दुख छोटी चीज़ है || आचार्य प्रशांत (2023)

Acharya Prashant

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दुख छोटी चीज़ है || आचार्य प्रशांत (2023)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मेरा प्रश्न ये है कि ज़िन्दगी में बड़ा-से-बड़ा दुख हुआ, मतलब जो सबसे प्रिय था वो भी चला गया, इसके बावजूद भी अहंकार नहीं टूटता। आत्मज्ञान में भी चल रही हूँ, लेकिन कहीं-न-कहीं लगता है देहभाव किसी भी तरह नहीं जाता है, कम ही नहीं होता है। मतलब कुछ भी ऊँचा करने की सोचती हूँ, तो मन में, मतलब केन्द्र में यही रहता है कि मैं कुछ प्रूफ़ (सिद्ध) करना चाहती हूँ अपनेआप को। तो इसको कैसे दूर करुँ?

आचार्य प्रशांत: ये दुख आया, कोई अपना था चला गया, देहभाव रहता है, ये सब है न?

प्र: जी।

आचार्य: ये हो सकता है रहने के लिए ही बने हों। हो सकता है प्रकृति ने हमारी रचना करी ही ऐसे हो कि ये रहें। तो हमें बस अधिक-से-अधिक ये जानने का अधिकार है कि ये रहता है। तो दुख है, दुख है और मैं जानती हूँ कि दुख है। इन दोनों में बड़ा अन्तर आ जाता है और एक होता है कि दुख है, दुख न रहे। जब आप कहते हैं कि दुख है तो उसके साथ में एक कामना आती है कि दुख?

प्र: न रहे।

आचार्य: दुख है। मैं जानती हूँ दुख है। ये उत्तर हो सकता है हमारा। दुख की स्थिति को उत्तर ‘सुख की कामना’ से नहीं दिया जा सकता। दुख कि स्थिति है उससे, उसको हमारा आमतौर पर उत्तर क्या होता है? ‘दुख हटे, सुख आये।’ यही रहता है न? हमारा जैसा निर्माण है, बड़ा सख़्त निर्माण होता है। ये मशीन ज़बरदस्त तरीक़े से हार्ड-वायर्ड (यंत्रस्थ) है। इसके क्रियाकलापों को बदल पाना आसान नहीं होता।

लेकिन कुछ और है जो आसान ही नहीं है, त्वरित है। ‘खोजी होय तो तुरन्त मिल जावै’1, कह रहे थे न। तुरन्त क्या होता है फिर? तुरन्त ये हो सकता है कि जो कुछ हो रहा है, वो मैं उसको जान लूँ। ‘जो कुछ हो रहा है, उसे मैं बदल दूँ’, ये तो लक्ष्य बनाना गड़बड़ बात है। ‘जो कुछ हो रहा है, उसको जान लूँ’, बस इतना करिए। दुख है; मुझे पता है दुख है। उसके बाद क्या होगा, वो मुझे नहीं पता।

कामना हमेशा ये कहती है कि बाद में जो होगा, वो महत्वपूर्ण है। है न? आप जब किसी चीज़ की कामना करते हो, तो वास्तव में आप उसका परिणाम चाहते हो। माने बाद में क्या होगा ये बात महत्वपूर्ण होती है न। और साक्षी हो जाने में कोई भविष्य नहीं रह जाता। साक्षी हो जाने में आप बस देखते हो कि क्या ‘है’। कोई कामना लेकर नहीं देखते हो।

अभी आपके प्रश्न में कामना है कि, ‘दुख आया तो क्यों आया? दुख ग़लत चीज़ है। दुख को हटाओ। मुझे सुख चाहिए।’ ये कामना समझ में आती है कहाँ से आयी। ठीक है? ये भी समझ में आता है कि अहम् का स्वभाव जब आनन्द है, तो क्यों वो फ़ालतू दुख झेल रहा है। ये सब बाते ठीक हैं अपनी जगह, लेकिन सुख की चाह दुख की स्थिति का उपचार नहीं कर पायेगी।

