एक बॉलीवुड अभिनेता की बेचैनी और सवाल || आचार्य प्रशांत (2021)

Acharya Prashant

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एक बॉलीवुड अभिनेता की बेचैनी और सवाल || आचार्य प्रशांत (2021)

प्रश्नकर्ता: नमस्ते गुरुजी! मैं एक ऐक्टर हूँ, मुम्बई में पिछले पाँच साल से काम कर रहा हूँ। और अभी पिछले कुछ सालों से अध्यात्म की तरह काफ़ी झुकाव हो रहा है। और मुझे अभी मतलब रीएलाइज़ हुआ कि मुझे दो डर लग रहे हैं, ‘एक तो अननोन की तरफ़ जाने का और दूसरा कि जो मेरा प्रोफेशन है उसकी तरफ़ मेरा झुकाव कम न हो जाए।‘

और लेकिन मैं, मतलब सच पता होने के बावजूद कि मुझे खुद के अन्दर कमियाँ दिख रही हैं कि मैं कितना झूठ बोल रहा हूँ और जो धोखा है उससे शर्म भी आती है और वो कंटिनयु (लगातार) नहीं कर सकता मैं। तो वो भी है कि चॉइस, मतलब डर भी है और ये भी है कि ऐसे भी नहीं रह, खुद से झूठ नहीं बोल सकता कंटिनयु, धोखा नहीं दे सकता।

आचार्य प्रशांत: देखिए आपने कहा कि 'अननोन की तरफ़ जाने का डर लग रहा है।' अननोन माने तो अननोन, पता ही नहीं है वहॉं क्या है? उससे डर कैसे गए? अज्ञात है न वो, अंजाना। डरने के लिए कुछ चाहिए न, जिससे डरते हो? जब आप कहते भी हो ये कि पता नहीं किससे डर लग रहा है पर बस लग रहा है तो बात इतनी सी नहीं होती है, कुछ-न-कुछ छवि होती है मन में, जिससे हम डर रहे हैं, भले ही हम खुद उस छवि के प्रति जागरूक न हों। हो सकता है हमें ही न पता हो हम किस चीज़ से डर रहे हैं, पर कुछ होता ज़रूर है क्योंकि मन का नियम है कि वो विषय के बिना, ऑब्जेक्ट के बिना काम कर ही नहीं सकता।

जैसे इंसान अगर कहीं है तो साँस भी होगी, दोनों अलग-अलग नहीं हो सकते। न तो आप ये कह सकते कि 'साँस तो चल रही थी पर वहाँ इंसान कोई नहीं था,' मामला बड़ा भूतिया हो जाएगा कि सिर्फ़ साँस हैं, इंसान नहीं है और आप ये भी नहीं कह सकते कि इंसान हैं। तो मन की सामग्री, मन का प्राण हैं विचार, छवियाँ, कल्पनाएँ, विषय। डर के पास कुछ-न-कुछ तो होगा बने रहने के लिए, जिसको वो सोचता है, पकड़ता है।

तो पहली बात तो कभी भी ये मत कहिए कि फेयर ऑफ द अननोन है, अज्ञात का भय है, नहीं, ऐसा कुछ होता नहीं। कोई भी अज्ञात से नहीं डर सकता, कुछ ज्ञात तो होगा। अब सवाल ये उठता है, क्या ज्ञात है? काहे से डर रहे हैं? क्योंकि आप ईमानदारी से मुझसे कह सकते हैं कि वाकई मैं भविष्य के बारे में तो कुछ जानता ही नहीं, कोई भी नहीं जानता भविष्य के बारे में कुछ भी। तो हम कैसे कह दें कि कुछ ज्ञात है और उससे डर लग रहा है? वाकई हमें कुछ भी ज्ञात नहीं है, यही तर्क होगा न हमारा कि भविष्य को लेकर के वाकई हमें कुछ भी ज्ञात नहीं है लेकिन डर फिर भी लग रहा है?

तो इन दोनों बातों को मिला कर देखिए क्या सामने आया? ज्ञात नहीं है डर तब भी लग रहा है, इसका मतलब कल्पना की जा रही है। पता कुछ नहीं है डर फिर भी लग रहा है, माने किसी चीज़ से तो लग रहा है न? फिर किससे डर लग रहा है? कल्पना से डर लग रहा है। अब वो कल्पना कहॉं से आ रही है? भविष्य का तो कुछ पता नहीं, तो कल्पना उठी कहॉं से? अतीत से। साथ चलिएगा, भविष्य का जो डर है, वो वास्तव में अतीत से उठती एक कल्पना है, जो आपने भविष्य के ऊपर बिछा दी है। ठीक है?

