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एक अकेला आशिक़ - जो रातभर जूझता रहा || आचार्य प्रशांत (2023)

Acharya Prashant

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एक अकेला आशिक़ - जो रातभर जूझता रहा || आचार्य प्रशांत (2023)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, चाँद या सूरज?

आचार्य: चाँद।

प्र: क्यों?

आचार्य: अकेले चमकता है न। अंधेरा होता है और उसके बीच में ये अपने अकेलेपन में भी मुस्कराता रहता है। जैसे चारों तरफ़ इसके अंधेरा हो और उस अंधेरे के बीच में यह बैठा है अपने दिल में सूरज को लेकर के। चाँद के दिल में सूरज ही तो होता है न। उसी की तो रोशनी है इसके पास।

छोटा हो जाता है, बड़ा हो जाता है, कभी-कभी तो एकदम ही गायब हो जाता है। लेकिन चाँदनी नहीं छोड़ता, चमकना नहीं छोड़ता है। सूरज जैसा नहीं है। सूरज तो अविजित रहता है। सूरज तो बहुत बड़ा है, बलशाली है, बुली है। सूरज तो ऐसा है कि चुप हो जाता है।

प्र: अकेला तो सूरज भी है, अकेला चाँद भी है। तो इन दोनों के अकेलेपन में क्या अंतर हो गया?

आचार्य: सूरज अकेला है पर बहुत बड़ा है। उसका अकेलापन ऐसा है कि सब उसके इर्द-गिर्द नाचते हैं, सारे ग्रह। उसका अकेलापन ऐसा है कि सब उसकी ओर आ-आकर के उससे रोशनी लेते हैं, ज़िंदगी लेते हैं, ऊर्जा लेते हैं।

ये बेचारा छोटू है, ये तन्हा है। ये बेचारा तन्हा है लेकिन रोशनी का साथ नहीं छोड़ता कभी। ये मुझे थोड़ा अपने जैसा लगता है। सूरज तो सत्य जैसा हो गया, सूरज तो ब्रह्म जैसा हो गया।

यह मेरे जैसा है। इसे अंधेरे से लड़ना पड़ता है। सूरज तो इतना बड़ा है कि जहाँ वो होता है वहाँ अंधेरा होता ही नहीं। यह उतना बड़ा नहीं है। इसे संघर्ष करना पड़ता है। सूरज को कोई संघर्ष नहीं करना। सूरज के तो होने भर से अंधेरा विलुप्त हो जाता है।

यह चुनौतियों से लड़ रहा है, ये प्रतिकूल स्थितियों से लड़ रहा है लेकिन फिर भी अपना प्यार नहीं छोड़ रहा है। सूरज इसका प्यार है, चाँदनी इसकी मोहब्बत है। लेकिन चारों तरफ़ अंधेरा छाया हुआ है इसको निगल जाने के लिए। तो स्थितियाँ बहुत प्रतिकूल हैं, गाढ़ी चुनौती है, ज़बरदस्त अंधेरा है। लेकिन फिर भी यह डटा रहता है।

हर महीने इसकी हार होती। यह अभी तुम्हें जैसा दिख रहा है पूरा ऐसे सफ़ेद परात की तरह, हमेशा ऐसे थोड़ी रह पाता है। अभी इसकी हार शुरू हो जाएगी कल से। हारेगा, हारेगा, हारेगा पंद्रहवें दिन पूरा ही हार जाएगा (चाँद की स्थितियों के बारे में बात की जा रही है जिसमें चाँद पूरा गोल होने से लेकर आधा गोल और फिर कुछ नहीं और फिर दोबारा पूरा दिखने लगता है)

और फिर कहेगा न! न! हार तो मैं सकता ही नहीं। "न हन्यते हन्यमाने शरीरे। साचे गुरु का बालका मरे ना मारा जाय कबीरा।"

तो राइजिंग फ्रॉम द डेड (मृत्यु से उदय) होता है फिर, लाइक अ 'फिनिक्स' , एकदम ख़त्म हो जाएगा, फिर खड़ा हो जाएगा। सूरज कभी ख़त्म नहीं होता, वो तो आत्मा है, अमर है। वो नहीं ख़त्म होता है।

प्रतीकों में बात कर रहे हैं हम। प्रतीक से समझना, सिम्बल से। तो ये हार बहुत झेलता है। और ये हार झेलता है और फिर खड़ा हो जाता है।

