दुर्योधन की जीत में भी हार, अर्जुन की हार में भी जीत

Acharya Prashant

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दुर्योधन की जीत में भी हार, अर्जुन की हार में भी जीत

आचार्य प्रशांत: तो पहले अध्याय का दोहराव हमने पिछले सत्र में पूरा करा, 'विषादयोग'। अर्जुन भ्रमित हैं, दुखी हैं और लगभग निश्चय कर चुके हैं कि मैं नहीं लड़ूँगा। और न लड़ने के पीछे जो दो तत्व वो बता रहे हैं, वो क्या थे मोटे तौर पर? वृत्तियाँ और?

श्रोता: मोह।

आचार्य: मोह तो वृत्ति में ही आ गया। वृत्ति और संस्कृति। ठीक है न? दो बातों का आश्रय लेकर के अर्जुन लड़ने से इनकार कर रहे हैं।

वृत्ति क्या है, जिसके चलते कह रहे हैं कि नहीं लड़ूँगा? क्या वृत्ति है? मोह और कदाचित भय। मोह और भय। 'मेरे हैं न', ममत्व, ममता। 'मेरे हैं। जितने सामने खड़े हैं उनमें बहुत सारे तो मेरे मित्र ही रहे हैं, भाई हैं ही, सम्बन्धी हैं, मामा हैं। भाइयों के पुत्र हैं तो वो मेरे पुत्र समान ही हुए। और दो तो बहुत ही विशेष हैं, एक द्रोण और एक भीष्म, इनको मार कैसे दूँगा मैं? एक ने चलना सिखाया, एक ने धनुष पकड़ना सिखाया। कल्पना भी नहीं कर सकता कि इनको मारूँगा।'

और कृष्ण कुछ नहीं कह रहे हैं, पूरा पहला अध्याय अर्जुन के विषाद को समर्पित है। और आख़िरी श्लोक, सैंतालीसवें श्लोक में अर्जुन कहते हैं, 'मैं नहीं लड़ूँगा' और बैठ जाते हैं। अर्जुन ऐसी ही बात आगे भी कहते हैं। दो बार अर्जुन ने घोषणा करी है न लड़ने की, एक बार पहले अध्याय में, एक बार दूसरे अध्याय में। तो दूसरे अध्याय के भी जो आरम्भिक श्लोक हैं, वो पहले अध्याय का ही विस्तार जानिए। ठीक है? जहाँ पहला अध्याय समाप्त होता है, ठीक वहीं अभी दूसरा अध्याय शुरू होता है। यहाँ भी आप अभी श्रीकृष्ण को मौन ही पाएँगे पहले आठ-दस श्लोकों में, उसके बाद फिर कृष्ण कुछ कहना शुरू करते हैं। और कृष्ण जो बात कहते हैं अर्जुन से, वो भी आरम्भिक स्तर की ही है बिलकुल।

तो अर्जुन क्या कह रहे हैं, पहले ये। तो संजय कह रहे हैं कि करुणापूर्ण स्थिति है अर्जुन की, आँसू से नेत्र भरे हुए हैं और दुखी हैं। आँसुओं से नेत्र भरे हुए हैं, करुणा पूरित हैं, दुखी हैं और कह रहे हैं,

कथं भीष्मंमहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन। इषुभिःप्रतियोत्स्यामिपूजार्हावरिसूदन।।२.१।।

हे शत्रुनाशक कृष्ण! मैं युद्ध में पूजनीय भीष्म देव और द्रोणाचार्य के प्रति बाणों से क्या घात करूँगा?

रो ही पड़े हैं। वो कह रहे हैं, ‘जिनकी पूजा करता था, उन पर बाण मारूँगा क्या मैं? ये नहीं हो पाएगा।’ तो कृष्ण कहते हैं — जैसे कृष्ण भी थोड़ा सकपकाये हुए हों — सबसे पहले तो यही कहते हैं कि आर्यों के योग्य नहीं है ये जो दशा दिखा रहे हो और ये जो तुम कर रहे हो, ये चीज़ स्वर्ग प्राप्ति की विरोधी है। ‘ये मोह तुम्हें प्राप्त कहाँ से हुआ है? ये कायरता मत दिखाओ, ये तुम्हारे योग्य नहीं है। शत्रुओं को हराने वाले अर्जुन, मन की इस क्षुद्र दुर्बलता को छोड़ो। बैठ गये हो रथ पर कहकर कि लड़ूँगा नहीं, चलो खड़े हो जाओ, खड़े हो जाओ।’

देखिए, जो बिलकुल आरम्भिक तर्क दे रहे हैं कृष्ण वो बहुत ज्ञान का नहीं है क्योंकि बात है ही आरम्भिक। ठीक है? ज्ञान एक प्रकार की चोट होता है। बड़ी शुभ चोट होता है लेकिन होता चोट ही है, लगता है। किसको लगता है? लगता अज्ञान को ही है। ज्ञान की चोट लगती अहंकार को, अज्ञान को ही है लेकिन लगती तो है न। तो आप कहेंगे, ‘अज्ञान को लगती है, अच्छी बात है।’ साहब, आप अज्ञान बने हुए हैं। हमने अज्ञान से तादात्म्य कर रखा है। तो ज्ञान की चोट लगनी चाहिए अज्ञान को, लग जाती है अहम् को। क्योंकि अहम् क्या बना बैठा है? अज्ञान। तो ज्ञान की चोट लगनी थी अज्ञान को, लग गयी?

श्रोतागण: अहम् को।

आचार्य: इसीलिए आप पाओगे कि ज्ञानी के आसपास जो लोग रहते हैं, वो कई बार दिन में दो-दो, तीन-तीन बार चोट खाते हैं। उन बेचारों की बड़ी दुर्दशा रहती है, उनको बात-बात पर चोट लग जाती है। उनको रूठना पड़ता है, हर दूसरे दिन एक बार रूठना पड़ता है। अब इसमें दोनों ही विवश हैं एक तरह से, जिसको चोट लग रही है वो विवश है क्योंकि उसने अहम् और अज्ञान को जोड़ रखा है। और ज्ञानी चूँकि ज्ञानी है तो वो करे क्या! अज्ञान पर चोट तो उसके होने से ही पड़ जाएगी, न चाहे तो भी। ठीक वैसे जैसे सूरज के होने भर से अन्धेरे पर चोट पड़ जाती है। सूरज को चाहना नहीं पड़ता कि अन्धेरे को चोट दूँ, पर पड़ जाती है, वैसे ही। तो कृष्ण नहीं चाह रहे हैं कि आरम्भ में ही बहुत ज्ञान की बात करें, चोट लग जाएगी। कृष्ण आरम्भ में ही ज्ञान की बहुत गहरी या अन्तिम बात नहीं करना चाहेंगे, चोट लग जाएगी।

गहरा ज्ञान देना किसी को गहरी शल्यक्रिया जैसा होता है, क्योंकि बात गहरी है न, तो यहाँ (हृदय की ओर इशारा करते हुए) गहराई में बैठानी पड़ती है। सतही कोई मलहम नहीं होता ज्ञान, गहरी सर्जरी होता है। तो ज्ञानी भी गहरा ज्ञान देने से आरम्भ में थोड़ा बचना चाहता है, क्योंकि कुछ भी कहिए, सर्जरी होती तो झंझट ही है न, जिसकी हो रही है उसके लिए भी होती है, जो कर रहा है उसके लिए भी तो होती है। बड़ी ज़िम्मेदारी का काम है किसी की छाती खोल देना। वो तो बेहोश पड़ा है, आपने उसकी छाती खोल दी है, सारी ज़िम्मेदारी किस पर आ गयी? आप पर आ गयी है। तो कृष्ण भी आरम्भ में कह रहे हैं चलो देखता हूँ मलहम वगैरह लगा कर ही काम चल जाए तो। आगे छाती खोलेंगे पूरा, छाती ही नहीं, वो रेशा-रेशा अलग कर देंगे। लेकिन शुरूआत में बस इतना ही कहते हैं कि ये जो तुम कर रहे हो न इससे स्वर्ग नहीं मिलेगा।