अब क्या कल्पना है भविष्य के बारे में? अतीत से आ रही है, पर है भविष्य के बारे में। वो क्या कल्पना है, जो आपको डराए हुए है? मैं बताता हूँ क्या कल्पना है? आप शायद सहमत होंगे, कल्पना है कि अतीत में जो सुख मिल रहा था, मज़ा मिल रहा था, वो भविष्य में नहीं मिलेगा या अतीत में जिन दुखों से बचे हुए थे वो भविष्य में मिल जाएँगे, बस यही दो तरह की कल्पना होती हैं।

समझ में आ रही है बात?

अब इन कल्पनाओं में न, बड़ा एक भ्रम और अहंकार छुपा हुआ है। एकदम ध्यान से चलिएगा, ये गणित की तरह है मामला जैसे कोई समीकरण सुलझाया जा रहा हो, एक के बाद एक क्रमबद्ध तरीके से। हम कह रहे हैं कि मेरे पास अभी कुछ है, कहीं भविष्य में वो छिन न जाए इसलिए मैं भविष्य से डर रहा हूँ, नाम भले ही मैं दे रहा हूँ अज्ञात का डर।

पर असली जो बात है भीतर वो ये है कि मेरे पास कुछ है कहीं वो छिन न जाए या अभी मैं खतरे से बचा हुआ हूँ, कहीं भविष्य में वो खतरा आ न जाए। इसमें आपने एक मूल मान्यता रखी है ऐज़म्पशन, क्या रखा है? आप कह रहे हो एकदम ज़मीन की भाषा में कि अभी जो है, मेरे पास कुछ है, बढ़िया, कोई बढ़िया ही चीज़ होती है उसी के छिनने से तो डरते हो न, नहीं? कोई बढ़िया चीज़ होती है, उसी के छिनने से तो डरते हो? अभी मेरे पास कुछ बढ़िया मस्त चीज़ है, रसगुल्ला है इधर, कही वो छिन न जाए आगे।

मैं कह रहा हूँ, इसमें भ्रम भी है। और जिसे हम साधारण भाषा में अहंकार के देंगे न? घमंड, वो भी। अहम् वाला अहंकार नहीं, गौरव वाला, घमंड वाला अहंकार।

कैसे?

आपकी मान्यता ये है कि अभी आप बड़ी अच्छी हालत में हो। आपकी मान्यता ये है कि अभी आपको रसगुल्ला मिला हुआ है तभी तो आपको लग रहा है न कि आगे कहीं छिन न जाए। जो ये मानेगा कि वो वर्तमान में किसी ऊँची जगह पर है, उसे ही तो डर लगेगा न कि आगे कही गिर न जाए क्योंकि भई! अभी तो हमें लग रहा है कि हम यहॉं बैठे हैं (हाथों की सहायता से ऊपर की ओर इशारा करते हुए) कहीं आगे गिर न जाएँ। आप वाकई ऊपर बैठे हो क्या? आप वाकई बहुत अच्छी हालत में हो, दिखाओ रसगुल्ला?

पर भविष्य से डरकर जानते हो हम अपने आपको क्या समझा रहे होते हैं? अपने खेल देखो, ये सारे खेल हम अपने साथ खेलते हैं। बड़ा मज़ा आता है इन्हें पकड़ने में। ये सब कहीं लिखा हुआ नहीं मिलेगा। ये सब तो प्रयोग करके और खुद को देख कर, पकड़ कर खुद ही जानना पड़ता है, ये सब किताबी बातें नहीं हैं। भविष्य से डर के हम अपनेआप को समझा क्या रहे हैं?

अरे भाई! बताओ?

