दुनिया के साथ-साथ तुम भी मात्र विचार हो || आचार्य प्रशांत (2014)

Acharya Prashant

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दुनिया के साथ-साथ तुम भी मात्र विचार हो || आचार्य प्रशांत (2014)

प्रश्न: विचार क्या हैं?

वक्ता:

विचार क्या हैं? सारी मानसिक गतिविधियाँ ही विचार हैं।

यह ही विचार की परिभाषा है। मन में जो हो रहा है, उसी का नाम विचार है।

श्रोता: सर, क्या सभी मानसिक गतिविधियाँ विचार हैं? जो शब्द आ रहे हैं वो भी?

वक्ता: हाँ बिलकुल, दुनिया क्या है? कैसे समझ रहे हो? मानसिक गतिविधि से। तो दुनिया क्या है? मानसिक गतिविधि और मानसिक गतिविधि क्या है?

श्रोता: विचार।

वक्ता: तो दुनिया क्या है?

श्रोता: विचार।

वक्ता: ये दुनिया आप तक तभी तक है जब तक आपके मन में कुछ चल रहा है और जो भी चल रहा है उसी का नाम विचार है। बात समझ रहे हैं आप? तो दुनिया मानसिक है, और ये बात तो बहुत सीधी है न। जब कोई भी वैज्ञानिक उपकरण नहीं था तब भी ये बातें कह दी गईं थी क्यूँकी दुनिया को समझने के लिए आपको बहुत सुविधाएँ चाहिए भी नहीं हैं। बात बहुत सीधी सी है-

हम दुनिया सिर्फ़ उस को कहते हैं जो हमें इन्द्रियों से प्रतीत होती है और इन्द्रियों से सब कुछ मन में जाता है, तो कहाँ हुई दुनिया सारी? मन में।

इन्द्रियों और उनके विषयों के अतिरिक्त दुनिया कहाँ है? ये बहुत छोटी सी बात है। आदमी ज़रा सा अपनी ओर देखना शुरू करे तो उसे सब स्पष्ट हो जाएगा कि मैं दीवार-दीवार कर रहा हूँ, ये दीवार एक देखे जाने वाली और छूई जाने वाली वस्तु के अलावा और है क्या? तो दो इन्द्रियों से आने वाले एहसास के अलावा ये दीवार क्या है? कुछ भी नहीं है। ज्ञानी, यही जान जाता है। बोध इसी का नाम है- कि क्या मैं दुनिया-दुनिया करता रहता हूँ और इस दुनिया को मैं इतनी गंभीरता से लेता रहता हूँ। आँखें है दुनिया, कान है दुनिया, स्पर्श है दुनिया।

श्रोता: पर सर, ये भी तो हम जान रहें हैं कि इस दुनिया का कुछ हिस्सा ही हम जानते हैं।

वक्ता: आप जो नहीं जानते उसके बारे में भी आप कैसे जानते हो? आप जानते हो न कि बहुत कुछ है जो आपके जानने के दायरे से बाहर है, उसको आप नहीं जानते न।

श्रोता: सर, मुझे किसी ने बताया था कि इतने से इतने हर्ट्ज़ तक आवाजें सुनाई देती हैं पर उसके अलावा भी फ्रीक्वेंसी होती हैं।

वक्ता: ये बात भी कैसे पता चली?

श्रोता: सर, मैंने विज्ञान में पढ़ी हैं।

वक्ता: पढ़ीं कैसे हैं?

श्रोता: सर, आँखों से।

वक्ता: ज्ञान तो ज्ञान, अज्ञान भी इन्द्रियों से ही भीतर आ रहा है। अज्ञान भी कहीं और से नहीं आ सकता, उसको भी अगर आना है तो इन्द्रियों से ही आएगा। तो इसीलिए जिन्होंने जाना उन्होंने कहा कि मिथ्या है, कि ये खेल क्या चल रहा है। अच्छा 0बताइए, शरीर है?