अब गीता, उपनिषदों का सार कही जाती है, गीता को आख़िरी उपनिषद् भी कह देते हैं। समझाने वालों ने इस तरीक़े से भी बोल दिया है कि अगर सब उपनिषद् गायें हैं तो गीता दूध है। और उपनिषद् कभी स्वर्ग प्राप्ति की बात नहीं करते, उपनिषदों का उद्देश्य स्वर्ग प्राप्ति है ही नहीं। असल में भारतीय दर्शन में स्वर्गप्राप्ति कभी ऊँचा उद्देश्य माना ही नहीं गया कुछ दर्शनों को छोड़कर। लेकिन जो भी अच्छे, ऊँचे दर्शन हैं, मैं बात कर रहा हूँ, अद्वैत वेदान्त की या आप बौद्ध दर्शन को ले लीजिए या जैन दर्शन को ले लीजिए, योग को भी, यहाँ स्वर्ग वगैरह कुछ नहीं होता।

आप वेदान्त के पास जाएँ और स्वर्ग की बात करें तो ऋषि आपकी ओर देखेंगे भी नहीं। कहेंगे, ‘स्वर्ग वगैरह चाहिए हो तो यहाँ मत आना। उसके लिए मीमांसा पड़ी हुई है, जाओ, उधर जाओ। वहाँ स्वर्ग और नर्क और ये सब बातें कर लेना।’ वो बच्चों की बातें हैं कि एक जीवात्मा है, वो उड़ेगी और स्वर्ग में पहुँच जाएगी और फिर स्वर्ग में उसको बड़ा मज़ा मिलेगा और वहाँ पर अप्सराएँ होंगी और अच्छा खाना-कचौड़ी मिलेगा और दूध-शहद और ये सब। बोले, ‘ये सब बच्चों की बातें हैं, गम्भीर चिन्तक, विचारक, ध्यानी, ज्ञानी ये सब बातें नहीं करते।’

वेदान्त, सांख्य, बौद्ध दर्शन, जैन दर्शन सब-के-सब एक हैं। यहाँ तक कि सिक्ख दर्शन भी, सब-के-सब एक हैं। और सब-के-सब किसकी बात करते हैं? किस मामले में सब-के-सब एक हैं? एक ही कहते हैं लक्ष्य है जीवन का, क्या? जीवनमुक्ति, और कोई नहीं। इस मामले में पूरा जो इंडिक थॉट है, भारतीय दर्शन, वो पाश्चात्य दर्शन से भिन्न रहा है। अगर आप इस्लाम को लेंगे या ईसाइयत को लेंगे तो वहाँ लिब्रेशन (मुक्ति) गोल (लक्ष्य) नहीं है। वहाँ गोल क्या है? मरणोपरान्त सुख। एक दूसरी दुनिया है, मरने के बाद एक दूसरी दुनिया है जहाँ जाकर के तुमको सुख मिलेगा। और वेदान्त सुख को ऐसे कहता है, 'चलो हटो!' सुख न अभी चाहिए और मरने के बाद की तो कोई बात ही नहीं, मरने के बाद वगैरह का तो कुछ खेल ही नहीं। जन्म ही मिथ्या है तो मृत्यु को सत्य कैसे मान लें? तो मरने के बाद कौनसी दुनिया शुरू हो जाएगी?

तुम कह रहे हो, ‘मरने के बाद एक दूसरी दुनिया मिलेगी।’ हम कह रहे हैं, ‘तुम्हें मरने से पहले जो दुनिया मिली हुई है वही मिथ्या है।’ तुम सपने में देख रहे हो कि तुम उठोगे तो तुम्हें कोई और दुनिया मिलेगी। हम कह रहे हैं, ‘तुम सपने में हो अभी, यही झूठ है बात।’ नहीं समझे? आप सपने में ये देख रहे हैं कि आप सो रहे हैं और आप जग जाएँगे। आप सपने में देख रहे हो कि आप उठ जाओगे तो कोई और दुनिया शुरू हो जाएगी। यही तो देख रहे हो सपने में? तथ्य ये है कि ये सबकुछ जो हो रहा है ये भी तो सपना ही है तुम्हारा। तो मैं दूसरी दुनिया की क्या बात करूँ?

यही जो तुमको जगत भासित हो रहा है, यही कौनसा सत्य है कि मरने के बाद तुम्हें कुछ और मिल जाएगा, वो सत्य हो जाएगा! और दूसरी दुनिया की तुम जितनी भी बातें कर रहे हो, वो इस दुनिया की अपनी वर्तमान मनोस्थिति में कर रहे हो। ये दुनिया ही झूठी है, तुम्हारा मन भी पागल है तो दूसरी दुनिया की तुम्हारी कौनसी बात सच्ची हो जानी है!

जैसे कि आपको एक आदमी मिले, वो खुले मैदान में खड़ा है। ठीक है? और वो बोले कि मैं अभी अस्पताल में हूँ, यहाँ से मुझे होटल जाना है। और होटल का नाम कुछ बता दीजिए, कोई भी होटल का नाम बता दीजिए, 'होटल मेफेयर'। वो खड़ा है खुले मैदान में, लेकिन बोल रहा है, ‘मैं हूँ अभी अस्पताल में।’ और फिर वो आपको होटल मेफेयर का बड़ा विशद वर्णन दे, बोले, ‘होटल मेफेयर में रिसेप्शन पर तीन सुन्दर कन्याएँ बैठी हैं, उसमें छः रेस्तराँ हैं, तीन स्विमिंग पूल हैं, उसका मैनेजर मेरा दोस्त है और उसमें मैंने कमरा नम्बर पाँच-सौ-एक बुक कराया हुआ है।

पूरा उसने विस्तृत वर्णन दे दिया अपने मेफेयर का, जो उसका स्वर्ग है। और वो कह रहा है, ‘मैं अभी अस्पताल में हूँ।’ और खड़ा कहाँ है वो? मैदान में खड़ा है। अपनेआप को खड़ा मान रहा है वो अस्पताल में और मेफेयर के बारे में वो आपको अद्भुत, पूरी विस्तृत जानकारी दे रहा है। तो अगर आपमें थोड़ी भी बुद्धि होगी तो आप मेफेयर के बारे में क्या कहेंगे? मेफेयर निश्चित रूप से झूठ है।

जिस आदमी को अभी ये नहीं पता कि वो फ़िलहाल कहाँ खड़ा है, वो जहाँ जाने की बात कर रहा है वो जगह भी झूठ ही होगी। जिस आदमी को ये नहीं पता कि अभी वो किस दुनिया में है, वो मरने के बाद जिस स्वर्ग-नर्क की बात कर रहा होगा वो भी निश्चित रूप से झूठ ही होगा। समझ में आ रही है बात?

तो वेदान्त और सांख्य-योग वगैरह में ये मरने वगैरह के बाद की कोई ये सब बेकार की बात नहीं है। लेकिन कृष्ण यहाँ पर अर्जुन से बात शुरू ही कर रहे हैं ये कहकर कि बेटा स्वर्ग नहीं मिलेगा। इससे अर्जुन के बारे में क्या पता चलता है? अच्छा, जब हमने कहा था पहले ही अध्याय में कि बात है वृत्ति बनाम मुक्ति की और संस्कृति बनाम? हमने कहा था, दो अब यहाँ से हमको दिखायी दे रहे हैं कि संघर्ष शुरू होते हैं, पहले ही अध्याय में हमने कहा था।

कितने लोग गीता समागम में साथ में हैं? (श्रोतागण से पूछते हुए) पिछले अध्याय में कितने लोग साथ में थे? बाक़ी लोग भी आ जाइए साथ भई, महत्वपूर्ण काम चल रहा है।

'वृत्ति बनाम मुक्ति', अर्जुन वृत्ति का प्रदर्शन कर रहे हैं न, मोह और भय का? और अब आगे कृष्ण बात करेंगे इसीलिए मुक्ति की। ये बात हमें पहले ही अध्याय में स्पष्ट कर दी गयी थी, जैसे पहले अध्याय में नींव रख दी गयी है आने वाली कहानी की इमारत की। और जो दूसरा संघर्ष शुरू होगा वो बात भी हमें पहले अध्याय में ही अनुमान लग गयी थी। क्या पता चल गया था? 'संस्कृति बनाम अध्यात्म'। 'वृत्ति बनाम मुक्ति' और 'संस्कृति बनाम अध्यात्म'।

