प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम, मेरा प्रश्न है कि दुख बहुत ज़्यादा आता जा रहा है, जैसे-जैसे मैं सत्य के निकट आ रही हूँ, मुझे बहुत ज़्यादा उदासीनता, बहुत ज़्यादा आ रही है।
मतलब मैं बहुत ही स्पीड (गति) से चीज़ों को त्यागती जा रही हूँ, ये भी नहीं चाहिए, वो भी नहीं चाहिए, वो भी नहीं चाहिए और मैं उनको कभी पीछे मुड़कर याद भी नहीं करती। ऐसा नहीं है कि मैं उनको याद करती हूँ, मिस (याद) करती हूँ और कुछ जो काम कर रही हूँ, इस वक़्त उसका स्पीड भी मैं पकड़ रही हूँ, धीरे-धीरे उसकी गति बहुत अच्छी बढ़ती जाती है।
लेकिन एक समय ऐसा आता है कि जितना ज़्यादा मैं सत्य जानती जा रही हूँ, इस दिशा में कि ये तो जो मैं काम कर रही हूँ — जैसे कि मैं एनीमल राइट एक्टिविस्ट (पशु अधिकार कार्यकर्ता) हूँ। बहुत ज़्यादा दुख — कैसेज़ (मामलों) के बाद कैसेज़ देखने को मिलते हैं — वो दुख बहुत ज़्यादा बढ़ता जाता है मुझे और मेरी गति उस दुख को देखकर कभी-कभी ऐसा होता है कि मैं पाँच दिन-सात दिन एकदम फ्रीज़ (जड़वत्) हो जाती हूँ।
मतलब मुझे समझ में ही नहीं आता कि मैं क्या करूँ। फिर वापस छ:-सात दिन बाद आँसू पोंछती हूँ, वापस काम पर लग जाती हूँ, करने लग जाती हूँ, और स्पीड डबल (दुगनी गति) करने की कोशिश करती हूँ।
अब दुख ये हो रहा है कि मैं वो सात दिन भी क्यों रुकी हूँ, मैं किस बात के लिए इतना ज़्यादा दुख प्रकट कर रही हूँ, क्या मैं लोगों पर डिपेंड (निर्भर) हो रही हूँ किसी चीज़ के लिए या मैं शायद जो बाहर की चीज़ें हैं, उनको बदलने की कोशिश कर रही हूँ?
आचार्य प्रशांत: देखिए, जिसको दूसरे का दुख मिटाना हो, वो अगर अपने दुख का ख़्याल कर रहा है, तो दूसरे के लिए नहीं कर पाएगा। आप जितने दिन फ़्रीज़ होती हैं, उतने दिन आपका काम भी तो रुकता है या कम होता है। तो अपने दुख की इतनी क़ीमत कभी नहीं होनी चाहिए कि उसकी वजह से अपना काम रुक जाए। ख़ासकर अगर ज़िंदगी में कोई अच्छा काम पकड़ा है तो। अपने को बुरा लग रहा है तो ठीक है। अपने को तो बस बुरा ही लग रहा है न, आप रुक जाओगे तो वहाँ पर तो जानें चली जाएँगी। उतने में आपने पाँच-सात, दस-बीस, सौ-चार सौ, कितनी जानें भी हो सकता है बचा दी होतीं।
तो सही काम की यही आवश्यकता होती है और यही उसका आशीर्वाद भी होता है। शुरूआत आवश्यकता से होती है, कि वो काम अगर करना है तो अपनी पसन्द-नापसन्द, अपना प्रिय-अप्रिय ये सब थोड़ा किनारे रखना होता है। ये सोच नहीं सकते बहुत ज़्यादा कि इस पूरी चीज़ में हमारा क्या हो रहा है।