'सिसिफस' की कहानी सुनी है? 'मिथ ऑफ़ सिसीफस' में? जो बार-बार ऊपर पहाड़ पर पत्थर चढ़ाता है और पत्थर फिर नीचे आता है। लेकिन उसका काम है फिर से ऊपर लेकर जा, फिर नीचे। तो वो तो ख़ैर जो हमारी एग्जिस्टेंशियल (अस्तित्वगत) मज़बूरी है उसकी व्यथा को व्यक्त करने के लिए कही गई थी बात, सिसीफस की। आदमी ऐसा है सिसीफस जैसा कि रोज पहाड़ पर एक पत्थर चढ़ा कर ले जाए और पत्थर वो फिर लुढ़क कर नीचे आ जाता है। अगले दिन आदमी का फिर वही काम होता है, फिर पहाड़ पर ले जाए।

वहाँ बात मज़बूरी की थी, यहाँ बात प्यार की है। ये बार-बार हारता है और हारने के बाद फिर खड़ा हो जाता है।

इसके एक तरफ़ सूरज है और दूसरी तरफ़ चाँदनी है। और चारों ओर से इसको घेरे हुए अंधेरा है।

तो इसके पास एक कहानी है, कहानी बड़ी प्यारी है। वो कहानी, मैं जब तेरह या चौदह साल का रहा होऊँगा तब से इससे मुझे बड़ी प्रीत सी हो गयी — चाँद से। मैं रातों को जग करके इसको देखा करता था। और कविताएँ लिखी हैं, कविताओं में कम-से-कम आधा दर्जन कविताएँ तो इन्हीं को समर्पित है, चाँद को।

हॉस्टल में छत पर चला जाऊँ, लेट जाता था और देखने लगता था क्या है। ट्रेन में सफ़र करता था तो जब सब सो जाते थे ट्रेन में तो जाकर के दरवाज़ा खोलकर के ऐसे खड़ा हो जाता था जो दो तरफ़ दो रॉड्स होती हैं उनको पकड़ करके, ऐसे चाँद को देखता था। फिर वापस आ जाऊँ अपनी सीट पर तो वहाँ से चाँद को देखता था। तो इसलिए मुझे लोवरबर्थ (ट्रेन में नीचे की सीट) चाहिए होती थी। एसी में मिले कोई ज़रूरी नहीं है, एसी में नहीं मिले स्लीपर चलेगा, पर लोअरबर्थ देना क्योंकि लोअरबर्थ से ये दिखते हैं। और ख़ास तौर पर अगर साइड लोवर मिल जाए तब तो कहना ही क्या! साइड लोवर में खिड़की एकदम और बड़ी होती है न तो उसमें से मैं इनको देखता रहता।

प्र: तो क्या आप आज भी चाँद को देखते हैं?

आचार्य: तब आँखों के आगे था। अब इतना देख लिया, इतना देख लिया कि आँखों के अन्दर आ गया है। ज़िंदगी इस बात की फ़ुर्सत नहीं देती कि आँखों के आगे मोहलत मिले और चाँद को देखूँ, तारों को देखूँ। तो जो मेरे लिए मायने रखते हैं उनको मैंने अब अपनी आँखों के अंदर जगह दे दी है।

तो जैसे अभी देख रहा हूँ आज कुछ फ़ुर्सत मिल गई तो। ठीक है देख लिया इनको। नहीं तो इतनी फ़ुर्सत मिल नहीं पाती है। तो इनको ऐसे याद रखता हूँ। मैंने अपनी बहुत सारी कविताएँ चाँद पर लिखी हैं।

जब मैं अपनी पहली जॉब में गया था सॉफ्टवेयर में तो वहाँ पर जो हमारी वर्कप्लेस थी वो बिलकुल सफ़ेद पेंट थी। उसमें चारों तरफ सफ़ेद था। वो थीम थी वहाँ की। मिल्की वाइट (दुधिया), सब कुछ एकदम सफ़ेद, चमक रहा है। बड़ी कंपनी थी। तो वहाँ बैठकर मैंने एक कविता लिखी थी। उसमें बीच में कुछ पंक्तियाँ ऐसी थी कि "मेरा चाँद जब धब्बे लेकर चलता है तो तुम्हें इतना सफ़ेद होने का हक़ किसने दिया?"

तो ऐसे करके इनको तो मैं नज़र में, दिल में रखता ही रहा हूँ और कुछ हद तक यही ज़िम्मेदार रहे हैं मेरे रात्रि जागरण के लिए भी।

सूरज चुभता है। ये शीतल करता है। दिन की रोशनी से ज़्यादा चाँद की चाँदनी भाती है मुझको।

प्र: आचार्य जी, तो फिर आत्मज्ञान सूरज की तरह है या चाँद की तरह?

