दूसरे देशों के अंधविरोध-बहिष्कार का नाम देशभक्ति नहीं || (2020)

Acharya Prashant

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दूसरे देशों के अंधविरोध-बहिष्कार का नाम देशभक्ति नहीं || (2020)

प्रश्नकर्ता: मैं बचपन से ही देशभक्ति के माहौल में पला-बढ़ा हूँ, और ख़ुद भी देशभक्त हूँ। पर साथ-ही-साथ मेरे मन में विदेश जाने की भी इच्छा रहती थी। मैंने स्वयं को बहुत समझाया और ये विचार अपने मन से निकाल दिया। मैं वेस्टर्न क्लासिकल म्यूज़िक (पाश्चात्य शास्त्रीय संगीत) का बहुत शौक़ीन हूँ, और इसी कारण मेरा मन यह सोचकर व्यथित रहता है कि मेरी देशभक्ति सच्ची नहीं है, क्योंकि मैं पाश्चात्य संगीत पसंद करता हूँ, और मेरा मन अब भी विदेश जाने का करता है।

आचार्य जी, कृपया समाधान सुझाएँ।

आचार्य प्रशांत: हम अभी कह रहे थे कि भारत की मूल पहचान अध्यात्म है।

अध्यात्म सीमाएँ नहीं सिखाता। अध्यात्म नहीं कहता कि किसी वर्ग, जगह, धारणा, या व्यवसाय से बंधकर पड़े रहो। अध्यात्म का संबंध सत्य और शांति से है। आध्यात्मिक व्यक्ति की निष्ठा सच्चाई और शांति की तरफ़ होती है। उसकी निष्ठा और किसी चीज़ से नहीं होती; इससे-उससे किसी चीज़ से नहीं होती।

तो यह जो तुमने कहा देशभक्ति के बारे में, यह देशभक्ति की बड़ी ही सीमित और संकुचित धारणा है कि देश से बाहर नहीं जाना है। उससे भी ज़्यादा संकुचित और छोटी बात तुमने यह कर दी कि - "वेस्टर्न क्लासिकल म्यूज़िक पसंद है, लेकिन लगता है कि कहीं मैं राष्ट्रद्रोही ना हो जाऊँ अगर मैंने पाश्चात्य शास्त्रीय संगीत सीख लिया।" भारत से ज़्यादा खुला देश कोई हुआ है? विचार की जितनी मुक्त उड़ान भारत ने भरी है, उतनी और किसने भरी है? तो यह मुझे बात ही सुनने में बड़ी अजीब, बल्कि हास्यास्पद लग रही है कि तुम वेस्टर्न क्लासिकल सीखोगे तो तुम्हारी देशभक्ति पर कोई सवाल खड़ा हो जाएगा।

तुम्हें जो कुछ भी पश्चिम से मिलता है, सब कुछ सीखो। उनका भोजन, ज्ञान, संगीत, खेल, विज्ञान, रहन-सहन का तरीका, साहित्य, कला, सब सीखो। भारत तो शिष्यत्व का देश रहा है, ज्ञान के आग्रहियों का देश रहा है।

सच्चे देशभक्त तुम तब होगे जब तुम भारत की स्पिरिट के साथ, भारत के तत्व के साथ न्याय करोगे। जो भारत तत्व है, वह बहुत बड़े दिल का है। वह अपनेआप को फैलाना भी जानता है, और दुनिया भर को अपने में समेट लेना भी जानता है।

पूरी दुनिया का कुछ भी ऐसा नहीं रहा है जो भारत आया हो, और भारत ने उसके लिए अपने दरवाज़े बंद कर दिए हों। तमाम भाषाएँ भारत आईं, भारत ने स्वीकारा; तमाम धर्मों के लोग भारत में आए, भारत ने स्वीकारा। ऐसे-ऐसे लोग जो दुनियाभर में हर जगह शोषित हो रहे थे, उनको भारत ने सप्रेम शरण दी। कितनी ही भाषाएँ भारत की मिट्टी पर फली-फूलीं और उनका भारतीय भाषाओं के साथ संगम भी हो गया; नयी ही भाषाएँ खड़ी हो आईं। तुम आज जो खा-पी रहे हो, उसपर दुनिया के 36 मुल्कों की मोहर लगी हुई है; चार महाद्वीपों की ख़ुशबू है तुम्हारी थाली में।

