ईमानदारी, सत्य, पूर्णता...|| आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2015)

Acharya Prashant

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ईमानदारी, सत्य, पूर्णता...|| आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2015)

श्रोता: सर,मुझे ये समझने में मुश्किल हो रही है कि मैं ईमानदार कब रहूँ?

वक्ता: और अगर मैं तुमसे कभी ईमानदार न रहूँ तो? जब तुम सुन रहे हो, तो मुझे ठीक से तभी सुन सकते हो जब तुम मुझ पर विश्वास करते हो।वरना तुम सोचते ही रह जाओगे कि, ‘’ये कब सच बोल रहे हैं, कब झूठ?’’ होगा कि नहीं , बताओ? कुछ एप्लीकेशन जैसा होता है कि कभी सच्चा, कभी झूठा? और ऐसा बंदा और ख़तरनाक नहीं हो जाएगा, जो बीच-बीच में चुपके से झूठ बोलता है? सब सही चलता रहेगा, तो तुम्हें लगेगा “सब सही है, सब सही है” और बीच में बांझी मार देगा।ये तो और ख़तरनाक बात हो गयी, *एप्लीकेशन ऑफ़ ऑनेस्टी*।

श्रोता: पर सर, आप झूठ बोल के निकल तो सकते हैं न सिचुएशन से, मतलब आप बच गए।

वक्ता: तो बात यहाँ पर है कि सच्चाई या ईमानदारी है क्या? सच्चाई सच बोलने का नाम नहीं है न।सच्चाई का मतलब है: जो अन्दर वो बाहर कि, “मैं जो भी एक्शन करूँगा, वो अपनी समझ से करूँगा।मैं समझूँगा और जो मेरा हर एक कर्म उसी से निकल रहा होगा’’ ये है सच्चाई, ईमानदारी।सच्चाई का मतलब बस ये नहीं होता कि आप तथ्य सामने रख दो।पहली बात तो ये कि क्या आप सारे तथ्य जानते भी हो? कि आपको ये पता है कि तथ्य कब बताना चाहिए? तो सच्चाई की ये परिभाषा कि, ‘कोई सच बोलता है,’ ये बहुत पागलपन की परिभाषा है।ये उनकी परिभाषा है, जो खुद ही सच्चे नहीं हैं।

सच्चाई का मतलब होता है अन्दर-बाहर एक समान।अन्दर मतलब? जानना।और बाहर मतलब? बोलना।“जान के बोलूँगा, व्यर्थ नहीं बोलूंगा, बेहोशी में नहीं बोलूँगा।’’ मैं समझता हूँ और जो मेरे शब्द हैं, वो मेरी समझ से आते हैं, मेरे कम मेरे समझ से आते हैं – ये ही सच्चाई है। तो फिर सच्चाई के मूल में क्या है? समझ।समझ के बिना, सच्चाई संभव नहीं। अब तुमने पी रखी हो (हाथों की उँगलियों को हिलाते हुए) और मैं पूछूँ कि ये कितनी उंगलियाँ हैं? और तुम बोलो “आठ।” तो अब तुम सच बोल रहे हो या झूठ? (एक श्रोता को अंगित करते हुए) इसको सही में लग रहा है ये आठ हैं क्योंकि मैं हाथ हिला रहा हूँ न।इसको लग रहा है आठ हैं, तो ये सच बोल रहा है कि झूठ? अपनी नज़रों में क्या है ये? अपनी तरफ़ से इसको आठ लग रहा है, तो ये आठ बोल रहा है, पर पिया हुआ आदमी कभी सच्चा हो सकता है? क्यूँकी वो?

समझता ही नहीं।

श्रोता: सर, ये कहा जाता है कि जब आप पिए हुए होते हैं तो आप वही बोलते हैं जो आप सच में महसूस करते हैं।

वक्ता: हाँ, देखो कितनी बढ़िया बात है।जब तुम पिये हुए हो, तो हो सकता है अपनी तरफ़ से तो तुम सच बोलने की कोशिश करो, पर तुम क्या बोलोगे, कितनी हैं? (हाथों की उँगलियों को हिलाते हुए) कितनी हैं?

श्रोता२: आठ।

वक्ता: अब अपनी तरफ़ से बंदा क्या बोल रहा है?

श्रोतागण: सच।

वक्ता: और बोल क्या रहा है?

