प्रश्नकर्ता: सर, ये बोला जाता है कि गॉड (भगवान) बहुत अच्छा है, वो बहुत परोपकारी है। लेकिन फिर भी ये दुनिया में इतना बुरा होता रहता है। ऐसा क्यों होता है? मेरे कहने का मतलब यह है कि अगर गॉड ये दुनिया चलाता है तो इस दुनिया में बुराई क्यों है?
आचार्य प्रशांत: ये देखने की एक दृष्टि है कि गॉड दुनिया चलता है, तो दुनिया में बुरा क्यों होता है। इस दृष्टि में आपने गॉड पर ही शक कर लिया। और एक दूसरी दृष्टि ये है कि गॉड जब इस दुनिया को चलाता है, तो जो भी हो रहा है वो बुरा नहीं हो सकता। वो दूसरी दृष्टि है।
दोनों ही दृष्टियों में तथ्य एक ही है। हम भी वही कह रहे हैं जो आप ने कहा कि गॉड दुनिया को चलाता है। आप कहते हैं, ‘गॉड दुनिया को चलाता है तो दुनिया में बुरा क्यों हो रहा है?’ हम कह रहे हैं, ‘गॉड दुनिया को चलाता है तो कुछ बुरा हो ही नहीं सकता। जो हो रहा है, वही ठीक है।’
अच्छा-बुरा आप की निर्मित्ति है। अच्छा-बुरा आपने आरोपित कर दिया है। आपके संस्कारों को जो सुहाता है, आप उसको अच्छा घोषित कर देते हो और जो आपके अहंकार को पीड़ा देता है, आप उसको बुरा घोषित कर देते हो।
ये क्या ब्रह्म स्वयं घोषित करने आता है कि ये अच्छा, ये बुरा? ये वर्गीकरण किया किसने? आप कभी मन मुताबिक़ एक चीज़ को अच्छा बोल देते हो, कभी दूसरे को अच्छा बोल देते हो। समय बदलता है, देश बदलता है, आपके अच्छे-बुरे के पैमाने बदल जाते हैं। और फिर आप निर्णय करने चलते हो उस पर कि भाई, उसकी बनायी दुनिया में इतना ग़लत क्यों हो रहा है। ‘देख तेरे इंसान की हालत, क्या हो गयी भगवान।’ ‘दुनिया बनाने वाले, काहे को दुनिया बनायी।’ नहीं, गा तो तुम ऐसे रहे हो, जैसे कितने भक्तिभाव में हो। और तथ्य ये है कि बड़ा घोर अंधकार है। देख ही नहीं रहे कि सवाल किस पर उठा रहे हो।
तुम कह रहे हो, ‘ये तो पक्का हैं कि जो हो रहा है वो बुरा है, अब तू बता कि तू बुरा करता क्यों है?’ तुम कह रहे हो, ‘ये तो पक्का है कि अगर मेरी टाॅंग टूटी तो कुछ बुरा हुआ है, तू बता तूने ये बुरा मेरे साथ क्यों किया?’
तुम्हें ज़रा भी अपने ऊपर ये सन्देह ही नहीं उठता कि क्या पता जो हुआ है वही सम्यक हो। क्या पता कि इस अस्तित्व में कुछ बुरा कभी घटित होता ही न हो। लेकिन नहीं। हम कहते हैं कि वो सब कुछ होना चाहिए जो कुछ होने की मेरी मर्ज़ी है।
और परमात्मा तब तक भला जब तक वो मेरे अनुसार चले। तब तक तो मैं कहूॅंगा, ‘देखो भाई, दयालु हो, कृपा-निधान हो।’ और जिस क्षण मेरी अपेक्षाओं के विरुद्ध कुछ हुआ, तो मैं जाकर कहूॅंगा, ‘आज ख़ुश तो बहुत होगे तुम!’ (श्रोतागण हॅंसते हैं) ऐसा थोड़े ही होता है।
प्र२: तो फिर ये कहना सेफ़ (सुरक्षित) है कि रिलीजन डज़ नॉट एग्ज़िस्ट, इट एग्ज़िस्ट ऑनली विथ द मासेस (धर्म का अस्तित्व नहीं है, उसका अस्तित्व केवल जनसमूह के साथ है)?