आचार्य: वेदांत का जो मूल सवाल है उसी से शुरू करो न।

आत्मज्ञान किसको होता है – सूरज को तो नहीं होगा। आत्मज्ञान तो चाँद को ही होता है न। क्योंकि चाँद ही वो है जो प्रेम कर सकता है।

प्र: कहा जाता है कि ज्ञान जला देता है।

आचार्य: ज्ञान इस भाव को जला देता है कि तुम सूरज हो। अहम् (अहंकार) अपनेआप को सूरज मानता है न। तो ज्ञान का मतलब होता है जान लेना कि बेटा तुम सूरज नहीं हो। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि तुम्हें कुछ अफ़सोस हो, दुख हो। तुम सूरज नहीं हो, लेकिन तुम चाँद हो। तुम्हारे पास जो कुछ है किसी और का दिया हुआ है, उसी के सामने तो झुकना होता है, उसी को तो नमन करना होता है। चाँद के पास भी जो कुछ है उसे सूरज से ही मिला है। चाँद की रोशनी सूरज की है।

आत्मज्ञान का मतलब होता है कि चाँद याद रखे कि सूरज से ही मेरी हस्ती है, सूरज ही मेरा प्यार है और सूरज की ही बात रात भर सब तक फैलाना ही मेरा धर्म है।

दिन को तो सूरज ख़ुद ही संभाल लेता है। रात होती है जब सूरज दिखाई नहीं पड़ता। तब चाँद कहता है कि ऐसा अंधेरा छा गया है, लोगों को सूरज दिखाई ही नहीं दे रहा है तो अब मैं सूरज का प्रतिनिधि बन कर काम करूँगा।

चाँद का काम है रात को सूरज का प्रतिनिधि बन जाना। सूरज की सीधी, डायरेक्ट रोशनी तो अब कहीं है नहीं, तो मैं अब सूरज की रोशनी सब तक पहुँचाऊँगा।

तो यही इंसान का कर्तव्य है, यही धर्म है। हम इसी लिए पैदा हुए हैं। ये जो चारों तरफ़ अंधेरा, माया छाई हुई है न, इसको आलोकित करें सूरज की रोशनी से। सूरज माने सत्य, सूरज माने आत्मा है, जो अनंत है, जो अमर है, जो स्रोत है।

मैं इसको देख तो सकता हूँ न जी भर कर, आँख भर कर। सूरज को तो लेकर सब ऋषि बोल गए हैं, "वो तो अगम, अगोचर है। उसे देखा ही नहीं जा सकता।" और सही बात है जैसे सत्य अगम, अगोचर, अदृश्य होता है वैसे ही सूरज को भी अगर ज़्यादा देर टकटकी बाँध कर देख लो तो अंधे हो जाओगे। चाँद से आँखें चार कर सकते हो। इसलिए सूरज के सामने झुका जा सकता है। प्रेम तो मुझे चाँद से ही हुआ। अपना सा है चाँद।

प्र: आचार्य जी, वैसे काफ़ी अजीब बात है कि आदमी रात में सोता है यह बोलकर कि अंधेरा है। आप रात में जगते हो यह बोलकर कि चाँद है।

आचार्य: यह तो नज़र की बात है। अँधेरा भी है, चाँद भी है। मेरी नज़र को चाँद प्यारा है तो मैं चाँद को देखता हूँ। जिसको अंधेरा प्यारा है वो अंधेरे को देखे।

"या निशा सर्वभूतानां तस्यांजाग्रति संयमी।"

तो सब भूतों को तो निशा ही दिखाई देती है। जिसको निशा दिखाई देती है उसको नींद मुबारक। जिसको चाँद दिखाई देता है उसको प्रीत मुबारक।

दिल धड़कने लग जाता है। अभी तो फिर भी तुम लोग यहाँ सामने खड़े हो तो बात एकांत की नहीं है। जब हम दोनों बस अकेलेपन में साथ होते हैं न, एकदम एकांत होता है कोई और नहीं होता, मैं होता हूँ, रात होती है और चाँद होता है, एकदम दिल ही धड़कने लग जाता है।

सब अपनी कविताएँ मैं रात में ही लिखा करता था। सब रात में ही लिखता था।

ये जो अँधेरा होता है रात का, ये हमारी ही स्थिति है। ये ज़िंदगी है — अंधेरा। और चाँद बताता है कि अंधेरा ज़रूरी नहीं है। चाँद बताता है ज़िंदगी कैसी भी हो, रौशन रहा जा सकता है, बशर्ते आप सूरज के प्रतिनिधि बनने को तैयार हों, बशर्ते आप सूरज के सन्देश वाहक बनने को तैयार हों। सूरज का पैगाम आप अगर घने अंधेरे के बीच में भी याद रखते हैं और सब तक पहुँचाते हैं तो आप चाँद हैं।

"कुछ है जो दिन के उजाले में खो जाता है चाँद उसी को ढूँढने रात रोज़ आता है"

~ आचार्य प्रशांत (१९९८)

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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