तो अर्जुन ने कौनसी सांस्कृतिक बात छेड़ दी थी पहले ही अध्याय में? कि सारे क्षत्रिय मरेंगे तो प्रतिलोम विवाह हो जाएगा, तो वर्णसंकर पैदा होगा, वर्णसंकर पैदा होगा तो उसका दिया श्राद्ध नहीं लगेगा, जब श्राद्ध नहीं लगेगा तो पितरों की आत्माएँ भटकेंगी। अर्जुन ने इतनी बड़ी कहानी बता दी थी। और ये कहानी पूरी क्या है? सांस्कृतिक। तो बिलकुल तय हो गया था कि अर्जुन खड़ा है संस्कृति के पक्ष में और कृष्ण खड़े हैं अध्यात्म के पक्ष में। संस्कृति और वृत्ति एक होते हैं, और अध्यात्म और मुक्ति एक होते हैं।

अर्जुन वो बात कर रहे हैं जो उस समय भी समाज में चलती थी, कि ऊँची-नीची जाति है, ग़लत जाति में शादी मत कर लेना, ऊपर वाला नीचे वाले से न करे, ये सब चलता था। और ऊपर वाली महिला अगर नीचे वाले पुरुष से विवाह कर लेगी तो उसको बोलते थे कि ये ठीक विवाह नहीं है। लेकिन ऊपरी वर्ण के पुरुष को नीचे वाले वर्ण की महिला से विवाह करने की अनुमति थी। तो वो सब चलता था, सौ तरह की विकृतियाँ। और अर्जुन उन्हीं सब विकृतियों का हवाला दे रहे हैं, कह रहे हैं, ‘देखिए ये होगा, वो होगा।’ और श्राद्ध वगैरह में भी तब बड़ी श्रद्धा चलती रही होगी। वो सब संस्कृति के हिस्से होते हैं, अध्यात्म से उसका कोई ताल्लुक नहीं है।

तो अर्जुन संस्कृति के प्रतिनिधि के रूप में खड़े हैं। वो यहाँ दिखा रहे हैं कि वो वर्ण प्रथा के भी समर्थक हैं, वो कर्मकांड के भी समर्थक हैं। और कृष्ण वर्ण प्रथा के विरोधी और कर्मकांड के विरोधी। अर्जुन हैं संस्कृति के पक्ष से और कृष्ण हैं अध्यात्म के पक्ष से और गीता है कृष्ण और अर्जुन का संघर्ष। संस्कृति भिड़ गयी है अध्यात्म से, संस्कृति को हारना होगा, ये गीता है। समझ मे आ रही है बात?

अब श्रीकृष्ण जानते हैं कि अर्जुन तो संस्कृतिवादी हैं, समाजवादी हैं। समाज में जो चल रहा होता है वही अर्जुन चला रहे होते हैं। और समाज और अध्यात्म का छत्तीस का आँकड़ा रहता है हमेशा से। समाज में जो संस्कृति चल रही है, समाज उसको धर्म का नाम देता है लेकिन अध्यात्म संस्कृति को जानता है कि ग़लत है। तब भी अध्यात्म जानता था कि आम लोगों की संस्कृति ग़लत है, आज भी अध्यात्म जानता है कि आम लोग जिसको संस्कृति बोलते हैं वो बिलकुल ठीक नहीं है।

लेकिन गहरी सर्जरी (शल्यक्रिया) से अभी श्रीकृष्ण आरम्भ में बच रहे हैं, सीधे ज्ञान की गोली नहीं दागना चाहते। तो आरम्भ में वो वही बात कहते हैं अर्जुन से जो अर्जुन को थोड़ा सा जँचेगी। क्या कहते हैं? कि बेटा अगर युद्ध नहीं करोगे तो स्वर्ग नहीं मिलेगा। और अर्जुन तो हैं ही स्वर्गवादी, पितरों के लिए भी उन्होंने वही बात करी थी कि पितरों की आत्माएँ भटकेंगी, स्वर्ग वगैरह नहीं पाएँगी। श्रीकृष्ण ने कहा, 'अगर ये यही मानते हैं तो चलो इनको इसी तरह समझाते हैं।'

कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्। अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन।।२.२।।

हे अर्जुन! अनार्यों के योग्य, स्वर्गप्राप्ति का विरोधी निन्दाजनक यह मोह तुम्हें कहाँ से प्राप्त हुआ है?

और दूसरी बात कहते हैं कि ये जो तुम काम कर रहे हो न, ये आर्यों के योग्य नहीं है। इससे ये भी पता चलता है कि अर्जुन में जातिगत अहंकार भी काफ़ी था, कि हम कौन लोग हैं? हम आर्य लोग हैं।

तो कृष्ण कह रहे हैं कि अर्जुन जिस भी चीज़ से संचालित होते हैं, चलो मैं उसी का उपयोग करके देख लेता हूँ। अर्जुन को अपने आर्य होने पर बड़ा गौरव है, अर्जुन को अपने वर्ण पर बड़ा गौरव है और अर्जुन को स्वर्ग प्राप्ति का लोभ है। तो ये तीनों चीज़ें कृष्ण बारी-बारी से अर्जुन से कहेंगे। एक तो कहेंगे कि देखो बेटा जो तुम कर रहे हो वो क्षत्रिय होने की मर्यादा में नहीं है और दुनिया तुम पर हँसेगी। इससे ये भी पता चलता है कि अर्जुन को समाज का बड़ा डर था। क्योंकि कृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से कि दुनिया तुम पर हँसेगी। इससे उन्हें अर्जुन के बारे में क्या पता है? कि अर्जुन समाज से डरते हैं। तो अर्जुन कौन हैं? अब देखिए हम सब अर्जुन हैं, समाज से डरने वाले, स्वर्ग की इच्छा रखने वाले, वर्ण व्यवस्था, जातिप्रथा इत्यादि में विश्वास रखने वाले, ऐसों को कहा जाता है 'अर्जुन'। और जो इन सबको नहीं मानता उसको कहा जाता है?

श्रोतागण: श्रीकृष्ण।

आचार्य: अब समझ में आ रहा है गीता क्या है? गीता देख रहे हैं किसके-किसके मध्य में युद्ध है? एक युद्ध है महाभारत में और एक युद्ध है महाभारत के भीतर जो गीता है, उसमें। महाभारत का युद्ध लड़ा गया है अर्जुन और कौरव के बीच में और गीता का युद्ध लड़ा गया है अर्जुन और कृष्ण के बीच में। और अर्जुन और कृष्ण के बीच में जो युद्ध लड़ा गया है, वो महाभारत के युद्ध से कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण है।

दुर्योधन वगैरह सब खो जाएँगे, ये ऐतिहासिक हैं, ऐतिहासिक चरित्र हैं और इतिहास की धूल बन जाएँगे धीरे-धीरे। एक समय ऐसा आएगा जब लोग हो सकता है इनको याद रखना छोड़ दें, आज भी उनमें से ज़्यादातर पात्र तो भुला ही दिये गए हैं न। आप महाभारत को उठाएँगे — बड़ा मोटा ग्रन्थ है — मैं आपसे पात्रों के नाम पूछूँ, आपको कहाँ याद होंगे! आपमें से बहुत लोगों से अभी मैं कह दूँ, 'भूरिश्रवा' बता दीजिए, 'सात्यकी' बता दीजिए, 'धृष्टद्युम्न' बता दीजिए, आप वही न बता पायें। और ये तो मैंने बहुत बड़े, प्रमुख पात्र बता दिये, और छोटे-छोटे अनगिनत वहाँ पर पात्र हैं। वो सब खो जाएँगे, एक दिन दुर्योधन जैसे भी खो जाएँगे।

गीता अमर रहेगी, गीता कभी नहीं खोएगी। अर्जुन ने कौरव से जो युद्ध किया वो खो जाएगा। अर्जुन ने कृष्ण से जो संघर्ष करा है, वो नहीं खोएगा। अर्जुन और कृष्ण का जो संघर्ष है वो 'वृत्ति बनाम मुक्ति' का संघर्ष है और 'संस्कृति बनाम अध्यात्म' का संघर्ष है। इन दोनों में सदा संघर्ष चलता रहता है। महाभारत में भी वही संघर्ष चल रहा था, आज के भारत में भी वही संघर्ष चल रहा है। संस्कृति खड़ी हो गयी है अपनेआप को धर्म बताकर के और उसका विरोध अध्यात्म को ही करना पड़ेगा।

समझ में आ रही है बात?