श्रोता: हाँ, है सर।

वक्ता: कैसे? प्रमाण दीजिये कि शरीर है।

श्रोता: क्यूँकी मुझे बहुत कुछ महसूस हो रहा है।

वक्ता: कैसे है शरीर, कहाँ है शरीर। शरीर है, इसका प्रमाण भी कुछ नहीं तो शरीर भी कहाँ है? मन में है। आँखें न हो, छू पाने की क्षमता न हो, देख पाने की क्षमता न हो तो कहाँ है शरीर।

श्रोता: सर, शरीर से छू कर मुझे बाहर के बारे में कुछ पता चलता है।

वक्ता: बाहरी और अन्दर का, दोनों कहाँ है? पूरा ‘स्पेस’ ही कहाँ है? स्पेस’ के ही तो हिस्से करते हो न, कि कुछ अन्दर हुआ और कुछ बाहरी हुआ। दोनों ही हिस्से कहाँ हैं?

श्रोता: मन में।

वक्ता: इसीलिए, खुद को ही देख करके जानने वालों ने बिलकुल साफ़-साफ़ यही लिख दिया कि ‘यूनिवर्स इज़ अ थॉट।’

श्रोता: सर, क्या फिर कर्म भी एक मानसिक गतिविधि है?

वक्ता: बहुत बढ़िया। लेकिन फिर वो यहाँ रुके नहीं। उन्होंने कहा कि सब तो नकली है पर यहाँ रुकना है? यहाँ कुछ असली भी है, उसको भी पाया जाए। तो जो असली शिक्षा है, असली ख़ोज है, वो उस असली को पाने के लिए है। मामला यहाँ रुक ही नहीं जाता कि सब मानसिक है। फिर ये सवाल भी उठता है कि क्या कुछ ऐसा है जो मानसिक नहीं भी है? उसको भी खोजा जाए। वो दुनिया में तो नहीं मिलेगा क्यूँकी दुनिया तो मानसिक है तो इसीलिए उसकी खोज दुनिया में नहीं हो सकती कि चलो किसी द्वीप में, किसी जंगल के बीचों-बीच मिल जाएगा। जब जंगल ही मन में है तो जंगल में क्या मिलेगा फिर। तो फिर उसकी खोज करने के लिए ध्यान है। उसी की खोज का नाम ‘ध्यान’ है। जो असली है वो क्या है? वो दुनिया में नहीं मिलेगा, वो बाहर नहीं मिलेगा।

श्रोता: सर, ध्यान भी तो एक मानसिक गतिविधि है।

वक्ता: शुरुवात में वही है, शुरुवात वहीँ से होगी। शुरुवात में तो सोचना ही पड़ेगा कि चलो बैठें, ध्यान में जाना है, ठीक है पर अंत वहाँ नहीं होता।

श्रोता: सर, आपने कहा था कि बयूनिवर्स इज़ अ थॉट, इसको थोड़ा सा और समझा दीजिए।

वक्ता: जब इतने होशियार हो जाओगे कि जान जाओगे कि जिसका विचार आ रहा है वो मिथ्या है तो फिर ये भी कह दोगे कि यूनिवर्स भी एक मिथ्या ही है न। ये दोनों ओर की होशियारी एक साथ आती है। तुम ये नहीं कर पाओगे चालाकी कि ‘’दीवार तो मिथ्या है, ज़मीन भी मिथ्या है पर ज़मीन पे जो हम बैठें है, हम असली हैं।’’ तो जब ये जान जाओगे कि यूनिवर्स विचार है तो ये भी समझ जाओगे कि किसका विचार है। जिसका यूनिवर्स है, उसी का विचार है। जो यूनिवर्स में अपने-आप को मानता है उसी का विचार है। दोनों एक साथ हैं और दोनों जब नकली होंगे, दोनों जब जाएँगे तो एक साथ जाएँगे। संसार और अहंकार एक साथ जाते हैं, एक के पीछे एक नहीं।