श्रोतागण: वर्तमान अच्छा है।

आचार्य: कि वर्तमान अच्छा है। ये तो सबको अच्छा लगता है मानना कि हम बड़े अच्छे हैं। अब आपको चूँकि मानना है, हम बड़े अच्छे हैं, तो आप स्वयं को मनाने के लिए एक झूठा-मुठा डर खड़ा कर रहे हो कि हाय! मुझसे ये कुछ छिन न जाएँ।

जैसे मैं स्वयं को ही बहलालूँ-फुसलालूँ कि मेरी जेब में पाँच-सात करोड़ के हीरे वगैरह भरे हुए हैं। और फिर डर से लगूँ थर-थर काँपने। अभी रात होने वाली है, गहरी रात, समुद्र से उठकर कोई प्रेत आएगा, छीन ले जाएगा। और मैं बिलकुल अब, ऐसे दिल पर हाथ रख रखा है, पसीना-पसीना। ये सब मैं क्या कर रहा हूँ अपनी दुर्गति? इस दुर्गति के पीछे मुझे मज़ा मिल रहा है। मुझे क्या मज़ा मिल रहा है, बोलो? मुझे ये मज़ा मिल रहा है कि मैं मान पा रहा हूँ कि मेरी जेब में सात करोड़ के हीरे हैं।

हम जो भी कुछ करते हैं न, कहीं-न-कहीं मज़ा मारने के लिए ही करते हैं। आप अगर दुखी भी हो तो उस दुख के पीछे मजे ही मार रहे होगे। ये सुनने में बड़ा आहत करती है बात, खास तौर पर जो लोग दुखी होते हैं, उनको बता दो कि बेटा तुम है न, मजे ले रहे हो दुख के। वो एकदम चिढ़ जाएगा, चिढ़े-तो-चिढ़े मेरा काम है चिढ़ाना। समझ में आ रही है बात?

जैसे कोई भिखारी बैठा हो सड़क किनारे और आपको रोके, आप पूछो, 'क्या चाहिए?' बोले, फोन दो! बोले, ‘फोन काहे को दें?’ बोले, अरे! बस एक नम्बर डायल करना है। और फोन ले आपका और खट से सौ डायल करे। और उधर बोल रहा है, 'आज न मेरे घर में डकैती पड़ने वाली है, वो भी इंटरनेशनल।' फिर वो अगला नम्बर डायल करे, एम्बूलेंस का क्या होता है एक सौ एक?

श्रोतागण: एक सौ आठ।

आचार्य: एक सौ आठ, और उनको फोन करके क्या बोल रहा है, 'दिल का दौरा पड़ने ही वाला है, बहुत तनाव में हूँ, डकैत आ रहे हैं मेरी ओर’। ये सब वो क्यों कर रहा है? क्यों कर रहा है? ये सब करते हुए उसकी एक धारणा बिलकुल सही साबित हुई जा रही है न, उसकी नजरों में, क्या? कि उसके पास कुछ है लुटने लायक, कि वो भिखारी नहीं है।

अब उससे भी नीचे जाओ तो पता चलेगा कि वो ये सब इसलिए कर रहा है क्योंकि उसे गहराई से एहसास है कि वो भिखारी है, तभी तो उसे अपनेआप को साबित करना पड़ रहा है कि वो भिखारी नहीं है। ये कैसे देख रहे हो गेम चल रहा है? क्योंकि वो भिखारी है इसलिए उसे अपनेआप को साबित करना पड़ रहा है कि वो भिखारी नहीं है। भिखारी नहीं है, ये साबित करने के लिए उसे झूठ बोलना पड़ रहा है कि उसके पास पैसे हैं, माने वो भिखारी नहीं है। पैसे हैं, ये साबित करने के लिए उसे ये कल्पना करनी पड़ रही है कि इंटरनेशनल लूट होने वाली है। अन्दर-अन्दर ऐसे खेलती है माया।

हमारे पास है ऐसा क्या कि जो भविष्य छीन लेगा, बताइए तो सही? वाकई कुछ है, किस को धोखा दे रहे हो? लुटी-पिटी हालत, डरी हुई हस्ती, उजड़ी हुई बस्ती, और दावा ये कि लूट पड़ने जा रही है, बचाओ, बचाओ! किसकी उत्सुकता होगी हमें लूटने में? हमसे कुछ छिनेगा भी तो वही, जो हमारी परेशानी है। क्योंकि हमारे पास ले-देकर के क्या हैं? परेशानियाँ। तो अगर कुछ अज्ञात है भविष्य में तो अच्छी बात है न आपके लिए, आपके लिए बेहतर ही होगा वर्तमान से। अभी कौन सी बादशाहत चल रही है भाई! लेकिन नहीं, अहंकार तो यही मानना चाहता है न, कि अभी हम बादशाह हैं, हम हैं।