एक और बात श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, ‘ये जो तुम्हें मोह है, ये बड़ा निन्दाजनक है, ये कहाँ से प्राप्त हुआ है?’ ये भाषा आप देख रहे हैं, ये बहुत गहरे ज्ञान की भाषा नहीं है अभी। और ज्ञान की भाषा क्यों नहीं है, हमने बताया? क्योंकि ज्ञान चोट देता है। श्रीकृष्ण कह रहे हैं, आरम्भ में, बिना चोट दिये ही काम हो जाए तो ज़्यादा अच्छा है। तो कह रहे हैं, 'निन्दाजनक है ये मोह।' किसी को अगर बोलें कि तुम जो काम कर रहे हो, वो निन्दनीय है तो इससे क्या पता चलता है उस व्यक्ति के बारे में जिससे बोला? वो व्यक्ति निन्दा से घबराता है। तो अर्जुन निसन्देह ऐसे व्यक्ति हैं जिस पर निन्दा का प्रभाव पड़ता है। तो अर्जुन को एक तरह से डरा रहे हैं, कह रहे हैं, ‘देखो, ऐसे करोगे न तो तुम्हारी निन्दा हो जाएगी समाज में।’ अर्जुन एक आम सामाजिक मन के प्रतिनिधि हैं, जैसे एक आम सामाजिक मन होता है, जो देखता है कि अच्छा, लोग मेरे बारे में क्या सोच रहे हैं, मेरी कीर्ति फैल रही है कि नहीं फैल रही है। वो अर्जुन हैं।

आ रही है बात समझ में?

इसीलिए अर्जुन और कृष्ण के संवाद को मन-आत्मा संवाद भी कहा जाता है। अर्जुन मन हैं, जैसा मन होता है। कृष्ण आत्मा हैं।

स्पष्ट हो रहा है?

क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते। क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप।।२.३।।

हे अर्जुन, तुम कायरता को प्राप्त न हो, ये तुम्हारे योग्य नहीं है। हे शत्रु तापन अर्जुन, हृदय की इस तुच्छ दुर्बलता को छोड़कर चलो खड़े हो जाओ।

फिर कहते हैं, 'अर्जुन कायरता मत दिखाओ, ये तुम्हारे योग्य नहीं है।' अब कायरता तो दिखा ही रहे हैं, तो फिर ये कहने का क्या अर्थ है कि तुम्हारे योग्य नहीं है? तो यहाँ किसको थोड़ा सा उकसाया जा रहा है? अर्जुन के अहम् को, कि तुम तो बहुत ऊँचे आदमी हो, तुम इतना नीचा काम कैसे कर रहे हो। अगर वो वाक़ई ऊँचे आदमी होते तो नीचा काम कर ही नहीं रहे होते। पर जैसे एक आम आदमी को प्रोत्साहित या मोटिवेट करते हैं वैसे ही अर्जुन को किया जा रहा है कि तुम तो बहुत बढ़िया आदमी हो, बहादुर हो, तुम ये निन्दनीय काम क्यों कर रहे हो? ये ओछा काम है। अर्जुन पर इन बातों का कोई अन्तर पड़ना नहीं है। श्रीकृष्ण को भी ये खुलासा धीरे-धीरे होगा कि युद्ध तो उधर भी अठारह दिन चला था और इधर अठारह अध्याय चलेगा। ये अठारह का आँकड़ा सांयोगिक ही नहीं है, दो युद्ध हैं। कौरव से लड़ोगे अठारह दिनों तक और मुझसे लड़ोगे अठारह अध्यायों तक।

'तुम तो शत्रु तापन हो', शत्रु तुमसे डरते हैं। ये क्या करा जा रहा है? हाँ, ये मोटिवेशन है, ये मोटिवेशन है। 'चलो खड़े हो जाओ!' काहे को खड़े हों अर्जुन, वो बैठ गये धम्म से, 'मुझे नहीं करना।' तो अब और आगे तर्क देते ही जाते हैं।

गुरूनहत्वा हि महानुभावान् श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके। हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुञ्जीय भौगान् रुधिरप्रदिग्धान्।।२.५।।

मैं तो महानुभाव गुरुओं को मारकर न इस लोक में भिक्षान्न भोजन करना बल्कि कल्याणकर मानता हूँ, क्योंकि गुरुओं का वध करके मैं रक्त से सने हुए अर्थ और काम रूपी भोगों को ही तो भोगूँगा।

अगला तर्क है, 'मैं तो भिखारी होना बेहतर समझूँगा, भिक्षा-पात्र उठाऊँगा, भीख माँगूँगा और उसको मैं ज़्यादा कल्याणकर मानूँगा', ये अगला तर्क है अर्जुन का। 'भीख माँगकर खा लूँगा, लड़ाई नहीं करूँगा। क्योंकि गुरुओं का वध करके आख़िर में रक्त से सने हुए अर्थ और काम को ही तो इस संसार में भोगूँगा। माने जो कुछ भी भोगूँगा वो रक्त से सना हुआ होगा, तो मैं नहीं लड़ता। भिखारी बन जाऊँगा गुरुओं को नहीं मारूँगा।'

अब अर्जुन की भाषा पर ध्यान दीजिएगा, अर्जुन यहाँ पर देखिएगा कि मात्र अपनी बात नहीं कर रहे हैं, प्रथम पुरुष में नहीं बोल रहे हैं। देखिए किसमें बोल रहे हैं —

न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः। यानेव हत्वा न जिजीविषाम स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः।।२.६।।

फिर हम ये भी तो नहीं जानते हैं कि हम लोगों के लिए श्रेयस्कर क्या है – हम उन्हें जीत लें या वे हमें जीत लें। जिन लोगों को मारकर हम जीना नहीं चाहते, वे ही धृतराष्ट्र के पुत्र सामने खड़े हैं।

"हम ये भी तो नहीं"— ‘मैं’ नहीं कहा — "हम ये भी तो नहीं जानते हैं कि हम लोगों के लिए श्रेयस्कर क्या है।" ये आप देख रहे हैं, अर्जुन परोक्ष रूप से क्या कर रहे हैं? कह रहे हैं, ‘मैं तो नहीं जानता हूँ, आप भी तो नहीं जानते हैं।’ ये संघर्ष है। कृष्ण से कह रहे हैं, ‘आप जानते नहीं हैं।’ अब सीधे-सीधे नहीं कह सकते हैं, मर्यादा की बात है तो ज़रा शालीन तरीक़े से कह रहे हैं। कह रहे हैं, 'हम लोग ये भी तो नहीं जानते न कि हमारे लिए श्रेयस्कर माने बेहतर क्या है।'

"हम उन्हें जीत लें या वे हम लोगों पर विजय पा लें। जिन लोगों को मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, धृतराष्ट्र के वो पुत्र हमारे सामने खड़े हैं।" अचानक से अर्जुन में इतनी भाव बाहुल्यता आ गयी है। इससे पहले पाँच-छः बार वो चुनौती दे चुके थे दुर्योधन को कि तू सामने पड़, तुझे मारूँगा। और अब कह रहे हैं, 'इनको मारकर तो मैं जीना भी नहीं चाहता।' और ये बात अब ध्यान दीजिए, उन्होंने द्रोण या भीष्म के लिए नहीं कही है, धृतराष्ट्र के पुत्रों के लिए कही है। "जिनको मारकर तो हम जीना भी नहीं चाहते वो धृतराष्ट्र के पुत्र अभी सामने खड़े हुए हैं।" ठीक है?

