दुनिया की सबसे गंदी आदत, और उसे छोड़ने का तरीका || आचार्य प्रशांत, एन.आई.टी. जमशेदपुर (2023)

Acharya Prashant

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दुनिया की सबसे गंदी आदत, और उसे छोड़ने का तरीका || आचार्य प्रशांत, एन.आई.टी. जमशेदपुर (2023)

प्रश्नकर्ता: सर, मेरा सवाल आपसे ये है कि हमारी एक टेंडेंसी (वृत्ति) होती है कि हम अपने सारे महत्वपूर्ण कार्यों को सबसे आख़िरी में करते हैं, और ख़ासकर के सर, इंजीनियर्स तो इसके लिए कुछ ज़्यादा बदनाम हैं। तो कृपया मार्गदर्शन करें, इस प्रवृत्ति से हम कैसे बचें और उसे कैसे सुधारे?

आचार्य प्रशांत: देखो, जिस काम के बारे में पता होता है कि सही है, ज़रूरी है। उस काम को कभी आगे के लिए थोड़े ही टाला जाता है? आगे के लिए तो वही चीज़ें टाली जाती हैं न, जिनके बारे में हमें कुछ पता ही नहीं होता है कि इससे क्या फ़ायदा होगा, करें तो करें क्यों? उन चीज़ों में फिर मन लगता नहीं है, तो हम उसे आगे के लिए टालते हैं।

अब कोई काम है जिसकी आपको डेडलाइन दी गयी है एक हफ़्ते बाद की, तो उसको आप टालते रहोगे — आज टालोगे, कल टालोगे, परसों टालोगे, नरसों टालोगे; इस उम्मीद में टालोगे कि क्या पता वो काम अन्ततः करना पड़े ही नहीं। टालने के पीछे ये आशा होती है कि हो सके तो किसी तरह इस काम से बच ही जाओ। और अगर किसी और ने वो काम दिया है, तो क्या पता देने वाले का ही मन बदल जाए, वही कह दे मत करो!

जब तक एकदम ही सिर पर न आन पड़े, बचने का कोई तरीक़ा ही न रहे, तब तक किसी तरह उस काम से जी चुराओ। इससे बस ये पता चलता है कि उस काम से जो हमारा रिश्ता है, उसमें दो चीज़ें ग़ायब हैं। बाद में इन दो चीज़ों को भी हम देखेंगे कि ये दो चीज़ें अलग-अलग हैं क्या। कौनसी दो चीज़ें ग़ायब हैं काम से हमारे रिश्ते में?

एक तो हमें पता नहीं है उस काम के बारे में, तो उसको हम बोल देंगे बोध। दूसरा, जितना हमें थोड़ा-बहुत पता है उसके बारे में, वो हमें पसन्द नहीं आ रहा, उसको हम बोल देंगे प्रेम। ठीक है?

काम को लेकर के न हममें बोध है, न प्रेम है। न तो हम उस काम की अहमियत को समझते हैं, न उस काम में हमारा दिल लगता है। अब न तो ये पता है कि वो काम क्यों ज़रूरी है, सचमुच क्यों ज़रुरी है? अब वो किसी ने बता दिया कि इसलिए ज़रूरी है वो एक अलग चीज़ होती है पर एक अपना बोध, अपना हार्दिक एहसास, ख़ुद की जानी हुई बात, ये काम सचमुच मेरे लिए आवश्यक है ही; वो एक बिलकुल दूसरी चीज़ होती है। वो हमारे पास होता नहीं। और अगर कभी हम कह भी दें कि हम समझते हैं इस काम के महत्व को, तो उस काम को लेकर के हममें कोई प्रेम होता नहीं है।

तो इन दो चीज़ों की जो कमी है, वो फिर हमको टालमटोल करने पर मजबूर कर देती है, हर किसी को करती है। ये दुनिया भर का हमेशा पुराना नियम है, इतना पुराना नहीं होता तो भाषा में इसके लिए एक पुराना मुहावरा ही नहीं होता, ‘इलेवेंथ ऑवर’ बोलते हैं उसको। थिंग्स गेटिंग डन ऐट द इलेवेंथ ऑवर (ग्यारहवें घंटे काम हो रहे हैं)। इलेवेंथ ऑवर का मतलब ही यही होता है। इलेवेंथ में भी ऐसा है कि जैसे कि भाई बारह ही घंटे दिये हों तो इलेवेंथ, आप उसको बोल दो, ट्वेंटी थर्ड ऑवर एंड द फ़िफ़्टी नाइंथ मिनट (तेईस घंटे और उनसठ मिनट), उसे तब तक टाला जाता है। पूरा दिन मिला था, चौबीस घंटे का तो आख़िरी मिनट तक टाला जाता है।

वो इसीलिए टाला जाता है क्योंकि हम जो ज़िन्दगियाँ जीते हैं, उन ज़िन्दगियों में दो चीज़ें हैं जो हमें संचालित करती हैं और दो चीज़ें हैं जो हमारी ज़िन्दगी से ग़ायब रहती हैं। जो ग़ायब रहती हैं, उनके हमने क्या दो नाम बताये अभी?

प्र: बोध और प्रेम।

आचार्य: और दो चीज़ें जो हमें संचालित करती हैं, अब उनके बारे में समझते हैं। ठीक है? अभी तक बात बन रही है, समझ में आ रहा है?

प्र: येस सर।

आचार्य: चलो ठीक है। मैं उम्मीद करता हूँ कि तुम्हारा परिचय मुझसे कुछ पुराना है, नहीं तो ये भाषा भी समझ में नहीं आ रही होगी। पहले से मुझे पढ़ा या सुना है?

प्र: सर, यूट्यूब पर आपके विडियोज़ देखे हैं।

आचार्य: ठीक है। दो चीज़ें कौनसी हैं जो ज़िन्दगी में हमारे एकदम घुसकर बैठी हुई हैं? अब उन पर आऍंगे। कौन है जो भीतर आ गया है नाहक ही? देखो, कोई ज़िन्दगी में अगर घटना घटे, तो तुम पाओगे कि जो कुछ भी हो रहा है, भले ही तुम उसको समझते नहीं हो, पर फिर भी एक प्रतिक्रिया कर डालते हो।

इतने लोग हैं दुनिया में, वो अपनी ज़िन्दगियाँ जी रहे हैं; ज़िन्दगी में उनके सामने स्थितियाँ आती रहती हैं। क्या तुम्हें लगता है सचमुच वो उन स्थितियों को समझते हैं? समझते तो हैं नहीं न? हम तो कुछ नहीं जानते क्या हो रहा है? लेकिन फिर भी हम प्रतिक्रिया तो कर ही देते हैं न?

प्र: जी सर।

आचार्य: कोई मान लो, प्राकृतिक घटना ही घट जाए, उस प्राकृतिक घटना के पीछे एक वैज्ञानिक आधार है। ठीक है? अब जिन लोगों को विज्ञान की समझ नहीं, वो समझेंगे तो हैं नहीं कि घटना क्यों घटी, लेकिन फिर भी वो कुछ-न-कुछ तो प्रतिक्रिया कर ही देंगे। तो वो प्रतिक्रिया कहाँ से आती है?