दुख की स्थिति जब उठे, तो दुख को वैसे ही देखना है जैसे किसी और का है।

हो सके तो उसको चुटकुले की तरह, ‘हाँ, दुखी हूँ।’ ‘सुख की कोशिश कर रही हूँ’, ये नहीं। ‘हाँ, मैं दुखी हूँ।’ हो सके तो अपना नाम लेकर के, ‘हाँ मैं दुखी हूँ। रेखा आज दुखी है।’ ‘सुनील आज दुखी है।’ वही बात सुख पर भी, ‘आज सुनील बहुत सुखी है। वाह बेटा सुनील! बड़े रंगीन इरादे हैं आज के तो!’ उसके बाद जो होना होता है, वो अच्छा ही होता है और ख़ुद-ब-ख़ुद होता है।

पुरुष का काम प्रकृति की व्यवस्था बदलना नहीं होता। मुक्ति का अर्थ ये नहीं है कि प्रकृति एक तरीक़े से चलती है, प्रकृति में जनम-मरण होता है, आदि-अस्त होता है, शीतोष्ण होता है, सब तमाम तरीक़े के द्वैत होते हैं, तो इस सब व्यवस्था को बदल दिया जाए। अध्यात्म प्रकृति में तोड़-फोड़ के लिए नहीं होता है। अध्यात्म होता है कि प्रकृति से मुक्त हो जाऊँ। प्रकृति अपना काम करती रहे और मैं उसका साक्षी हो जाऊँ। तो ये तो अब आपने मनुष्य का जन्म लिया है। स्त्री की देह है आपकी। उससे सम्बन्धित जो भी चीज़ें हैं — इंसान जब पैदा होता है तो देह में तो बैठा होता है न प्रारब्ध। कबीर साहब ने बोला है कि प्रारब्ध पहले आता है और जन्म बाद में होता है। लोगों को समझ में ही नहीं आता। कहते हैं, ‘ये क्या बोल दिया? ये क्या भाग्यवाद है?’ नहीं, भाग्यवाद नहीं है, कुछ और है ये। कहते हैं, ‘प्रारब्ध पहले आया और बाद में आया शरीर।‘

तो शरीर बड़ी ज़बरदस्त चीज़ होती है। उससे बहुत लड़ने-भिड़ने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। ज्ञानियों ने वो रास्ता कभी नहीं सुझाया है। उन्होंने तो प्रकृति से सहज सम्बन्ध बनाने को कहा है। कह रहे हैं, ‘हमें कुछ नहीं बदलना। तू बावली, तू माया, तू अपने तरीक़े से चलती है, तू चलती रह। हम बस अपनी जगह बैठ गये हैं डंडा गाड़कर के। समाधि में हम बैठे हुए हैं। और तेरा नाच है, तेरे अपने इरादे होते हैं, तू नाच।’

ये अन्तर समझ में आ रहा है?

अध्यात्म दुख की स्थिति को सुख में बदलने के लिए नहीं होता। अध्यात्म दुख को सुख में बदलने के लिए? (नहीं होता)। वो आपको दुख और सुख दोनों से? (मुक्त करने के लिए होता है)। हाँ, ‘दुख है, दुख है।’

उसमें जादू जैसा क्या होता है, पता है? आपको दुख थोड़े ही सताता है। बोलिए? आपको दुखी होना सताता है। दुख किसीको नहीं सताता, आपको सताता है ‘दुखी होना’। अब दुख है, और जिसको दुखी होना था, वो एक साथ दो काम एक साथ नहीं कर सकता। वो या तो दुखी हो ले या साक्षी हो ले।

प्र: जी।

आचार्य: उसने कहा कि मैं तो जा रहा हूँ अपने दुख का साक्षी होने, तो ये दुख है। वो उस दुख के अन्दर घुसकर बैठा था, तो उसका क्या नाम था? दुखी। उसने कहा, ‘ज़रा अब दुख को देखा जाए।’ अब दुख को देखना है, तो दुख से बाहर से देखना पड़ेगा। तो वो दुख से कूदकर इधर आ गया। दुख को देखने के लिए साक्षी हो गया दुख का। तो वो साक्षी हो गया। साक्षी हो गया, तो दुखी का क्या हुआ?

