दोस्तों के कुप्रभावों से कैसे बचें? और दोस्तों को भी कैसे बचाएँ? || आचार्य प्रशांत (2017)

Acharya Prashant

14 min
105 reads
दोस्तों के कुप्रभावों से कैसे बचें? और दोस्तों को भी कैसे बचाएँ? || आचार्य प्रशांत (2017)

प्रश्नकर्ता: इस संसार में मेरे निकट ज़्यादातर लोभ, दोष इत्यादि माया का प्रभाव रहता है और सारे दोस्त उसी में मग्न रहते हैं। मेरा उठना-बैठना, श्रवण-दर्शन सब उनके साथ ही होता है। फिर उनके साथ सारे पल रहते हुए भी उन विचारों से कैसे बचें? या इन सबसे सम्बन्ध ही समाप्त कर दें?

आचार्य प्रशांत: हम साधारणतया एक ही तरह का सम्बन्ध जानते हैं, जो दही की एक बूँद का दूध से होता है। संगति हुई नहीं कि कुछ फटा, कुछ नष्ट हुआ। फटे, ये ज़रूरी है क्या? और भी सम्बन्ध होते हैं, मोती का माला से, दीये का प्रकाश से और — इन सबसे आगे कहता हूँ, सन्तों की भाषा में — पारस का लोहे से।

एक सम्बन्ध वो होता है कि जहाँ आप दूध हैं और दही की संगति करी नहीं कि आप वही हो गये जिसकी संगति करी। आपका तत्व छिन गया आपसे, कुछ और ही हो बैठे। और एक सम्बन्ध होता है पारस का लोहे से कि दुनिया भर का लोहा हो और छोटा सा एक पारस पत्थर का टुकड़ा, तो बदलता पारस नहीं, बदलता लोहा है।

अन्तर देखिएगा।

दूध की मात्रा, दूध का परिमाण बड़ा। दही की बूँद छोटी। नष्ट कौन हुआ? वो जो बड़ा था। और होने को ये भी हो सकता है कि एक पारस पत्थर बदल दे धातुओं के पूरे एक भंडार को, बिना स्वयं बदले।

चोर का भी रात से एक सम्बन्ध होता है और दीये का भी रात से सम्बन्ध होता है। सम्बन्ध कैसा? चोर में अन्धेरा है, उसे अन्धेरा चाहिए। दीये में प्रकाश है, वो जहाँ है वहाँ अन्धेरा हो नहीं सकता। और मज़ेदार बात ये है कि दीया पाया वहीं जाता है जहाँ अन्धेरा होता है, सम्बन्ध पक्का है। चोली-दामन का साथ है। आपने कभी दीये को किसी पूर्व-प्रकाशित जगह पर पाया नहीं होगा। सम्बन्ध है। जहाँ अन्धेरा होता है, जैसे अन्धेरा ही खींच लाता हो दीये को, ऐसा प्रेम है दोनों में। जैसे अन्धेरा ही पुकारता हो दीये को। जोड़ी है।

लेकिन जहाँ दीया होता है वहाँ अन्धेरा होता नहीं। ऐसा सम्बन्ध क्यों नहीं हो सकता? आप पाये वहीं जाएँ जहाँ अन्धेरा है, लेकिन जहाँ आप पाये जाएँ वहाँ अन्धेरा हो नहीं। आप खिंचे चले जाएँ हर उस जगह को जहाँ अन्धेरा हो। लेकिन आप पहुँचे नहीं कि अन्धेरा गया। अब राम जाने कि ये दोस्ती है या गहरा प्रेम!