वो प्रतिक्रिया आती है इस बहुत पुराने शरीर से, ठीक वैसे, जैसे जानवर होता है। जानवर तो बेचारा कुछ भी नहीं समझता लेकिन उसके साथ कुछ हो रहा हो, तो रिएक्शन (प्रतिक्रिया) तो वो भी दे ही देता है। प्रतिक्रिया, रिएक्शन तो एक जानवर भी दे ही देता है न‌ और वो कहाँ से दे देता है? वो आता है शरीर से और ये जो शरीर है, ये बहुत-बहुत पुराना है, प्रिमिटिव (आदिम) है और इसने एक बहुत पुराना अभ्यास कर रखा है स्थितियों को प्रतिक्रिया देने का।

ये कभी भी अपनेआप को; शरीर में मस्तिष्क भी आता है, ये मस्तिष्क कभी अपनेआप को ये नहीं बोलता कि जो हो रहा है, मैं उसको जानता नहीं। उसकी जगह ये कहता है कि जो कुछ हो रहा है, वो वही है जो सदा से होता आया है और मैं तदनुसार प्रतिक्रिया दे दूॅंगा। ये एक प्रिमिटिव मशीन है, लेकिन आपके सामने आज जो चीज़ें आती हैं, वो तो आज की हैं। इस पुरानी मशीन को पता ही नहीं है कि आज जो चीज़ें सामने हैं, उनको कैसे प्रतिक्रिया देनी है, इसे नहीं पता। पर इसे पुराने अभ्यास बहुत हैं, तो ये पुराने अभ्यासों के अनुसार आँख बन्द करके बिना कुछ जाने-समझे प्रतिक्रिया देता रहता है।

उदाहरण के लिए, किसी ने डरा दिया फ़लाना काम करो! तो आप वो काम करने लग जाते हो न? आपको आपके प्रोफ़ेसर ने कोई असाइनमेंट दे दिया, ‘आप ये काम करिए, नहीं तो आपके इतने नम्बर कट जाऍंगे या आप ये असाइनमेंट समय पर दे दीजिए, तो आपको इतने नम्बर मिल जाऍंगे। आप तुरन्त वो काम करने लग जाते हो न?

श्रोता: जी सर।

आचार्य: और अगर एक असाइनमेंट बीस मार्क्स का है और एक-दो मार्क्स का है, तो आप बीस वाले पर तुरन्त ध्यान दे देते हो, दे देते हो न? बिना ये समझे कि ऐसा क्यों हुआ कि बीस वाली चीज़ ने आपको ज़्यादा आकर्षित करा।

आप कहेंगे, ‘ये तो बहुत ऑब्वियस (ज़ाहिर) सी बात है कि बीस वाले की तरफ़ ही जाऍंगे, दो की तरफ़ नहीं जाऍंगे।’

मैं कहूँगा, ‘ऑब्वियस नहीं है, आप थोड़ा विचार करिएगा। ये आपकी पुरानी मशीन की एक पुरानी प्रतिक्रिया है, प्रिमिटिव मशीन का प्रिमिटिव रिएक्शन है। समस्या सारी ये है कि मशीन बहुत पुरानी है और जीवन एकदम साक्षात होता है, सामने, नया। लेकिन मशीन कभी ये मानती नहीं कि जो सामने है वो मुझे पता नहीं, तो मैं पता करने का प्रयास करूँ।

मशीन कहती है कि जो सामने है वो पुराने जैसा ही है, चूँकि मैं पुरानी ही चीज़ पर प्रतिक्रिया कर सकती हूँ इसीलिए मैं ये मानूॅंगी। मैं ये मान्यता रखूॅंगी ज़बरदस्ती कि जो सामने है वो भी पुराना ही है। अंग्रेज़ी में कहते हैं न कि व्हेन हैमर इज़ ऑल यू हैव, दैन एवरी प्रॉब्लम टू यू इज़ अ नेल। (जब हथोड़ा ही सबकुछ है तो आपके लिए दस समस्याएँ एक कील के समान है।) तो मुझे सिर्फ़ पुरानी तरह की समस्याएँ ही हल करनी आती हैं, हल भी नहीं करनी आतीं, सिर्फ़ मैं पुराने तरीक़े की समस्याओं पर ही प्रतिक्रिया करने को अभ्यस्त हूँ।

तो आज भी मेरे सामने जो कुछ आएगा, मेरी मज़बूरी हो जाएगी ये मानना कि वो जो सामने है, वो कैसा है? पुराना ही है। तो शरीर इस हिसाब से बस प्रतिक्रिया करता चलता है बिना समझे कि सामने है क्या। डरा दिया, डर की राह पर चल दिये। भ्रमित हो गये, कोई बात नहीं। चलते रहो, रुको मत! कोई चीज़ नहीं भी समझ में आ रही है, तो भी उसको करे जा रहे हैं। पॉंच लोगों को कुछ करते देखा, तो लगा ठीक ही होगा।

ये सब बहुत पुराने तरीक़े हैं इस शरीर के, उन दिनों के जब ये जंगल में रहा करता था और जंगल में ये तरीक़े काम आते थे। आज ये तरीक़े काम नहीं आते। ये तरीक़े शायद किसी जानवर के लिए आज भी काम के होंगे, पर इंसान की चेतना के लिए ये तरीक़े बिलकुल काम के नहीं हैं।

लेकिन आपका जो शरीर है, शरीर से मेरा आशय ब्रेन (मस्तिष्क), आपका जो ब्रेन है वो आज भी पुराने ही तौर-तरीक़ों पर चले ही जा रहा है। वो ऐसे बर्ताव कर रहा है जैसे आप आज भी जंगल के जानवर हो। अगर वो ये कह दे कि मैं समझ ही नहीं रहा हूँ कि ये नयी दुनिया क्या है, तो शायद समझने की कुछ सम्भावना खड़ी हो पाये, कोई नयी सम्भावना हमारे सामने खुले; पर वो ये भी नहीं कहता।

आप जब जंगल में थे, तो छः लोगों के झुंड में चलना एक सुरक्षा की बात थी। कोई आप पर आक्रमण करेगा जानवर; आपको छः या सोलह के झुंड में चलते देखेगा, तो हो सकता है आक्रमण न करे आप पर। जंगल में जो बात लाभप्रद थी, आज वो बात हानिप्रद है। आज अगर आप छ: या सोलह के झुंड में चल रहे हो, तो ज़रूरी नहीं है कि वो चीज़ आपके लिए अच्छी है। जंगल में वो चीज़ आपके लिए अच्छी थी। बात समझ रहे हैं?