प्र: दुखी ख़त्म हो गया।

आचार्य: सुख तो नहीं मिला, लेकिन दुखी ख़त्म हो गया। दुख तो नहीं मिटा, लेकिन दुखी ख़त्म हो गया। फिर आप ऐसे इधर-उधर देखकर कहते हैं, 'दुखी ख़त्म हो गया, तो अब दुख है किसको? फ़ॉर हूम? (किसके लिए?)' यही तो वेदान्त का जादू है। वो जो एकदम मूल बात होती है, केन्द्रीय, बस उसको पकड़ता है। वो कहता है, 'दुख तो तब परेशान करेगा न जब तुम दुखी होओगे, और दुखी तुम इसलिए होते हो क्योंकि तुम दुख से जाकर चिपके हुए हो। तुम एक काम करो। तुम्हें हम एक दूसरा धन्धा दे देते हैं। पुरानी दुकान बन्द करो। तुम्हें नया काम दे दिया है। नया काम क्या है? साक्षी।‘

दुखी जो था, वो दुख से कूदकर साक्षी हो गया। अब वो दुख को अपने देख रहा है अपने, ऐसे, ‘हाँ, बहुत दुख है आज तो, भयानक दुख है।’ आँसू बह रहे हैं। वो अपने बहते हुए आँसुओं को देख रहा है। ठीक है। थोड़ी देर में वो ऐसे कहता है, 'क्या बेकार में कार्यक्रम चल रहा है! बन्द करो। कुछ और ही कर लेते हैं। बहुत बोरिंग (उबाऊ) पिक्चर है। क्या चल रहा है? सिर्फ़ आँसू, आँसू, आँसू। कुछ और दिखाओ न। हम कौन हैं? हम साक्षी हैं। हम पिक्चर देखने आये हैं और इस पिक्चर में सिर्फ़ क्या हैं? दुख ही दुख है। सीन (दृश्य) चेंज (बदल) करो।' चेंज हो जाता है। आ रही है बात समझ में?

दुख तो चलिए फिर भी मानसिक होता है। एक बात बताइए; शारीरिक चीज़ें हो जाएँगी, आप उन्हें कैसे बदल लोगे? लोगों के साथ न जाने क्या-क्या हो जाता है शरीर में, आप उसको कैसे बदल लोगे? तो एक ही बात है न। क्या? उसके साक्षी हो जाओ बस।

अब से जब दुख आये, तो उसका विरोध नहीं करिएगा, 'हाँ, दुख है।' कोई ये नहीं कि दुखी होना गन्दी बात हो गयी। 'मैं तो गीता पढ़ती हूँ, फिर मैं दुखी कैसे हूँ?' काहे के लिए? जिनकी आज हम बात पढ़ रहे हैं, जिनको सिर पर रख रहे हैं, वो तो खुलेआम बोलते हैं, बार-बार बोलते हैं कि कबीर बैठा — कभी कहते हैं — रो रहा है, कभी कहते हैं उदास है। ‘राम बुलावा भेजिया।‘ उनको तो कोई शर्म नहीं आ रही है कहने में कि, ‘हाँ, मैं रो रहा हूँ।’ “सब जग जलता देखकर भया कबीर (उदास)।” तो उनको तो नहीं बुरा लग रहा है कि मैं उदास क्यों हूँ। ‘मैं कबीरदास हूँ। कबीरदास होकर उदास कैसे हो गया?’ वो तो खुले में बता रहे हैं, 'हाँ, हूँ उदास।' वो ऐसे थोड़े ही हैं कि, ‘मैं बहुत महान गुरु हूँ। मैं तो सिर्फ़ मुस्कुराता रहता हूँ।’ वो आजकल चलता है कि गुरूजी सिर्फ़ हँसते हुए, मुस्कुराते हुए नज़र आएँगे। ये लोग तो बोलते हैं, ‘हाँ, रो रहे हैं, खूब रो रहे हैं। हाँ, रो रहे हैं।’ ‘आज दिन बहुत ऐसा ही है।’ ‘क्या करा?’ ‘आज दो घंटे रो रहे थे।’ ठीक है?

