एक चीज़ जो मन बार-बार माँगता है || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

Acharya Prashant

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एक चीज़ जो मन बार-बार माँगता है || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम। मन जल्दी से कनक्लूज़न (निष्कर्ष), सर्टेनिटी (निश्चितता) की ओर जाना चाहता है। मेरा मन जल्दी से कंक्लूड करके उसे फॉलो (अनुसरण) करना चाहता है। कृपया मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: नहीं, ये तो बहुत अच्छी बात है। सर्टेनिटी का मतलब- कुछ निश्चित हो जाए। कनक्लूज़न का मतलब कोई निष्कर्ष आ जाए, किसी अन्त पर पहुँच जाओ। मन को अन्त तो चाहिए ही। मन को निशंक होना है। जो चल रही है, ये कहानी, ये बड़ी आनन्दप्रद नहीं है, तो मन इसे कॉन्क्लूड करना चाहता है, कॉन्क्लूड माने- समाप्त। तो घटिया पिक्चर चल रही होती है, आप देखने गये होते हो। एक तो घटिया फिर तीन घंटे की। और भागकर आ नहीं सकते क्योंकि चार-पाँच और लोग बाँधकर ले गये हो अपने साथ। उनको बड़ा रस आ रहा है वो बेवकूफ़ी देखने में पर्दे पर। तुम मन-ही-मन क्या चाह रहे होते हो? क्या चाह रहे होते हो? भाग तो सकते नहीं क्योंकि उसी घर में वापस जाना है, आपके शब्दों में। रहना तो वहीं है जिनसे भागकर जा रहे हैं। अभी आधे घंटे में अभी वापस आ जाएँगे फिर। तुम मन-ही-मन फिर क्या चाहते हो? जल्दी से ये… ?

तो इसलिए मन, सबका मन लगातार निष्कर्ष चाह रहा होता है ताकि इस कहानी से मुक्ति मिले । जो चल रहा है भीतर, वो समाप्त हो। जो चल रहा है भीतर, अगर वो बड़ा रसपूर्ण ही होता, बड़ा आनन्दप्रद होता, तो मन उससे मुक्ति नहीं माँगता। मन नहीं चाहता कि कोई निष्कर्ष, कोई अन्त, कोई समापन आ जाए। समापन की चाह ही बता रही है आपको कि भीतरी माहौल कैसा रहता है। मन वो शय है जो अपनेआप से ही दुखी रहती है। जो अपना ही खात्मा चाहती है।

मन वो है जो लगातार इच्छाओं में जीता है और उसकी प्रबलतम इच्छा ये है कि उसे इच्छाओं से मुक्ति मिल जाए।

मन का दूसरा नाम है 'इच्छा।' और इच्छाओं में इच्छा उसकी ये है; केंद्रीय इच्छा ये है कि सब इच्छाएँ ख़त्म हो जाएँ। उसी को ऐसे भी कह सकते हैं कि सब इच्छाएँ पूर्ण हो जाएँ । पूर्णता उसकी केन्द्रीय इच्छा है। समझ में आ रही है बात?

तो मन आपका कनक्लूज़ंस माँगता रहता है इसमें कोई गुनाह थोड़े ही हो गया; अच्छी बात है। बस सस्ते निष्कर्षों पर मत रुक जाना। गड़बड़ वहाँ हो जाती है। मन मंज़िल माँग रहा है। बीच की किसी सराय में तम्बू मत गाड़ देना। आ रही है कुछ बात समझ में? कि दिल्ली से चले थे केदार जाने को, कि मंज़िल तो महाशिव ही हैं। और सहारनपुर में घोंसला बना लिया। ऐसा ही तो होता है। केदार में जाकर कौन बसा है आज तक? मिलो किसी से, कोई बोलता है? हम वहाँ के रहने वाले हैं, कहाँ के? केदार के।