प्र: जी सर।

आचार्य: तो एक मालिक जो हमारे भीतर घुसकर के बैठ गया है, उसको हम क्या बोलेंगे? हमारा शारीरिक अतीत। दो चीज़ें जो हममें ग़ायब थीं, हमने उनकी शुरू में ही चर्चा कर लीं, बोध और प्रेम। और दो चीज़ें जो नाहक ही, फ़िज़ूल ही मौजूद हैं उनमें से पहला ये हो गया, हमारा शारीरिक अतीत। हमारा बहुत पुराना ये ब्रेन जो अभी भी ऐसे जी रहा है जैसे हम जंगल में ही रहते हों। और इसके लिए हम जो ये मस्तिष्क है, इसको दोष नहीं दे सकते। क्योंकि जंगल से निकले न अभी आपको बस एक पल हुआ है।

अगर आप देखोगे तो ये जो पृथ्वी है, ये लगभग साढ़े चार बिलियन वर्ष पुरानी है। हम जिसको इंसान कह सकते हैं, सोचने-समझने की शक्ति वाला इंसान, जो तर्क कर सकता है वो इंसान तो मुश्किल से सत्तर हज़ार साल पुराना है। वो जो आप तस्वीरों में इंसान देखते हो न, जो हाथ में एक पत्थर का टुकड़ा लेकर के किसी जानवर के पीछे भाग रहा है, उसको इंसान थोड़े ही बोलेंगे।

इंसान तो उसको बोलेंगे न जो हमारे जैसा हो, होमोसेपियंस। सेपियंस माने जिसमें सोचने-समझने की कुछ क्षमता हो। तो वो तो मुश्किल से सत्तर हज़ार साल पुराना है। तो आप बताओ, साढ़े-चार बिलियन साल की पृथ्वी और तेरह-चौदह बिलियन वर्ष पुराना ये ब्रह्माण्ड और उसकी तुलना में सत्तर हज़ार साल कितना हुआ?

प्र: कुछ भी नहीं।

आचार्य: कुछ भी नहीं हुआ न। तो इसलिए बोल रहा हूँ कि हमें जंगल से बाहर आये तो अभी एक पल हुआ है और जंगल से बाहर आये सत्तर हज़ार साल भी नहीं हुए हैं। मनुष्य जंगल से बाहर आया है मुश्किल से दस हज़ार साल पहले, जब हमने खेती वगैरह करना शुरू करा था। तो अभी-अभी हम बाहर आये हैं।

अब इवोल्यूशन के लिए, विकास के लिए ये दस हज़ार साल बहुत कम पड़ते हैं। तो मस्तिष्क बेचारा अभी इसी भ्रम में बैठा हुआ है जैसे हम कहाँ रह रहे हैं? जंगल में ही रह रहे हैं; क्योंकि वो एकदम ताज़ा-ताज़ा जंगल से बाहर आया है। जंगल में रहने का उसका कितना अभ्यास है? कम-से-कम दस लाख साल का।

जंगल में रहने का उसका कम-से-कम दस लाख साल का अभ्यास है, मैं दस लाख भी इसलिए बोल रहा हूँ क्योंकि हम तय नहीं कर सकते कि किस बिन्दु पर हम बोलें कि वो जो प्राइमेट था, अब इसको इंसान कह सकते हैं। तो विद्वानों ने जो एक मोटा बिन्दु सहमति से माना है, मैं उसको बोल रहा हूँ दस लाख साल। दस लाख साल पुराने आप हो गये, दस हज़ार साल पहले आप बाहर आये जंगल से। अब दस लाख की तुलना में दस हज़ार कितना होता है?

अभी-अभी आप बाहर आये हो, मस्तिष्क अभी इसी ख़याल में बैठा हुआ है कि आप कहाँ रहते हो? जंगल में। आप रहने लग गये हो शहर में, मस्तिष्क अभी इस बात को समझ ही नहीं पाया कि आप जंगल से कब के बाहर आ गये, इसलिए जो चीज़ें जंगल में उपयोगी होती थीं, आज वो क्या हैं? अनुपयोगी। जो चीज़ें जंगल में सुरक्षा देती थीं, आज वो बस तनाव देंगी। आपके जो तौर-तरीक़े जंगल में आपको लाभ देते थे, आज आपको उनसे बस नुक़सान ही हो सकता है।

ये बात अभी इसको (मस्तिष्क को) समझ में नहीं आयी है, लेकिन ये कहता है कि मैं तो आपकी पूरी व्यवस्था का संचालक हूँ। ये अपनेआप को बोलता है न, ‘मैं कौन हूँ? मैं सर हूँ। हिन्दी में भी सर (सिर) हूँ, अंग्रेज़ी में भी सर हूँ। मैं तो सर हूँ।’

तो ये आपकी पूरी व्यवस्था को यही मान कर चलाता है कि आप अभी जंगल में हो, और जहाँ जो सर है माने जो बॉस है, वही अभी ग़लतफ़हमियों में जी रहा हो, उस पूरी संस्था का क्या होगा? ये मान लो पूरी संस्था (शरीर की तरफ़ इशारा करते हुए) है और ये कौन है? सर, बॉस। और बॉस नशे में है, बॉस यही मान रहा है कि अभी तो मैं गोरिल्ला हूँ, पेड़ पर चढ़ा हुआ हूँ। समझ रहे हो?

तो चेतना की ताक़त इसलिए आपके पास होते हुए भी नहीं है; ये इंसान की सबसे बड़ी त्रासदी है। उसको जानवर की तरह जीने की कोई ज़रूरत नहीं, लेकिन वो जानवर की तरह जीता है क्योंकि उसके मस्तिष्क को आज भी यही लगता है कि वो जंगल में है, और अगर आप जंगल में है तो आपको जानवर की तरह जीना पड़ेगा। और जानवर क्या बहुत सोच विचार करता है? जानवर सोच विचार नहीं करता।

जानवर कहता है, ‘मस्त कहीं खाने को मिले, फट से खा लो।’ जानवर क्या ये समझता है; आप अपनी थाली रख दीजिए, थोड़ी देर को हट जाइए — बन्दर आएगा, आपका खाना लेकर भाग जाएगा। बन्दर को क्या ये भी लगेगा कि उसने चोरी करी? आप चावल छींट देते हैं, चिड़िया आती है, चावल चुग लेती है। चिड़िया को लग रहा है कि उसने कहीं आपका कुछ सामान ले लिया और लौटाना चाहिए? वो वही पुराने तरीक़ों पर चल रहे हैं।

पुराना तरीक़ा ये है, जहाँ मिले खा लो, जहाँ मिले सो जाओ। जहाँ मिले खाओ, जहाँ मिले सोओ। वो तरीक़े कभी ठीक रहे होंगे, आज ठीक नहीं हैं। लेकिन आज भी ज़्यादातर लोग इसी तरह की ज़िन्दगियाँ बिताते हैं, जहाँ मिले खा लो; बेईमानी से मिले, बेईमानी से खा लो। बेईमानी ऐसा कुछ होता नहीं, खाने को मिलना चाहिए और पड़ जाओ, और बस ऐसी जगह सोओ जहाँ पर आकर शेर-चीता न खा जाए, तो उसके लिए अपना बिस्तर है, कमरा बन्द कर लो, एसी चला लो, सो जाओ आराम से और क्या करना है ज़िन्दगी में?