और जैसे मैं अज्ञानी हूँ कृष्ण, वैसे ही आप भी तो अज्ञानी ही हैं। मैं ये नहीं कह रहा मैं बड़ा भारी ज्ञानी हूँ, मैं तो दीन-हीन, विनम्र आदमी हूँ, मैं अपने बारे में नहीं कह रहा हूँ बड़ा ज्ञानी हूँ, पर अज्ञानी तो आप भी हैं न। ऐसे चलता है गुरु-शिष्य का रिश्ता। ऐसा हो ही नहीं सकता कि शिष्य को दिन में पाँच बार ये ख़याल न आये कि गुरुदेव हैं तो अज्ञानी। (श्रोतागण हँसते हैं)

'क्या है कि काम ही ऐसा करवा रहे हैं मुझसे। देखो यहाँ बोल रहे हैं, ये सामने खड़े हुए हैं भाई लोग हमारे मामा, बन्धू, आचार्य इनको सबको मार दो, ऐसे कैसे मार दूँ?' और भीतर-भीतर डर भी लग रहा, प्रदर्शित भी नहीं कर रहे हैं। कृष्ण जानते हैं कि अर्जुन को डर भी लग रहा है इसीलिए कृष्ण बीच में दो-तीन बार अर्जुन से कहते हैं, ‘बेटा कायर कहलाओगे, कायर।’ क्योंकि कृष्ण को पता है कि बात यहाँ पर कायरता की भी हो रही है। मोह तो है ही है, साथ में भय भी है, नहीं तो कायरता का तर्क न देते कृष्ण।

बड़ी भारी सेना है, अर्जुन की सेना से ड्योढी। और जो खड़े हैं वो भी कोई हल्के लोग नहीं हैं। जो सेनापति हैं उनका ऐसा था कि वो तभी मरेंगे जब इच्छा होगी उनकी, ऐसे भारी वो योद्धा। अब इच्छामृत्यु को न भी मानो कि कोई चमत्कार था, उसका शाब्दिक भी अर्थ पकड़ो तो इतना तो स्पष्ट होता है कि धुरन्धर योद्धा थे, माने कि कोई दूसरा व्यक्ति उन्हें चाहकर नहीं मार पाता। वो तभी मरते जब उनका अपना उत्साह क्षीण हो जाता। तो अर्जुन को भय लग रहा होगा, कहाँ मुझसे हो पाएगा ये!

भाई भी उधर सौ हैं, इधर तो पाँच ही हैं और पाँच में भी एक युधिष्ठिर। इनका भरोसा नहीं, ये अभी बीच में ही पासे खेलना शुरू कर दें। शकुनी पहले ही दो बार फँसा चुका था इनको बस यही बोलकर कि आओ। और इनका तो ये रहता है कि अगर आमन्त्रण आया है तो धर्म कहता है स्वीकार करना ही होगा भाइयों, चलो फिर से। एक बार गये तो पांचाली का चीरहरण करवाया, दूसरी बार गये तो जंगल भिजवाया। अब तीसरी बार यहाँ खड़े हुए हैं भाला लेकर, भाला छोड़कर द्यूत कब पकड़ लें पता नहीं। और वो नकुल, सहदेव हैं उनका ऐसा कोई युद्ध प्रावीण्य नहीं। हाँ, भीम भर ज़रूर हैं पर वो कब गर्म हो जाएँ उनका भरोसा नहीं होता। और कृष्ण हैं जिन्होंने शपथ कर रखी है कि मुझे तो उठाना ही नहीं है हथियार। तो अर्जुन को भय आ गया हो, इसमें कोई बड़ी बात नहीं।

समझ रहे हैं बात को?

और पुत्र थे अर्जुन के, वो अभी बालक ही हैं। अभिमन्यु कितने वर्ष का था? सोलह का। अब पिता होने के नाते ये भी देख रहे हैं कि सोलह साल, चौदह साल वाले खड़ा कर दिये हैं मैंने हथियार लेकर के, ये क्या लड़ेंगे और क्या इनका होगा। तो कह रहे हैं, 'नहीं लड़ना, इससे अच्छा है मैं भीख माँगकर खा लूँगा, मुझे जाने दो।' और कृष्ण ने पकड़ लिया, बोले, ‘कहीं नहीं जाना है।’

समझ में आ रही है बात?

भीरुता कहाँ है? संस्कृति में। और निर्भयता कहाँ है? अध्यात्म में। अब से जब भी मैं कहूँ 'अर्जुन' तो सुनिएगा?

श्रोतागण: संस्कृति।

आचार्य: और कहूँ 'कृष्ण' तो सुनिएगा?

श्रोतागण: अध्यात्म।

आचार्य: डरा हुआ कौन है? संस्कृति। लेकिन वीरता का आडम्बर कौन करता है? संस्कृति। और मौन वीरता किसके पास होती है? अध्यात्म के पास। अहिंसा की बात कौन कर रहा है? संस्कृति। वास्तव में अहिंसक कौन होता है? अध्यात्म। दोहराते हैं। अहिंसा की बात कौन कर रहा है कि मारूँगा नहीं, खून में सना हुआ राज्य नहीं लूँगा, खून में सना हुआ मुकुट नहीं पहनूँगा?

श्रोतागण: संस्कृति।

आचार्य: हाँ, तो अहिंसा की बातें बहुत सारी करती है संस्कृति लेकिन संस्कृति होती बहुत हिंसक है। अहिंसा वास्तव में कहाँ होती है? अध्यात्म में। लेकिन अध्यात्म ऊपर से देखने में ये लग रहा है कि लड़ाई करवा रहा है। ऊपर से देखने में क्या लग रहा है? अध्यात्म हिंसा करवा रहा है। वास्तव में अहिंसक कौन होता है?

श्रोतागण: अध्यात्म।

आचार्य: ठीक से देखिएगा। जो चीज़ जैसी होती है, कई बार उसका बिलकुल उल्टा दिखती है। जो दिख रहा है उस पर नहीं भरोसा। ठीक है? तो जैसे ही अब अर्जुन ने कहा कि हम कुछ नहीं जानते हैं, आप भी कुछ नहीं जानते हैं, तो मधुसूदन ने ज़रा सी तिरछी निगाह से ऐसे देखा (इशारा करते हुए) उनको कि बेटा होश में आओ, सारी तमीज़-मर्यादा भुला दी! क्या बोल रहे हो? बोला नहीं है उन्होंने, पर अर्जुन अगले ही श्लोक में सुधर गये हैं इसलिए आपको बता रहा हूँ।

आप कृष्ण के सामने कृष्ण को अज्ञानी बोलेंगे तो कृष्ण तो वही हैं जिन्होंने सौवीं बार गाली देने पर शिशुपाल को भी साफ़ करा था। तो गिनते तो वो हैं ही कि अभी-अभी गाली दी है इसने, गिनती तो रखते ही हैं मन में, भले ही माफ़ करते चलें। अर्जुन भी अगर कृष्ण को अज्ञानी बोलेंगे तो कृष्ण ने गिन तो लिया ही है। तो ऐसे देखा (इशारा करके बताते हुए), 'अच्छा! हम नहीं जानते कुछ?'

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसंमूढचेताः। यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।।२.७।।

अज्ञान-जनित कायरता के दोष से मेरा स्वभाव ढँक गया है और धर्म के विषय में मेरा चित्त मोहित हो गया है। मैं आपसे पूछता हूँ, जो मेरे लिए कल्याणकर हो वो निश्चय करके बताओ। मैं आपका शिष्य हूँ, अपनी शरण में आये हुए मुझे उपदेश दो।

तो अर्जुन तत्काल थोड़ा चेत गये। तो बोलते हैं, 'नहीं-नहीं, अज्ञान-जनित कायरता के दोष से मेरा स्वभाव ढँक गया है। मैं ही अज्ञानी हूँ, मैं ही कायर हूँ।' अब 'हम' से 'मैं'। ”अज्ञान-जनित कायरता से मेरा स्वभाव ढँक गया है।” तीन बातें उन्होंने तत्काल मान लीं — 'अज्ञानी हूँ, कायर हूँ, दोषी हूँ।' अज्ञान-जनित कायरता के दोष से मेरा स्वभाव अभी अच्छादित है। स्वभाव किसको कहा जा रहा है? आत्मा। जो मैं सचमुच हूँ वो चीज़ अभी छुप गयी है अज्ञान से।

यही बिलकुल स्टैंडर्ड मॉडल (मानक प्रारूप) है वेदान्त का। आत्मा छुपी रहती है किसके नीचे? माया। ठीक वैसे जैसे आग छुपी रहती है धुएँ के नीचे, और दिखायी क्या पड़ता है? बस कालिख, काला-काला धुआँ, न ताप, न प्रकाश। जबकि है ज़बरदस्त आग लेकिन वो छुपी हुई है। तो जो चीज़ छुपा लेती है उसको ही माया बोलते हैं। धुआँ कुछ होता थोड़े ही है, कुछ है धुआँ? कुछ नहीं, कोई दम नहीं, फ़ालतू। लेकिन उसने आग जैसे बल को भी छुपा दिया है, धुएँ के कारण कुछ नहीं दिख रहा।

आ रही बात समझ में?