श्रोता: सर, ऐसा नहीं होता है कि हमें झलक नहीं मिलती है कहीं पर, उदाहरण के लिए ‘मैं बाहर खड़े होकर देख रही थी, एक गिलहरी एक छोटे से पौधे के नीचे खड़ी हुई थी पर वो बार-बार वहाँ से हट भी रही थी तो बहुत देर सोचा तब थोड़ा सा ये समझ में आया कि वो पौधा तो उसके लिए पौधा नहीं है पर मेरे लिए वो एक पौधा है।’’

वक्ता: कितनी अलग-अलग दुनिया है, कितने विभिन्न यूनिवर्स हैं ये जानना हो तो अपने से अलग जो लोग हैं, अपने से बिलकुल ही अलग, थोड़ा उनके करीब आइए। उनके करीब आने के लिए थोड़ा अहंकार कम करना पड़ेगा न। इसीलिए तो हम उन्हीं लोगों के साथ रहना पसंद करते हैं जो हमारे जैसे हैं। फिर देखिए उनकी नज़रों से तो बिलकुल ही अलग दिखाई देगी दुनिया।

तो ये नहीं है कि उनकी नज़र से आपको दुनिया की कोई सही छवि दिखाई देगी, बस अलग, तो पता चलेगा कि- अरे! इतना अलग यूनिवर्स भी हो सकता है। फिर उसी में ज़रा सा आप और आगे निकलेंगे, थोड़ा जानवरों के करीब आएँगे और देखेंगे कि इनकी नज़रों से दुनिया कैसी है तो आप बिलकुल ही हैरान हो जाएँगे कि इसके लिए ये मामला चल रहा है। बात समझ रहें हैं न? कितने यूनिवर्स हैं!

श्रोता: सर, नज़रिया अलग-अलग होता है।

वक्ता: यूनिवर्स ही अलग है सिर्फ़ नज़रिया ही नहीं। वस्तु ही अलग है, जो आपके लिए विष है वो किसी के लिए अमृत है। दुनिया ही अलग है, ऐसा नहीं है कि उनके दुनिया को देखने के नज़रिए ही अलग हैं। जब आप कहते हैं कि नज़रिया अलग है तो आप ये दावा कर रहें हैं कि कुछ विषय है और उसके बारे में कई मत हैं, नहीं।

श्रोता: सर, आप कह रहे थे न कि मानसिक गतिविधि, उसमें आपका विचार अलग है और दूसरे का अलग।

वक्ता: लेकिन उस विचार का जो विषय है वो है ही नहीं। विचार खुद ही विषय है। ये मत सोचिएगा कि अगर ये जो वस्तु यहाँ रखी है इसके बारे में मेरे और आपके मत अलग-अलग हैं। ऐसा नहीं हैं। अगर आप ये कहेंगे तो फिर आप ये कह रहें हैं कि इसमें अपना कोई सत्य है पर उस सत्य के बारे में आपका और मेरा मत अलग है, नहीं। ये है ही नहीं।

श्रोता: सर, अगर हम ये बोल रहें हैं कि ये चीज़ मिथ्या है तो हम क्या बोल रहें हैं?

वक्ता:

सत्य उसको माना गया है जो किसी और पर आश्रित न हो। सत्य उसको माना गया है जो किसी और के बदलने से बदल न जाए। जो किसी और के बदलने से बदलेगा नहीं वो सच है।

ये वस्तु जो मेरे सामने रखी है वो बदल जाएगी मेरे बदलने से इसलिए ये मिथ्या है।

श्रोता: सर, विषय तो नहीं बदलेगा पर मेरा नज़रिया बदल जाएगा।

वक्ता: वस्तु ही बदल जाएगी न। आप थोड़ा सा बदलेंगे तो ये थोड़ा सा बदलेगा, आप पूरा बदल जाइए तो ये भी पूरा बदल जाएगा।

श्रोता: सर, हमारा वातावरण भी बदल जाएगा अगर लोग बदल जाएँगे तो?

वक्ता: पूरा बदल जाएगा। इतना भी पूरा नहीं बदलेगा। ये इतना तक ही बदल सकता है कि ये गायब हो जाए या इसका आकार बदल जाए। अगर आपके दिमाग में दो-चार परिवर्तन कर दिए जाएँ तो ये गेंद बन सकता है।

‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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