और जानवर की ज़िन्दगी में एक चीज़ और होती है सेक्स। तो वो भी आज भी आपके ऊपर चढ़ी रहती है कि हाँ जी, जहाँ मौक़ा मिले वहाॅं पर। और तब ये बात ज़रूरी होती थी जंगल में, क्योंकि जंगल में लगातार ख़तरा था, इसलिए ज़रूरी था कि आप जल्दी-जल्दी अपनी प्रजाति को आगे बढ़ाते रहिए।

आप देखिएगा कि जितना ज़्यादा कमज़ोर कोई प्रजाति होती है शारीरिक रूप से, वो उतना ज़्यादा तेज़ी के साथ प्रजनन करती है। आप खरगोशों को देखिए, वो चार-छः महीने के होते नहीं हैं कि उनके बच्चे आने शुरू हो जाते हैं। यही बात आप बड़े जानवरों में नहीं पाऍंगे, क्योंकि वो इतने कमज़ोर होते ही नहीं हैं। ये बात आप हाथी में नहीं पाऍंगे। एक बार में मादा खरगोश आठ बच्चे पैदा करती है, हाथी थोड़े ही आठ पैदा होते हैं एक बार में। न शेर, न चीते, न भालू, न दरियाई घोडा, न गेंडा, व्हेल में भी ऐसा नहीं होता।

जंगल में ज़रूरत थी कि आप अपनी आबादी तेज़ी से बढ़ाओ, नहीं तो विलुप्त ही हो जाओगे और आबादी तेज़ी से तभी बढ़ेगी जब आपके ऊपर लगातार सेक्स चढ़ा रहे दिमाग पर। तो जंगल के लिए वो चीज़ ठीक भी थी। जंगल में ये कोई अनैतिक बात नहीं हो गयी थी कि अगर कोई नर पशु घूम रहा है लगातार इसी तलाश में कि किसी तरीक़े से मादा मिल जाए।

वो चीज़ बिलकुल ठीक थी विकासवाद की दृष्टि से और प्रजाति के संरक्षण की दृष्टि से, वो चीज़ बिलकुल ठीक थी। खरगोश अगर कह दे कि नहीं भाई! ऐसे नहीं ये तो ये हम क्या कर रहे हैं? चार महीने के हुएँ नहीं और हमने बस सन्तान शुरू कर दी, ये तो ठीक नहीं है। खरगोश अगर ऐसे कह दे, तो खरगोश की प्रजाति ख़त्म हो जाएगी। तो खरगोश के लिए बिलकुल उचित है कि वो आज भी जो कर रहा है।

इंसान के लिए भी कभी उचित रहा होगा कि उसके दिमाग पर फितूर रहे, पर इंसान का ब्रेन आज भी ऐसे ही बर्ताव कर रहा है। जैसे वो जंगल में है और उसको बहुत सारी औलादें चाहिए। और औलादें तो तभी आऍंगी न जब दिमाग पर वासना सवार रहे; तो ये जो हम बार-बार बोलते हैं कि हम समझ नहीं पा रहे हैं कि दिमाग में क्यों इतना आलस रहता है या और पचास चीज़ें; आपने अभी प्रोकेस्टिनेशन (टालमटोल) की बात करी। वो सारी बातें इसीलिए हैं क्योंकि आप समझ नहीं पा रहे हो कि आप जंगल कब का छोड़ चुके हो।

आज भी बहुत लोग हैं जो कहते हैं — आबादी बढ़ाओ, आबादी बढ़ाओ! ये वही लोग हैं जिनको भीतरी तौर पर अभी यही लग रहा है कि वो कहीं सतपुड़ा के घने जंगलों में रह रहे हैं और जब आप ये मान्यता रखते हो कि आप घने जंगलों में रह रहे हो, तो आप हो भी जाते हो क्या? जंगली।

आप जंगल से बाहर आ गये हो और आप इंसान कहलाने के हक़दार हो गये हो, इसका बहुत सीधा प्रमाण ये होता है कि अब आपकी वरीयताऍं पाशविक नहीं रहीं। अब आप उन्हीं सब चीज़ों को महत्वपूर्ण नहीं मानते जिनको एक पशु महत्वपूर्ण मानता है। जो चीज़ पशु के लिए आवश्यक है, वही आपके लिए भी ज़रूरी हो गयी तो आप पशु हो और कौन हो? समझ रहे हो बात को?

अब बहुत सारी जो शरीर की बातें हैं, उनको तो आप कभी नहीं टालते न? जब आप कह रहे हो हर चीज़ को आख़िरी क्षण के लिए टालते हो, आप उन्हीं चीज़ों को टालते हो जिनमें चेतना की ज़रूरत पड़ेगी। खाना टालते हो, सोना टालते हो? कभी नहीं टालते। और इसी तरह शरीर से सम्बन्धित सेक्स, उसका मौक़ा मिले तो वो भी आप नहीं टालते होगे। मौक़ा न मिले तो अलग बात है।

आप देख रहे हो न; जब आप बोलते हो, टाल रहा हूँ, टाल रहा हूँ। आप जंगल को कभी नहीं टालते, आप शहर को टालते हो। आप जड़ता और पशुता को कभी नहीं टालते, आप हमेशा चेतना को टालते हो। बहुत कम लोग होंगे जो नींद को सफलतापूर्वक टाल पाते हों, लेकिन जाग्रति को टालने में कोई पीछे नहीं रहता। नींद को कौन टालना चाहता है? बहुत कम लोग। समय हो गया, सोने जा रहे हैं। लेकिन उठने का भी तो समय हो गया न, तब अलार्म पर पट से हथेली पड़ती है, बन्द!

देखो, क्या टाला, क्या नहीं टाला? जंगल नहीं टल रहा क्योंकि जंगल भीतर बैठा हुआ है, कैसे टाल दोगे उसको? हमने कहा था, ‘दो चीज़ें हैं जो हमारे भीतर बैठे हैं अटल।’

एक तो हो गयी यही जंगल। उसको आप जंगल बोल सकते हो, उसको आप अपनी पशुता बोल सकते हो, उसको आप अपने मस्तिष्क की पुरानी बायोलॉजिकल कंडीशनिंग बोल सकते हो। दूसरी चीज़ जो है, वो है सामाजिक संस्कार।

सामाजिक संस्कार का मतलब होता है कि आपको कुछ बातें किसी ने बता दी और आपने मान लिया कि वो बातें तो ठीक ही है। कैसे मान लिया? भरोसे में मान लिया। कैसे मान लिया? आलस में मान लिया। ये दो बातें, पहला विश्वास और दूसरा आस्था।

पहले तो मैंने विश्वास कर लिया, जाॅंचा नहीं और दूसरा ये कि मैंने मान लिया, अपने भोलेपन में कह लो या अपने अनाड़ीपन में कह लो। कि जो बता रहे हैं, अच्छे ही लोग होंगे, जाॅंचने की ज़रूरत क्या है? तो कुछ बातें आपको बता दी गयीं और आपने उन बातों को एक अटल सत्य, एब्सोल्यूट ट्रुथ की तरह स्वीकार कर लिया, इस आधार पर कि जिन्होंने बतायी है, वो आपके हितैषी हैं। वो ग़लत क्यों बताऍंगे?