ग़ौर करिएगा, गहरे प्रेम की परिभाषा भी यही है। आप किसी के अन्धेरे से घबराकर या उकताकर उससे सम्बन्ध नहीं तोड़ देंगे। अन्धेरा जितना घना होगा, आप जान जाएँगे कि आपकी आवश्यकता उतनी ही ज़्यादा है वहाँ। आप ये नहीं कहेंगे कि मेरा और उसका तो कोई मिलान नहीं, हमारी जाति अलग है। वो अन्धेरा मैं उजाला, आप ये नहीं कहेंगे।

आप कहेंगे, 'बिलकुल ठीक बात, वो अन्धेरा मैं उजाला इसीलिए तो प्रीत है। मुझे जाना ही वहाँ है जहाँ अन्धेरा है। जहाँ उजाला है, जहाँ सूरज पहले से ही प्रस्तुत है, वहाँ मैं करूँगा क्या? मैं अपना जोड़ीदार नहीं खोजूँगा। मैं सजातीय संगति नहीं चाहता, मुझे सुविधा नहीं चाहिए। मुझे तो अपना धर्म निभाना है।

एक बिन्दु आता है समझ का जहाँ पर ‘धर्म’ और ‘प्रेम’ बिलकुल एक हो जाते हैं। करूँगा क्या वहाँ जाकर के जहाँ पहले से ही उजाला है, क्योंकि वहाँ मैं पहुँचा ही हुआ हूँ। उजाला उजाला एक होते हैं, उजाला उजाले के पास जाकर करेगा क्या? वो तो पहले ही मिले हुए हैं। कौन कहेगा कि सागर की एक लहर दूसरे से कुछ भिन्न है? लहर उठी, लहर गिरी; पानी, पानी में मिल गया। बात आ रही है समझ में?

मुझे होना ही वहाँ है जहाँ मेरा अभाव है। “धर्म संस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।” मुझे होना ही वहाँ है जहाँ मेरी ज़रूरत है। ये भी तो सम्बन्ध है न। इस सम्बन्ध को महत्व ही नहीं देंगे, इसकी चर्चा ही नहीं करेंगे। हम दो ही सम्बन्ध जानते हैं — या तो छोटा अनुभव करेंगे और हार जाएँगे या छोटा अनुभव करेंगे और भाग जाएँगे।

दोस्तों का समूह है सामने। या तो उनसे पराजित हो गये और उनकी शर्तें मान लीं। उन्हीं सा वेश धारण कर लिया, उन्हीं सा आचरण करने लगे। ग़ुलाम ही हो गये उनके। या फिर उनसे पराजित हुए ऐसे कि लड़े ही नहीं। ऐसी पराजय मन में आयी कि भगौड़े हो गये, पलायन कर लिया।

कोई कह गया है हमसे – “न दैन्यं न पलायनम्।” सम्बन्ध तीसरे प्रकार का भी होता है। दीनता और पलायन के अलावा एक तीसरी सम्भावना भी है। वो तीसरी सम्भावना यही है कि अन्धेरे के बीच में दीया बन जाओ। और होगा अन्धेरा कितना भी सघन, निगाह हमेशा दीये पर जानी है। अन्धेरा जितना सघन होगा, निगाह उतनी ज़्यादा दीये पर जानी है।

मन इस बात में मेहनत देखता है, घबरा जाता है। मन कहता है, 'अरे बाप रे! इतना विकट अन्धेरा और मुझसे कहा जा रहा है कि तुम बन जाओ उजाला। न बाबा न! ये दूर की कौड़ी है। हमारे बस की नहीं।’

ऐसा कुछ नहीं है। कोई मेहनत नहीं है, क्योंकि आपको कुछ करना नहीं है। ‘रोशनी’ स्वभाव है आपका। रोशनी कोई मुहावरा भर नहीं है। रोशनी का मतलब है कि मैं अभी कह रहा हूँ, बात रिकॉर्ड हो रही है। सवाल आपने पूछा है, आपकी ख़ातिर रिकॉर्ड हो रही है, क्योंकि आप समझ लोगे। इसी समझने को कहते हैं रोशनी, और कुछ नहीं है रोशनी।

अगर अभी आप मेरी बात समझ सकते हो तो आप वो सब कर भी सकते हो, वैसे जी भी सकते हो जैसी मैं अनुशंसा कर रहा हूँ। कोई आपसे, आपसे आगे का श्रम नहीं माँगा जा रहा। आपको कुछ ऐसा करने की सलाह नहीं दी जा रही जिसकी आपमें अर्हता ही नहीं है। बात बहुत सीधी है। संसार घर है और घर के भीतर कीचड़ दिखाई देता है तो इतना ही नहीं करते हो आप कि कीचड़ से पाँव बचाकर निकल लिये। मेरे बताने की ज़रूरत नहीं है, आप जानते हो। घर में कीचड़ हो तो अपना पाँव बचाना ही काफ़ी नहीं होता, सफ़ाई कर देते हैं न।