तो शुरू में तो लगता है ये आवश्यकता है, आप लेकिन जब इस पर आगे बढ़ते हो, तो पता चलता है कि एक तरह की रिहाई है, आशीर्वाद है, कि काम ने ही आपको अपनी ज़िंदगी से आज़ाद कर दिया और ये आज़ादी बड़ी भारी चीज़ होती है, बड़ी मुश्किल से मिलती है। इसी के लिए तो सारा अध्यात्म होता है।
अपने ही पिंजड़े में आदमी बैठा होता है, उसी से तो रिहा नहीं हो पा रहा होता है न। मेरी ज़िंदगी, मेरे पैसे, मेरी इज़्ज़त, मेरा परिवार, मेरी पसन्द, मेरी तरक़्क़ी, तो कुछ अगर ऐसा मिल जाए, ऐसा काम में ही मिल जाए तो इससे बड़ा आशीर्वाद या उपहार या नियामत और क्या होगी।
काम, ख़ासतौर पर बहुत बड़ा आशीर्वाद होता है, क्योंकि समय बहुत लेता है न। और भी चीज़ें मिल सकती हैं, ये भी हो सकता है कि किसी को कोई अच्छी किताब मिल गयी, वो किताब ऐसी है, जब तक आप उसके साथ रहते हो, आप अपनेआप से आज़ाद हो जाते हो। बिलकुल हो सकता है, लेकिन किताब आप चौबीस घंटे तो पढ़ोगे नहीं, दस घंटे भी नहीं पढ़ोगे और किताब ख़त्म हो जानी है, और पाँच-सात, पंद्रह बार पढ़कर के फिर आप उसको और नहीं पढ़ पाओगे।
काम अनन्त होता है और काम अगर सच्चा है, तो अनन्त होगा। माया अनन्त होती है न, आसानी से कहाँ वो ख़त्म होती है। तो सच्चे काम का मतलब ही यही है कि बड़ा भारी होता है और चूँकि वो बहुत भारी होता है, इसीलिए आपको इतनी मोहलत ही नहीं देता कि आप बहुत सोच पाओ कि मेरा क्या हुआ। किसी कविता में था, कर्ण को लेकर है। नहीं 'रश्मि रथि' नहीं। उसमें है कि असली योद्धा वो होता है, जिसे अपने घाव गिनने का वक़्त नहीं मिलता (मुस्कुराते हुए)। असली योद्धा वो है, जिसे मोहलत ही नहीं मिलती, अवकाश ही नहीं मिलता कि वो अपने घाव गिन पाये। कह रहे हैं, ‘उसके जैसा सौभाग्य और किसी का नहीं होता।‘
मस्त लड़ाई हो, मज़ा आ रहा हो और चीज़ इतनी बड़ी हो कि अपने को पूरा ही लील ले। पूरी अपनी आहुति दे देनी पड़े, कुछ भी न बचे। क्या मज़ा आया। निकले थे काम करने, मिल गयी मुक्ति। लोगों को लगा, ये तो काम ही कर रहे हैं, ये तो इनका प्रोफेसन (पेशा) है, उन्हें पता ही नहीं चला ये कुछ और हो गया है। आप उसको प्रोफेसन समझ रहे थे, वो यज्ञ बन चुका था, सेक्रिफाइज़ (त्याग)। ठीक है? जीवन बिताने का ये अच्छे-से-अच्छा और ऊँचे-से-ऊँचा तरीक़ा होता है।
काम ऐसा हो, जो ख़त्म होने को न आये, ख़त्म ऐसे नहीं कि पचास साल करा तो भी ख़त्म नहीं होगा। ख़त्म ऐसे कि आठ घंटे कर लो, दिन में बारह घंटे कर लो, सोलह घंटे कर लो, तो भी अभी और बचा रहे।
एक फ़िल्मी गाना है, तो उसके अर्थ मेरे लिए बदलते गये। गाना है कि “तू इस तरह से मेरी ज़िन्दगी में शामिल है।” जब एकदम बहुत लड़का था, तो उसमें एक पंक्ति आती है कि “मेरी तलाश तेरी दिलकशी रहे बाक़ी और ख़ुदा करे ये दीवानगी रहे बाक़ी।” तो तब तो उसका वही अर्थ था जो फ़िल्म में होता है, लड़की, कि मेरी तलाश — दिलकशी माने ‘आकर्षण’ — मेरी तरफ़ से तलाश रहे और मुझे तेरा आकर्षण रहे, और ये दीवानगी बची रहे। मेरी तलाश तेरी दिलकशी रहे बाक़ी और ख़ुदा करे ये दीवानगी रहे बाक़ी।