श्रोतागण: झूठ।

वक्ता: दुनिया का हाल ही यही है।हम सब पिये हुए लोग हैं।हम अपनी तरफ़ से क्या करते हैं? अच्छा।और हो क्या जाता है? हो क्या जाता है? जल्दी बोलो?

श्रोतागण: बुरा।

वक्ता: अब तुम पानी में डूब रहे हो बुरी तरीके से या कि तुम किसी बिल्डिंग में यूं लटके हो पकड़ के (हाथों से इशारा करते हुए) गिरने ही वाले हो।और कोई कतई ही धुत, टुन्न, तल्ली और तुम उसको कह रहे हो, “सहारा दे मुझे, मुझे ऊपर खींच ले” और वो कह रहा है दिल से “भाई तू दोस्त है, जान है मेरी।” और वो आ रहा है तुम्हें बचाने के लिए, वो क्या करेगा?

श्रोता: सबसे पहले खुद ही गिर जाएगा।

वक्ता: हाँ, ये बढ़िया था।( हँसते हुए) ये भी हो सकता है कि तुम्हें बचाने आए और तुम तो टंगे रह जाओ, और वो पहले नीचे पहुँच जाए।(सब श्रोतागण हँसते हैं) और कोशिश भी करेगा तो कैसी करेगा? यार, तुम बस ऐसे टंगे हुए हो, वो तुम्हारा हाथ लेगा तो क्या कर देगा? कुछ भी कर सकता है। तो दुनिया में सब ऐसे ही लोग है ना? हम सच बोलने की कोशिश करते हैं, हम अच्छे काम करने की कोशिश करते हैं, और सारे काम कैसे हो जाते हैं? गलत हो जाते हैं, बुरे हो जाते हैं। कर सब अच्छा रहे हैं, हो रहा है बुरा।

श्रोता: तो फिर क्या करें?

वक्ता: (मुस्कुराते हुए) हम बोलते हैं नींबू चाटो। पहले होश में आओ फिर कुछ करो। पहले नींबू चाटो!

श्रोता: सर, होश में कैसे आए?

वक्ता: बेहोश न रह के।ये देख लो कि क्या है, जो तुम्हें बेहोश करता है, उसके पास कम जाओ।क्या है तुम्हें जो बेहोश कर देता है? तुम बेहोश पैदा तो नहीं हुए थे न? तुम्हें क्या बेहोश करता है?

श्रोता: परिस्थितियाँ।

वक्ता: कैसी परिस्थितियां? ये संवाद तुम्हें बेहोश कर रहा है? ये भी परिस्थिति है।कैसी परिस्थिति बेहोश करती हैं?

श्रोता: किसी भी तरह की हो सकती है।

वक्ता: कैसी होती हैं, वो जिसमें बेहोश हो जाते हो, खासतौर पर? अवॉयड करो न उनको, अपने ऐसे दोस्तों, यारों को अवॉयड करो, जो बेहोश करते हैं तुम्हें, उन जगह पर जाना अवॉयड करो, जो बेहोश करती हैं तुम्हें, वो हरकतें, वो वेबसाइटस अवॉयड करो, जो बेहोश करते हैं तुम्हें।तुम जानते हो क्या बेहोश करता है तुम्हें, वो मत करो न।और जो कुछ तुम्हें होश में लाता है, उसके पास ज़्यादा जाओ।

श्रोता: सर, ऐसा क्यों होता है कि हम किसी से अपनी परेशानियां नहीं बता सकते पर हम दूसरों की परेशानियां सुनना पसंद करते हैं?अपनी खुद हल नहीं कर पाते पर दूसरों की कर देते हैं।

वक्ता: क्योंकि हमें समस्याओं में मज़े आ रहे होते हैं।

श्रोता: अपनी?