उन बातों को हमने ले लिया जैसे वो एग्ज़ियम्स (सिद्धान्त) हों, ये तो सही ही होगी न बात। बात सही इसलिए नहीं होगी क्योंकि बात बहुत अच्छी है। बात सही इसलिए होगी क्योंकि बताने वाला बहुत अच्छा है।

जिसने बताया उससे मेरा बायोलॉजिकल माने जंगल वाला रिश्ता है, और जो जंगल में है उसके लिए जंगल वाला रिश्ता बहुत बड़ी चीज़ होता है। जिससे मेरा जंगल वाला रिश्ता है, माने देह का रिश्ता है उसने मुझे कोई चीज़ बतायी है, वो बात ग़लत कैसे हो सकती है? तो मैं तो उसको तुरन्त ही मान लूॅंगा न कि ये बात बिलकुल ठीक है, एकदम ठीक है ये बात।

अब उस चीज़ को आपने मान रखा है। वो चीज़ आपको सोचने-समझने की इजाज़त ही नहीं दे रही है, वो चीज़ आपकी चेतना को और दबा दे रही है बल्कि आप सोचना चाहते हो तो वो चीज़ आपको कुछ अनैतिक वगैरह घोषित कर देती है। कहती है, ‘तुम विचार कर रहे हो, इसका मतलब तुम्हें मुझ पर भरोसा नहीं है? बेवफ़ा निकले तुम! जो बात तुम्हें तुम्हारे बाप, दादा, परदादा, पुरखे सब बताते गयें, आज तुम उस बात पर सवाल खड़ा करना चाहते हो? तुम तो बड़े बदनीयत निकले। छी! कुछ बातों पर सवाल नहीं उठाते, कुछ बातों के आगे बस सिर झुकाते हैं।’

और इस तरह के आपके सामने डायलॉग हो जाते हैं और उनके पीछे कुछ भावुक सा संगीत और जोड़ दीजिए, और बन गयी एक सुपरहिट रील।

क्या? कुछ बातों पर सवाल नहीं उठाते, उन बातों पर बस सिर झुकाते हैं। ये बात भीतर के जानवर को बहुत पसन्द आती है — अच्छा! सवाल नहीं उठाना पड़ेगा न, चलो जान छूटी। ये सवाल उठा-उठाकर बहुत परेशान हो गये थे, कौन जानने-समझने की कोशिश करे? ताऊ ने बता दिया, मान लो।

क्योंकि अगर सवाल उठाओ तो बड़ी जहमत हो जाती है। सवाल उठाना तकलीफ़ का काम होता है भाई! और सस्ते, पुराने, घिसे-पिटे जवाबों को स्वीकार कर लेने में सुविधा और सुरक्षा दोनों रहती है। ‘देख ताऊ, मैंने तेरी कही बात मानी तो अब मेरी ज़िम्मेदारी भी किसके ऊपर है?

श्रोता: ताऊ के ऊपर है।

आचार्य: ताऊ के ऊपर है। दूसरी ओर अगर सवाल उठाओगे तो अपना नया मौलिक रास्ता चलना पड़ेगा और उस पर फिर तुम्हारे साथ जो कुछ भी होगा उसकी ज़िम्मेदारी किसकी है? तुम्हारी अपनी। कौन इतनी ज़िम्मेदारी उठाये? तो न तो शरीर चाहता है आप सोचें-समझें, न समाज चाहता है आप सोचें-समझें।

बच्चा पैदा होता है, समाज उसको सौ तरह के जवाब पहले ही दे देता है। बच्चे में अभी सवाल पूछने की चेतना और अक़्ल भी नहीं आयी, लेकिन उससे पहले ही उसे तयशुदा जवाब दे दिये जाते हैं। तो न तो शरीर आपको चाह रहा है कि आप जानें, न समाज आपको चाह रहा है कि आप जानें, तो आपमें फिर बोध कहाँ से आएगा?

इसी तरीक़े से शरीर; हमने अभी थोड़ी देर पहले वासना की बात करी थी। शरीर कहता है, ‘कोई रिश्ता बनेगा, तो इसलिए क्योंकि उसमें कुछ स्वार्थ होगा।’ वासना में स्वार्थ होता है न? आपको आपका सुख वगैरह मिल जाता है और आप कहते हो, हो गया काम। प्रेम की क्या ज़रूरत है? स्वार्थ काफ़ी है, और समाज उत्सुक रहता है अपनी व्यवस्था चलाने में। तो समाज भी यही कहता है, ‘प्रेम की क्या ज़रूरत है? नियम-कानून और नैतिकता काफ़ी हैं।’

तो ये दोनों आपके भीतर प्रेम भी नहीं उठने देते। बोध की ज़रूरत क्यों नहीं है? हमें पहले से पता है, शरीर को ही पहले से पता है। शरीर को पहले से क्या पता है? शरीर को पहले से पता है कि जो कुछ भी हो रहा है, वही हो रहा है जो जंगल में हो रहा था, तो शरीर कहता है, ‘सवाल क्यों पूछना है?’ समाज भी कहता है, ‘सवाल क्यों पूछना है?’ क्योंकि जितने सवाल हैं उनके जवाब तो हमने तुम्हें?

श्रोता: दे दिये हैं।

आचार्य: हाँ, जब तुम्हारा अन्नप्राशन हुआ था; अन्नप्राशन जानते हो न, संस्कार होता है जब बच्चे को अन्न चटाते हैं, खीर वगैरह देते हैं उसे कुछ। तो जिस दिन तुमको अन्न चटाया था पहली बार, उस दिन हमने तुम्हें अन्न के साथ-साथ सारे जवाब भी दे दिये थे, अब तुम क्या करोगे सवाल पूछकर? न शरीर चाहता है आप सवाल पूछें, न समाज चाहता है आप सवाल पूछें।

तो ये तो बोध का यहीं से खेल ख़त्म हो गया। अब कहाँ से लाओगे तुम बुद्ध? बोध समाप्त हो चुका है। ये रहा शरीर और ये रहा समाज, और दोनों ने ही मिलकर के पूरी व्यवस्था कर दी है कि बोध की ज़रूरत ही नहीं बचे, नहीं चाहिए बोध। अब आयें प्रेम पर तो शरीर ने आपको प्रेम की जगह ज़्यादा बढ़िया एक चीज़ दे दी क्या? वासना। और इतना ही नहीं, कह दिया वासना को ही मान लो कि यही तो प्रेम होता है, अब प्रेम की क्या ज़रूरत है मिल तो गयी वासना? तो शरीर के सामने प्रेम रखोगे, शरीर की व्यवस्था कहेगी, ‘हटाओ, आउट ये नहीं चाहिए।

अब आते हैं समाज पर, समाज के लिए तो प्रेम और ज़्यादा गड़बड़ चीज़ है क्योंकि प्रेम कोई नियम-कानून मानता नहीं और समाज चलता है नियम-कानून पर। तो समाज तो प्रेम को एकदम ही दबाकर रखना चाहता है। समाज कहता है, ‘ये कोई बड़ी बात नहीं है कि तुम क्या समझ रहे हो और तुम्हारा दिल किस बात के लिए धड़क रहा है, ज़्यादा बड़ी बात ये है कि जो व्यवस्था बनी है और जो परम्परा, परिपाटी है; साहब, उस पर चलो, उसका सम्मान करो, आगे बढ़ाओ!’ प्रेम भी ख़त्म।

