वक्ता : हममें से कितने लोग हैं जिनके लिए ये सवाल कभी ना कभी महत्वपूर्ण हो जाता है, “*कैसे दूसरे को प्रभावित कर दूँ*?”
{सभी हाथ उठाते हैं}
वक्ता : इसका मतलब यह है कि यह सवाल हममें से सभी का है। तो हम इसे सुनेंगे भी ऐसे जैसे ये सवाल हमने पूछा है। यह सिर्फ एक का सवाल नहीं है। चलिए देखते हैं।
मुझे दूसरों को प्रभावित करना ही क्यों है? किसी को भी औरों को प्रभावित करना क्यों है? आप दूसरों को प्रभावित क्यों करना चाहते हैं? क्या वजह होती है जिसकी वजह से हम दूसरों को प्रभावित करना चाहते हैं? कुछ कारण बताइए|
एक छात्र :अपनी अच्छी छवि बनाने के लिए।
दूसरा छात्र : सम्मान पाने के लिए।
वक्ता : हमारे पास दो सबसे प्रसिद्ध कारण हैं अब। पहला,अपनी अच्छी छवि बनाने के लिए और दूसरा, सम्मान पाने के लिए। ठीक!
अब, मैं ये क्यों चाहता हूँ कि दूसरे के मन में मेरी एक अनुकूल छवि बने? इस बात से यह कहकर पल्ला मत झाड़ लीजियेगा कि यह तो होता ही है। अगर यह हमारे साथ इतना अक्सर होता ही है तो हमें इसे जांचना होगा। क्योंकि फिर इन्ही बातों से ज़िन्दगी ऊपर-नीचे हो जाती है। यही वो चीज़ें हैं जो हमारी दैनिक ज़िन्दगी बनाती हैं। ऐसा क्यों है कि मैं इतना उत्सुक और चिंतित हूँ एक छवि बनाने के लिए?
इसको समझते हैं। अगर मैं बहुत उत्सुक हूँ कि मेरी दूसरों के सामने एक विशेष तरह कि छवि होनी चाहिए तो उसके सामने कैसा व्यवहार करूँगा?
एक छात्र : सकारात्मक करूँगा।
वक्ता : सकारात्मक करूँगा या वैसा करूँगा जैसा वो चाहता है?
छात्र : जैसा वो चाहता है।
वक्ता : अब क्या मैं अपनेआप को ईमानदारी से व्यक्त कर पाउँगा?
{कई एक साथ}: नहीं सर।
वक्ता : अब अगर मेरे दिमाग में विचार आ गया है कि मुझे दूसरे को प्लीज़ करना है, तो क्या मेरे पास स्वेच्छा की आज़ादी है?
(सभी एक स्वर में}: नहीं सर।
वक्ता : अब मेरा ध्यान इस पर नहीं रहेगा कि मुझे कैसा होना है, मेरी क्या समझ है, मुझे क्या कहना चाहिए। मेरी कार्रवाई अब इस डर और चिंता से होगी कि सामने वाला मेरे विषय में क्या सोच रहा है।
ठीक?
{सभी, हामी में सर हिलाते हुए}
वक्ता : उसके इशारों पर चलूँगा मैं। अगर सामने वाला एक तरीके की बात में यकीन करता है तो उसके प्रतिकूल बात बोलने में मैं डरूँगा क्योंकि मुझे अपनी छवि ख़राब होने का डर रहेगा। तो जो पहली चीज़ हुई; जिस पल मैंने एक ऐसी चिंता अपने मन में बना ली कि मुझे दूसरे के सामने एक अनुकूल छवि बनानी है, उसी पल मैंने अपनी आज़ादी खो दी। जैसे ही मेरे मन में इच्छा उठती है कि मैं सामने वाले के मन में एक ख़ास तरीके की छवि, मूर्ति स्थापित करूँ, ठीक उसी समय मैं अपनी स्वतंत्रता खो देता हूँ क्योंकि अब मैं वो नहीं हो सकता जो मैं हूँ। अब मुझे वो होना ही पड़ेगा जो सामने वाला चाहता है कि मैं होऊँ। यानि, वैसी जैसी मेरी छवि सामने वाले के मन में है। वह किसी भी कारण से बनी हो, बनी अतीत में ही है, बनी पहले ही है। याद रखियेगा वह छवि झूठी है क्योंकि सत्य मेरा वो है जो मैं अभी हूँ। यह छवि आ रही है अतीत से, कहीं और से। और हर छवि आधी-अधूरी होती है। मैं क्या हूँ वह सिर्फ मैं जान सकता हूँ। सामने वाला मेरे सिर्फ एक अंश से परिचित होता है। मैं पूरा क्या हूँ यह सिर्फ मैं जान सकता हूँ क्योंकि सिर्फ मैं अपने साथ सदा रहा हूँ। कोई और मेरे साथ सदा नहीं रहा है। सिर्फ मैं हूँ जो सोते-जागते अपने साथ हूँ। तो मैं क्या हूँ, यह सिर्फ और सिर्फ मैं जान सकता हूँ। सामने वाले के मन में मेरी जो भी छवि होगी वो आंशिक होगी, विकृत होगी, खंडित होगी, आधी-अधूरी होगी। और इतना ही नहीं होगा, वह पुरानी होगी। जो हूँ, वह मैं अभी हूँ और उसके मन में जो मेरी छवि है वह अतीत से आ रही है। अब एक आधी-अधूरी, खंडित, पुरानी छवि को कायम रखने के लिए मैं क्या सौदा करता हूँ? मैं कहता हूँ कि मैं अपनी प्रमाणिकता, अपनी सच्चाई को छुपा लूँगा और तुम्हारे सामने एक नकली शक्ल लेकर खड़ा हो जाऊँगा। ठीक? हम सब यही करते हैं ना?
