दोस्त कौन? किसपर विश्वास करें?

Acharya Prashant

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दोस्त कौन? किसपर विश्वास करें?
तुम चाहते हो कि उनको ये जताए भी रहो कि मैं तुम्हारा हूँ और बीच-बीच में हर छः महीने में चार दिन के लिए किसी शिविर इत्यादि में जाकर शांति भी भोग लो। ये धोखा करने की बहुत लोग कोशिश करते हैं। वो सोचते हैं कि वो शैतान को धोखा दे रहे हैं। उन्हें पता नहीं होता है कि वो खुद को धोखा दे रहे हैं, आत्मा को धोखा दे रहे हैं। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मुझे अपने दोस्त अच्छे नहीं लगते लेकिन दोस्ती तोड़ने का मन भी नहीं करता है। क्या ये सही है?

आचार्य प्रशांत: तुम कुछ दिनों के लिए जान बचाना चाहते हो, पर पूरी तरह बचने का तुम्हारा इरादा भी नहीं है। जान बचाना चाहते हो इसका प्रमाण ये है कि तुम ये नहीं चाहते कि वो यहाँ आएँ। और पूरी तरह बचने का इरादा नहीं है इसका प्रमाण ये है कि तुम दोस्ती कायम रखोगे।

अगर दिख ही रहा है कि दोस्त ऐसे है कि यहाँ आएँगे तो तुम्हारा दिमाग भ्रष्ट ही करेंगे, तो इन तथाकथित दोस्तों से पिंड ही क्यों नहीं छुड़ा लेते?

प्रश्नकर्ता: साथ मे पढ़ते हैं सर?

आचार्य प्रशांत : तो साथ में पढ़ते हैं तो? साथ में पढ़ते हैं तो दोस्त कैसे हो गये। वो अपनी किताब से पढ़ते हैं या तुम्हारी किताब से?

प्रश्नकर्ता: अपनी किताब से।

आचार्य प्रशांत: तो वो अपनी किताब से पढ़ रहे हैं, ये अपनी किताब से पढ़ रहे हैं, ये अपनी किताब से पढ़ रहे हैं। इसमें मित्रता कहाँ से आ गयी?

तुम्हारा इरादा है — शैतान के साथ धोखा करने का, तुम अपने आप को इतना चतुर जानते हो कि तुम शैतान को धोखा दे लोगे। तुम चाहते हो कि उनको ये जताए भी रहो कि मैं तुम्हारा हूँ और बीच-बीच में हर छः महीने में चार दिन के लिए किसी शिविर इत्यादि में जाकर शांति भी भोग लो।

ये धोखा करने की बहुत लोग कोशिश करते हैं। वो सोचते हैं कि वो शैतान को धोखा दे रहे हैं। उन्हें पता नहीं होता है कि वो खुद को धोखा दे रहे हैं, आत्मा को धोखा दे रहे हैं।

बहुत लोग तो इन शिविरों में आते हैं घर में बिना बताए। उनको लगता है कि ये उनकी उपलब्धि है कि बच गये बताया नहीं, देखो बताते तो वो रोकते, हम रुके नहीं हम आ गये, ‘पंछी पीड़ा तोड़ के भागा।' उनको इसमें अपनी सफलता प्रतीत होती है कि घर पर बिना बताए यहाँ पहुँच गये। वो ये नहीं समझते हैं कि अगर घर पर यहाँ बिना बताए पहुँचे हैं तो अर्थ ये है कि घर वालों से डरते तो हो और अगर घर को बिना बताए यहाँ आये हो तो पक्का है कि यहाँ से वापस जाओगे उन्हीं लोगों के चंगुल में।

तुमने धोखा ही तो दिया है न उन्हें? छुपा हुआ। खुला विद्रोह तो नहीं किया। परमात्मा के साथ प्रच्छन्न सहभागिता नहीं की जाती, वहाँ चौड़ी छाती के साथ आते हैं, मुँह छुपाकर नहीं। क्योंकि जो मुँह छुपाकर आया है, वो वापस वहीं जाएगा; तभी तो मुँह छुपा रहा है। जिसने खुला विद्रोह किया होता, वो कहता — मैं खुलेआम जा रहा हूँ, खुलेआम वापस आऊँगा और वापस आकर के भी जिऊँगा वैसे ही जैसे वहाँ जी रहा था।

अभी तो तुम्हारा इरादा है कि तुम दोनों हाथों में रसगुल्ला रखो, चार दिन यहाँ पर आध्यात्मिक मौज मनाओ और फिर वापस जाकर यारों-के-यार हो जाओ।