सवाल तुम्हारा छोटा सा था कि मैं क्यों टालता हूँ हर काम को; लेकिन बीमारी बहुत बड़ी है। तो पीछे से जाकर के बीमारी की जड़ को तुमको दिखाना पड़ेगा। अब जीवन में रह गया न बोध, न प्रेम। जीवन में रह क्या गया बस? पुराना शारीरिक जंगल और आज के सामाजिक संस्कार, ये रह गया जीवन में।

न आप कुछ समझ पाते हो, न आपमें प्रेम की गर्मी होती है, तो आप क्या होते हो, कैसे दिखोगे? एक आदमी सोचो, कुछ समझ भी नहीं पा रहा और न वो किसी भी चीज़ के प्रति हार्दिक लगाव रख पा रहा है, ऐसा आदमी कैसा होगा? थोड़ा मन में चित्रित करो, कल्पना ही कर लो, करो! उसे कुछ समझ में भी नहीं रहा और उसको किसी भी चीज़ से कोई दिली रिश्ता नहीं है जिसको प्रेम कहा जा सके। ये आदमी कैसा दिखेगा?‌ बहुत बढ़िया! वैभव (एक स्वयंसेवी) ने ऐसे करा और सेल्फ़ी मोड ऑन कर दिया। (आचार्य जी अपनी हथेली को चेहरे के पास लाते हुए) कह रहा है, ‘ऐसा दिखेगा।’ ऐसे दिखते हैं फिर हम।

तो कोई भी काम आप तत्काल त्वरा के साथ क्यों करना चाहोगे? न तो ये समझ में आये, वो काम ज़रूरी क्यों है, न उस काम से कोई प्रेम है तो क्यों करना चाहोगे? तो ले-देकर बस यही रहता है कि टालो! और टालने की जो विधि है, वो कई बार सफल भी हो जाती है क्योंकि टालते-टालते ऐसा भी हो जाता है कि कई बार काम करने की ज़रूरत बचती ही नहीं है।

इतना टाल दो, इतना टाल दो कि दूसरा कहे, ‘ला, मैं ही कर देता हूँ।’ देखा! कितने लोग यहाँ पारंगत हैं यहाँ इस विधि में, सब एकदम दमक उठे, बोले यही तो! काम ऐसा करो, ऐसा करो; वो चलता है न कि चार लोग कहें, ‘तू रहने दे! हम ख़ुद ही कर लेंगे। आ रही है बात समझ में?

तत्काल तब करा जाता है जब समझ में आये कि चीज़ क्या है, और उत्तर समाप्त करने से पहले एक बात और बता देता हूँ — प्रेम हो नहीं सकता बिना बोध के। इसीलिए बोध और प्रेम, हमने कहा दो बातें हैं, वो एक ही बात है। अगर बोध के बिना प्रेम हो रहा है तो वो फिर सिर्फ़ मोह है, आकर्षण है, वो वासना की ही श्रेणी की कोई चीज़ है।

जो बात तुम समझ जाओगे, ऐसा नहीं हो सकता कि उस चीज़ में फिर पूरी तरह डूबो नहीं, गोता नहीं मारो। अगर किसी चीज़ में तुम अपनेआप को झोंक नहीं पा रहे, डूब नहीं पा रहे तो इसका मतलब ये है कि तुम उस चीज़ को समझते ही नहीं हो, और अगर नहीं समझते तो ये प्रयास बिलकुल रोक दो कि मुझे ज़बरदस्ती अपनेआप से ये काम करवाना है।

ये सब मत किया करो, अपनेआप को अपराधी मत घोषित कर दिया करो कि अरे! काम तो बहुत महत्वपूर्ण है, मैं जानता हूँ कि ये काम कितना बड़ा है, पर मुझसे होता नहीं। बात ये नहीं है कि आप जानते हो कि काम महत्त्वपूर्ण है और आपसे होता नहीं, बात ये है कि आप जानते ही नहीं हो कि काम महत्वपूर्ण है। तो रुक जाओ!

अपनेआप को इतना धक्का मत लगाओ। थमो और काम को; काम से अपने रिश्ते को समझने की कोशिश करो। ये जो काम है, ये मेरे लिए क्यों ज़रूरी है? ये पूछो बार-बार अपनेआप से। और जैसे-जैसे आपको इसका जवाब मिलता जाएगा — मैं कौन हूँ, काम क्या है, हमारा रिश्ता क्या है? जैसे-जैसे इसका जवाब मिलता जाएगा, वैसे-वैसे पाओगे कि अब किसी बाहरी आपको प्रेरणा की, मोटिवेशन की ज़रूरत नहीं है, प्रेम पर्याप्त है।

प्रेम से बड़ा मोटिवेटर (प्रेरक) कोई और होता है क्या? हो गया! समझ में आ गयी बात तो अब काम में आपको डूबना पड़ेगा। प्रेम भी एक तरह की मजबूरी होता है। आप टाल रहे हो क्योंकि आप समझ नहीं रहे हो, आप समझ इसलिए नहीं रहे हो क्योंकि ये हार्डवायर्ड नहीं है समझने के लिए। ये हार्डवायर्ड है क्या करने के लिए? रिएक्शन के लिए, प्रतिक्रिया के लिए। वो प्रतिक्रिया क्या बहुत बुरी चीज़ होती है? नहीं साहब! किसी समय पर वो बहुत अच्छी चीज़ थी। वो अच्छी चीज़ थी किसी समय पर इसका प्रमाण ये है कि आज आप ज़िन्दा हो।

ये जो भीतर की हार्डवायरिंग है, इसने आपको जंगल के लाखों सालों में जीवित रखा। इसी के कारण तो आप जीवित रह पाये, और इसी के कारण आज आप इन कुर्सियों पर सभ्य-सुसंस्कृत बनकर के कई भाषाएँ बोलते हुए, और ये सब अपने गैजेट्स लेकर के और कपड़े पहनकर के बैठ गये हो यहाँ पर। अगर ये हार्डवायर्ड नहीं होता, तो हम यहाँ तक पहुँच ही नहीं पाते।

तो हम धन्यवाद देते हैं शरीर का कि वो हमें यात्रा में इतनी आगे तक लेकर आया। लेकिन आप ये भी जानते हो की यात्रा में जो चीज़ कल उपयोगी थी, आवश्यक नहीं है कि आज भी उपयोगी हो। हमारे साथ समस्या यही हो रही है।