लोग कहाँ-कहाँ के रहने वाले हैं? सिंह साहब, आप कहाँ के रहने वाले हैं? (श्रोताओं से पूछते हुए) अरे बता दीजिए, कहाँ के रहने वाले हैं? अरे एमपी तो बहुत बड़ा है। दमोह के रहने वाले हैं। आप कहाँ के रहने वाले हैं? आगरा के रहने वाले हैं। आप कहाँ के रहने वाले हैं? गुड़गाँव के रहने वाले हैं। आप कहाँ की रहने वाली हैं? भोपाल की रहने वाली हैं। एक बात बता दूँ पक्की-पक्की? आप जहाँ से भी आये है, न आप आगरा के लिए चले थे, न भोपाल, न गुड़गाँव के लिए। आप सब केदार के लिए चले थे। आपने बीच में तम्बू गाड़ दिया। आपने अपनी कहानी ग़लत जगह रोक दी । इसी को बोल रहा हूँ; कनक्लूज़न में बुराई नहीं है; जहाँ कनक्लूज़न नहीं होना चाहिए था, वहाँ कंक्लूड कर देने में बुराई है। कनक्लूज़न माने- अन्त, निष्कर्ष, निष्पत्ति, आख़िरी बात। आपने उस जगह को आख़िरी बना लिया है जो आख़िरी हो नहीं सकती।

वही जा रहे हैं, जा रहे हैं, जा रहे हैं। बीच में आया ‘शेरा दा ढाबा’ और राम जाने कौन सा जादू चला कि लगा, ये जो ‘शेरा दा ढाबा’ है, यही तो मेरा घर है। अब तब से वहाँ वो तन्दूर में बैठे हुए हैं। वहाँ से वो कई बार सन्देश भेजते हैं, आचार्य जी, ज़िन्दगी में दाह बहुत है। जले जा रहे हैं। न जाने क्या ग़लती हो गयी। आग-ही-आग है, राख-ही-राख है। तुमसे मैंने कहा था तन्दूर में घर बनाने को? भेजने वाले ने भेजा था कि यात्रा करो, केदार तक पहुँचो। तुम शेरा दा ढाबा में ससुराल बनाकर बैठ गये। और फिर कह रहे हो, आग-ही-आग है, राख-ही-राख है। ‘वो क्या है आचार्य जी, वो मेथी मटर मलाई। उसमें हमने उँगलियाँ डालीं और फिर पाँचों उँगलियाँ एक-एक करके चाटीं। बटर चिकन। चाटो। “बोये पेड़ बबूल का, आम कहाँ से खाये।”

हमारी कहानियाँ निश्चित रूप से इसलिए हैं कि वो अपने अन्त को प्राप्त करें, पर वो सही अन्त होना चाहिए। कहानियाँ हमारी इसलिए नहीं है कि लगातार चलती रहें। सब कहानियाँ व्यर्थ हैं। इन्हें अन्त पर तो लाना है, पर सही अन्त पर लाना है न। यूँही बीच में कहीं भी थोड़े ही रुक जाना है। मन, जानते हैं कहाँ रुक जाता है? मन वहाँ रुक जाता है, जहाँ वो रुक भी सके और सही-सलामत भी रुक सके। असली अन्त वो होता है जहाँ अन्त मात्र बचे, अहम् न बचे; तभी तो उसका नाम अन्त होगा न! अन्त माने क्या? जहाँ आपका अन्त हो जाए। लेकिन आप ऐसी जगह रुक जाते हैं जहाँ आपका अन्त होता ही नहीं। वहाँ आपका अन्त नहीं होता, वहाँ आप चक्करों में घूमते हैं बस। और चक्कर किसके अन्दर? तन्दूर के। तन्दूर के भीतर चक्कर मार रहे हैं।

इसी बात को सांकेतिक तौर पर कहा गया है कि नरक में बड़ी आग रहती है। कड़ाहों में उबाले जाते हो। नरक वो थोड़े ही है। नरक वही तो जगह है जहाँ हम उबाले जा रहे हैं रोज़-रोज़। मत जल्दी से कह दिया करिए, ‘मुझे मेरी तक़दीर मिल गयी, मेरी मंज़िल मिल गयी। अब सब ठीक हो गया। नौकरी बढ़िया हो गयी है, ज़िन्दगी सेट है। अब मैं सेटल हो जाऊँगा।’ पूछिए अपनेआप से, 'अन्त आ गया है क्या मेरा? अगर अभी मेरा अन्त आया नहीं तो मैं रुक कैसे गया?'