अध्यात्म को तुमने कोने-कतरे में छुपकर करने वाला काम बना दिया है। जैसे — तुम्हारी ज़िन्दगी में और दस काम होंगे न जो एकदम मुँह छुपाकर नज़र बचाकर, किसी कोने में करते हो, वैसे ही जीवन के कोने में इसको रखा है।

एक-दो बार तो ऐसे भी लोग आये हैं जिन्होंने कहा है कि ये सब जो फोटो खिंच रही हैं, जैसे पीछे कुन्दन खींच रहा है। कहा — देखो मेरी जो भी खिंचे, उन्हें सोशल मीडिया पर मत डाल देना, बड़ी बदनामी होगी। लोग कहेंगे, ऐसी जगह पकड़ा गया।

दो वर्ष पहले की बात है — यूरोप से लोग आये थे, वो नदी में खेल रहे थे, बुजुर्ग थे। बुजुर्ग पुरुष, नदी में खेल रहे थे, धोखे से हो गया उनके साथ, अन्यथा खेल उनके जीवन से कब का विदा हो चुका है। पर शिविर का माहौल कुछ ऐसा कि यहाँ प्रफुल्लता कुछ ऐसी, उत्साह कुछ ऐसा कि बेचारे बहक गये और बहकर नदी में उतर गये और वहाँ खेलने लग गये, तो तस्वीरें खींच ली गयीं। और जब वो वापस पहुँचे यूरोप तो वो तस्वीरें सोशल मीडिया पर डाल दी गयी थीं। हमारे लिए सब प्रकट है, सब जाहिर है, जो हो रहा है भाई दुनिया देखे, जमाना देखे।

उनका वहाँ से पसीना चुआता, हाँफता हुआ संदेश आया — अरे! ये क्या गजब कर दिया? पूरे यूरोपियन यूनियन में बदनामी हो रही है हमारी। याद है कुन्दन? (आचार्य जी, हमने इतना अगम्भीर कृत्य कैसे कर दिया, हम नदी में नाच कैसे लिये, हम पानी में खेल कैसे लिये)।

एक सज्जन ने कहा कि एक दूसरे जनाब थे, वो नगर के मेयर थे। उनकी ऐसी ही कोई तस्वीर पकड़ी गयी खेलते हुए कहीं निर्जन स्थान पर, उन बेचारों को इस्तीफ़ा देना पड़ा। तुमको तो यहाँ चार दिन के लिए पर्दा करके आना है, कोई निहायती जलील काम करना है, असामाजिक कृत्य जो जग जाहिर नहीं होना चाहिए और फिर वापस जाकर के कहना है कि नहीं चार दिन तो मैं यूँ ही जरा बीमार था, इसलिए नज़र नहीं आया। ऐसे नहीं होता।

“परदा नहीं जब कोई खुदा से, बन्दों से परदा करना क्या, जब प्यार किया तो डरना क्या।”

कन्धे खुले और छाती चौड़ी रखो, दबके मत बैठा करो, उसके अलावा कोई दोस्त नहीं होता। जो उसकी राह में बाधा बने वो तुम्हारा दोस्त नहीं हो सकता। वो है दोस्त ऊपर और अंदर। ये कैसे दोस्त हैं जो सच्चाई की तरफ चलो तो बाधा बनते हैं।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, हमें अपने ऊपर भरोसा करना चाहिए न?

आचार्य प्रशांत: ये नहीं बोला (आचार्य जी मुस्कुराते हुए)।

प्रश्नकर्ता: नहीं, आपने नहीं बोला, मतलब मैं इसका अर्थ?

आचार्य प्रशांत: न, ये नहीं है। हमें बहुत भरोसा होता है अपने आप पर तभी तो सौ तरह के कष्ट मिलते हैं। अपने पर भरोसा टूटना चाहिए। जो भरोसा तुम कर सको, वो भरोसा नकली है। असली भरोसा वो होता है जो तुम्हारे करे बिना हो रहा है।

प्रश्नकर्ता: भगवान पर भरोसा?