भारत की ख़ूबी इसमें है कि कुछ है एक केंद्रीय भारतीयता जैसी चीज़, जो कभी नहीं बदलती। उसको तुम किसी भी रंग में रंग लो, उसका मूलतत्व अनछुआ, अस्पर्शित, अन-रंगा ही रह जाता है। उसको मैं आत्मा, या अध्यात्म, या सत्य कहता हूँ। यह सब चीज़ें नहीं कि भारतीय लोग समुद्री यात्राएँ और विदेश भ्रमण नहीं करते। यह सब बहुत बाद में आयी हुई रूढ़ियाँ और अंधविश्वास हैं।

पुराने हिंदुस्तानियों ने बड़ी लंबी-लंबी यात्राएँ करी थीं, दूर तक जाते भी थे और दूर वाले यहाँ आते भी थे। चीनियों के बारे में तुम जानते ही हो, स्कूल में इतिहास की किताबों में पढ़ा होगा - भ्रमण करते-करते हिंदुस्तान आ जाते थे वो। और चीनी हिंदुस्तान आए, उससे पहले हिन्दुस्तानी चीन गए। चीन तक बौद्ध धर्म किसने पहुँचाया? लंका तक किसने पहुँचाया? दक्षिण पूर्व एशिया तक किसने पहुँचाया? भारतीय ही तो थे जो जा रहे थे।

सिंधु घाटी सभ्यता की मोहरें मिस्र में मिलती हैं। हम बात कर रहे हैं ईसा के जन्म से तीन हज़ार साल पहले की। रास्ता देख पा रहे हो कितना है? सिंधु घाटी, पंजाब, थोड़ा राजस्थान, थोड़ा गुजरात, थोड़ा-सा पश्चिमी उत्तर प्रदेश — इन सब इलाकों में सिंधु घाटी सभ्यता का विस्तार था। यहाँ से आयात-निर्यात व्यापार कहाँ को हो रहा था? मिस्र को। केवल जहाज ही तो नहीं जाते होंगे, जहाज के साथ जहाजी भी जाते होंगे। लोग आ जा रहे थे। और ऐसा तो नहीं है कि अपने साथ पैक्ड लंच (बंधा हुआ खाना) लेकर जा रहे थे, जाते होंगे तो वहाँ का खाते-पीते भी होंगे; भाषा, रीति-रिवाज़, खान-पान भी सीखते होंगे। क्या पता संगीत भी सीखते हों? “यह तो बड़ा गुनाह कर दिया। मिस्र का संगीत, पंजाब की नदियों के तट पर बसने वाला गा रहा है, कोई बात है? अपराध है!” ऐसा नहीं है। तो यह सबकुछ नहीं कि बाहर जाएँगे तो यह हो जाएगा, वह हो जाएगा।

तुम अध्यात्म को याद रखो, यही सच्ची देशभक्ति है। अगर भीतर अध्यात्म बसा हुआ है, तो बाहर तुम सारे वो काम करोगे, जो ठीक हैं। भीतर अगर तुम्हारे अध्यात्म बसा हुआ है, तो यकीन जानो, तुम्हारे हर कर्म से प्रत्यक्ष-परोक्ष किसी तरीक़े से, भारत देश को भी लाभ हो ही जाएगा।**

अगर तुम्हारे भीतर अध्यात्म नहीं बसा हुआ है लेकिन तुम कहते हो, “मैं बड़ा राष्ट्रभक्त हूँ, और रहूँगा तो मैं दिल्ली में ही”, तो तुम दिल्ली की छाती पर बोझ ही हो। राष्ट्रभक्ति इसमें नहीं है कि मूर्खानंद हैं, लेकिन बैठे हुए हैं हिंदुस्तान की छाती पर; राष्ट्रभक्ति तुम्हारे जागरण में है।

उठो, जागो, जानो, समझो! और जानने-समझने की प्रक्रिया में विदेशों का भ्रमण करना पड़े, वहाँ कुछ समय रुकना भी पड़े, वहाँ बस ही जाना पड़े, कोई दिक़्क़त नहीं है।

भारत के नवजागरण में जो एक प्रमुख नाम लिया जाता है, वो स्वामी विवेकानंद का है। वह नहीं गए होते शिकागो 1893 में, तो तुम आज प्रेम और गौरव के साथ उनके उस संभाषण को याद कर लेते? ऐसा नहीं था कि वह गए थे और अगले दिन फ्लाइट लेकर वापस आ गए। वह गए थे, तो वहाँ लंबा रुके थे, और अमेरिका ही नहीं गए थे, अमेरिका से फिर यूरोप गए थे, फिर भारत आए थे।

