पाठ्यक्रम में और क्या बहुत कुछ उसमें झूठ नहीं मौजूद है। तो कमजोर लोगों के साथ यह सब होता है आपकी आँखों के सामने। आपके बच्चे आपसे छीन लिए जाएँगे किसको दोष दें, दोष तो हमारी कमजोरी का है।
प्र: चीज़ें सुनी है पहले भी जैसे ख़ासकर पंजाब में हुआ तो पंजाब के लोगों ने तलवारें उठाई लड़ाई की तो ऐसा क्या हुआ कि कश्मीरी पंडित भी वहाँ थे। एक पॉपुलेशन कम थी तो मिल जुल के लड़ने क्यू नहीं आए।
पिताजी: हम तीन से पाँच लाख थे वे अस्सी लाख थे, हम माईनोरिटी में थे।
प्र: मैं पूछना चाहूँगा जैसे सिक्खों ने लड़ा वो भी माईनोरिटी में थे। तो आप लोगों का, कभी मन में नही आया की हम सब कश्मीरी पंडित मिल के आये और वापस लड़े।
पिताजी: यह हमारा सबसे बड़ा निगेटिवे पॉइंट (नकारात्मक बिन्दु ) है। क्योंकि कश्मीरी पंडित का मुझे लगता है कि, वहाँ से यह हमारा सातवा-आठवा माइग्रेशन था। यह सुनने में आया है और कश्मीर में कहावत भी है की कश्मीर में सिर्फ ग्यारह घर रहे थे आज से सौ साल पहले। इनमे से कुछ कन्वर्ट हो गए, कुछ भग गए, कुछ चार-पाँच बचे रह गए, इनसे ही फिर धीरे धीरे कुछ फैला, यह सब कहीनयाँ सुनने मे आती थी। तो हमारा ऐसा नेचर (स्वभाव ) बन गया था की हम सेल्फ-सेंटेरड (आत्म केंद्रित ) से हो गए। कि मुझे बस एक नौकरी करनी है। आपको,उसको सभी को खुश रखना है।
ऐसा नेचर (स्वभाव ) बन गया की हमें किसी तरह इस माहौल में रहना है, आना है चुपचाप थोड़ी रोटी खाए बच्चों से बात की बस इतने में खुश थे, तो बड़ा लो-प्रोफाइल ( निम्न स्तर ) में रहे, तो उससे क्या हुआ हमारी यूनिटी (एकता ) नहीं बनी। अगर वहाँ सारे बात करते एक साथ आते, एकता होती, कोई लीडर (नेता ) होता। बेशक मारे जाते और अगर हजार मरे, पाँच हजार मरे, दस हजार मरे। कितने भी मरे, लेकिन इस तरह मरे होते लड़ते हुए तो, हो सकता है वो जो दर्दनाक मौत, वहाँ हुई वो नहीं होती।
हम कहीं किसी कैंप में चले जाते और वहाँ और बड़े कैंप थे। पुलिस के कैंप, पुलिस तो वहाँ की लोकल थी उनसे मिली हुयी भी हो सकती थी। सी-आर- पी- एफ के कैंप, कहीं भी हम घुस जाते तो मुझे लगता है की हमें भागना तो नहीं पड़ता। या उनको भी कुछ मौका मिला और गवर्नमेंट (सरकार ) भी थोड़ा वो प्रेसर (दबाव ) में आ जाती।
पर क्योंकि हम थोड़ा ख़ुदग़र्ज़ स्वभाव के रहे हैं। यह अटमॉस्फियर (आस –पास का वातावरण ) जो कशमीर में हमने पिछले हजार साल से देखा है तो हम ऐसा सेल्फ सेंटेरेड (आत्म केंद्रित ) से हो गए हैं। यह इंसान हमेशा किसी अटमॉस्फियर (आस – पास का वातावरण )से किसी अपब्रिगिंग (लालन –पालन ) से बनता है ऐसा होता है तो वही मुझे लगता है की वो एक सबसे बड़ी हमारी ग़लती थी। अगर हमारी यूनिटी (एकता ) होती, हमारा लीडर होता, जो बोलता कि निकलना है या बैठना है या क्या एक्शन (कारवाई )करेंगे क्या नहीं करेंगे, लड़ेंगे। तो सरदार क्यूँ वहाँ है क्योंकि उनकी यूनिटी है।
प्र: एक चीज़ आचार्य जी जो मैंने बहुत बार सुनी भी। और आज पिताजी के साथ माताजी के साथ बातचीत में भी आई, तो वो कह रहे थे कि हम एकजुट नहीं है तो इस एकजुटता के पीछे क्या है ?