आचार्य: कह लीजिए, कोई दिक्क़त नहीं है। जिन्होंने कहा था उन्होंने कोई भ्रामक बात नहीं कही थी।
प्र: 3:21-3:39, एवरीथिंग इज़ जस्टिफ़ाएबल। (न्यायसंगत)
आचार्य: जस्टिफ़ाएबल (न्यायसंगत) नहीं। इट इज़ आलरेडी जस्ट। (ये पहले ही ऐसा है) आलरेडी जस्ट। जस्ट मतलब समझते हैं? ‘है।’ जस्ट। नॉट जस्टिफ़ाएबल। इट इज़ जस्ट देअर। (ऐसा ही है) ‘है।’ अब तुम कहते रहो अच्छा है कि बुरा है। न अच्छा है, न बुरा है, जो है बस है। सामने है। अब तुम्हें जो ठीक लगता है, करो!
जो हो रहा है, वो है। उसको अच्छा कहने से वो बढ़ नहीं जाएगा। उसको बुरा कहने से वो हट नहीं जाएगा। तुम जानो कि अब इस मौक़े पर तुम्हारे लिए सम्यक कर्म क्या है। जो है सामने, वो है।
जहाँ तक रिलीजन की बात है, जिसको आप रिलिजन कह रहे हैं वो औपचारिक धर्म है। वो संस्कारित धर्म है। वो व्यस्थित धर्म है। वो फॉर्मल (औपचारिक), आर्गेनाइज़्ड (संगठित) रिलीजन हैं।
वास्तविक धर्म नितान्त निजता होती है। वो स्वधर्म होता है, धर्म नहीं। असल में धर्म है ही स्वधर्म। लेकिन क्योंकि हमने धर्म को एक व्यापक जनरलाइज़्ड (जनसामान्य) चीज़ बना दिया है इसलिए धर्म ऐसा हो गया है, जैसे किसी फैक्ट्री से निकलती कारें, एक जैसी। या शर्ट्स का एक बैच, एक जैसा। कि तुम भी वही करो जो मैं करुँगा।
क्योंकि सबके मन की व्यवस्था अलग-अलग है, प्रारूप अलग-अलग है इसीलिए धर्म भी सबके लिए अलग-अलग है। इसीलिए कृष्ण अर्जुन को बार-बार स्वधर्म का उपदेश देते हैं। जानो कि तुम्हारा धर्म क्या है। कुरुक्षेत्र के मैदान में जो कृष्ण के लिए करणीय है, वो अर्जुन के लिए नहीं है और जो अर्जुन के लिए करणीय है, वो भीम के लिए नहीं है।
धर्म का अर्थ है कि आप जानें कि कौनसा वो कर्म है जो सत्योन्मुखी है, जो सत्य से उपज रहा है और सत्य की ही ओर ले जा रहा है। चूॅंकि आप जहाँ खड़े हैं, वहाँ दूसरा नहीं खड़ा है इसीलिए जो आपके लिए करणीय है दूसरे के लिए नहीं हो सकता।
फिर कोई ग्रन्थ आपको कैसे बता सकता है कि क्या करना है आपको? ग्रन्थ बस आपको ये बता देता है कि क्या है जो मिथ्या है। सत्य क्या है और आपके उचित क्या है कभी करना, ये कोई ग्रन्थ क्या, बाहर वाला कोई भी आपको बता नहीं सकता। ये तो स्वयं आपको जानना होगा अपने बोध से।
प्र: कि आपके लिए उचित क्या है, अपने बोध से।
आचार्य: बिलकुल। सब साथ हैं? होता क्या है कई बार कि सवाल अगर एक का होता है तो कई लोग उसमें से, 'मेरा तो है नहीं'। हम सबके मन एक जैसे हैं तो इसीलिए सवाल आ किसी से भी रहा हो आप यही मानिएगा कि सबका साझा है। हम्म! किसी एक का सवाल नहीं है। उसको वैसे ही सुनिएगा।
प्र३: मेरे ज़ेहन में कुछ सवाल उठ रहे हैं। गॉड जो है वो विद इन अस (हमारे भीतर) , एग्ज़िस्ट करता है या आउटसाइड अस (हमसे बाहर) एग्ज़िस्ट करता है?