दिक़्क़त तब होती है जब तुम विदेश की ओर भागते हो सिर्फ़-और-सिर्फ़ पैसा कमाने के लिए; यह बात कुछ मुझे पसंद नहीं आती। आई.आई.टी. (भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान) में था तो मेरे साथ के लोग थे। प्रथा मज़ाक में शुरू हुई होगी, फिर आदत बन गई। वह अमेरिका को ‘वतन’ नाम से संबोधित करते थे, और जो लोग जी.आर.ई. (ग्रैजुएट रिकार्ड एक्जामिनेशन) वगैरह की परीक्षा दे रहे होते थे, उनको बोलते थे - "यह वतन के खिलाड़ी हैं।“ किसी ने शुरू में मज़ाक-मज़ाक में कह दिया होगा कि – “मेरा वतन तो अमेरिका ही है”, फिर कैंपस में अमेरिका के लिए शब्द ही पड़ गया – ‘वतन’। "यार, अभी पास आउट हुआ हूँ। पाँच महीने बाद तो वतन की टिकट करानी है।" बात मज़ाक की नहीं रही, फिर वह बात धीरे-धीरे प्रचलित मुहावरा बन गयी, ज़बान पर चढ़ गयी — ‘वतन’।

यह बात ओछी है, घटिया है। तुम कहीं के नहीं रहे। तुम्हारी कोई जड़ नहीं है; ना धर्म है, ना देश है।

एक दफ़ा मैंने दो पंक्तियाँ लिखी थीं:

"ऐसी भी क्या भूख यारों, कि जिधर दाना दिखा चल दिए। देखो शान से खड़ा हूँ मैं, अपनी मिट्टी पर अपना हल लिए।।"

शायद इन्हीं वतन के खिलाड़ियों को देखकर लिखी होगी। बड़े लंबे समय तक तो मेरे पास पासपोर्ट ही नहीं था। मैंने कहा कि – “बनवाना ही नहीं है; ना रहेगा बाँस, ना बजेगी बाँसुरी।“

ऐसा नहीं कि मुझे विदेश यात्रा से कोई अरुचि या चिढ़ है, जाएँगे, शान से जाएँगे, शौक से जाएँगे, पर्यटन के लिए जाएँगे, घूमने-फिरने जाएँगे, काम के लिए जाएँगे — लालच के लिए नहीं जाएँगे। भिखारी की तरह नहीं जाएँगे कि – “आए हैं, दो रोटी दे दो।“ अरे अपने घर में भी है रोटी, रोटी की व्यवस्था यहीं हो जाएगी। फिर क्यों ना अपना काम, अपना रुतबा, अपना स्थान, अपना मर्तबा, इतना ऊँचा किया जाए कि वही यहाँ आ जाएँ? अरे, होने भी लगा है। कुछ उड़कर आते हैं, स्काई (आकाश) से; जो स्काई (आकाश) से नहीं आ पाते, वह स्काइप से आ जाते हैं।

हम भी जाएँगे, पर कटोरा लेकर नहीं जाएँगे; कटोरा लेकर हम कहीं नहीं जाएँगे। ऐसा नहीं कि कोई विशेष अहंकार है विदेशियों के ख़िलाफ़। कटोरा लेकर तो हम अपने पड़ोसी के सामने ना जाएँ, कटोरा लेकर हम अपने परिवार वालों के सामने ना जाएँ, कटोरा लेकर के हम आईने के सामने ना जाएँ। ख़ुद से नज़र कैसे मिलाएँगे? तो कटोरा लेकर के इमीग्रेशन (अप्रवास) - कुछ बात ठीक नहीं है।

उसके अलावा सीखने के लिए, समझने के लिए, जानने के लिए, आनंद के लिए, विदेशों में जितना भ्रमण करना हो, करो। उनसे जो जानना हो, सीखना हो, सीखो। उनसे मित्रता रखो, बंधुत्व रखो। प्रेम हो जाए, प्रेम करो। विवाह भी करना हो, वह भी करो शौक़ से। कोई दिक़्क़त नहीं। परंतु लालच वगैरह नहीं, भिखारी की तरह नहीं।

साहब हमारे समझा गए हैं:

"मर जाऊँ माँगूँ नहीं, अपने तन के काज।"

तन में मन भी जोड़ दो; तन-मन एक ही है। मर जाओ, पर ये तन के लिए कि बढ़िया कपड़ा पहनने को मिल जाएगा, या मन के लिए, कि सुख-सुविधाएँ मिल जाएँगी, कुछ हैसियत, रुतबा मिल जाएगा, उनके लिए कहीं माँगने मत निकल जाना। माँगना कभी, तो 'उसके' लिए माँगना।

"परमारथ के कारने, मोहे ना आवे लाज।"

तब बिलकुल निर्लज्ज होकर, बच्चे की तरह खड़े होकर माँगना।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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