और जगत इतना मायावी है; यहाँ एक-एक व्यक्ति माया का एजेंट है। ये सब आपको ग़लत जगह रुकने के लिए मजबूर करने के लिए ही हैं। इसीलिए ये आपसे बार-बार पूछते हैं, 'बेटा सेटल कब होओगे?' ये आपको कन्क्लूड करा देना चाहते हैं, बहुत जल्दी और बहुत ग़लत जगह पर। जो कनक्लूज़न , जो अन्त, जो निष्पत्ति पच्चीस, पैंतीस क्या, अस्सी साल में भी नहीं आ सकती, वो ये आपके ऊपर थोप देते हैं, जब अभी आप अभी नासमझ ही होते हैं। जिन्होंने असली अन्त को पाना चाहा है, उनका पूरा जीवन लग गया है तब उन्हें बामुश्किल प्राप्त हुआ है। वो अन्त आपके जीवन में ला दिया जाता है तब, जब आप बस पच्चीस के होते हैं। बस हो गया, आप सेटल्ड हैं। देखा नहीं है कैसे बावले होकर आपके पीछे हाथ धोकर पड़ते हैं? 'सेटल कब होगे, 'सेटल कब होगे?'

ये कन्क्लूज़न चाहते हैं। ये चाहते हैं आपकी कहानी अब यहीं रुक जाए क्योंकि उसके आगे अगर बढ़ेगी तो उनके लिए ख़तरा है। उसके आगे अगर बढ़ेगी तो उनके अहंकार को चोट लगेगी। इससे आगे वो स्वयं तो कभी जा नहीं पाये न! कोई और आगे चला जाता है तो उनकी अपनी ज़िन्दगी की व्यर्थता उजागर हो जाती है। नंगी और भयावह सच्चाई उनके सामने कोई उधेड़ देता है। उन्हें अच्छा नहीं लगता। वो कहते हैं, ‘हमारी ज़िन्दगी बर्बाद हुई है; हम कैसे बर्दाश्त कर लें कि दूसरे की ज़िन्दगी बर्बाद न हो।’ वो आपको ठीक ठीक वही काम करवाते हैं जो काम करके वो ख़ुद बर्बाद हुए।

ये हुई बाहरी बात। भीतर भी यही चलता है। आप भीतर किसी मुद्दे पर सोच रहे होते हो, आपने देखा है, सोच जब गहरी जाने लगती है तो मन कैसे विरोध करता है? मन कहता है, ‘हो गया, सोच लिया न, समझ गये न! अब क्या सोचे जा रहे हो?’ जब भी आपको कुछ समझ आने लगेगा, आप पाएँगे, तत्काल कोई विक्षेप खड़ा हो रहा है। कुछ ऐसा पैदा हो जा रहा है जो आपके ध्यान को भंग करे। न जाने कितने लोगों का अनुभव रहा है, 'आचार्य जी, वैसे सब ठीक रहता है लेकिन जब आपको सुन रहे होते हैं, गहराई से सुन रहे होते हैं तो हाथ में हम पाते हैं, बड़ी झुरझुरी सी दौड़ने लगती है।‘ ये जो हाथ में झनझनाहट हो रही है, ये अकारण नहीं है। ये भीतरी माया की चाल होती है ताकि आपका ध्यान भंग हो जाए।

‘आचार्य जी, जब भी आपके पास आने का कार्यक्रम बनाते हैं, बच्चा बीमार हो जाता है।‘ वो बच्चा यूँही नहीं बीमार हुआ है; उसने भी घूस खा रखी माया से। एजेंट है। उसको ठीक तब बीमार होना है जब आपको यहाँ आना है। आप आना यहाँ बन्द करिए तो वो ठीक हो जाएगा, तुरन्त।

एक-दो लोग यहीं सो जाते हैं। बोले, ‘इतनी गहरी बात चल रही थी, बड़ा रस आ रहा था।’ भीतर जाते गये, जाते गये, जाते गये, भीतर ही सो गये। आप बाहर छूट गये, हम भीतर सो गये। बीच में पलकों का दरवाज़ा। लीजिए, हो गया काम। दरवाज़े के इस पार आचार्य जी, भीतर आप सो गये; अब नहीं कोई मिलन। पूरी व्यवस्था आपको सही मंज़िल से रोकने के लिए है। शरीर के भीतर की व्यवस्था भी और बाहर की सामाजिक व्यवस्था भी। इन दोनों में ज़्यादा घातक भीतरी व्यवस्था है क्योंकि सामाजिक व्यवस्था बहुत आप पर प्रभावी नहीं हो पाएगी, अगर आपकी भीतरी व्यवस्था ठीक हो तो।

पता नहीं आप में से कितने लोग इतने सचेत हैं और अपने ऊपर प्रयोग करके देख पाएँ। यहाँ बैठे-बैठे ही आपने देख लिया होगा कि ऐसे-ऐसे भी विचार आ-जा रहे हैं जिनकी कोई ज़रूरत नहीं है, जिनका कोई औचित्य ही नहीं है, कोई तुक ही नहीं बनता। आप ऐसी बातों के बारे में भी सोच ले रहे हैं जो आप कभी साधारणतया भी नहीं सोचते। और यहाँ वो बातें ऐसा लगता है, सोच लो। और कब सोच लो? ठीक तब जब सत्र गहराई पकड़ रहा हो। सत्र गहरा होता जा रहा है, अचानक आपको याद आ जाएगा, ‘अरे, वाशिंग मशीन में पतलून छोड़ तो नहीं आया अपनी।’ अब यहाँ बात हो रही है श्रीमद्भगवद्गीता में, इसमें अचानक बीच में पतलून कैसे याद आ गयी? अचानक नहीं याद आयी है, वो भीतरी साज़िश है ताकि आप कृष्ण से दूर रह सकें।

भीतर कोई है जिसे लीन हो जाना चाहिए, जिसे एक आख़िरी समाप्ति चाहिए लेकिन वो अपनी समाप्ति से इतना डरता है कि किसी भी तरह बचा रहना चाहता है। भला उसका इसी में है कि वो जल्दी ही लीन हो जाए। पर वो लीनता को मृत्यु समझता है। वो अपनी उच्चतम सम्भावना को अपना दुर्भाग्य मानता है। वो अपने ही वैभव से, अपने ही गौरव से, अपनी ही भलाई से डरता है। उसे बेहतरी तो चाहिए पर थोड़ी-थोड़ी। वो ऐसा मरीज़ है जिसने बीमारी को अपनी पहचान बना लिया है। उसकी बीमारी हटाओ तो उसको लगता है, वो मर गया। वो कहता है, ‘राहत दे दो। राहत दे दो। उपचार मत दे देना।’

राहत की चीज़ें वो लेने को तैयार हो जाता है। उपचार उसे नहीं चाहिए। वो कहता है, ‘बीमारी अगर नहीं रही तो मैं भी नहीं रहूँगा क्योंकि मेरा नाम है बीमार।’ अगर बीमारी नहीं रही तो बीमार का क्या होगा? बीमार भी नहीं बचेगा फिर। कहता है, 'ये तो फिर मौत हो गयी न। वो बैठा है भीतर। उसने बीमारी को आत्मा बनाकर पकड़ रखा है।

वो कुछ भी मानने को तैयार हो जाता है, सच जानने को तैयार नहीं हो जाता। इसी को हम कह रहे हैं नक़ली कॉन्क्लूज़न्स। ठीक वैसे जैसे बहुत लोग बड़े गर्व के साथ कहते हैं कि साहब देखिए, हम धर्मग्रन्थ वगैरह नहीं पढ़ते हैं। मैं उनसे पूछता हूँ, ‘तुम व्हाट्सएप्प पढ़ते हो? सड़क किनारे होर्डिंग लगा रहता है, वो पढ़ते हो? मोबाइल खरीदते हो उसका इंस्ट्रक्शन मैनुअल (अनुदेश पुस्तिका) पढ़ते हो? कह रहे, 'हाँ'। गीता ने क्या बिगाड़ा है कि वही नहीं पढ़ सकते? सबकुछ मानने को तैयार हैं, बीच में किसी भी ढाबे पर रुकने को तैयार हैं, मंज़िल तक जाने को तैयार नहीं हैं।

अपनेआप से प्रश्न करिएगा — ज़िन्दगी को आपने जहाँ भी रोक रखा है; क्या आप वहीं रुकने के लिए पैदा हुए थे? जब आप छोटे थे तब आपको कोई बताता कि आप वैसी ज़िन्दगी जिएँगे जैसी आप आज जी रहे हैं तो क्या आप सहमत हो जाते? बोलिए। आप पाँच साल के थे, दस साल के थे या जब आप पन्द्रह के थे, या जब जवान थे; अठ्ठारह, बीस-पच्चीस के थे, तब आपको किसी ने आपकी आज की ज़िन्दगी की एक तस्वीर दिखा दी होती या वीडियो दिखा दिया होता और आपसे कहा होता, 'ये ज़िन्दगी है। ये मैं तुम्हें प्रस्ताव दे रहा हूँ।' आप उसका प्रस्ताव मान लेते? नहीं मान लेते। तब नहीं मान लेते तो आज क्यों मान रखा है?

