एक अकारण दर्द जो प्राणों से प्यारा है || आचार्य प्रशांत, संत रहीम पर (2014)

Acharya Prashant

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एक अकारण दर्द जो प्राणों से प्यारा है || आचार्य प्रशांत, संत रहीम पर (2014)

जद्यपि नैननि ओट है, बिरह चोट बिन घाई पिय उर पीरा न करै, हीरा-सी गड़ि जाई ~संत रहीम

वक्ता: बिरह के बारे में दो महत्त्वपूर्ण बातें हैं। पहली पंक्ति, हम बात कर रहे थे कष्ट और कष्ट की, ये उसका उत्तर है। कह रहे थे न कि कष्ट तब भी होता है जब दूर जाओ और कष्ट तब भी होता है जब करीब आओ। इन दोनों कष्टों में जो महत्त्वपूर्ण अंतर हैं दो, वही यहाँ बता दिए गये हैं।

पहला महत्त्वपूर्ण अंतर है —अहंकार के चलते जितने कष्ट होंगे, वो सब दिखाई देंगे, उनका कारण समझ में आएंगे। और बिरह का जो कष्ट है, कष्ट वो भी है, पर उसका कुछ पता ही नहीं चलेगा किस बात का कष्ट है। तुम्हारे जो रोज़मर्रा के कष्ट होते हैं, तुम्हारे दस रूपए खो गये, तुम्हें कष्ट है- तुम्हे पता चलेगा कि कष्ट है। बिरह का कष्ट ऐसा है जिसमें तुम बेचैन भी हो और जानोगे भी नहीं कि घाव कहाँ है। दर्द भी है और चोट कहाँ है, पता नहीं चल रहा।

अकारण दर्द—ये बात पहली पंक्ति में कही गयी है। और दूसरी पंक्ति में कहा गया है कि है तो ये तकलीफ़ ही है पर तकलीफ़ होके भी ये तकलीफ़ नहीं है। बिरह कि वेदना इसीलिए संतों को बड़ी प्यारी है।

फ़रीद ने कहा है,

“बिरह-बिरह सब करें, बिरह ही सुल्तान। जिस तन बिरह न उठे, सो तन जान मसान।”

बिरह का दर्द इतना प्यारा होता है कि जिस तन में बिरह न हो उस तन को शमशान मानो। बिरह का दर्द तो होना ही चाहियें, बिरह तो सुल्तान है। तो पहला अंतर ये था कि बिरह कि पीड़ा का कोई कारण नहीं पता चलेगा, दिखाई ही नहीं पड़ेगी, समझ में ही नहीं आएगा कि दर्द क्यों है। दूसरा, वो सामान्य पीड़ा नहीं होगी, सामान्य पीड़ा से तुम मुक्त होना चाहते हो, बिरह की पीड़ा को तुम प्रियतम कि याद की तरह पकड़के रखना चाहते हो, कि ये बड़ा शुभ दर्द है, ये बना रहे, ये हटे न। बाकी सारे कष्टों से तुम मुक्ति चाहते हो। इस कष्ट से तुम मुक्ति नहीं चाहते। ये बड़ा प्यारा कष्ट है।

श्रोता: एक गाना है- ये दीवानगी रहे बाकी…

वक्ता: ये दीवानगी रहे बाकी। दीवानगी माने पागलपन ही तो है। बाकी सारे पागलपन से तुम मुक्ति चाहोगे, इससे मुक्ति नहीं चाहोगे। इसके लिए तो तुम प्रार्थना कर रहे हो कि खुदा करे ये दीवानगी रहे बाकी।

श्रोता: लेकिन अगर ये दीवानगी बाकी रही तो जिंदिगी तो …

वक्ता: इतनी होशियारी होती नहीं है न बेचारे गाने वाले में। तुम हो ज़्यादा होशियार। वो इतना गिनता नहीं है कि पूरी ज़िन्दगी होगया तो फिर क्या होगा, उसको अभी अच्छी लग रही है, कह रहा है ठीक

वो नहीं देख रहा पहाड़ कि चोटी। उसके लिए इतना काफ़ी है कि बढ़ रहा हूँ। उसे चोटी का तो कुछ पता नहीं न। उसके लिए तो यात्रा ही है और यात्रा उसे कहीं को ले जा रही है वो उसी में खुश है। कह रहा है चलतें रहें, बढ़िया है उसी की तरफ़ जा रहे हैं, उसी के बुलावे पर जा रहे हैं। वही खीच रहा है, वही काफ़ी है। इस यात्रा का कोई अंत है कि नहीं हमें नहीं मालूम। हमने कभी गिना नहीं। हमने कोई अनुमान नहीं लगाया। हमारी कोई योजना नहीं है, हम इतना जानते हैं कि उसके बुलाने पे जा रहे हैं, अब यात्रा सदा चलती रहे तो भी ठीक, कभी ख़त्म हो तो भी ठीक। उसे ये नहीं पता कि पहाड़ कि कोई चोटी होती है और उसपे यात्रा ख़त्म हो जाती है और तम्बू गाड़ना है। इतना उसने गणित नहीं लगाया है।

तो दो बातें बिरह के बारे में:

  • पहली- जानोगे नहीं क्यों है बेचैनी, बस है।
  • दूसरा- बहुत अच्छी है, बड़ी प्यारी है।

वो जो अचेतन कि सारी पीड़ाएं हैं वो यही तो हैं। गहरे से गहरा जो छुपा हुआ दर्द है वो बिरह का ही दर्द है, दूरी का ही दर्द है। जो तुम्हारे गहरे से गहरा दर्द है वो वही है। वो ऊपर-ऊपर दूसरे रूपों में व्यक्त होता है, वो ऊपर-ऊपर आपको लग सकता है कि किसी ने मेरी टी-शर्ट चुरा ली, पर वो जो वास्तव में आपको दर्द है वो ये ही है, कि मुझे क्यों भेज दिया है यहाँ, असली दर्द ये है; कि मैं यहाँ हूँ ही क्यों। बाकी सारे दर्द तो दर्द के दुष्प्रभाव हैं। जो मूल दर्द है वो बिरह का ही दर्द है।

दो ही तरह के लोग होते हैं – एक जो इस बात को समझ जाते हैं कि मेरे सारे कष्ट बिरह के हैं और वो बिरह का ही उपचार करते हैं और दुसरे वो होते हैं जो अपने बाकी दर्दों का छोटा-मोटा उपचार करते रहते हैं। उनसे पूछे कोई कि समस्या क्या है? तो कहेंगे समस्या यही है कि बिजली बहुत कटती है। तो मेरी ज़िन्दिगी कि यही समस्या है; समस्या क्या है? ५% नंबर कम आगये।

एक प्रकार के लोग ये होते हैं जो इस कोटि के कष्टों का उपचार करते हैं कि, समस्या ये है कि वजन बहुत बढ़ गया है तो पैंट छोटी हो रही है। तो उनके लिए उनके जीवन में ये सब कष्ट है; कि इंटरेस्ट रेट बढ़ गया है तो २००० रूपए ई.ऍम.आई. बढ़ गयी है और दुसरे होते है वो समझते हैं कि इन सारे कष्टों के मूल में जो कष्ट है, सीधे उसका निदान करो। उसको जानो, उसको ठीक करो।

~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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