प्र: जी, आचार्य जी।

आचार्य: मस्त रोइए। (सभी श्रोतागण हँसते हैं। )

प्र२: नमस्कार आचार्य जी।

आचार्य: जी।

प्र२: मैंने अन्य सत्रों में जो सुना, उसे संक्षिप्त में यहाँ कहना चाहूँगी। मैं हिन्दी में बोल सकती हूँ, पर बहुत अच्छी नहीं निकलेगी।

आचार्य: नहीं, आप बोलिए जैसे बोलना है।

प्र२ : मैंने जाना है कि सारे अध्यात्म का लक्ष्य है 'स्वयं से मुक्ति'। आपने उसको ‘आत्मबोध’ का नाम भी दिया था। पर मैंने महसूस किया है कि व्यापक स्तर पर, चाहे परिवार की बात करें या समाज की, तो व्यक्ति असफल ही हो जाता है। वो अन्य जनों के लिए बोध और मुक्ति ज़रा भी नहीं ला पाता। साथ ही, जब हम स्वयं की आध्यात्मिक यात्रा पर होते हैं, तो हममें ये भाव भी रहता है कि हमें दुसरो के लिए भी मुक्ति का प्रयास करना है, जैसा आप कर रहे हैं। लेकिन निजी तल पर ये एक निरन्तर और जीवनभर चलने वाला एक संघर्ष रहता है; हरदम, हर जगह। तभी मैं सोच रही थी कि क्या किसी के पास ये विकल्प भी होता है कि व्यक्ति बस अपनी निजी आध्यात्मिक प्रगति पर ध्यान दे और दूसरों की बहुत फ़िक्र करना छोड़ दे? क्या ये भी एक तरीक़ा है प्रेम व्यक्त करने का?

आचार्य: इट इज़ ए लव अफ़ेयर। (यह एक प्रेम प्रसंग है।) इसमें कोई कैसे बोल दे कि, ‘अच्छा चलो, इतने ही क़रीब आ जाओ, तो भी ठीक है’? जैसे आपने कहा न, ‘इन्डिविज़ुअल रियलाइज़ेशन (व्यक्तिगत बोध)’, तो ये एक बहुत निजी प्रेम कहानी होती है। इसमें कोई और कैसे निर्धारित कर देगा या अनुमति दे देगा कि चलो, इतना ही पा लिया तो पर्याप्त है? वो तो अपनी भीतरी ललक होती है कि कितना पाना है, कितना नहीं। जैसे आपने कहा कि, ‘कैन वन कीप डूइंग हर वर्क एंड ऑल्सो (क्या कोई अपना काम करती रह सकती है और साथ ही) वो करा जा सकता है?’ उसमें कुछ प्रतिबन्धित तो होता नहीं कि, ‘नहीं, ऐसे नहीं, ऐसे आप,’ लेकिन बात बस इसकी आती है कि आपकी ज़िन्दगी की जो सबसे असली पार्टी हो, वो उधर चल रही हो बगल के कमरे में और आपको यहाँ पर कुछ काम मिला हुआ है। आपको काम मिला हुआ है, बहुत ऊँचा काम बोल दीजिए आप — वहाँ लैपटॉप रखा हुआ है और उसपर कोडिंग करनी है। या ऐसे कह दीजिए कि ये कुर्सियाँ रखी हैं, इनकी सफ़ाई करनी है। आप कितने दिन कर पाओगे और इस काम को कितना समय दे पाओगे? और दूसरी ओर आप चाहो तो कि काम ज़िन्दगी भर भी कर सकते हो। अब फ़ैसला तो आपके भीतर जिसको बैचेनी कह दें या प्रेम कह दें, उसको करना है न।