आचार्य प्रशांत: न-न-न, भगवान पर तुम कर लेते हो फिर इसीलिए टूट भी जाता है। बात ज़रा सूक्ष्म है, गौर से समझिएगा? ये बात उतनी उथली नहीं कि अपने पर भरोसा, अपने पर विश्वास काम हो गया।

एक हथियारा होता है, उसे अपने पर बहुत विश्वास होता है, उसके बिना हत्या कर ही नहीं सकता था। दुनिया के जितने जघन्य कृत्य हैं वो अपने पर भरोसा किये बिना हो सकते हैं क्या? तो अपने पर भरोसा कर मत लेना, तुमने जितने भी आज तक अपने खिलाफ अपराध किये हैं वो खुद पर भरोसा ही कर-कर के किये हैं।

मुझे अपने पर पूरा भरोसा है। अपने पर भरोसा तोड़ो। बिलकुल तोड़ो। और देखो कि जब भी अपने पर भरोसा किया है — मुँह की खाई है। अहंकार को ये मानने में बड़ा कष्ट होगा। पूछोगे अपने पर नहीं तो किस पर भरोसा करें? इसका कोई जवाब नहीं है, इसका जवाब ये है कि जब तुम अपने पर भरोसा हटाते हो तो उसी वक्त ये समानान्तर घटना घट जाती है कि जिस पर तुम्हें भरोसा होना चाहिए उस पर हो भी जाता है।

एकमात्र वो जो भरोसे के काबिल है यदि उस पर भरोसा न हो तो तुम अपने ऊपर से भरोसा कैसे हटाओगे? तो मैं ये कहता ही नहीं कि उस पर भरोसा करो। मैं बस ये कहता हूँ — अपने पर से भरोसा हटाओ। अपने से भरोसा हटाया माने जिस पर भरोसा करना चाहिए था उस पर किया, नहीं तो अपने से हटता ही नहीं। तुमने अपने से हटा लिया यही इस बात का सबूत है कि जिस पर भरोसा होना चाहिए था उस पर भरोसा हो गया।

अपने पर भरोसा करना छोडो? जिसे तुम कहते हो ‘मैं’ वो बीमारी है, वो अहंकार है उस पर भरोसा नहीं करते। अपने पर भरोसा कर मत लेना। और फिर ये पूछना मत कि अपने पर न करें तो किस पर करें। क्योंकि जब पूछ रहे हो कि और किस पर करें तो तब भी तो तुम भरोसा अपने पर ही कर रहे हो, तुम क्या कह रहे हो? मुझे अपने पर इतना भरोसा है कि मैं चुनूँगा कि किस पर भरोसा करना है।

अपने पर ये भरोसा भी मत करना कि तुम चुन लोगे कि भरोसे के लायक कौन है। तुम इतने भरोसे के नहीं कि किसी के भरोसे रह सको।

अब फँस गये? ये जो सामान्य प्रचलित आध्यात्मिकता है, ये तो बड़ा सस्ता रास्ता दिखा देती है — कभी कह देगी अपने पर भरोसा करो। कभी कह देगी कि भगवान पर भरोसा करो। बस हो गया, बढ़िया ठीक। मीठी गोली चटा दी बीमार को, उसने चाटी और वो सो गया, थोड़ी देर के लिए राहत मिल गई।

तुम अपने पर भरोसा करो, चाहे तुम भगवान पर भरोसा करो। ले देकर तुम भरोसा अहंकार पर कर रहे हो। भगवान पर भी भरोसा करने के लिए तुम कुछ तो हो न? जो भगवान पर भरोसा कर रहा है। दूर हो न उससे, तभी तो उसपर भरोसा कर रहे हो — जैसे कि कोई कहे कि मुझे इस कैमरे पर भरोसा है, मुझे इन पर भरोसा है, मुझे उस पर भरोसा है, पहाड़ पर भरोसा है, ताड़ पर भरोसा है। ये सारी चीज़ें क्या हैं?, मुझसे दूर की हैं।

जो अदृश्य है, अचिंत्य है, जो वाणी के पार का है उस पर भरोसा करने की बात तुमने सोच कैसे ली और कह कैसे दी?

'लाओत्जू' से पूछोगे तो वो अपनी शैली में कहेंगे कि “वो भरोसा जिसका नाम ले लिया, उसका भरोसा मत करना। वो प्रेम जिसकी बात छिड़ गयी, धोखा है। वो शांति जिसका खयाल आ गया, अशांति है। वो परमात्मा जिसको तुम जानते हो, झूठा है।”

'लाओत्जू' का अपना अंदाज, ऐसे ही बोलते हैं।

“द वे व्हिच कैन बी टॉक्ड ऑफ़ इज़ नॉट द ट्रू वे।” (वो रास्ता जिसके बारे में बात की जा सके, वो सच्चा रास्ता नहीं है।)

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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