"धर्म के विषय में मेरा चित्त मोहित हो गया है।" 'धर्म के विषय में मैं भ्रमित हो गया हूँ। अज्ञान ने मेरे मन को धर्म से भ्रमित कर दिया है।' अज्ञान न होता तो मन सीधे सत्य की ओर बढ़ता, पर अज्ञान है, इस कारण मन सत्य की ओर बढ़ने की जगह कभी मोह की ओर भाग रहा है, कभी इधर भाग रहा है, उधर भाग रहा है, ये सब कर रहा है। पचास और बातें सोच रहा है। 'मैं तो आपसे ही पूछ रहा हूँ कृष्ण, मेरे लिए जो उचित हो, कल्याणप्रद हो, वो मुझे बता दीजिए।'

अभी पिछले श्लोक में कुछ और तेवर थे, वो बदल गये हैं। और भ्रमित चित्त का एक ये भी लक्षण होता है, वो कहीं पर टिक नहीं पाता, स्थायी नहीं हो सकता क्योंकि वास्तव में स्थायी तो एक ही जगह हुआ जा सकता है न, कहाँ पर? केन्द्र पर, आत्मा में। जो व्यक्ति आत्मस्थ नहीं है, उसका मन झूले की तरह झूलेगा, इस पार, उस पार। झूल, स्विंग , उसी को कहते हैं मन का रंग बदलना। उसी को आप बिलकुल तात्कालिक तौर पर मूड स्विंग भी बोल सकते हो। वो सब यदि होते हों तो यही पता चलता है कि मन आत्मा की धुरी पर नहीं है। आत्मा की धुरी पर होगा तो चलेगा ज़रूर लेकिन लुढ़केगा नहीं।

मन का तो काम है चलना, आत्मस्थ मन भी चलता तो है ही। मन का काम है गति, क्रिया करना, लेकिन जब मन आत्मस्थ होता है तो सच्चाई को नहीं छोड़ता, उसके इर्द-गिर्द रहता है। केन्द्र सच्चाई को रखता है, निष्ठा सच्चाई के प्रति। और जब ये धुरी नहीं रहती है तो मन फिर क्या करता है? थाली का बैंगन, कुछ पता नहीं चलता कि कहाँ को चला जाएगा, जिधर को थाली थोड़ी टेढ़ी हुई उधर को ही लुढ़क लिया। जिधर बाहरी प्रभाव आया, उधर को ही चल दिया। किसी ने उठा लिया, उठ गया; किसी ने छोड़ दिया, गिर गया। ऐसा हो जाता है मन।

समझ में आ रही है बात?

तो अर्जुन का इस तरह का मन बदलाव हम कई बार देखेंगे, होता ही रहता है। फिर अपनी दुविधा को और अपनी दारुण स्थिति को व्यक्त करते हुए कह रहे हैं, रो ही पड़े हैं।

न हि प्रपश्यामि ममापनुद्या द्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्। अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धम् राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्।।२.८।।

पृथ्वी पर निष्कंटक समृद्ध राज्य तथा देवताओं का साम्राज्य पाकर भी मैं ऐसा कोई उपाय नहीं देखता जो मेरी इन्द्रियों को सुखाने वाले इस शोक को दूर कर सके।

कहते हैं, 'पृथ्वी पर मुझे एक शत्रुहीन और सब तरह से समृद्ध राज्य क्या, देवताओं का साम्राज्य भी मिल जाए', अर्थात् सब तरह से स्थितियाँ मेरे अनुकूल हो जाएँ, 'तो भी मुझे अभी ऐसा कोई उपाय नहीं दिख रहा जो इस दुख को मुझसे दूर कर सके, जिसने मुझे घोर सन्ताप में डाल दिया है। ऐसा सन्ताप जो मेरी इन्द्रियों का शोषण ही कर रहा है — "इन्द्रियाणाम् उत्शोषणम्।"

'मुझे अपने लिए कहीं कोई आशा ही दिखायी नहीं दे रही। एक तरफ़ सामने शत्रुसेना खड़ी है, दूसरी तरफ़ आप खड़े हैं, तीसरी तरफ़ भाई खड़े हैं, चौथी तरफ़ पत्नी खड़ी है, पाँचवीं तरफ़ माँ खड़ी है, छठी तरफ़ अतीत खड़ा है, सातवीं तरफ़ भविष्य भी खड़ा हुआ है। ये जो मेरे बच्चे हैं इनका भी तो सोचना है, कल का इनका क्या होगा! मैं तो राज्य छोड़ दूँ तो क्या बच्चों को भी भिखारी बना दूँ?' पिता हैं अर्जुन, ये सब बातें सोच रहे होंगे। 'मुझे नहीं समझ में आ रहा और मुझे लग भी नहीं रहा कि मैं ये जिस दलदल में फँस गया हूँ इससे कोई उबार सकता है मुझको।'

और अभी कह रहे थे पिछले ही श्लोक में कि आप ही निश्चय करके मेरे कल्याण का मार्ग बताएँ और अब कह रहे हैं कि मुझे नहीं लगता कि मेरी स्थिति से मुझे उबारने वाला कोई भी हो सकता है। इसका अर्थ क्या है? कृष्ण में भी अर्जुन की निष्ठा अभी पूर्ण नहीं है। निष्ठा यदि पूर्ण हो न, तो गुरु को इतना यत्न नहीं करना पड़ता है। कृष्ण ने बहुत मेहनत करी है गीता में, अर्जुन टेढ़ी खीर साबित हुए हैं, बहुत समझाना पड़ा है।

और साथ-ही-साथ मैं ये भी कहा करता हूँ कि अर्जुन ही अकेले सुपात्र थे, गीता के ग्राहक होने योग्य। गीता के श्रवण का अधिकार कृष्ण ने किसी को नहीं दिया अर्जुन के अतिरिक्त। और जब गीता अपने समापन पर या शिखर पर पहुँचती है, आप उसे उद्यापन भी कह सकते हैं, तो अर्जुन से कहते हैं कि किसी और कुपात्र को सुना भी मत देना गीता। जो मुझमें निष्ठा न रखता हो — और भी एक-दो शर्तें बताते हैं — ऐसों को गीता कभी बता भी मत देना। तो अर्जुन ही उन्हें मिले जो सर्वश्रेष्ठ थे क्योंकि अर्जुन को बताते हैं। और जो सर्वश्रेष्ठ उनको मिले हैं उनकी भी उनमें पूर्ण निष्ठा नहीं है, तो औरों का हाल सोचिए फिर। कृष्ण इस बात को लेकर संवेदनशील हैं कि गीता ऐसे लोगों के कानों में न पड़े जिनमें सत्य को लेकर श्रद्धा नहीं है, तो गीता का एकमात्र श्रोता वो चुनते हैं अर्जुन को।