ले-देकर के बात यहाँ पर नैतिकता की नहीं है। कहीं कोई क्वॉलीफ़ाइंग क्राइटेरिया (योग्यता मानदण्ड), एक्सटर्नल क्राइटेरिया (बाहरी मानदण्ड) पार करने की नहीं है। बात तो अपने चैन की है। चैन मिल रहा, तो ठीक है। नहीं मिला, तो कोई कह भी दे ‘ठीक है’ तो कैसे ठीक हो गया? मेरा दिल वहाँ है, उधर (हाथ से इशारा करते हुए)। मेरे साजन हैं उस पार। कितने दिन तक मैं यहाँ पर कुछ और कर पाऊँगा? और करना चाहो तो कर लो। वो था न वो तो कि भाई, आदमी को ये अधिकार मिला हुआ है कि वो बिना सच के भी पूरी ज़िन्दगी सुख में बिता सकता है। सच और सुख साथ-साथ नहीं चलते अनिवार्य रूप से। कि सच होगा तो ही सुख मिलेगा, ऐसा कुछ नहीं है। बिना सच के भी ढेरों सुख मिल सकता है, बधाइयाँ बरस सकती हैं। तो ये फ़ैसला ख़ुद को ही करना होता है कि कितना चाहिए।

कुछ लोग होते हैं जिनको इतना, इतना, बहुत सारा चाहिए होता है। कुछ लोग कम में सन्तोष कर लेते हैं। ये तो मुझे तय करना है कि कितने में मुझे सन्तोष करना है। मुझसे पूछेंगे, तो मैं तो बेईमानी ही करूँगा। मैं तो कह दूँगा कि थोड़े में सन्तोष कर लो, थोड़े में; और फिर बात-बात में आकर के मैं चिकोटी काटूँगा कि, ‘अरे! थोड़े में ही सन्तोष कर लिया क्या? देखो, उधर देखो। उधर तो दावत उड़ रही है और आप थोड़े में ही मान गये?’ लेकिन पूछोगे तो मैं यही कह दूँगा, 'हाँ, थोड़े में कर लो, कुछ नहीं होता।' ये सब लोग क्यों हैं? ये इसीलिए तो हैं ताकि आपको थोड़े में सन्तोष न करने दें। नहीं तो बहुत आसान है। चलते ही रहता है। कौन मर जाता है आध्यात्मिक बैचेनी से? लोग एक-से-एक टुच्ची चीज़ों के लिए जान दे देते हैं। आज तक किसको आपने पढ़ा है कि सर्वसार उपनिषद का अर्थ नहीं कर पा रहा था, तो पंखे से लटक गया? (सभी श्रोतागण हँसते हैं) आइसक्रीम नहीं मिली, मर गया। सौ चीज़ों पर लोग मर जाते हैं।

तो, जिया जा सकता है। मौज में जिया जा सकता है। क्यों जी रहे हो ऐसी झूठी मौज में? मुझसे मत पूछिए। मैं इसमें इन्टरेस्टेड पार्टी (लाभातुर पक्ष) हूँ, बायस्ड (पक्षपाती)।

पिंक फ्लॉयड का है टाइम (समय)। उसमें एक जगह पर आता है कि “आई मिस्ड द स्टार्टिंग गन, नो वन टोल्ड मी व्हेन टू रन। (मैं आगाज़ी फ़ायरिंग से चूक गया, मुझे किसी ने नहीं बताया कि कब दौड़ना है)” अब वो बड़ा न, बुरा सा लगता है उसको सुनकर। मैं नहीं चाहता कि वो किसी के साथ भी हो, बाद में पछताना पड़े। चिड़िया चुग गयी खेत।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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