इसीलिए अध्यात्म शुरु वहॉं होता है, जहॉं आप अपनी हकीकत को अभिस्वीकृति देना शुरू कर देते हैं, एक्नॉलेजमेंट। ये दो बहुत अलग-अलग बात हैं। जो आपकी स्थिति चल रही है, आपको उसे एक्सेप्ट नहीं करना है, एक्नॉलेज करना है। और अध्यात्म में भी बड़ी गड़बड़ हुई है इसी भ्रम से कि लोग कहना शुरू कर देते हैं कि जस्ट एक्सेप्ट, नहीं, एक्सेप्ट नहीं करना है। एक्सेप्ट तो नहीं करना है लेकिन एक्नॉलेज करना है। एक्नॉलेज का क्या मतलब होता है? एक्नॉलेज का क्या मतलब होता है? ये स्वीकार कर लेना कि ऐसा है। ऐसा है, स्वीकार कर लिया पर ये नहीं स्वीकार कर लिया है कि ऐसा ही रहा आए, एक्नॉलेज्ड बट नॉट एक्सेप्टेड।

समझ में आ रही है बात?

तो वो एक्नॉलेजमेंट बहुत ज़रूरी है कि अभी मेरी जैसी हालत और हस्ती है, उसमें ऐसा कुछ है नहीं जो भविष्य में छिन जाए और छिनता हो तो छिने, हमारे पास जो चीज़ें हैं भी वो दो कौड़ी की हैं। लेकिन ये कहने के लिए, अब आप, बात फिर गोल घूमेगी। ये कहने के लिए, इतनी इमानदारी से ये कहने के लिए आपके पास सबसे पहले वो होना चाहिए जो छिन नहीं सकता। वो होगा तो फिर आप बिलकुल बिन्दास बोलेंगे जो छिनता है सो छिने क्योंकि असली चीज़ तो छिन ही नहीं सकती। पर असली चीज़ हमारे पास होती नहीं, होते क्या हैं? यही किस्से-कहानियाँ, परेशानियाँ, वो दो कौड़ी के हैं। अब वो छिन भी सकते हैं क्योंकि सब नकली है।

(हँसते हैं)

समझ में आ रही है बात कुछ? ऐसी चीज़ अपने पास रखते क्यों हो जिसे भविष्य छीन सकता है और जिसकी सुरक्षा के लिए तुम्हें चिन्तित होना पड़े? कुछ असली मसाला पकड़ो न। असली मसाला पकड़ने में तकलीफ़ ये है कि मसाला अगर असली होगा तो तुम उसे नहीं पकड़ोगे, वो तुम्हें पकड़ेगा। और हम पकड़े जाना चाहते नहीं, हम आज़ाद लोग हैं भाई! माय लाइफ़ माय रूल्स (मेरी ज़िन्दगी मेरे नियम)। हम नहीं बर्दाश्त करते कोई हमें पकड़े।

जो असली वाला मसाला होता है, जिसकी बात ये सब ऋषि लोग बार-बार करते रहे, बिन्दास तो यही थे असली। उससे हमें लगता है डर, और असली से लगने वाले डर को बचाए रखने के लिए हम सौ तरह के नकली डर झेलने को तैयार हो जाते हैं। इसीलिए बार-बार बोला करता हूँ, 'जीवन में एक डर रखो, बाकी सारे डर छूमन्तर हो जाएँगे।' असली वाले से तो हमें डर लगता नहीं, वहॉं हम बिलकुल बेशर्म हो जाते हैं। कहेंगे, 'किसी की नहीं सुनेंगे, कहीं नहीं झुकते, हमसे बड़ा कौन है? मेरी ज़िन्दगी है देख लूँगा, बाप को मत सिखा।'

तुम बाप हो? बाप होने के लिए हस्ती में कुछ चीज़ों का होना ज़रूरी है, वो हैं तुम्हारे पास? कमज़ोर के लिए एक शब्द ये भी होता है, ‘निर्वीर्य’, तुम बाप कहॉं से हो जाओगे? लेकिन नहीं। और फिर कीमत हम पूरी अदा करते हैं, कीमत क्या है? यही, डर रहे हैं, कुढ़ रहे हैं, काँप पर रहे हैं। किसी भी चीज़ को लेकर के आश्वस्ति नहीं है। बेखटके सोना तो छोड़ दो एक साँस भी नहीं ले सकते। कुछ खट से होता है और हड़बड़ा कर नींद खुल जाती है, बात-बात पर चौंक उठते हैं।

क्यों?

