दुःख, सुख, और परमसुख || आचार्य प्रशांत (2014)

Acharya Prashant

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दुःख, सुख, और परमसुख || आचार्य प्रशांत (2014)

श्रोता: एक हँसता हुआ जीवन क्या है?

वक्ता: तीन स्थितियां होती हैं मन की:

दुःख- जहाँ पर आंसू हैं, जहाँ मन रोता है। दुःख से मन हमेशा बचना चाहता है।

दुःख से प्रियकर स्थिति मन को लगती है सुःख की। सुःख में हंसी है, मन सुःख की ओर आकर्षित होता है। दिक्कत बस इतनी सी है, कि सुख के होने के लिए, दुःख का होना आवश्यक हो जाता है। सुख का अनुभव ही न हो, यदि दुःख न हो। तो सुःख की ओर भागकर भी मन, वस्तुतः सुःख पाता नहीं है। सुख की ओर जाता तो है, पर पाता नहीं है, क्योंकि जितना ज्यादा से ज्यादा उसे सुःख चाहिए, उतना ही उसे पहले दुःख का निर्माण करना पड़ेगा अन्यथा वो सुःख पा नहीं सकता।

सुःख से भी ज्यादा सुखी, एक अवस्था होती है। सुख की जो हंसी है, वो तो बहुत ज़ल्दी आंसू में तब्दील हो जाती है। सुःख से भी ऊंचे सुःख की एक ऐसी अवस्था होती है जहाँ पर हंसी कभी रूकती ही नहीं, वो है हँसता हुआ जीवन।

समझियेगा बात को; सुःख में हमें हँसते हुए क्षण तो उपलब्ध होते हैं, पर हँसता हुआ जीवन नहीं। जो हमारा सामान्य सुःख हैं, वो हमें हँसते हुए क्षण तो दे देता है, पर हँसता हुआ जीवन नहीं दे सकता, क्योंकि कुछ क्षण आप हंसोगे, फिर रोना पड़ेगा। हमारा सुःख भी एक तनाव कि भांति है, आप बहुत देर तक हंस नहीं सकते, हंसी से मर जाओगे। ये यहाँ बैठा है, मैं इसे अगर गुदगुदी करूँ, तो ये खूब हँसेगा। एक मिनट गुदगुदी करूँ, तो ये हँसेगा। तीन-चार मिनट गुदगुदी करूँ, तो भी ये हँसेगा। और कहीं मैं इसको एक घंटे तक गुदगुदी कर दूँ, तो क्या होगा? मर जाएगा। तो ऐसा होता है हमारा सुःख। वो मार डालेगा अगर उसकी अधिकता हो जाए। तो हँसते हुए क्षण तो मिल जायेंगे इस गुदगुदी से, हँसता हुआ जीवन नहीं मिलेगा।

हँसता हुआ जीवन तो परमसुख में ही मिलेगा। उस परमसुख का नाम है, ‘आनंद’। तो दुःख है, जहां आंसू हैं; सुःख है, जहां हंसी के कुछ क्षण हैं। और फिर परमसुख है, जहाँ लगातार हंसी है। पर वो हंसी वैसी नहीं है, जो ये सुःख की हंसी होती है। सुःख की हंसी तो एक विकृति है। सुःख की हंसी तो बहुधा हिंसक है। परमसुख की जो हंसी है, वो दूसरी है। हँसता हुआ जीवन में याद रखना, जीवन क्षण नहीं है, और हंसी ये हमारी रोज़मर्रा कि हंसी नहीं है। अगर हमारी रोज़मर्रा की हंसी है तो जीवन भर नहीं चल पायेगी। हँसता हुआ जीवन उस सुःख के प्राप्त होने पर होता है जो सुःख किसी दुःख को नहीं चाहता अपने होने के लिए। वो अद्वैत का सुःख है। उसको किसी दूसरे सिरे कि तलाश नहीं है कि दुःख बढ़े तो सुःख बढ़े। वो निर्भर है ही नहीं किसी और पर। हमारे दुःख भी दूसरों पर निर्भर हैं और हमारे सुःख भी दूसरों पर निर्भर हैं। पर जो परमसुख है उसको तो अपने आप में पूरा होना पड़ेगा। वो किसी और के दिए आ नहीं सकता और किसी और के छीने छिन नहीं सकता। हँसते हुए जीवन का अर्थ ये कदापि न लिया जाए कि कोई सुबह उठ कर रोज़ ठहाके लगाता है, और दिन भर में उसने कायदा बाँध रखा है कि मैं इतने बजे से इतने बजे तक रोज़ हँसूंगा। हँसते हुए क्षणों में तो स्पष्ट आभास होगा कि कोई हंस रहा है, पर एक हँसता हुए जीवन में हो सकता है कि आपकी आँखों को कभी हँसता दिखायी ही न दे। क्योंकि उसकी हंसी अब उसके रेशे-रेशे में है। उसका रोम-रोम हँसता है, उसके होंठ भर नहीं हँसते। जो हमारी रोज़मर्रा कि हंसी है, उसमें तो हमारा गला और हमारे होंठ भर हँसते हैं। और अगर कुछ ज्यादा ही अट्ठाहस कर लिया तो फिर पेटहंस लेता है, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं हँसता। उस सुख के पहले एक नीरसता होती है और उसके बाद एक खालीपन होता है। पर जहाँ जीवन ही सुखी है, जहाँ वो परमसुख है, वहाँ कोई आवाज़ नहीं है, वहाँ कोई प्रदर्शन नहीं है, वहाँ कुछ ऐसा नहीं है जो दिखायी दे। वहाँ सिर्फ एक सूक्ष्म शान्ति है। वहाँ कोई तड़क भड़क नहीं मिलेगी आपको। वहाँ आप चिन्हित करके कह भी नहीं पाएंगे कि देखो ये अब हंसा, अब ये खुश है। उस से आपको पूछना पड़ेगा कि तुम कब खुश होते हो? अब मन आये उसका तो कह सकता है कि कभी भी नहीं। और हो सकता है कि आपको यकीन हो जाए कि ये कभी भी खुश नहीं होता क्योंकि खुश तो वो कभी भी नहीं दिखता। वो सदा खुश है। सदा सुःख में है, पर वो सुख सामान्य सुःख से बहुत अलग है। वो अपने में पूरा होने का सुःख है। वो अपने में डूबे होने का सुःख है। उसमें आप ये नहीं पूछ पाएंगे कि तुम किस कारण खुश हो? वो अकारण सुःख है।