वक्ता: समस्या बता दी और समस्या हल हो गयी, तो मज़े बंद हो जाएंगे न।

श्रोता३: सर, वो कहीं न कहीं खुद को परेशान कर रही होती हैं।

वक्ता: ट्परेशान कर रही होती, तो तुम उसे ख़त्म कर देते।(पीछे वाली दीवार की ओर इशारा करते हुए) देखो, वहाँ क्या लिखा हुआ है, पीछे समस्याओं के बारे में।(एक दूसरे श्रोता की ओर इशारा करते हुए) पढ़ो ज़ोर से पढ़ो बेटा, वो समस्याओं के बारे में कुछ लिखा है वहाँ पर।

श्रोता: ‘*आर यू इन ट्रबल और दा ट्रबल इन यू?*’’

वक्ता: तुम समस्या में नहीं हो, समस्या तुमने अपने भीतर रखी हुई है और मज़े लूट रहे हो समस्या के।जिस आदमी को परेशानी से परेशानी होनी शुरू हो जाएगी न, वो तुरंत अपनी परेशानी को ख़त्म कर देगा।जिसकी समस्या चली आ रही है, चली आ रही है, उसे अब मज़े आ रहे हैं समस्या में और कुछ नहीं।

श्रोता: सर, तो इस समस्या का समाधान कैसे होगा?

वक्ता: ये देख कर कि तुम्हें मज़े तो आ रहे हैं, पर तुम क़ीमत बहुत बड़ी दे रहे हो।और इस मज़े से ज़्यादा गहरा कुछ है, जो तुम छोड़ कर रहे हो।

श्रोता२: सर, तो हमें अपनी समस्या बतानी चाहिए या नहीं औरों को?

वक्ता: बेटा, बताओ या न बताओ, वो बड़ी बात नहीं है।बड़ी बात ये है कि तुम्हें उस समस्या से मुक्ति चाहिए कि नहीं चाहिए।कई बार बता कर के मुक्ति मिलती है, कई बार न बता करके मुक्ति मिलती है।लेकिन मुक्ति की आकांशा तो हो, कम से कम।तुम्हें तो मुक्ति की इच्छा ही नहीं है, फिर? तुम्हें तो समस्या में मज़े आ रहे हैं, अब?

कोई बंदा है वो मोटा है, देखा है? तुम्हें क्या लगता है, वो क्यों मोटा है? और उसका मोटापा बना हुआ है, तुम अच्छे से जानते हो कोई बंदा चाहे तो एक महीने में पाँच-सात किलो तो कम कर ही सकता है।वो मोटापा उसका बना हुआ है, क्यों बना हुआ है?

श्रोता३: वो कुछ करता ही नहीं।

वक्ता: मज़े ले रहा है, पिज़्ज़ा में कितना मज़ा आता है। उसे पता है ये समस्या हटाऊंगा, तो मज़ा चला जाएगा। मज़े ले रहा है।

श्रोता: सर समस्या में मज़ा किसको आता है?

वक्ता: मोटे आदमी से पूछो, “तू मोटा क्यों है?” वो बताएगा।तुमने देखा है कई बार घरों में जाओ, तो लोग होते हैं उनके पास बैठो, तो वो अपनी समस्या बताना शुरू कर देते हैं।देखें हैं ऐसे लोग? अच्छा अब अगर उनकी समस्या ख़त्म हो जाए, तो क्या होगा?

श्रोता३: उनके पास बात करने को ही कुछ नहीं होगा।

वक्ता: उनके पास ये बताने के लिए ही नहीं होगा कि, ‘’हम तो अच्छे आदमी हैं, पर देखो हमारे साथ क्या बुरा-बुरा होता रहता है।’’

श्रोता: क्या ये सभी चीज़ें जीवन की स्थिति पर निर्भर करती हैं?

वक्ता: हाँ बिलकुल। इसी कारण हमारी समस्याएँ अलग-अलग तरह की होती हैं। हर बन्दे की अलग-अलग समस्या होती है।जो जैसी जिसकी कंडीशनिंग है, वैसी उसकी समस्या है।

श्रोता: सर मुझे लगता है कि जीवन के संस्कार बहुत ज़रूरी है क्यूँकी अगर मैं सकारात्मक हूँ और अन्दर से खुश हूँ तो मैं फिर वही फैलाऊंगा भी।

वक्ता: बेटा, तुम अपनेआप पाँच सात सकारात्मक विचार लिखो, फिर बगल वाले से लिखवाओ (एक दूसरे श्रोता को अंगित करते हुए) फिर इससे लिखवाओ, वो सब एक आएंगे क्या? अलग-अलग आएंगे न?

श्रोता: हाँ।

वक्ता: क्यों अलग-अलग आएंगे?