सम्बन्ध है न? जिस जगह पर कीचड़ आ गया है, उस जगह से आपका सम्बन्ध है न? अब मुझे आप बताइए, उस जगह से कीचड़ हटाकर आपने उस जगह से कुछ छीन लिया? उसे बेआबरू कर दिया? नंगा कर दिया? भ्रष्ट कर दिया? पीड़ित कर दिया, या आपने उसे उसका मूल स्वरूप, मौलिक निर्मलता वापस लौटा दी? आप कहिए कि आपने छीना है या लौटा दिया है?

आप घबराते इसीलिए हो क्योंकि आपको भी यही लगता है कि कीचड़ में कुछ मूल्य था, मैं किसी से छीन लूँगा तो उसके साथ कुछ अन्याय सा कर दिया। और आपको और ज़्यादा तब लगने लगता है जब जिससे आप छीन रहे हो, वो रोने लगे और आप पर आरोप लगाने लगे। आँसू हमें हिला जाते हैं। आरोप अगर आँसुओं के साथ आये तो जैसे सत्यापित हो जाता है। गीला भर हो जाने से कोई चीज़ साफ़ थोड़ी मानी जाएगी, गीला तो कीचड़ भी है!

आप डरिए नहीं। बात न मेहनत की है, न किसी का दिल तोड़ने की है। प्रश्न की शुरुआत में ही आपने कहा न ‘मेरे निकट के लोग।’ आप दोस्तों की बात कर रहे हैं, आप बन्धुओं की बात कर रहे हैं, आप शायद परिवारजनों की बात कर रहे हैं। दोस्त कह रहे हैं तो किसी हक़ से कह रहे होंगे न, हक़ के साथ दायित्व भी आता है।

ये तो न आप कर पाते हैं न हम कि बाज़ार जाएँ और किसी सब्जीवाले से कुछ ले लें, और फिर उसको दो रुपया भी न दें। कर पाते हैं ऐसा? हक़ के साथ उठाया है तो अब ज़िम्मेदारी भी है न कि दो पैसा उसके हाथ में रख दो। मैं कोई बहुत दूर की बात कर रहा हूँ? गूढ़ अध्यात्म है? समझ से बाहर है?

जिसको कह रहे हो कि निकट हो, उसे कुछ देना नहीं चाहोगे? उसे उसकी ज़िन्दगी लौटा दो। अच्छा, तुमने नहीं छीनी है, तो चलो लौटाने में मदद कर दो। किसी और ने छीनी होगी। तुम्हारा दायित्व है कि जिसने भी छीनी हो, तुम मदद कर दो कि वापस आ जाए।

दोस्त जो कुछ भी करते हैं तुम्हारे साथ, उसे उनकी चीत्कार समझना, प्रार्थना और पुकार समझना। इतनी स्पष्टता नहीं है उनमें, और अपनी सरलता को वे कहीं दबा आये हैं, पीछे छोड़ आये हैं कि साफ़-साफ़ तुमसे कह सकें कि हमें मदद चाहिए। वे सीधे मुँह नहीं कह पाएँगे। उनके पास एक ही तरीक़ा है, वो आड़ा-तिरछा व्यवहार करें।

तुमने लिखा है कि उन पर लोभ, दोष इत्यादि माया का प्रभाव रहता है। तुम्हें कैसा लगेगा जब तुम्हारे ऊपर तमाम तरह की माया का प्रभाव हो? और ये मत कहना कि तुम सहज रहोगे, तुम पर कोई असर ही नहीं पड़ेगा, क्योंकि अगर माया के साथ तुम सहज रहते होते तो अभी तुम मेरे सामने नहीं बैठे होते। मेरे सामने तुम इसी ख़ातिर बैठे हो न क्योंकि माया तुम्हें कष्ट देती है, असहज कर देती है, बेचैनी दे देती है? जो तुम हो मूलतः, वही तो तुम्हारे दोस्त हैं।