आचार्य: आउटसाइड (बाहर) कुछ है नहीं। जिसको आप विद इन अस कहते हैं, वो एक और आख़िरी सत्य है। कोई दूसरा नहीं है न कि आप कहें कि एक विद इन होता है और दूसरा विद आउट होता है, बाहर होता है। ये अन्दर-बाहर का जो भेद है. ये नज़र का भेद है, शरीर का भेद है। जब आप कहते हैं, अन्दर-बाहर तो ध्यान से देखिएगा, आप सीमा खींचते हैं अपने शरीर पर। आप कहते हैं, 'अन्दर और बाहर'। आप कहते हैं, 'सीमा हुई' क्या? शरीर। अन्दर-बाहर कुछ नहीं है। मन है मात्र। जो है वो मन है। उसके अन्दर कुछ नहीं है, उसके बाहर कुछ नहीं है। वास्तव में अन्दर और बाहर दोनों मानसिक सिद्धान्त हैं। मन ही कहता है अन्दर और मन ही कहता है बाहर। तो अन्दर भी क्या हुआ?
श्रोता: मन।
आचार्य: और बाहर भी क्या हुआ?
श्रोता: मन।
आचार्य: तो न कुछ अन्दर है, न कुछ बाहर है। अन्दर-बाहर का कोई भेद मत करिए। हम्म! मन है जिसमें सारे द्वैत हैं। अन्दर-बाहर, दायें-बायें, ऊपर-नीचे, सबकुछ। और मन का जो आधार है उसको सत्य कहते हैं, उसको ब्रह्म कहते हैं। उसको गॉड मान लीजिए। ठीक है? तो वो न अन्दर हुआ, न बाहर हुआ। वो मन का आधार है। मन उसी से उपजता है। वो मन के रेशे-रेशे में है।
मुझे पता है कि इस तरह की बातें बहुत प्रचलित हैं कि अन्दर है गॉड , बाहर है, ये है, वो है। अन्दर-बाहर कुछ नहीं। जो है वही है। जो है वही है, उसके अतिरिक्त कुछ नहीं है। कोई दो-चार सत्य होते हैं क्या? एक ही है न? जो है वही है।
प्र: सर, जब एक साल पहले मैं यहाँ आया था यहाँ पर, तो कुछ क्वेश्चन्स (प्रश्न) होते थे जो बहुत पावरफुल (ताक़तवर) लगते थे, पर अब कभी-कभी ऐसा होता है कि सेम क्वेश्चन्स होते हैं पर उनमें एनर्जी बिलकुल नहीं होती। थोड़ी देर बाद वो फ़ेड अवे (फीका पड़ना) हो जाते हैं। तो इज़ इट ओके? (क्या ये सही है?) या कोई दिक्क़त है कि क्वेश्चन्स बार-बार आ रहे हैं।
आचार्य: इसमें तुम मुझसे क्यों पूछ रहे हो? मेरी सम्मति की इसमें कोई क़ीमत नहीं है। सवाल जब बचा ही नहीं है तो फिर मैं कह भी दूॅं कि सवाल महत्वपूर्ण है तो क्या फर्क़ पड़ता है? सवाल का तो अर्थ होता है, जैसे कोई खुजली, जैसे कोई विक्षेप।
बहुत होता है ऐसा। ये तुम पहले नहीं हो। तुम ख़ुद भी यहाँ सुन चुके होगे, कितने ही लोगों ने कहा है, सैकड़ों में तादाद होगी कहा है, लिखा है कि आने से पहले बहुत सवाल होते हैं, बैठते हैं, थोड़ी देर में सवाल अपनेआप विगलित हो जाते हैं। बचते ही नहीं तो पूछें क्या?