श्रोता: उनकी लाइफ़ अलग है।

वक्ता: तो संस्कार भी अलग-अलग हुई है न।तो तुम्हारे लिए क्या पॉजिटिव और इसका क्या पॉजिटिव ? वो तो सिर्फ संस्कार है न।तो कुछ सकारात्मक विचार वगैरह कुछ नहीं होता, ये सब संस्कार हैं।तुम्हारे लिए सकरात्मक विचार हो सकता है कि, “इसको पीट दूँ” उसके लिए हो सकता है कि, “तुम को पीट दे”, ये तो उल्टा हो गया।ये पॉजिटिव थॉट , ये नेगेटिव थॉट , ये सब जो है, ये तुम्हें बता दिया गया कि “ये ठीक है” उसको तुम अच्छा कहना शुरू कर देते हो, तुम्हें जो कह दिया गया “गलत है” उसे तुम गलत कहना शुरू कर देते है।इंडिया सेमी-फाइनल में हार गयी वर्ल्ड कप में क्रिकेट के; अच्छी घटना थी या बुरी घटना थी?

श्रोता३: दूसरी टीम के लिए अच्छी, हमारे लिए बुरी।

श्रोता४: सर, हमें अकेले रेहना क्यूँ पसंद है भले ही कुछ लोग हमारे साथ हैं तब भी? कभी-कभी जैसे सब कुछ सही है पर फिर भी अकेले रहना पसंद है।

वक्ता: तो उसमें कोई दिक्कत आ रही है? देखो, अगर ऐसा हो रहा है तो ये बहुत किस्मत की बात है; ऐसा लेकिन आसानी से होता नहीं है।अगर ये होने ही लग जाए न कि पार्टी के बीच में भी तुम पार्टी से प्राभावित नहीं हो, तो ये बहुत बड़ी बात है।आम तौर तुम जिसको कह रहे हो बीइंग अलोन , वो अलोन नहीं है अकेलापन है।वो ये पन है कि?

श्रोता२: मेरे साथ कोई पार्टी करने के लिए मिल जाए।

वक्ता: हाँ, मुझे काश कोई मिल जाए।

श्रोता: सर, जैसे माँ-बाप के साथ हैं, और एक चर्चा चल रही है पर फिर भी उस में हम मौजूद नहीं है।

वक्ता: हाँ, तो ये एब्सेंट माइंडनेस वो नहीं है फिर कि, “मैं अप्रभावित हूँ।” ये एब्सेंट माइंडनेस ये है कि मन कहीं और लगा हुआ है।

श्रोता: सर, मन कहाँ है, कैसे पता करें?

वक्ता: इतना ही जानना काफ़ी है कि तुम फ़िलहाल जिन चीज़ों में लगे हुए हो, मन वहाँ तो नहीं रहना चाहता।मन को किसी ख़ास जगह की या इंसान की तलाश नहीं होती है, वो शान्ति में रहना चाहता है।पर जब तुम उसकी शान्ति खराब कर रहे होते हो, तो वो उस खराबी से भागता है।समझो इस बात को, हमें ये लगता है कि मन को किसी विशिष्ट, ख़ास चीज़ की तलाश है।हमें लगता है कि, “मुझे किसी ख़ास आदमी का इंतज़ार है, अपनी ज़िन्दगी में” कुछ इंतजार वगैरह नहीं है मन को, बात सिर्फ़ इतनी सी है कि मन शांत रहना चाहता है, रिलैक्स्ड रहना चाहता है, तुम उसकी शान्ति खराब करते रहते हो।तो वो उस खराबी से भागता है, वो उस जगह से भागता है; उसे कहीं जाना नहीं है, बस उस जगह पर नहीं रहना है।

उसे कहीं और नहीं जाना है, बस उसे वो जगह ठीक नहीं लग रही क्योंकि उस जगह पर तुमने उसे परेशान कर दिया।लोग हैं, वो गॉसिप कर रहे हैं, ये कर रहे हैं, इधर-उधर की व्यर्थ की बातें कर रहे हैं; वो नहीं रहना चाहता वहाँ पर।मन का स्वभाव शान्ति है।

श्रोता: सर, ऐसे में करा क्या जाए?

वक्ता: मत रहो वहाँ पर।

श्रोता: उसके बाद अकेले जा के बैठ जाओ फिर।

वक्ता: बाद की क्यों सोच रहे हो? उसके के बाद क्या होगा, ये इस पर निर्भर करता है कि तुमने उस क्षण में क्या किया? उस समय पर सही काम करो, उसके बाद अपनेआप सही काम हो जाएगा।

श्रोता: मूलतया जो मन में आए वही काम करें?