माया जब तुम्हें तड़प और पीड़ा ही देती है तो उन्हें भी यही देती होगी। पर लिखते ऐसे हो कि मेरे दोस्तों पर माया, लोभ, भय इत्यादि का प्रभाव रहता है, जैसे कि वो बड़े आनन्द में हों, जैसे कि ये प्रभाव उन्होंने चुना हो, जैसे कि इस प्रभाव में वे बड़ी मौज मना रहे हों। वो तड़प रहे हैं, ठीक वैसे जैसे कोई भी और तड़पता है जब उसे उसके होने से जुदा कर दिया जाए, उसकी मूल वृत्ति से भी जो मूल वृत्ति है, उसके ख़िलाफ़ कर दिया जाए।

तुम्हें जो कुछ ज़िन्दगी से ज़्यादा अज़ीज़ हो, वो तुमसे छीन लिया जाए तो कैसे तड़पोगे? वैसे ही तड़पता है हर कोई जब उससे सच छिन जाता है, सरलता छिन जाती है। ज़िन्दगी को सीधी और साफ़ देखने वाली दृष्टि छिन जाती है। अगर तुम जान रहे हो कि तुम्हारे दोस्तों पर माया का प्रभाव है और उनसे ये सारी चीज़ें छिन गयी हैं तो ईमानदारी से कहना, तुम्हारा धर्म क्या हुआ? अपने धर्म का पालन करो, शिकायत मत करो उनकी। उनको मानना कि रोगी हैं, और ऐसे रोगी हैं जो अपने रोग का विवरण भी नहीं दे सकते।

छोटे बच्चों को देखा है न, उन्हें कई बार पता भी नहीं होता कि वे क्यों परेशान हैं, बस रोये जाते हैं, रोये जाते हैं। और अगर तुतलाते हों और माँ पूछेगी कि क्या चाहिए, तो छोटा बच्चा बोलने लग जाएगा, 'लटारा-लटारा।' उसको इससे ज़्यादा नहीं समझ में आ रहा। उसकी चेतना इससे ज़्यादा विकसित ही नहीं हुई है। और माँ कहे, 'तू मुझे मुँह चिढ़ाता है?' माँ कहे, 'तू मेरा मज़ाक बनाता है? मैं पूछती हूँ कि तुझे समस्या क्या है और तू बोलता है 'लटारा-लटारा’?' और माँ कहे कि या तो मैं इस बच्चे की संगत छोड़ दूँ या जब ये 'लटारा-लटारा' करे तो मैं किसी दूसरे कमरे में चली जाऊँ, तो ऐसी माँ को क्या कहोगे तुम?

बच्चा कष्ट में है। वो जो भी व्यवहार कर रहा है, आड़ा-तिरछा, वो जो भी उपद्रव कर रहा है, उस उपद्रव का मर्म समझो। उसकी मदद करो। ये तर्क मत दे देना कि पहले अपनी तो मदद कर लें। तुम्हारी मदद कहीं अलग निर्जन, एकान्त द्वीप पर जाकर नहीं होने वाली है। तुम्हें कोई अनूठा-न्यारा-नीरव संसार नहीं मिलेगा जहाँ पर विशेषतया मात्र तुम्हारी मदद हो सके। हम सब एक ही कड़ी में पिरोये हुए बिन्दु हैं। तरेंगे तो सब तरेंगे, डूबेंगे तो सब डूबेंगे। नाव एक है।

तुम्हारी मदद और दूसरों की मदद कोई अलग-अलग चीज़ें नहीं हैं। जब दूसरों की मदद कर रहे होगे तो पाओगे तुम्हारे भीतर एक ऊर्जा उठने लगी है, एक साहस आने लगा है। तुम्हें अपने भीतर किसी नये के दर्शन होंगे। वो तुम्हें भी तब दर्शन देता है मात्र जब तुम कोई ऐसी चुनौती स्वीकार करते हो जो तुम्हारे बस की नहीं थी। जब तक तुम ऐसी ही चुनौतियाँ ले रहे हो जो तुम्हारे बल की सीमा के अन्दर की हैं तो तुम्हारा व्यक्तिगत बल ही काफ़ी है, फिर तुम्हें अपने से आगे की किसी की मदद उपलब्ध ही क्यों हो?

