दुःख - सुख कि स्मृति || आचार्य प्रशांत, संत दादू दयाल पर (2014)

Acharya Prashant

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दुःख - सुख कि स्मृति || आचार्य प्रशांत, संत दादू दयाल पर (2014)

*सुख का साथी जगत सब, दुख का नाही कोय ।*दुःख का साथी साइयां, ‘दादू’ सदगुरु होय ॥

-दादू दयाल

प्रश्न: संसार में जो सुखों के सहभागी हैं, वो दुखों में भी प्रस्तुत रहते ही हैं, फ़िर ऐसा क्यों कहा जा रहा है कि सुख का साथी जगत सब और दुःख का नहीं कोई?

वक्ता: दादू दयाल कह रहे हैं,

सुख का साथी जगत सब, दुःख का नाही कोय |दुःख का साथी साइयां, दादू सतगुरु होय ||

सवाल यह है कि, जो भी सुख में साथ है वो दुःख में भी साथ आ ही जाता है| देखते हैं क्या होता है|

दुःख क्या है? क्या कोई दुःख में साथ हो सकता है? आप जिसको दुःख कहते हैं वो हमेशा मन में उठता विचार है| कोई है जो आपके विचार में आपका साथी बन सके? कोई तरीका है कि कोई आपके विचारों में आपके साथ मौजूद रहे?

विचार उठा, विचार का उठना ही दुःख है| कोई तरीका है संसार में किसी के पास, आपके प्रेमी जन हों कि कोई भी हो, कि आपका दुःख दूर कर दे, कि आपका विचार ही हटा दे? तो संत जब कह रहे हैं कि दुःख में आपका कोई साथी नहीं होता तो इससे उनका प्रयोजन बिल्कुल यही है कि आपके विचारों को कोई दूर नहीं कर सकता, और विचार दुःख हैं|

संसार तो आपके साथ जो कुछ भी करना चाहेगा उससे आपको नये विचार ही मिलेंगे| वो कैसे आपके विचारों को दूर करेगा? वो आप से यह भी कहता है यदि कि हटाओ विचारों को, तो यह भी एक नया विचार है| संसार दुःख नहीं हटा सकता| जब वो कह रहे हैं कि दुःख में संसार आपका साथी नहीं बनेगा, तो वो यही कह रहे हैं कि संसार आपको दुःख से मुक्ति नहीं दे सकता, क्योंकि संसार आपको विचार से मुक्ति नहीं दे सकता, संसार स्वयं विचार है|

उससे पहले उन्होंने कहा, ‘सुख में साथी जगत सब’| हाँ, संसार सुख ज़रुर दे सकता है| सुख क्या है? क्या सुख आनंद है? नहीं, सुख भी मानसिक है, और मन हमेशा समय में रहता है| तो सुख आनंद की उम्मीद का नाम है| जगत यह ज़रुर दे सकता है आपको|

संसार के दो लक्षण| पहला- सुख की उम्मीद खूब देगा, सुख नहीं, क्योंकि वास्तविक सुख तो आनंद है| वो संसार नहीं दे पाएगा| हम आमतौर पर जिसे सुख बोलते हैं उसे ध्यान से देखिये| क्या वो कभी पूरा होता है? कोई ऐसा सुख मिला है आपको जिसने भविष्य को ख़त्म कर दिया हो? क्या कोई ऐसा सुख उपलब्ध हुआ है आपको जिसके आगे और सुख पाने की आशा न बचे? समय कायम रहता है न? भविष्य कायम रहता है न? आपको कितना भी सुख मिल जाए, ‘और’ की चाहत बनी रहती है|

तो साफ़ समझिये कि जगत आपको सुख नहीं देता, भविष्य देता है, क्योंकि अभी आगे की चाहत बनी हुई है| दूसरे शब्दों में, जगत आपको सुख नहीं, सुख की उम्मीद देता है| ‘*सुख का साथी जगत सब*‘, जगत के पास जाओगे तो सुख की उम्मीद खूब बढ़ जाएगी, आनंद नहीं मिलेगा|

दूसरी बात, ‘दुख का नाही कोय ‘- सुख की उम्मीद का ही दूसरा नाम दुःख है| तो जगत आपके भीतर उम्मीद खूब पैदा कर लेता है, वही उम्मीद जब मन की व्याधि बनती है, जब आपको दुःख देती है, तब उस दुःख का निराकरण नहीं कर पाता|

दुःख क्या है? सुख की कामना ही दुःख है, कोई अलग-अलग थोड़ी हैं दोनों, सुख की स्मृति ही दुःख है| जिसे सुख चाहिए वही तो दुखी है, दुखी न होता तो सुख क्यों मांगता| संसार क्या दे रहा है आपको? सुख| सुख माने, ‘सुख की उम्मीद’| और जहाँ उम्मीद है वहाँ क्या है? दुःख| संसार यह दे रहा है आपको|

यह हटेंगे कैसे? वो राज़ भी खोल दिया गया है कि ‘*दुःख का साथी साइयां, ‘दादू’ सदगुरु होय*‘| जगत विचार दे सकता है| जगत वहाँ नहीं ले जा पाएगा आपको जहाँ निर्विचार है, जहाँ दुःख नहीं है| और याद रखिये जहाँ दुःख नहीं है, वहाँ सुख भी नहीं है| कोई यह न सोचे कि दुःख के न होने का अर्थ होता है सुख| दुःख के न होने का अर्थ होता है सुख भी नहीं, और सुख-दुःख जहाँ दोनों नहीं उसी स्थति को ‘आनंद’ कहते हैं|

आनंद को सुख मत सोच लीजियेगा| आनंद का सुख से कोई लेना देना नहीं है| सुख नकली है, सुख कल्पना है, सुख विचार है, सुख द्वैत में है और आनंद स्वभाव है, सत्य है| ‘दुःख का साथी साइयां, ‘दादू’ सदगुरु होय ‘|

‘दुःख का साथी साइयां’ , वही स्वामी, वही सत्य ही अकेला है जो दुःख को मिटा सकता है| कौन है वो? देखेंगे इसको|

सुख आया संसार से, दुःख आया संसार से| इन्द्रियों से आया, मन में कंपन पैदा किया| जो कंपन मन के संस्कारों को अनुकूल लगा उसको नाम दे दिया ‘सुख’, जो प्रतिकूल लगा उसको नाम दे दिया ‘दुःख’| दोनों कंपन हैं| तो यदि कुछ ऐसा चाहिए जहाँ दुःख से मुक्ति हो, तो वहाँ कंपन से मुक्ति होगी|

कंपन का क्या अर्थ है? प्रभावित हो जाना, कि काँप गए, कि कोई घटना घटी बाहर और वो हमें कंपा कर चली गयी| काँपना डरना ही नहीं होता| आपको कुछ बहुत भा गया, आप तो भी काँप ही जाते हो| आप क्रोध में ही नहीं काँपते हो, आप प्रेम में भी काँपते हो| जहाँ कंपन है, जहाँ प्रभावित हो जाना है, वहीं सुख-दुःख है|

एक स्थिति ऐसी आती है जब आप यह पाते हो कि कुछ ऐसा है आपके पास जो अकंपित रहता है, जो दुनिया से अनछुआ रहता है| दुनिया आती है, अपने सारे प्रभाव डालती है, मन उन प्रभावों को अनुभव भी करता है, लेकिन उसके बाद भी आपके पास एक बिंदु, एक कोना, एक स्थान, एक मर्म-स्थल ऐसा बचता है जिसे दुनिया छू नहीं सकती|

जब आपको उस बिंदु की उपलब्धि होती है तो उसी के साथ-साथ यह अहसास भी होता है कि यह बड़ी रहस्यमयी चीज़ है जो मुझे दुनिया से नहीं मिली है, न मेरी कमाई हुई है| माँ-बांप से, अतीत से, विरासत से, शिक्षा से, ज्ञान से, कहीं से नहीं मिली है| कहाँ से मिली है यह रहस्य है, और रहस्य ऐसा है कि कभी जान भी नहीं पाऊँगा कि यह कहाँ से आ गया|

दुनिया ने तो कंपन ही कंपन दिए थे| दुनिया ने तो प्रभाव ही प्रभाव दिए थे, सुख दिया था, दुःख दिया था| यह बिंदु मुझे कहाँ से मिल गया जो अकंपित रहता है? दुनिया ने तो रंग ही रंग दिए थे| यह बिंदु मुझे कहाँ से मिल गया जिस पर कोई रंग चढ़ता ही नहीं?

आप कोशिश कर लीजिये, आप दोनों तरीकों से हारेंगे| पहला- आप उस बिंदु पर कोई रंग चढ़ा नहीं पाएँगे| दूसरा- आप उस बिंदु का उद्गम जान नहीं पाएँगे, वो अनादि है| न तो आप उसको संसार के भीतर ला पाएँगे, और न आपको यह पता चल पाएगा कि वो कहाँ से आया| आपकी उसको लेकर सारी चेष्टाएं विफल जानी हैं, तो आप नतमस्तक हो जाते हैं|

आप कहते हैं, ‘तू जो भी है, जहाँ से भी आया है, तेरे बारे में कुछ जान नहीं सकता| पर यह पक्का है कि मेरे पास जो भी असली है वो तुझसे है| मेरे पास जो भी नित्य है, मेरे पास जो भी आनंद रूप है, वो तुझसे है| मेरे पास जो भी कुछ ऐसा है जिसपर भरोसा किया जा सकता है, वो तुझसे है| दुनिया से तो सिर्फ बदलाव और धोखा ही मिलता है| जो अभी है, वो कल नहीं रहेगा| जो भी कुछ निरंतर है, वो तुझसे है और मैं तुझे जान नहीं सकता’|

जब आप जान नहीं सकते तो देखिये क्या-क्या होगा|

पहला- आप नतमस्तक हो जाएँगे| दूसरा- आप जानने की चेष्टा छोड़ देंगे| हमारी जानने की चेष्टा का नाम होता है ‘विचार’| आप नतमस्तक हो जाएँगे तो आप कहेंगे, ‘साइयां, स्वामी’, और जब आप विचार छोड़ देंगे तो आप दुःख छोड़ देंगे, इसीलिए दादू कह रहे हैं, ‘*दुःख का साथी साइयां*‘| आप नतमस्तक हो गए इसीलिए आप उसे क्या कहेंगे, ‘स्वामी, सांई’| और क्योंकि आप उसके विषय में कभी कुछ जान नहीं सकते, तो विचार हारेगा उसके सामने, इसीलिए दुःख भी हारेगा उसके सामने|

याद है न हमने क्या कहा था? दुःख क्या है? विचार| और विचार में वो कैद नहीं होगा, विचार हारेगा उसके सामने, विचार से उसे कुछ मिलेगा नहीं| वो अकेला है जिसके सामने विचार मौन हो जाएगा, वो अकेला है जिसके सामने आप झुक जाएँगे| आपकी अकड़ का नाम ही तो विचार है न| विचार क्या कहता है? ‘मैं जान सकता हूँ, मुझमें सामर्थ्य है’| जिसकी अकड़ गयी उसका विचार गया|

‘दुःख का साथी साइयां’| इसी को दूसरे शब्दों में कहिये कि सत्य निर्विचार में उपलब्ध होता है, बिल्कुल वही बात है, सत्य निर्विचार में है| ‘दुःख का साथी साइयां’ , और निर्विचार में ही सुख-दुःख से मुक्ति है|

‘दादू सदगुरु होय ‘, गुरु के विषय पर पहले भी कई बार हम चर्चा कर चुके हैं| कुछ बातें हैं जिनको बस दोहरा लें तो काफी है| संसार सुख-दुःख देता है पर क्योंकि हमें ये भलीभाँति पता है कि सत्य एक ही है, तो संसार भी उसके अतिरिक्त और कहीं से तो नहीं आया है|

अभी दो दिन पहले मैं आपसे कह रहा था कि ‘संसार परमात्मा का छिलका है’, याद है? तो संसार छिलका तो है, पर, परमात्मा का| संसार सुख-दुःख तो देता है, पर संसार से ही होकर वो रास्ता भी गुज़रता है जो आनंद तक ले जाएगा| संसार से ही फूटता है वो रास्ता| वो रास्ता ऐसा है जो फूटता संसार से है, पर ले संसार के पार जाता है| उस रास्ते को ‘गुरु’ का नाम दिया गया है|

गुरु कौन? जो मौजूद तो संसार में है, पर ले संसार के पार जाए| जैसे कोई नाविक जो मौजूद तो नदी के इस ओर है, पर ले उस ओर जाए| वो आपके पास ही है, बहुत पास है, पर वो ले बहुत दूर जाएगा| तो कभी-कभी मैं कहता हूँ कि गुरु सीढ़ी की तरह है, जिसका एक सिरा नीचे है आपके तल पर, और दूसरा सिरा ऊपर कहीं है किसी और तल पर|

‘दुःख का साथी साइयां, दादू सतगुरु होय ‘| तो बहुत सीधी सी बात है कि जहाँ सुख-दुःख की और सांई की बात हो, वहाँ बीच में गुरु का स्मरण करना ही पड़ेगा क्योंकि एक तल है सुख-दुःख का, और दूसरा तल है आनंद का| बीच की सीढ़ी गुरु है, उसको भूलोगे कैसे? उसकी चर्चा करनी ही पड़ेगी| संसार है और सत्य है और उन दोनों के बीच जो रस्सी है, जो पुल है उसकी बात करनी ही पड़ेगी| और बात की जा रही है|

– ‘बोध-सत्र’ पर आधारित| स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं |

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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