श्रोता: जिसको आत्म-संतुष्टि (self-satisfaction) भी बोलते हैं?

वक्ता: जो शब्द आप इसके लिए इस्तेमाल करना चाहते हैं उसे संतुष्टि (satisfaction) मत बोलिये। उसे contentment बोलिये, क्योंकि satisfaction हमेशा किसी वस्तु से आता है, वो हमेशा निर्भर होता है किसी और पर। ये जो self है, ये भी बहार से आता है। सिर्फ contentment बोलिये। Contentment का अर्थ है कि जो है वो पूरा है, सदा से पूरा है, ये हँसता हुआ जीवन है। पर शब्दों का खेल कुछ ऐसा है कि जैसे ही आपके सामने ये शब्द आते हैं, ‘हँसता हुआ जीवन’, तो छवि कैसी उठती है? कि कोई आदमी है जो बड़ा हंसमुख किस्म का है, गलत समझ रहे हैं। हँसते हुए जीवन का कंठ से निकलते हुए ठहाकों से कोई लेना-देना नहीं है। उसमें कुछ ऐसा मिला ही नहीं है, जिसके कारण आप बहुत खुश हो जाएँ। वो बड़ा साधारण सा जीवन है। हंसोड़ों कि भीड़ में ऐसा आदमी जो वास्तव में हँसता हुआ जीवन बिता रहा है, अगर ऐसा आदमी आपको मिल जाये तो आप कहेंगे कि यह दुखी है।

श्रोता: हाँ, लोग उसकी आलोचना करते हैं।

वक्ता: बाकी सब तो हंस रहे हैं, यही अकेला है जो हंस नहीं रहा है। कोई अगर laughing club जैसी कोई चीज़ हो, तो वो अकेला होगा जो आपको दुखी लगेगा क्योंकि बाकी सब तो ज़ोर ज़ोर से हंस रहे हैं, वो नहीं हंस रहा होगा। पर वास्तव में सिर्फ वही हंस रहा है। वो ऐसा हंस रहा है कि उसकी पूरी ज़िन्दगी खिल खिला रही है। वो खिलखिलाहट लेकिन इन कानों से सुनी नहीं जाती, वो मुस्कुराहट इन आँखों से देखी नहीं जाती। वो कुछ और ही चीज़ है। उसके लिए आपको वैसा होना पड़ेगा। आप वैसे हैं, तो आपको दिख जाएगा। दिख जाएगा तो आपके पास करने को कुछ विशेष होगा नहीं, कि आप जाकर उस से गले मिल जाएँ। कोई कमी ही नहीं है, गले क्या मिलना? पर दिखेगा तभी जब आप वैसे हों, अन्यथा दिखेगा ही नहीं। उस परमसुख की, उस हँसते हुए जीवन की एक विशेषता ये है कि उसमें सुःख की चाहत ख़त्म हो जाती है। हमारी आमतौर पर सुःख की चाहत कभी ख़त्म नहीं होती। परमसुख वो है जहाँ सुःख की चाहत भी ख़त्म हो जाए। उसकी दौड़ ख़त्म हो जाती है, उसे और सुःख पाना ही नहीं है। कहता है, ‘भर गया, भरा ही हुआ था, जान लिया’। तो परमसुख क्या है? जहाँ सुःख चाहिए ही नहीं। धन्यवाद। थैंक्स बट नो थैंक्स, नहीं चाहिए।

-‘संवाद ‘ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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