आप आज अगर पैंतालीस के हैं और पच्चीस की उम्र में पैंतालीस की ऐसी ज़िन्दगी आपने कतई न स्वीकार करी होती। आप कहते, 'नहीं, मैं इसलिए थोड़े ही हूँ कि पैंतालीस की उम्र में ये ज़िन्दगी जिऊँगा।’ तो आज आपने वह ज़िन्दगी क्यों स्वीकार कर रखी है? बहुत देर नहीं हो गयी है। पैंतालीस वाला भी अभी बच्चा ही है। शुरुआत हो रही है अभी।

चेतना का अर्थ है — चुनाव। कभी भी नयी शुरुआत की जा सकती है; आप चुनिए तो सही! सत्य के अलावा कुछ भी अपरिवर्तनीय नहीं होता। चीज़ें बदली जा सकती हैं। आप बदलिए तो सही! किसी ने आपकी तक़दीर नहीं लिख दी है। कुछ भी निश्चित नहीं हो गया है। निराशावादी मत बन जाइए, भाग्यवादी मत बन जाइए। संयोग सब प्रकृति के अधीन होते हैं, चेतना नहीं होती प्रकृति के अधीन।

माया कितनी भी बड़ी हो, प्रकृति को ही माया कहते हैं, वो कितनी भी बड़ी हो, आत्मा पर उसका बस नहीं चलता। पूरी दुनिया पर बस चल सकता है प्रकृति माया का; आत्मा पर नहीं चलता। वहाँ आपको पूरी स्वतन्त्रता है। आप उस स्वतंत्रता को जाग्रत तो करिए!

आप ग़लत जगह समर्पण करे बैठे हैं। समर्पण बहुत अच्छी बात है, पर ग़लत जगह करे बैठे हैं। अन्ततः रुक जाना बहुत अच्छी बात है, पर आप ग़लत जगह रुके बैठे हैं। सिर्फ़ अन्त में रुका जा सकता है तब तक तो “चरैवेति-चरैवेति।” अन्त से पहले जो रुक गया, उसने बहुत ग़लत कर लिया। आप क्या अन्त पर आ गये? अन्त की पहचान हमने क्या कही? वहाँ आप नहीं बचेंगे। आप तो अभी पूरे बचे हुए हैं। तो आप रुक कैसे गये? तब तक चलते रहना है, जब तक ख़त्म न हो जाएँ। किसके ख़त्म होने की बात कर रहा हूँ? शरीर के? भीतर कुछ है।

गाड़ी तब तक चलानी है, जब तक टंकी खाली न हो जाए। और मस्त बात ये है कि गाड़ी का, टंकी का और मंज़िल का कुछ ऐसा विधान है कि टंकी खाली सिर्फ़ मंज़िल पर ही हो सकती है। आपकी टंकी तो बहुत भरी हुई है। देखिए न! टंकी भरी हुई है, जीवन रुका हुआ है।

बढ़िए आगे बढ़िए। वो जो आपको मिला है सब, ऊर्जा के तौर पर, साँसों के तौर पर, समय के तौर पर, बुद्धि संसाधन के तौर पर; वो इसलिए मिला है ताकि आप तेज़ी से बढ़ते रहें, बढ़ते रहें। कहीं भी रुक नहीं जाना होता है। नहीं ठीक लग रहा? दाल मखनी, शेरा दा ढाबा की। मोह नहीं छूट रहा उसका। शेरा में डेरा। समझ तो रहे हैं न? शक मुझे भी यही था। भीतर-ही-भीतर सब समझते हैं। ऊपर-ऊपर ऐसे — ‘पता नहीं क्या बोल रहे हैं। नहीं, हम नहीं समझे।‘

YouTube Link: https://youtu.be/k9ZHnDcBsnw

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