पीछे धर्मराज भी तो खड़े थे, कम-से-कम उनको तो बुला लेते। धर्मराज ने तो यक्ष प्रश्नों के भी इतने ऊँचे और अच्छे उत्तर दे दिये थे, वो धर्मराज को भी नही आमन्त्रित करते हैं। वर्ना कहते न, भई आओ-आओ, बड़ी धर्मार्थ बैठक हो रही है, धर्मराज आप भी आइए। धर्मार्थ बैठक में धर्मराज आमन्त्रित नहीं हैं, इससे धर्मराज के धर्म के बारे में पता चलता है। और ये जो उनके चुने हुए शिष्य हैं अर्जुन, ये भी कितनी बार आप देखिएगा, अभी दूसरे अध्याय में भी और आने वाले अध्यायों में भी, कृष्ण के प्रति एकदम सीमित निष्ठा ही व्यक्त करते हैं। अनिष्ठा नहीं लेकिन सीमित निष्ठा।

एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप। न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह।।२.९।।

संजय ने कहा - शत्रु को तापित करने वाले अर्जुन हृषिकेश गोविन्द से ऐसा कहने के अनन्तर 'मैं युद्ध नहीं करूँगा' ये कहकर मौन हो गये।

और ये कहकर के कि कोई भी नहीं है जो मेरा शोक दूर कर पाएगा, मुझे किसी से कोई आशा नहीं, ये कहकर के, घोषित करके कि कृष्ण मुझे भी आपसे बहुत ज़्यादा आशा नहीं, वो दूसरी बार कह देते हैं, 'मैं युद्ध नहीं करूँगा' और चुप बैठ जाते हैं। अब ये उन्होंने अपनी स्थिति का वर्णन नहीं किया है, ये उन्होंने घोषणा कर दी है, एक डेक्लेरेशन है, 'मैं युद्ध नहीं करूँगा।' उन्होंने कृष्ण की अनुमति भी नहीं माँगी है कि युद्ध नहीं करूँगा। राय, मशवरा, सलाह भी नहीं है, कुछ नहीं। ये क्या है सीधे-सीधे? निष्कर्ष, समापन, 'मैंने तय कर लिया है, मैं नहीं लड़ूँगा।'

श्रीकृष्ण भाव कैसा दर्शा रहे हैं, उनकी मनोदशा कैसी है, ये भगवद्गीता में हमें बहुत कम जगहों पर बताया गया है। एक बार तब बताया गया था जब वो भीष्म की ओर दौड़े थे, तो बताया गया साफ़-साफ़ कि वो कुपित हैं। जब विराट रूप दर्शाया तब श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व को लेकर कुछ बातें बोल दी गयी हैं। अन्यथा आमतौर पर श्रीकृष्ण को निर्वैयक्तिक रूप में ही बताया गया है। ज्ञान गंगा प्रवाहित हो रही है, जिस व्यक्ति से आ रही है उस व्यक्ति का महत्व नहीं है तो उस व्यक्ति के बारे में हमें ज़्यादा जानकारी भी नहीं दी गयी है।

लेकिन ये जो दसवाँ श्लोक है, दूसरे अध्याय का, यहाँ पर श्रीकृष्ण के बारे में थोड़ी सी बात है। अर्जुन बैठ गये हैं कहकर के कि नहीं लड़ूँगा। तो दसवाँ श्लोक कहता है कि श्रीकृष्ण अभी ऐसे हैं मानो हँस रहे हैं।

तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत। सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः।।२.१०।।

हे राजा धृतराष्ट्र! तब श्रीकृष्ण ने दोनों सेनाओं के बीच में अत्यन्त दुखी अर्जुन से मानो हँसते हुए ये वाक्य कहा।

"धृतराष्ट्र, तब श्रीकृष्ण ने दोनों सेनाओं के बीच में दुखी अर्जुन से मानो हँसते हुए ये कहा।" "मानो हँसते हुए ये कहा।" रो कौन रहा है?

श्रोतागण: अर्जुन।

आचार्य: हँस कौन रहा है?

श्रोतागण: श्रीकृष्ण।

आचार्य: और वो बैठ गये हैं, यही है न दशा, ऐसे ही दिखाते हैं न? (हताशा से बैठने का अभिनय करते हुए) और वो खड़े हुए हैं और हँस रहे हैं उनको देखकर के।

और हमारी आम मान्यता कहेगी कि ये संवेदनहीनता है, ये क्रूरता है। बेचारा लड़का दुखी है कि बाप, ताऊ, दादा, आचार्य को मारना पड़ेगा और तुम हँस रहे उसके ऊपर, बड़े निर्मम-निठुर हो! वो तो हैं ही निर्मम और कह रहे हैं, 'होना भी चाहिए, निर्ममता तो सबसे अच्छी बात है और ममत्व तो मूल अपराध है।' आप देख पा रहे हैं, दिख रहा है साफ़-साफ़? अर्जुन बैठ गये हैं रथ पर। और इस बार तो साफ़, डंके की चोट पर कह रहे हैं, 'मैं नहीं लड़ूँगा।' "उत्वा न योत्से", कहकर के कि नहीं युद्ध करूँगा, सीधे।

तो कृष्ण हँस पड़े हैं, हो सकता है कि गले से न हँस रहे हों, आँखों से हँस रहे हैं। तो संजय कहते हैं, 'श्रीकृष्ण ने मानो हँसते हुए कहा।' क्या कहा? अब ये बच्चा बिना चोट खाये मानेगा नहीं, एकदम ही ज़िद पर अड़ गया है, तो हँस पड़े हैं कि अब मुझे तुम्हें वही देना पड़ेगा जो तुम माँग रहे हो। तुम चोट माँग रहे हो, तुम मुझे विवश कर रहे हो कि मैं तुम्हें ज्ञान की चोट दूँ। तो अब ज्ञान की चोट का आरम्भ होता है। ठीक?

इससे पहले जो बातें कही थीं, वो सतही थीं, सामाजिक थीं कि क्षत्रिय हो, स्वर्ग नहीं मिलेगा, लोग हँसेंगे, कायर कहलाओगे, ये सब बातें कही थीं। अब ज्ञान की बात शुरू होती है क्योंकि अब अर्जुन बैठ ही गये हैं, अब थोड़ा उनको भारी उपचार देना पड़ेगा। तो भारी उपचार क्या दिया जा रहा है?

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे। गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः।।२.११।।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा - तुम शोक के अयोग्य लोगों के लिए शोक कर रहे हो और पण्डितों की तरह वाक्य बोल रहे हो। ज्ञानी लोग मृत ओर जीवित लोगों के लिए शोक नहीं करते।

'जिनके लिए शोक किया नहीं जा सकता उनके लिए शोक कर रहे हो और बातें ऐसे कर रहे हो जैसे भारी विद्वान हो।' दे दी चोट! कह रहे हैं, 'बातें मूर्खों वाली और बन रहे हो पंडित। यदि वाक़ई तुम विद्वान होते तो इनके लिए शोक करते क्या?' सत्य ही अमर है यदि तो जो सत्य के विरुद्ध हो, वो कौन हो गया? मृत। जो मरा ही हुआ है उसके मरने का तुम शोक कर रहे हो पागल! सत्य से तुम्हारा थोड़ा भी समीप्य होता तो जो मेरे यानी सत्य के विरुद्ध खड़े हैं, उनके लिए तुम शोक कैसे कर सकते थे? लेकिन बातें देखो कितनी बड़ी-बड़ी, कि अधर्म हो जाएगा और अहिंसा ज़्यादा महत्वपूर्ण है और गुरुओं के रक्त से सना हुआ मुकुट नहीं पहनूँगा, भिक्षा खाकर जीना ज़्यादा श्रेष्ठ है, जिनके लिए राज्य अर्जित किया जाता है उनको मारकर के राज्य थोड़े ही अर्जित करूँगा मधुसूदन। देखो, कैसे तुम विद्वत्तापूर्ण तर्क सुना रहे हो मुझको और हो क्या तुम? अज्ञानी। हो अज्ञानी और तर्कों में ज्ञान उड़ेल रहे हो।

इससे हमें ज्ञान के बारे में क्या पता चलता है? इससे हमें ज्ञान भरे वक्तव्यों के बारे में क्या पता चलता है? आप लोग साथ हैं मेरे या मैं ही बस गला थका रहा हूँ? अर्जुन यहाँ अज्ञानी हैं, साफ़ कह रहे हैं कृष्ण। और ये भी कह रहे हैं कि बातें पंडितों सी कर रहे हो। इससे ज्ञान के बारे में, पंडिताई के बारे में क्या पता चलता है? हाँ, बोलिए!