हम पुरानी ही चीज़ को आज भी उपयोगी मान रहे हैं, क्योंकि वो कल उपयोगी थी। हम कहते हैं न बार-बार, हमारे पुरखों की विरासत है। अरे भाई! पुरखों की विरासत है अच्छी बात है, एक पुरानी बाइसाइकिल है, उस पर आपके परदादा चला करते थे या दादा चला करते थे; हम मानते हैं कि वो बहुत एक अच्छी चीज़ है। उसी पर, उसी बाइसाइकिल पर बैठाकर के कभी आपके दादाजी ने आपकी दादी की जान बचायी होगी। वो बीमार थीं और उनको अगर साइकिल न होती, तो उतनी तेज़ी से वो अस्पताल नहीं पहुॅंचा पाते, तो हम शुक्रिया अदा करते है उस साइकिल का।

लेकिन क्या हम आज भी उसी साइकिल पर चलें? बोलो! और अगर हम आज उस साइकिल को ससम्मान एक कमरे में, एक फ्रेम में जड़वाकर रखवा देना चाहते हैं, तो क्या ये बात उस साइकिल का अपमान हुई? अपमान नहीं हुई। जो चीज़ अजायबघर को, संग्राहलय, माने म्यूज़ियम में होनी चाहिए उसको वही तो रखेंगे न? सम्मान के साथ रखेंगे। पर ये थोड़े ही कहेंगे कि आज भी आपको अगर यहाँ से जयपुर जाना है, तो साइकिल पर ही बैठकर जाओ।

ब्रेन यही काम कर रहा है। वो कह रहा है, ‘साइकिल जंगल में काम आयी थी, आज भी चलाऍंगे।’ वो कह रहा है, ‘पुरानी प्रतिक्रियाएँ तब पर्याप्त थीं, तो आज भी हम प्रक्रियागत और प्रतिक्रियागत जीवन ही हम जियेंगे।’ वो चीज़ आज काम नहीं आएगी। तो इसको चुनौती देनी पड़ेगी, माने जो अपने भीतर प्रकियात्मक सोच होती है, तुरन्त उसको मान नहीं लेना होगा और सोच से भी पहले जो भाव उठते हैं, उन भावों को जल्दी से स्वीकार नहीं कर लेना होगा कि मेरे भाव हैं, तो ठीक ही होंगे। वो आपके भाव तो हैं, पर आपके भीतर एक बहुत पुराना चिम्पैंज़ी बैठा है वास्तव में, ये उसके भाव हैं।

हम उस चिम्पैंज़ी को नमस्कार करते हैं, वो हमारा पूर्वज है। अब बहुत लोगों को ये बात भी बुरी लग जाती है। बोलते हैं, ‘देखो, हमारे महान पुरखों को बन्दर बोल दिया!’ हम क्या करे, जो तथ्य है वो तो है न? जो तथ्य है वो तो है; और बन्दर भी नहीं, बन्दर से पहले कुछ और थे, उससे भी पहले कुछ और थे, उससे भी पहले कुछ और थे। और सबसे पहले हम सिर्फ़ मिट्टी थे।

उस मिट्टी से पहली चेतना उदित हुई थी। उससे पहले नन्हा सा जीव पैदा हुआ था एक कोशिका बराबर; और फिर वही जो जीव है आगे बढ़ता, बढ़ता, बढ़ता फिर बन्दर तो अभी हाल में बना है, बन्दर तो एकदम कल की बात है, बन्दर से पहले हमने विकास की न जाने कितनी लम्बी यात्रा करी है, वही सब हमारे पूर्वज हैं असली।

लोगों को ये बात बुरी लग जाती है। वो कहते हैं, ‘नहीं, हमें तो सीधे ईश्वर ने भेजा है, जैसे हम आज हैं ऐसे ही ईश्वर ने बनाकर हमें धरती पर लैंड करा दिया था।

जब आप ये समझने लग जाते हो कि आप जंगल से आये हो, किसी स्वर्ग से नहीं। तो फिर आप ये भी समझने लग जाते हो कि आपके भाव और विचार भी जंगल से ही आ रहे हैं, किसी स्वर्ग से नहीं। समझ रहे हो? और फिर आप उन पर अन्धा विश्वास करना बन्द कर देते हो।

आप कहते हो, ‘मेरे ही तो भाव हैं, मेरे ही तो विचार हैं। कल तक मैं कहाँ रहता था? पेड़ के ऊपर, कल तक मैं एक अमरूद के लिए ऐसे दाॅंत दिखाता किसी को, मार दूॅंगा, और आज मैं इतना बड़ा ज्ञानी हो गया कि भीतर से मेरे कोई भी भाव उठ रहा है, मैं उसको स्वीकार कर लूँ कि मैं तो मनुष्य हूँ?’ तुम अभी बहुत हाल के मनुष्य हो। और ये नहीं कि हम पहले सिर्फ़ बन्दर थे, हमारी जो विकास यात्रा है, वो हमें न जाने कितनी प्रजातियों से लेकर के आयी है।

आप ऐसे भी कह सकते हो कि आज आप जितनी प्रजातियाँ देख रहे हो, कहीं-न-कहीं वो सब हमारे रिश्तेदार हैं। तो हम कभी अजगर भी थे, हम कभी पक्षी भी थे, हम कभी मछली भी थे, हम कभी ये नन्हे पतंगे भी थे। हम कभी वो जो भीतर आँत में बैक्टीरिया रखा है, हम वो भी थे कभी। समझ में आ रही बात ये?

और आपके जो भाव हैं, विचार हैं, वो सब वहीं से हैं; तो उन पर अन्धा विश्वास करना छोड़िए। फिर आप पाऍंगे कि काम आपको अटपटा नहीं लग रहा। समस्याऍं हमारी आज की हो सकती हैं लेकिन उन समस्याओं का कारण अक्सर बहुत पुराना होता है। हम ये नहीं सोच-समझ पाते। जानते हो, दिल हमारा कितना पुराना है? जो हृदय प्रत्यारोपण, हार्ट ट्रांसप्लांट के प्रयोग करे गये, ये प्रयोग लगभग पचास साल से ऊपर से चल रहे हैं, उनमें पहली बार जब इंसान का दिल हटाया गया तो उसमें इंसान के दिल की जगह किसका दिल लगाया गया था?

श्रोता: सूअर का।

आचार्य: सूअर का था या गोरिल्ला का था? माने इंसान का तो नहीं था, ये पक्की बात। तो ये देख लो कि हमारा दिल बिलकुल या तो गोरिल्ला का या सूअर का है। मेरे देखे गोरिल्ला का है, अनुज (स्वयंसेवी) के देखे सूअर का है। ये पक्का है कि ये जो हमारा दिल है, ये इंसान का दिल तो नहीं है। नहीं तो ऐसा कैसे हो जाता कि इंसान के दिल को हटाकर के ट्रांसप्लांट कर दिया किसी और प्रजाति का दिल, माने हमारे दिल आपस में इतने मिलते-जुलते हैं भाई! आज भी आपकी इतनी सारी दवाइयाँ हैं, आप भलीभाँति जानते हो, वो अन्य प्रजातियों पर प्रयोग करके आप तक लायी जाती हैं।