फिर आगे बढ़े, फिर दस-पंद्रह साल पहले था, जो सब स्टूडेंट्स (विद्यार्थी) थे मेरे, एक बार मैंने उनको वो कराया, तो वहाँ उसका अर्थ निकला ट्रुथ , सत्य कि अहम् सत्य को कह रहा है कि मैं तेरी तलाश करता रहूँ और तू मेरे लिए श्रीकृष्ण समान आकर्षक बना रहे और मेरी ये बेख़ुदी, ये दीवानगी, ये सदा के लिए रहे, ये मुझे आशीर्वाद दो। और अब मेरे लिए उसका अर्थ हो गया है, ‘काम’, श्रीकृष्ण भी नहीं। कि काम में दिलकशी बनी रहे, बस बनी रहे। उसी में लगे-लगे ज़िन्दगी कट जाए। नहीं तो ज़िन्दगी क्या है, नर्क है ज़िन्दगी और क्या होती है ज़िन्दगी।
अगर काम में दिलकशी नहीं है, तो इससे बड़ा नर्क क्या होगा ज़िन्दगी का? दिन के आठ-दस घण्टे तो काम ही करते हो और दो घण्टे-चार घण्टे आने-जाने में लगाते हो। तो दीवानगी बनी रहे, जहाँ पर अपना काम ही अपना सब कुछ लगे।
इससे बेहतर क्या तरीक़ा होगा जीने का और मुझे बड़ा बुरा लगता है उन लोगों का सोचकर, जिनको किसी कारण से, किसी स्वघोषित मजबूरी से, नक़ली, घटिया काम करने पड़ते हैं, उनके पास अपने तर्क होते हैं, कई बार तो मुझे उन तर्कों का सम्मान भी करना पड़ता है। लेकिन फिर भी उन पर दया सी आती है कि ऐसी कौन सी मजबूरी है, ऐसी कौन सी मजबूरी है कि जो मेरे बैचमैट (सहपाठी) थे सब, जब बाहर भाग रहे थे, आईआईटी, आईआईएम दोनों के ही दो तिहाई, तीन चौथाई बैच तो सब बाहर ही हैं, हिंदुस्तान में कौन रुका है। तो उनके लिए मैंने कुछ लिखा था। देखता हूँ याद आता है ठीक से या नहीं।
ऐसी क्या मज़बूरी यारों, जिधर चारा दिखा चल दिये। ऐसी क्या मज़बूरी यारों, जिधर चारा दिखा चल दिये। देखो खड़ा हूँ शान से, अपनी मिट्टी पे अपना हल लिये।
तो जिधर चारा दिखा, उधर को ही चल दिये बैल के जैसे, चार रुपए उधर ज़्यादा मिल रहे हैं उधर चल दिये। कोर्स दिख रहा है, वो कोर्स कर के नौकरी मिल जाएगी, तो कोर्स में घुस गये। दिखाई दिया कि पैसा कम मिल रहा है, तो काम में मन लगना बन्द हो गया। ये नर्क है और क्या होता है। नर्क कोई मरने के बाद थोड़े ही होगा कि वहाँ कड़ाहा उबल रहा है, यही नर्क है। काम ऐसा है कि उससे अपना रिश्ता ही ख़राब है। नौकरी पर जाकर घूस ले रहे हैं, घपले कर रहे हैं और क्या है! नक़ली ज़िंदगी।
काम ऐसा हो कि आत्मा की अभिव्यक्ति। ये है ज़िन्दगी। उसमें बीच में ये सब जो कष्ट मिलें, उनको बोनस मानना चाहिए। क्वार्टरली बोनस (त्रैमासिक बोनस) हैं ये सब, आता रहता है हर दो-तीन महीने में, सबको आता है।
प्र: धन्यवाद आचार्य जी।