हाँ, बाद में फिर खड़े हो जाऍंगे। वो अलग है। जो नहीं बचे तो पूछने से कोई फ़ायदा नहीं है। ज़बरदस्ती पूछो मत। उत्तरों से वैसे भी तुम्हें कुछ मिलता नहीं है। उत्तरों से तो तुम्हे बस ये भ्रम मिलता है कि जैसे सवाल जायज़ था। तो अच्छा है कि पूछा नहीं। मुझे भी जिसका सवाल बहुत-बहुत अच्छा लगता है उसका मैं उत्तर ही नहीं देता।
जा रहे हैं, जाने दो। अच्छी बात है! लोग बहुत-बहुत तरीक़े की चीज़ें यहाँ अन्दर लेकर के आते हैं। वो खो जाती हैं। और बहुत कुछ ऐसा है जो लेकर नहीं आते हैं, वो भीतर उद्घाटित हो जाता है, वो खुल जाता है। हम्म! कोई गुस्सा लेकर अन्दर आता है। आया ही अन्दर इसलिए क्योंकि गुस्सा अभिव्यक्त करना है। कहाँ गया, कहाँ गया, गुस्सा कहाँ गया? (श्रोतागण हॅंसते हैं)।
और राज़ खुल जाते हैं सारे। जो दिखाना नहीं चाहते हैं, वो दिख जाता है। आये थे कि बिलकुल जमकर के भद्र-पुरुष, जेंटलमैन की तरह बैठेंगे। और यहाँ बैठे है तो बिलकुल तरल हो गये हैं, गीले।
सबकुछ देखा है। यहाँ तो कम होता है जब शिविर लगता है, कैम्प; लगने जा रहा है। तो वहाँ होता है न। जाते हैं बहुत स्टिफ़ (कठोर) लोग और वहाँ जाकर कर क्या रहें हैं कि रातभर नाच रहे हैं।
उन्हें पता भी नहीं था कि उनके भीतर नर्तक छुपा हुआ है, वो दिख गया। राज़ खुल गया। घटिया नाच रहे हैं, वो अलग बात है। (श्रोतागण हॅंसते हैं)। पर नाच रहे हैं, गा रहे हैं।
हमारे यहाँ भी बहुत लोग हैं जिनको; वो कैसा गाते हैं, हम उस पर टिप्पणी नहीं करते (श्रोतागण हॅंसते हैं), पर गाते खूब हैं। उनके भीतर का गायक जाग गया है। मेरे भीतर भी देखिए न, वक्ता कैसे जगा हुआ है। मैं बोलता कैसा हूँ, वो तो आपको पता है। लेकिन वो जब गया तो जग गया। और यहीं आकर जगता है।
तो बहुत कुछ है जो प्रेज़ेंस (उपस्थिति) में हो जाता है। किसकी प्रेज़ेंस , ये मत पूछिए। बस ये समझिए कि जब मन सत्य के लिए उत्सुक होकर कही पहुॅंचता है तो वहाँ अपनेआप जादू होना शुरू हो जाता है। फिर उस जादू में जो कुछ भी होता हो उसको स्वीकार करिए, उसको अचम्भा मत मानिए। वही सहजता है।
बल्कि जादू न हो तो उसको अचम्भा मानिए कि मैं इतना मुर्दा हूँ कि मेरे ही साथ नहीं हुआ, सबके साथ हो रहा है। मेरे ही साथ नहीं हो रहा है! हम्म!