ये जो कोविड की वैक्सीन थी, आपको क्या लग रहा है इसके भीतर जो माल था, वो सारा इंसानों से आ रहा था? माने हम हैं तो ले-देकर जानवर ही, अब जानवर पर भरोसा करोगे तो मार तो खाओगे ही न। जानवर कभी चाहता है कि कुछ जाने-समझे किसी काम में आकंठ डूबे, कभी चाहता है? तो हम कैसे डूब जाऍंगे? कपड़ों पर मत जाना।

समझो! जो चीज़ सामने है, मत उसको बस उठा लो या उसको छेड़ने लग जाओ। समझो! इंसान होने का तकाज़ा है समझना। घर में बिल्ली-कुत्ता हो तो देखो, उनके सामने इतनी चीज़ें रहती हैं, वो ज़रा भी प्रयास करते हैं क्या समझने का? उनके सामने आप लैपटॉप रख देते हो; ऐसा होता है क्या कुत्ता बिलकुल हैरत से बावला हो गया? कि ये क्या चीज़ आ गयी, इसमें कैसे चल रहा है? कुछ नहीं, आप वहाॅं पर रख दो लैपटॉप, उसे कोई फ़र्क ही नहीं पड़ता।

उसकी दुम अभी भी टेढ़ी ही रहेगी। हमने तो नहीं देखा कि आप उसके सामने सुपर कम्प्यूटर रख दो तो दुम एकदम सीधी हो जाए। कुत्ता तो कुत्ता ही रहेगा न? वैसे ही हम हैं, सारी टेक्नोलॉजी से घिरे हुए भी हम भीतर से जानवर ही हैं और ये बात अहंकार को बहुत चोट देती है।

अहंकार ये मानना चाहता है कि हम देवता वगैरह कुछ हैं। बार-बार हम अपनेआप को बताते हैं कि अरे! तुम मनुष्य हो, गौरवशाली, गरिमावान मनुष्य! और भीतर बैठ रहा है भौंकता कुत्ता; और उस कुत्ते को आप बोल रहे हो कि तुम देवता हो। कैसे बात बनेगी? समझो! जो समझ सके वो इंसान है। नहीं भी समझ सकते तो समझने की कोशिश ज़रूर करो।

भीतर एक लगातार जिज्ञासा बनी रहे, ऐसे नहीं कि मैं तो जानता हूँ, समझता हूँ, ये, वो कुछ भी नहीं। ये जंगल का काम है, जंगल में कोई कुछ नहीं समझना चाहता। वहाँ जो चीज़ बस काम कर जाए, वो ठीक है। जुगाड़ पर चलता है जंगल, वहाँ कोई कुछ नहीं समझता लेकिन फिर भी सब ज़िन्दा हैं। क्योंकि सबने क्या सीख रखे हैं? जुगाड़।

और सबने कुछ ह्यूरिस्टिक्स (अनुमान) पकड़ लिये हैं। सबको पता है कि किस तरीक़े से अपनी सुरक्षा करनी है और अपनी प्रजाति आगे बढ़ानी है। समझता लेकिन कोई कुछ भी नहीं है; जिये लेकिन फिर भी सब जा रहे हैं सफलता पूर्वक। सब सफलता पूर्वक जी रहे हैं, जंगल इतना पुराना है। करोड़ों साल से सब प्रजातियाँ चल रही हैं बिना कुछ समझे।

क्या आप ऐसे जीना चाहते हो? कि समझते तो कुछ नहीं लेकिन फिर भी जिये जा रहे हैं, ऐसे नहीं। समझो। प्रश्न करो, बार-बार प्रश्न करो, बार-बार करो, करो, करो, करो! फिर नहीं टालना पड़ेगा। अभी लग रहा था न कि किसी तरीक़े से इनका आंसर (उत्तर) ही टाल दें। थ्री एक्स पर हो जाए। आंसर ही टाल दो, इतना ज़्यादा बोल रहे हैं छोटी सी चीज़ पूछी कि मैं इतनी टालमटोल क्यों करता हूँ? और पूरा इन्होंने पोथा खोल दिया।

ये भीतर हमारे एक पशु बैठा है जो कह रहा है, समझा क्यों रहे हो? केला माॅंगा है, केला हो तो दे दो, नहीं हो तो चलते बनो। हमें पूरा समझाओ वगैरह नहीं कि केले में कौन-कौनसी चीजें होती हैं, कौनसी नहीं होतीं और छिलका उतारें कि नहीं उतारें और केले का पेड़ कहाँ लगायें? उसकी मिट्टी में कौनसी चीज़ डाल दें? ये सब हमें काहे को बता रहे हो? केला माॅंगा है, केला है? हो तो दे दो, नहीं तो आगे बढ़ो बाबा।

अब हमें सारे उत्तर एक मिनट में चाहिए, तो ये जो रील्स हैं ये बताओ, क्या सिद्ध करती हैं? हम जानवर हैं। क्योंकि रील में समझने की ज़रूरत नहीं पड़ती, समझने की ज़रूरत नहीं पड़ती। इतनी शिकायतें आती हैं कि हर दूसरे महीने के साथ ये आप जो वीडियो डालते हैं, इनकी लम्बाई बढ़ती ही जा रही है। दस मिनट से शुरू करा था, डेढ़ घंटे पर आ चुके हो और हम आपको अब चेतावनी दे रहे हैं, अनसब्सक्राइब कर देंगे।

अरे भाई! बात कुछ ऐसी है कि समझाने में उतना वक्त लगेगा। सब काम दुनिया के एक मिनट में नहीं हो जाते पर जानवर को तो सारे काम एक मिनट में चाहिए। तो भीतर की जो बेचैनी है, अकुलाहट है, इंपेशेंस (अधैर्य) है, उसको भी देखा करो कि वो कहाँ से आ रहा है?

श्रोता: जंगल से।

आचार्य: कहाँ से आ रहा है? जंगल से आ रहा है। जैसे-जैसे देखते जाओगे, वैसे-वैसे भीतर फिर एक विद्रोह उठेगा। कहोगे, ‘यार! जानवर ही रहना है क्या? जानवर ही रहना है क्या?’ सब्जी बाज़ार कभी चले जाओ, वहाँ जितने होते हैं सब्जी वाले, सब अपने साथ एक लट्ठ भी रखते हैं, काहे को?

श्रोता: जानवरों के लिए।

आचार्य: दूसरे का माल खा लिया, हर समय बस खाने की फ़िराक में हैं। अपमान हो रहा है, लट्ठ पड़ रहा है, तब भी घात लगाये बैठे हैं कि जो दुकान वाला थोड़ा सा इधर को देखे, पीछे से आकर के फट से दो अमरूद साफ़। अपने में भी भीतर जब ये वृत्ति देखो तो पूछो अपनेआप से, ‘इंसान कहता हूँ न अपनेआप को? ये आधार कार्ड किसलिए है और यही सब करना है तो ख़त्म करो ये सब। ओरंगुटान को गाड़ी चलाने का लाइसेंस थोड़े ही मिलना है, तो मुझे क्यों मिला हुआ है?

काम को लेकर के न हममें बोध है, न प्रेम है। न तो हम उस काम की अहमियत को समझते हैं, न हम जानते हैं कि वो काम क्यों ज़रूरी है। इसीलिए हम काम को टालते हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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