जब ऐसी चुनौती उठाते हो, करुणावश और श्रद्धावश — करुणा ऐसी की मदद करनी है, श्रद्धा ये कि मदद कर सकता हूँ, ताक़त है मुझमें इतनी, कोई आएगा मदद देने — तो करुणावश और श्रद्धावश जब कोई बहुत महत चुनौती स्वीकार करते हो, तो तुम पाते हो कि जो तुम दूसरों को देना चाहते हो वो साथ-ही-साथ सर्वप्रथम नहीं तो समानान्तर रूप से तुम्हें उपलब्ध होता जा रहा है। जो दूसरों को बताना चाहते हो, उसके दर्शन तुम्हें हो रहे हैं।

तुमने इस आशय से नहीं यात्रा शुरू करी थी कि दूसरों को बताऊँगा। दूसरों की मदद करने में उद्देश्य नहीं था तुम्हारा ये कि दूसरों की मदद करूँगा तो ख़ुद भी कुछ पा जाऊँगा। लेकिन ऐसा बस होने लगता है। जब दूसरों से अपनेआप को इतना अभिन्न जान लेते हो, कि है नहीं तुम्हारे पास फिर भी लुटाने लग जाते हो, तब वो तुम्हारे साथ हो जाता है जिसका नाम ‘अभिन्न’ है।

तो अभी वर्तमान में तुमने अपना जो भी मूल्य आँका हो, तुम्हें अपना जो भी आकार और बल लगता हो, उसको पैमाना मत बना लेना। क्योंकि बड़ी चुनौती वैसे भी तुम्हारी निजी ताक़त से तो जीती जाएगी नहीं।

बड़ी अगर चुनौती है तो कोई बड़ा ही आएगा तुम्हें चुनौती के पार ले जाने के लिए। उस बड़े को आमन्त्रित करने का तरीक़ा ही यही है, कि जैसे कोई छोटा बच्चा हो, वो पुकारता हो, माँ न आती हो। तो वो निकल पड़े घर से बाहर। बोले, 'इस बड़ी दुनिया में जा रहा हूँ बड़ी चुनौतियों का सामना करने।' और जैसे ही निकलेगा वो बड़ी चुनौतियों का सामना करने, वो पाएगा कि माँ अब आ गयी, वैसे छुपी बैठी थी। होगा कोई कारण। या हो सकता है न भी छुपी बैठी हो, बस लगता हो कि छुपी है।

पर जब बच्चा निकलता है चुनौती का सामना करने के लिए, जब उसके सामने कुछ होता है ऐसा जो उस पर भारी पड़ सकता है, जो उसकी शक्ति की सीमा से बाहर का है, तब वो पाता है कि और कहीं से मदद आ गयी। किसी और क्षण में माँ साथ देती-न-देती, ऐसे क्षण में ज़रूर देगी जब संकट आ गया है। तो संकट को आमन्त्रित करो। माँ को आमन्त्रित करने का यही तरीक़ा है। जब माँ छुप जाए, नज़र में न आये, पकड़ में न आये तो माँ को मत खोजो, झंझट को खोज लो, माँ अपनेआप आ जाएगी।

यहाँ होता ही यही है। लोग आते हैं, कहते हैं शान्ति चाहिए, प्रेम चाहिए, सौन्दर्य चाहिए। और मैं उन्हें झंझटों की पूरी सूची थमा देता हूँ। वो कहते हैं, 'हम क्या माँगने आये थे, आप क्या दे रहे हैं? हमें जिससे दूर जाना था, आप हमें उसी में धकेल रहे हैं।' वो अध्यात्म का उल्टा तर्क समझ ही नहीं पाते।

तुम जितना ख़तरे में जाओगे, उतना तुम्हें वो मिलता जाएगा जिसके सामने हर ख़तरा छोटा है और जो हर ख़तरे से तुम्हें बचा देता है। इसी को जानने वालों ने कहा है कि अपनेआप को मिटाते जाओ, किसी और को पाते जाओ।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories