दुःख को ध्यानपूर्वक देखने का अर्थ? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

Acharya Prashant

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दुःख को ध्यानपूर्वक देखने का अर्थ? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

प्रश्न: दुःख को ध्यानपूर्वक देखने का क्या अर्थ है?

आचार्य प्रशांत जी:

दुःख का असर तुम पर होता है, लेकिन तुम्हारा एक कोना ऐसा है, जहाँ दुःख नहीं पहुँच सकता। उस कोने को याद रखो बस। कुछ भी तुम्हारे साथ ऐसा कभी-भी नहीं होता है, जो तुम्हारे मन को पूरी तरह ही घेर ले। एक छोटा-सा बिंदु होता है तुम्हारा, जो बच जाता है। उस बिंदु को याद रखो।

तो जब दुःख आए, तो तुमसे यह नहीं कहा जा रहा है कि दुःख महसूस मत करो, लेकिन पूरे तरीके से दुःख ही मत बन जाओ। उस दुःख को आने दो। दुःख जब आएगा, तो मन कैसा महसूस करेगा?

प्रश्नकर्ता: दुःखी महसूस करेगा।

आचार्य प्रशांत जी: मन को दुःखी महसूस करने दो। तुम एक हिस्सा बचा के रखो, जो इस दुःखी होने को देख सकता हो। इसे ही कहते हैं – दुःख को ध्यानपूर्वक देखना। इस समझ के साथ अब जब भी तुम दुःखी हो, तो ऐसा कह सकते हो कि – “प्रशांत (प्रश्नकर्ता) को दुःख हो रहा है।” इसे ही कहते हैं – अपने दुःख को देखना।

बात समझ में आ रही है?

प्रश्नकर्ता: कि हमें दुःख में भी दुःखी नही होना है।

आचार्य प्रशांत जी: नहीं, मैंने यह न नहीं कहा कि आप दुःख से दुःखी नही होईए। मैं कह रहा हूँ कि किसी भी चीज़ को पूरी तरह महसूस करो, चाहे वो दुःख हो, चाहे सुख हो।

जब आप नाच रहे हैं, तो पूरी तरह नाचने में उतर जाईए। जब आप खेल रहे हैं, तो गहराई से खेलने में उतर जाईए। जब आप हँसे, तो पूरी तरह किसी पागल की तरह हँसिए। जब रोईए, तो पूरी तरह रोईए। और जब आप ऐसा करेंगे, जब आप पूरी तरह नाच रहे हैं, तब भी कोई एक केंद्र होगा जो स्थिर होगा।

आप जब किसी पर पूरी तरह गुस्सा कर रहे हों, चिल्ला रहे हों, तो मन को पता होता है कि कुछ ऐसा है जो गुस्सा नहीं है। मन पूरी तरह से गुस्सा है, लेकिन कुछ है जो गुस्सा नहीं है।

ऐसा कभी हुआ है?

प्रश्नकर्ता: कई बार दोस्तों के बीच भी ऐसा होता है, खासकर रिलेशनशिप में जब हम सामने वाले को झूठा गुस्सा दिखाते हैं अपनी बात मनवाने के लिए।

आचार्य प्रशांत जी: मैं झूठे गुस्से की बात नहीं कर रहा। जब तुम्हें किसी असली बात पर असली गुस्सा आ रहा हो, तब भी यह याद रखा जा सकता है कि गुस्सा सिर्फ़ ऊपर-ऊपर है, भीतर एक केंद्र है जो गुस्सा नहीं है। इसी तरह , “मेरी सारी खुशी भी सिर्फ़ एक नाट्य है। वो सब (सुख, दुःख, गुस्सा) किरदार हैं, और मैं अभिनेता हूँ।”

क्या अभिनेता किरदार होता है? अमज़द खान और गब्बर सिंह में कोई अंतर है कि नहीं? या अमज़द खान गब्बर सिंह ही हो गया? तो जब वो बोल भी रहा है कि – “कितने आदमी थे,” तो यह थोड़े ही सोच रहा है सीन में कि गोली मार दूँगा। वो पूरी गहराई से अपने डायलॉग बोल रहा है, पूरी ईमानदारी से, लेकिन तब भी उसे अंदर-ही-अंदर पता है कि – “मैं गुस्सा नहीं हूँ।” या जब वो बहुत खुश है, बहुत हँस रहा है, तब भी उसे अंदर-ही-अंदर पता है कि – “मैं खुश नहीं हूँ।”

(हिंदी फ़िल्म के एक सीन का उल्लेख करते हुए)

वो वाला सीन याद है, जिसमें उन तीनों को गोली मार देता है? उसके पहले हँसता है, खूब हँसता है कि सारे ही हँसना शुरू कर देते हैं और वो हँस रहा है, पूरी ताकत से है हँस रहा है, पर उस वक्त भी उसको पता है अंदर-ही-अंदर कि – हँसने की क्या बात है?

कुछ रहता है अंदर अप्रभावित, उसको याद रखो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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