क्योंकि सौ तरह के डर है? क्यों? क्योंकि जो असली है, न उससे प्यार है, न डर है। जो असली है न, उससे अगर इन दोनों में से कोई भी रिश्ता रख लो, तो ज़िन्दगी बन जाती हैं। या तो उसके, इश्क में ही पड़ जाओ या उसकी गरिमा, उसकी महत्ता, उसके वजूद के आगे बिलकुल लेट जाओ, दंडवत हो जाओ, डर से जाओ, काम हो जाता है। इसीलिए फिर दो शब्द संस्कृति में चलते हैं ,'गॉड फियरिंग एंड गोट लविंग।' इन दोनों में निश्चित रूप से ज़्यादा अच्छा 'गॉड लविंग' है। लेकिन 'गॉड फियरिंग' होने के भी अपने फ़ायदे हैं। हमारे पास न प्रेम है, न अनुशासन। न हम गॉड फियरिंग है, और गॉड लविंग होने की तो बात ही नहीं, लव तो हमारे जीवन में है कहॉं?

तो ये हुई भविष्य से डरने वाली बात। दूसरी बात आपने कही, कुछ कही, मैं भूल गया। क्या कही?

प्रश्न: कि जो मेरा प्रोफेशन है उससे झुकाव कम हो जाएगा।

आचार्य: हॉं तो कोई ब्याह थोड़ी कर लिया है किसी भी काम से। ब्याह भी टूट जाते हैं, ये तो काम है।

प्रश्न: तो फिर ये भी डर लगता है कि कही मतलब…।

आचार्य: ज़िन्दगी से बड़ा कुछ नहीं होता। ज़िन्दगी के केन्द्र में आप बैठे हैं, आप जिसकी एक ही ज़िन्दगी है इसीलिए ज़िन्दगी से बड़ा कुछ नहीं। कोई काम पकड़ लिया वो ज़िन्दगी से ज़्यादा बड़ा हो गया? किसी जगह रहने लग गए कोई रिश्ता बना लिया, सब ज़िन्दगी से, ज़िन्दगी से बड़ा है क्या? सब कुछ आपके लिए आपके लिए है न?

आप जो कुछ भी कर रहे हैं वो अपनी खातिर कर रहे हैं न फॉर योर सेक (अपने लिए)? या जो चीज़ आपके लिए थी आप उसके गुलाम हो जाएँगे? वो चीज़ आपके लिए थी या आप उस चीज़ के लिए थे? कोई भी काम आपने इसलिए पकड़ा था न कि वो काम आपको शान्ति देता है, बेहतरी देता है? उस काम ने आपको बेहतरी देनी बन्द कर दी है, काहे को चिपके हो? आप देख लो बाबा कुछ और, बहुत बड़ी दुनिया है।

पर वही बात, मेरे पास कुछ है, कही भविष्य छीन न ले। मेरे पुराने काम में न, मुझे बहुत सारे रसगुल्ले मिले थे, अगले काम में नहीं मिले तो? खेल तो सारा यहीं अटक जाता है न। पहली बात तो तुम्हें कुछ मिला नहीं था, और थोड़ा बहुत जो तुम्हें मिल भी गया था तो उस थोड़े बहुत से क्यों सन्तुष्ट हो जाते हो? ये उमंग क्यों नहीं है? ये चाव, ये चाहत क्यों नहीं है कि और भी तो कुछ मिल सकता है? नहीं, नहीं, नहीं, जो थोड़ा सा मिल गया उतना ही काफ़ी है, कहीं और माँगने के चक्कर में जो मिला था वो भी छिन न जाए। बर्ड इन हेंड इज़ बेटर दैन टू इन बुश। (हाथ में एक पक्षी झाड़ी में बैठे दो पक्षियों से बेहतर है) वो जो हाथ में है, वो बर्ड नहीं है। कीड़ा को चिड़ा समझ लिया?

और फिर हम कैसी भी हमारी दुर्दशा हो उसको स्वीकार करें रहते हैं, बस इसी तर्क पर कि अभी हालत बुरी है, इससे आगे बढ़े तो कही और बुरी न हो जाए? अभी तो बुरी है निसन्देह लेकिन कुछ और किया तो कहीं इससे भी बुरी न हो जाए, ये तर्क है। और इस तर्क का क्या जवाब दे कोई?