वक्ता: मन के स्वभाव को जो चीज़ खराब करती हों, वो काम मत करो, जो मन में आए नहीं।मन का स्वभाव पीस है, शांति, मन की शान्ति को जो लोग, जो जगह खराब करती हों, वहाँ मत जाओ।और जहाँ शान्ति मिलती हो, वहाँ बार-बार जाओ, वहीं बस जाओ, वहाँ से हिलो ही मत।

श्रोता: सर, प्यार क्या है?

वक्ता: यही लव है, वहीँ बस जाना।

श्रोता: जो चीज़ तुम्हें अच्छी लगे।

श्रोता: सर, जैसे ये गर्ल फ्रेंड बॉय फ्रेंड के चक्कर हैं फ़ालतू के, तो क्या एक सम्बन्ध में रहने का यही मतलब है?

वक्ता: फ़ालतू के होते, तो ये सवाल पूछ रहे होते तुम?

श्रोता: सर, मतलब मेरे को तो पता है, पर जो बाहरी दुनिया है।

वक्ता: पहले तो ये स्वीकार करो फ़ालतू-वालतू के नहीं है।“सवाल मेरे लिए सिग्निफीकेंट है, तभी तो पूछ रहा हूँ।” सवाल दिख ही जाए कि फ़ालतू का है तो पूछूँगा ही क्यों?

श्रोता: सर, मतलब कहीं न कहीं तो वो है कि फ़ालतू है।

वक्ता: जब अंगूर खट्टे हो जाते हैं, तब लगता है कि फ़ालतू का था! जब तक अंगूर मीठे-मीठे हैं, तब तक फ़ालतू का थोड़ी होता है, कि होता है? अंगूर मीठे होते, तो तुम शायद संवाद में भी नहीं बैठे होते, इतने सारे बाग़-बगीचे हैं, शॉपिंग माल्स हैं, मूवी थिएटर हैं।मज़ा तब है जब इस विवेक को रेसिस्ट न करो राईट टाइम पर।पता सबको होता है, पता सबको होता है कि है चीज़ फ़ालतू ही। पता सबको होता है कि मामला क्या है? लेकिन हम होशियारी दिखा देते हैं न।हम कहते हैं “हम ज़्यादा होशियार हैं, ज़्यादा चालाक हैं।” कोई ऐसा नहीं होता, जो इतना बेवकूफ़ हो कि उसे कुछ ना पता हो।

श्रोता: सर, व्हाट इज़ पोज़ेसिवनेस ?

वक्ता: तुमने कोई चीज़ चुराई है और तुम्हें पता है कि छिंन तो जानी ही है। पुलिस वाला आएगा और मार पीट के ले जाएगा, तो उसको हम हर समय छुपाए-छुपाए फिरते हो।यही पोज़ेसिवनेस है – किसी ऐसी चीज़ पर दावा करना जो तुम्हारी है नहीं। तो उसमें दो चीज़े दिखाई देंगी: पहला तुम उसे पकड़े-पकड़े घूमोगे।दूसरा तुम्हें डर लगा रहेगा कि कोई आ कर इसे छीन ले जाएगा।

श्रोता: सर, हमें एसा करने की क्यूँ ज़रूरत पड़ती है?

वक्ता: कि क्यों पकड़े रहें? पोज़ेस क्यों करें?

श्रोता३: हाँ।

वक्ता: चोर चोरी क्यों करता है? चोर को लगता है कि ग़रीब है।

चोर, चोरी करता ही इसलिए है क्योंकि उसको लगता है कि वो गरीब है।और जिसको ये लगेगा कि वो गरीब है वो चोरी करेगा।चोर की चोरी छुडानी हो, तो उसे बस ये एहसास दिला दो कि, “तू ग़रीब है ही नहीं।तू तो पहले से ही अमीर है।” देखो उसकी चोरी तुरंत छूट जाएगी।जिस किसी को लगेगा कि उसके पास कमी है, वो चोरी करेगा और पोज़ेसिव हो जाएगा।पहले तो ऐसी किसी चीज़ पर दावा करेगा, जो उसकी है नहीं और उसके बाद उस चीज़ को दबा के, छुपा के, पकड़ के रखने की कोशिश करेगा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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