आचार्य: देखो, एकजुट दो तरीक़े से हुआ जा सकता है, एक एकजुटता होती है अंधेरे की एकजुटता। जैसे भेड़ों का झुंड वो सब एक साथ हैं पर किसी को पता कुछ नहीं है और वो सब एकसाथ इसीलिए हैं क्योंकि किसी को कुछ नहीं पता है। तो एक तो वो एकजुटता होती है और दूसरी एकजुटता होती है जिसमें आत्मा की एकता होती है वो बिलकुल दूसरी चीज़ है जहाँ तुम दूसरे से इसलिए जुड़े होते हो क्योंकि दूसरे में रोशनी है।
तो एकजुटता का मतलब यह नहीं है कि बहुत सारे लोग इकट्ठे हो जाएँ, एक हो जाएँ, एकत्व हो जाए। वो एकत्व क्यों रखना चाह रहे हो? खेद की बात है कि अधिकांशत: हम एकता अपने अँधेरे की इर्द-गिर्द ही बनाना चाहते हैं। केंद्र में अँधेरा और उसके चारों-तरफ़ एकता। और उसमें जो साझी सहमति है वो यही कि मैं भी अंधेरे में हूँ तुम भी अंधेरे में हो और हमें अँधेरे में ही रहना है। तो मैं और तुम चलो अब साथी हो गए। इस तरह की एकजुटता किसी काम की नहीं है। दूसरे से सम्बन्ध बनाएँ, दूसरे के निकट जाएँ, प्रकाश देने के लिए या प्रकाश लेने के लिए।
अँधेरे में साझीदार होना यह कौनसी एकता है! प्रश्न यह नहीं है कि एकता हुई, प्रश्न है – एकता कैसे हुई, एकता का कारण क्या है? एकता का केंद्र क्या है?
चोरों में भी एकता होती है बहुत। और उनकी एकता आप तोड़ नहीं पाएँगे अगर पाँच-सात चोरों का गिरोह है उनकी एकता तोड़ना बड़ा मुश्किल होता है। आपको वैसे एकता बनानी है या वैसी एकता जैसी भगत सिंह और राजगुरु की थी। उनको भी आप अलग नहीं कर सकते थे, फाँसी के फंदे तक भी एक साथ गए वो, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु।
तो कौनसी वाली एकता चाहिए जहाँ पर साथ इसलिए है क्योंकि रोशनी का रिश्ता है या चोरों वाली एकता चाहिए जो रात के अंधेरे में ही एक हो पाते हैं। तो एकता शब्द ख़तरनाक हो सकता है, थोड़ासा उसमें आपको सतर्क रहना होगा।
प्र: और एकता से भ्रम पैदा हो सकता है।
आचार्य: बार-बार कहा जाता है आओ, एकजुट हो जाएँ; आओ, संगठित हो जाएँ, लेकिन संगठन के केंद्र में क्या है संगठन की बुनियाद क्या है पहले यह तो बता दो न। संगठित होना तो ठीक है।
प्र: जैसे आपने संगठित होकर वही कुछ रिचुअल चलाया।
आचार्य: जानवर बहुत संगठित होते हैं। भेडियों का झुंड होता है, शेर भी एक दल बना कर के हमला करते हैं हम कहते है भले कि शेर अकेला चलता है जो शेर होता है कभी अकेला नहीं होता इनका तो हमेशा दल होता है चार-पाँच का। बाघ अकेला होता है शेर नहीं होता। तो एकता तो जानवर भी खूब दिखाते हैं। पर वो एकता बस इसीलिए होती है कि खाना मिल जाए वही कंचन- कामनी वाली बात।
बर्बर आक्रांताओं की फौजें होती थीं और उनमें बड़ी एकजुटता होती थी। और एक जुटता किसलिए होती थी? आओ, एक साथ रहें ताकि जिनको जीते उनका माल लूटेंगे और उनकी स्त्रियों को भोगेंगे। अगर एकता का यह आधार है तो भाड़ में गई ऐसी एकता।
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