एक जज़्बा होना चाहिए कि ज़िन्दगी या तो आलीशान हो, नहीं तो नहीं हो। तुम ऐसे ही हल्का-फुल्का, ठिठुर-ठिठुर के कभी सुलग-सुलग के जीकर पा क्या लोगे? तुम दे रहे हो अपनी नज़रों में बड़ी कोई कुर्बानी या बड़ा धीरज रख रहे हो, किस दिन के लिए धीरज रख रहे हो, ये बता दो? और क्या पाने के लिए कुर्बानी दे रहे हो ये बता दो?

इंसान धीरज रखता है, मुश्किलें बर्दाश्त करता है, कोई वजह होती है न? तुम जो मुश्किलें झेल रहे हो, उससे तुम्हें हासिल क्या हो जाना है? बस यही कि जो मुश्किलें चल रही हैं वो चलती रहेगी और जो तुम झेल रहे हो, झेलते रहोगे।

जिस क्षेत्र से आप आ रहे हैं, उस क्षेत्र में सन दो हज़ार बीस में कई कलाकारों ने आत्महत्या करी, करी? सभी युवा ही थे तकरीबन? सभी के पास ठीक-ठाक रुपया-पैसा था? आम आदमी की तुलना में थोड़ा ज़्यादा ही रहा होगा, कम तो नहीं? फिल्म इंडस्ट्री अगर बहुत परेशान कर रही थी बाबा तो, तो?

श्रोतागण: छोड़ देते।

आचार्य: अरे! छोड़ देते न, कुछ और कर लेते? हीरा जन्म था काहे को गवा दिया? लेकिन वही बात कि अभी जो है, वो तो बुरा है, आगे कहीं और बुरा न हो जाएँ।

हम बात करते हैं कोविड की, हम बात करते हैं और बीमारियों की, हम सड़क दुर्घटनाओं की बात करते हैं, आतंकवाद की बात करते हैं, ये सब जानलेवा हैं। आज जाकर के तुलना करिएगा कि आत्महत्या से कितनी जाने जाती हैं? इन सब चीज़ों की अपेक्षा, चाहे वो कैंसर हो, चाहे कोविड हो, चाहे कार्डियक डिज़ीज़ हो, चाहे टेररिज़्म हो, इनकी अपेक्षा आत्महत्या से कितनी जाने जाती हैं?

और ले-देकर के तर्क यही है कि जो चल रहा है यही तो है, इसके अलावा तो कुछ हो ही नहीं सकता। और जो चल रहा है अगर बहुत बुरा हो गया तो हम अपनी जान दे देंगे लेकिन कुछ और करने को हम राज़ी नहीं हैं। एक नई ज़िन्दगी शुरू करने को राज़ी नहीं है। जो चल रही है ज़िन्दगी अगर उसमें बहुत दुख हो गया, बड़ी तकलीफ़ हो गई तो जान दे देंगे। ये नए से इतनी घबराहट क्यों? इतनी घबराहट नए से कि जान देने को तैयार हो पर नया जीवन शुरू करने को नहीं!

और आत्महत्या तो पता चल जाती है, सनसनीखेज़ होती है। उन मौतों का क्या जिनमें शरीर चलता रहता है और प्राण मर चुके होते हैं? ऐसे मुर्दे देखे हैं कि नहीं? ज़िन्दों की बस्ती में ज़्यादातर ऐसे ही लोग होते हैं, मुर्दा, शरीर बस चल रहा है भीतर कुछ बचा नहीं है जिसको प्राण कह सको, शरीर हट्टा-कट्टा भी हो सकता है।

ले-देकर कारण यही, झेले जाओ, झेले जाओ, झेले जाओ। ये, ये है, ये जीवन का गोला है, वृत्त ये। (हाथों की सहायता मेज़ की ओर इशारा करते हुए) इस पर कितनी भी तकलीफ़ हो रही है, झेले जाओ। क्यों? इधर झाँकते हैं (मेज़ के एक ओर इशारा करते हुए) लगता है गिरेंगे, चोट लग जाएगी इधर, चोट लग जाएगी, चोट लग जाएगी। तुम्हें कैसे पता चोट ही लग जाएगी? तुम्हें कैसे पता कि तुम उड़ने नहीं लगोगे? तुम्हें कैसे पता कि चोट लग जाएगी, तो उसकी तकलीफ़ इस (मेज़) पर बने रहने की तकलीफ़ से ज़्यादा ही होगी? तुम्हें कैसे पता कि तुममें इतनी ताकत नहीं है कि तुम उस चोट को झेल लोगे और खड़े हो जाओगे। चोट लग भी गई, तो झेल लो न? यहॉं से तो मुक्ति मिली।

पर नहीं, रहेंगे इसी (मेज़) पर। और फिर दावा क्या करेंगे, 'साहब यही तो पूरी दुनिया है, संसार इसके बाहर कुछ होता ही नहीं। तो इस संसार में अगर हमें दुख मिल रहा है, तो हम आत्महत्या कर लेंगे क्योंकि साबित हो गया है कि और तो कुछ मिल ही नहीं सकता। संसार कुल इतना ही सा तो है।

संसार कुल इतना सा है?