श्रोतागण: उथली बातें हैं, सांस्कृतिक बातें हैं।

आचार्य: हाँ उथली बातें हैं तो? सांस्कृतिक बातें हैं तो? बहुत महत्वपूर्ण बात है जो हमें पता चल रही है ज्ञान के बारे में, वो ज्ञान की कमज़ोरी है बहुत बड़ी। आपमें से कोई भी ग़लत नहीं कह रहा है, वो नहीं कह रहा है जो मैं सुनना चाहता हूँ। हाँ, तो उससे क्या पता चलता है?

ज्ञान बहुत आसानी से अज्ञान के हाथ में खिलौना बन जाता है और ये ज्ञान की विवशता है, वो करे क्या बेचारा! ज्ञान बहुत आसानी से कठपुतली बन जाता है और तार किसके हाथ में होता है?

श्रोतागण: अज्ञान के।

आचार्य: नाच रहा है ज्ञान, नचा रहा है?

श्रोतागण: अज्ञान।

आचार्य: वही हो रहा है यहाँ अर्जुन के साथ। अर्जुन ने तो अपने ज्ञान का प्रयोग करके कृष्ण को भी लगभग अज्ञानी बता दिया है कि 'हम' नहीं जानते। जो न जाने उसी को तो अज्ञानी कहते हैं न। कि अभी धर्म क्या है, ये 'हम' नहीं जानते, 'हम' नहीं जानते माने?

श्रोतागण: श्रीकृष्ण भी नहीं जानते हैं।

आचार्य: अज्ञान के लिए ज्ञान एक संसाधन मात्र है। वो बहुत चालाक होता है, बहुत वो सुसंसाधन युक्त होता है, रिसोर्सफुल होता है अज्ञान। वो किसी भी चीज़ को अपने हित हेतु इस्तेमाल कर सकता है, वो सबकुछ पचा लेता है। अज्ञान, ज्ञान को भी पचा लेगा और ज्ञान, अज्ञान का आहार बन कर अज्ञान को और बढ़ा देता है। जैसे तिलचट्टा होता है न, उसको हम बोलते हैं ओमनीवोर। ओमनीवोर माने, हिन्दी में क्या बोलेंगे? सर्वाहारी। ये अच्छा शब्द मिल गया अज्ञान के लिए, अज्ञान सर्वाहारी होता है, ओमनीवोर होता है। वो सबकुछ खाता है, सब पचा डालता है, वो ज्ञान को भी पचा लेता है।

तो माने ज्ञान, अज्ञान को नहीं हरा सकता, यही ज्ञान की बड़ी भारी सीमा है। अज्ञान को तो बस अहम् का प्रेम ही हरा सकता है, क्योंकि अहम् ही अज्ञान को पकड़े होता है न, 'मैं अज्ञानी हूँ।' तो अज्ञान को किसने पकड़ा है? मैंने। जब मैं अज्ञान से ऊब जाता हूँ, जब प्रेम हो जाता है मुक्ति से। इससे (अज्ञान से) ऊबा, मुझे अब इससे मुक्त होना है तो वो जो मुक्ति से प्रेम होता है, वो हराता है अज्ञान को।

अगर मुझे अज्ञान से अभी मोह है, अज्ञान से मोह पूरा है, और मुझे ज्ञान के माहौल में बैठा दिया जाए तो उससे मेरा अज्ञान ही और मोटा होगा। मैं आहार दे रहा हूँ अपने अज्ञान को अगर मुझे ज्ञान के महौल में बैठा दिया गया है, मैं ज्ञान सोखूँगा और अज्ञान को खिला दूँगा और वो तिलचट्टे की तरह ज्ञान को खा जाएगा। तिलचट्टा पत्थर भी खा जाता है, कहते हैं। कहते हैं, पत्थर भी खाकर पचा लेता है, वो सब खा लेता है।

उसको इस तरह भी कह सकते हैं कि अज्ञान सर्वभोक्ता है। वो हर चीज़ का कंज़मप्शन कर लेगा। उसको जो दोगे, वो उसको ही भोग लेगा। अज्ञान की काट अज्ञान से बाहर का कोई विषय नहीं हो सकता। अज्ञान का तो बस यही है कि जब जो अज्ञानी है उसको अज्ञानी रहने में रुचि न रह जाए तो अज्ञान झड़ जाता है। झड़ जाता है, गिर जाता है। मैंने ही पकड़ रखा था, मेरी उसको पकड़ने में रुचि नहीं रह गयी। मैं अज्ञानी हूँ (हाथ में रूमाल पकड़कर और फिर उसको गिराकर समझाते हैं), झड़ जाना। इसके लिए शब्द होता है — 'निर्जरा', झड़ना, गिर गया नीचे। यही त्याग है।

नहीं तो ये श्रीमद्भगवद्गीता है (श्रीमद्भगवद्गीता की ओर इंगित करते हुए), ये (रूमाल) अज्ञान है। ये (रूमाल) अज्ञान है, ये गीता हैं, अज्ञान पता है न क्या करेगा? (रूमाल को श्रीमद्भगवद्गीता पर रखकर) गीता जी आसन बन गयीं, किसका? अज्ञान का। माया में इतनी ताक़त होती है। ये देखो क्या हो गया! अनर्थ, पाप!

और हम जिनके अभी वचन सुन रहे हैं वो जब साक्षात् खड़े हुए हैं, अर्जुन तब भी उनसे बहस करे जा रहे हैं, ये देखो माया की ताक़त। हमारे पास तो बस श्लोक हैं और वो श्लोक भी हमें पक्का भरोसा नहीं कि कृष्ण के ही मुखारविन्द से आये हैं। संकलित तो वेदव्यास ने करे, सुनाये तो संजय ने, तो हमारे पास तो बहुत मिश्रित सी एक आख़िरी बात आयी है। लेकिन गीता कही तो गयी ही थी और युद्ध हुआ तो था ही। तो अर्जुन के सामने तो साक्षात् खड़े हुए थे कृष्ण और समझा रहे हैं अर्जुन को, वो तब भी नहीं समझ रहे, माया में इतनी ताक़त होती है। इसलिए ख़ुद से डरना चाहिए, हम बहुत गड़बड़ लोग हैं। समझ रहे हैं बात को?

संस्कृति को शत्रु बहुत दिखायी देते हैं लगातार, कहाँ? बाहर, संसार में। 'मैं फ़लानी संस्कृति का हूँ, मेरे दुश्मन बहुत सारे हैं, कहाँ हैं? वो मेरा दुश्मन है, वो मेरा दुश्मन है, वो मेरा दुश्मन है (अलग-अलग दिशाओं में इंगित करके बताते हैं)।' संस्कृति लड़ती है बाहरी दुश्मनों से, 'दूसरा देश मेरा दुश्मन है, दूसरा समुदाय मेरा दुश्मन है, दूसरी संस्कृति मेरी दुश्मन है।' संस्कृति वाले ऐसे ही कहते हैं न बार-बार? संस्कृति लड़ती है बाहर वालों से और अध्यात्म लड़ता है भीतर के दुश्मन से।

अध्यात्म पहचानता है कि तुम्हारा दुश्मन तुमसे बाहर नहीं है, दुश्मन तुम्हारा भीतर बैठा है। अध्यात्म हमेशा भीतर के दुश्मन से लड़ेगा। संस्कृति का ऐसा है कि वो बाहर के दुश्मन से कभी जीतती भी है, कभी हारती भी है। लेकिन चाहे जीते चाहे हारे, वो सदा हारी हुई ही रहती है। क्यों? क्योंकि भीतर वाले से हारी हुई है। अध्यात्म का ये है कि वो बाहरी लड़ाई हो सकता है जीते, हो सकता है हारे, लेकिन फिर भी वो सदा विजेता है। क्यों? क्योंकि वो भीतर से जीता हुआ है। दुर्योधन जीत भी जाता तो भी हारा रहता और अर्जुन हार भी जाते, वीरगति हो जाती तो भी जीते रहते।

समझ में आ रही है बात?

YouTube Link: https://youtu.be/KbYH-kN3xsI

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