और ये जो बाहर अनन्त संभावनाएँ हैं वो? उनका कोई महत्व नहीं? उनको नहीं आज़माया जा सकता? बस यही (मेज़ ) है। इस पर यहॉं से यहॉं, यहॉं से यहॉं कूद-फान्द करते रहो। यहॉं पिटाई पड़े तो वहॉं उचक कर बैठ जाओ, वहॉं मारे गए तो इधर आ गए। बीच-बीच में सुख भी मिल जाता है। तीन-चार बार जब लतिया दिए गए तो किसी ने आकर के मलहम मल दिया। कहें ठीक है, देखा? हमारी खोज सफ़ल है, सुख मिलने ही वाला है।

हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं कि जीवन कितना कुछ दे सकता है हमें, और हमने उसे कितने सस्ते में निपटा दिया है। आप एक सम्भावना की तरह पैदा हुआ थे और उस सम्भावना का कोई नहीं होता, असीम। कल हम आनन्द की बात कर रहे थे। ऐसे भी कह सकते हो कि सम्भावना ये थी कि मान लो सत्तर साल जियोगे, तो सत्तर साल में लूट सकते हो जितना लूट लो। और कभी भी तुम्हें रोका-टोका नहीं जाएगा। कोई आकर नहीं कहेगा कि, ‘बस इतने की अनुमति थी।‘

ये तो आपकी भूख पर है, आपके भीतर जीवन कितना है, उत्कंठा कितनी है, जिजिविषा कितनी है, इस पर है कि आप कितना लूट लेते हो? और हम सत्तर के हो जाते हैं और हाथ क्या आया होता है? ये रुमाल। (अपना रुमाल दर्शाते हुए) जीवन से या हासिल किया, बोलो काहे को (आँख पोछकर बताते हुए)? जीवन से जो कुछ मिला भी है, वो इसलिए मिला है ताकि आँसू पोछ सकूँ, बड़ी कमाई करी है।

विचार करिए फिर से?

कहीं कोई नियम है? जो कहता है कि जीवन से बस इतना ही मिल सकता है, इससे ज़्यादा नहीं, बोलिये? है कोई नियम?

श्रोता: नहीं।

आचार्य: तो आपको इतना कम क्यों मिल रहा है फिर? सबको ही, मुझको भी, सब शामिल हैं। कुछ हमारी ही करनी, करतूत होगी? छोटे-छोटे मामलों में तो हम बड़े महत्वकाँक्षी हो जाते हैं, ये मिलना चाहिए, वो मिलना चाहिए और कुल मिलाकर जीवन ही हम को क्या दे रहा है, इसकी हम गिनती ही नहीं करते।

हमने जो अपना मानसिक दायरा बना रखा है न ये (मेज़ के आकार को इंगित करते हुए) इसको चुनौती देना बहुत ज़रूरी है। हम चुनौतियाँ देते भी हैं तो इसके भीतर-भीतर देते हैं, कि मैं यहॉं से कूदकर यहॉं पहुँच जाऊँगा, इसको मैंने बड़ी चुनौती मान ली है जीवन की, यहॉं से यहॉं आ गया। (मेज़ पर दो जगह को इंगित करते हुए)

ये चुनौती हम अपनेआप को देते ही नहीं कि ये जो सुपर स्ट्रक्चर खड़ा कर रखा है, ये क्या है?(मेज़ के पूरे आकर को दर्शाते हुए) एक सुपर स्ट्रक्चर है। उसको भी तो चुनौती दी जा सकती है न या उसको नहीं दी जा सकती? हमारे लिए बदलाव का मतलब ये होता है कि उस कमरे से निकलकर के इस कमरे में आ गए। पर ये जब दीवारें ही हैं, इनसे भी बाहर जाया सकता है, बहुत बड़ा संसार है। ये हम कभी कहते ही नहीं, खयाल में ही नहीं आता, क्या कहेंगे?

तो जब हम बहुत परेशान हो जाते हैं, तो यहॉं से वहॉं पहुँच गए, वहॉं से यहॉं पहुँच गए। सबकुछ कहाँ हो रहा है? सीमाओं के भीतर। गतिविधियाँ खूब हैं, मूवमेंट ही मूवमेंट है। चीज़ें ठीक नहीं लग रहीं, बदल दो। क्या बदला? दीवार का रंग। साल में दो बार घर की पुताई कराई है, क्यों? यू नो! आई नीडिड ए चेंज (आप जानते हो! मुझे एक बदलाव की जरूरत थी। )

भाई जो चीज़ बदलने वाली थी, वो बदलने का तुमको खयाल ही नहीं है। तुम बदल क्या रहे हो? दीवाल का रंग, या कपड़े, या कुछ और, नौकरी बदल ली। दिस इज़ नॉट अस (ये हम नहीं हैं) (मेज़ दोनों सिरों की ओर इंगित करते हुए)। ये बड़ी भूल करी है हमने, हम छोटी-मोटी अपनी भूलें याद रखते हैं, उन पर पछता भी लेते हैं।

जो मौलिक, फन्डामेंटल भूल है, उसका हम कोई खयाल नहीं कर रहे। सबसे बड़ी भूल है इसको (मेज़) जीवन मान लेना, ये बड़ी से बड़ी भूल है। इसको जीवन मान लिया है और इसके भीतर जो है, उसको 'मैं' का नाम दे लिया है, मैं यहीं तो हूँ जिसका ये संसार है, इतना सा। (मेज़ बराबर)

आपके संसार की कुल हकीक़त ये है कि अभी थोड़ी सी सिर पर चोट लग जाएँ, बस स्मृति चली जाए, तो आप व्यक्ति दूसरे हो जाएँगे। कुछ भी याद रहेगा? तो माने ये जो संसार है, वो बस स्मृति का संसार है, अतीत का संसार है। अभी आपको इसको (मेज़) देखकर ऐसा लगता है कि मुझे यहीं तो होना है, यही तो मेरा सब कुछ है। और स्मृति अगर थोड़ी सी चली जाए तो फिर? तो आप पाएँगे कि जैसे वरदान मिल गया। फिर पूरी दुनिया उपलब्ध हो गई, अब कहीं के भी हो सकते हैं, अब कितनी ही नई शुरुआतें हो सकती हैं।

क्यों वैसे ही चलना है, जैसे चलते हैं? क्यों वैसे ही पहनना है, जैसे पहनते हैं? क्यों वैसे ही खाना-पीना है, जिसे खाते-पीते हैं? क्यों वही काम करना है? कोई क्यों वही भाषा बोलनी हैं? क्यों वही आदतें पकड़े रहनी हैं? क्यों वही सवाल? क्यों वही किताबें? क्यों वही धारणाएँ?

आदत। (हाथ खड़े करते हुए)

सबको लगती है। जब लगे तो उसको ज़ोर लगाकर खुद ही तोड़ देना चाहिए। क्योंकि वो नुकसान बताकर नहीं करेगी, वो चोरी-छुपे नुकसान कर रही होती है। एक नुकसान आपका ऐसा होता है कि आपकी जेब में कुछ था, वो कोई ले गया, ये नुकसान पता चल जाता है। एक नुकसान ये होता है कि आपकी जेब में कुछ आ रहा था, वो आने ही नहीं पाया, ये पता नहीं लगता क्योंकि जो आ रहा था आपको पता ही नहीं था कि क्या था वो। वो आ रहा था, आ रहा था, रास्ते में उसको किसी ने रोक दिया। आदत दूसरी तरह का नुकसान देती है।

जो कुछ आपको मिल सकता था सम्भावित था कि मिल जाता, वो आपको मिलने नहीं देती और खतरनाक बात ये है कि आपको पता भी नहीं चलने देती है कि नुकसान हो गया है क्योंकि मिला तो था नहीं, मिला होता फिर छिनता तो नुकसान पता चल जाता। मिलने ही नहीं पाया, ऑपर्चुनिटी लॉस (अवसर हानि) हुआ है ये। वो सबसे ख़तरनाक होते हैं क्योंकि उनका कोई हिसाब नहीं होता, वो प्रत्यक्ष नहीं होते।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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