{सभी हामी में सर हिलाते हैं}
वक्ता : और अक्सर हम ये कहते हैं कि हम यह इसलिए करते हैं जिससे दूसरे को बुरा ना लगे। हम जिन भी कारणों से ये करते हैं उन सभी कारणों के मूल में दो ही तत्व हैं। या तो डर या लालच।
या तो हमें ये डर होता है कि सामने वाले के मन में छवि बिगड़ी तो मेरा नुक्सान हो जायेगा या लालच होती है कि इसको प्रभावित करके रखेंगे तो आगे हमें कोई फायेदा हो जायेगा। इन दोनों वजह से मैं अपनी स्वतंत्रता खोने को पूरी तरह से तैयार रहता हूँ। मन मेरा मुझे यही बोलता है कि तुम बड़े होशियार हो, तुम बड़े चालाक हो, तुमने एक झूठा नकाब पहनकर सामने वाले को बेवकूफ बना दिया। मन यही बताता है कि हमने बड़ी होशियारी दिखाई। लेकिन असलियत यह होती है कि उस क्षण में हम जब भी किसी को प्रभावित करने की कोशिश कर रहे होते हैं, हम उसके गुलाम बन रहे होते हैं। क्योंकि अब हम वह नहीं हैं जो हम ‘हैं’, अब हम वह हैं जो वो चाहता है कि हम रहें। गुलामी और किसका नाम है? इस ही को तो गुलामी कहते हैं ना? आप में से कितने लोग उत्सुक हैं कि एक गुलामी का जीवन बितायें?
{सभी ना में सर हिलाते हैं}
वक्ता : यह ख्याल कि मैं किसी को प्रभावित करूँ, ये बात कि मेरा जीवन ऐसा रहे कि जिसमें सबके मन में मेरी एक अच्छी छवि रहे; यह ख्याल अपने मन से बिलकुल-बिलकुल ही निकाल दो। पर तुम तब तक ये नहीं निकाल पाओगे जब तक तुम देख ना लो कि दूसरों को प्रभावित करने की चेष्ठा में तुमने क्या-क्या खो दिया है। जैसे ही तुम्हें यह दिखाई पड़ेगा कि मैं सोच रहा हूँ कि मैं उसको प्रभावित कर रहा हूँ, जबकि सच यह है कि मैं उससे प्रभावित हो गया हूँ। तुम ध्यान से देखो ना। मैं सोच रहा हूँ कि मैं तुम्हे प्रभावित करने के लिए एक नकली चेहरा दिखा रहा हूँ, लेकिन असलियत देखो क्या है कि तुम मुझसे प्रभावित हो गए हो और अपनी सच्चाई छुपा रहे हो।
इसी बात को जब आप समझदारी से, विवेकपूर्ण तरीके से देख लेते हैं, ध्यान सेकि “*यार,* *ये तो कोई बात नहीं हुई। एक नकली ज़िन्दगी जीने से क्या फायदा ?* *यही जीवन मिला है*, उसे गुलामी में गुज़ारने से क्या फायदा ?”.
जब ये बात आपको साफ़-साफ़ दिखाई दे जाती है कि प्रभावित करने का ये सौदा तो बहुत महँगा पड़ रहा है, तब आपके मन में कोई इच्छा नहीं रहेगी किसी को प्रभावित करने की।
इसके अलावा एक बात और भी है। देखो, दो ऐसे लोग जो एक दूसरे को लगातार प्रभावित करना चाह रहे हों, तुम्हे क्या लगता है, उनके बीच में कैसा सम्बन्ध होगा?
{कई एक साथ}: झूठा सम्बन्ध।
वक्ता : उनके बीच में क्या एक असली मित्रता, एक असली सम्बन्ध, प्रेम हो सकता है?
सभी : कभी नहीं।
वक्ता : नहीं हो सकता ना? तो अगर आपने ऐसे ही सम्बन्ध बना रखे हैं जहाँ पर आपको मुखौटे पहन कर रहना पड़ता है, जहाँ पर आपको छवियों के देश में रहना पड़ता है; ‘*असली नहीं*, *मेरा असली चहरा मत देखो’*। अगर आपने ऐसे सम्बन्ध बना रखे हैं तो इसका मतलब है कि जीवन बहुत रूखा-सूखा बीत रहा है। क्योंकि जिनके सम्बन्ध असली होते हैं, जिनकी मित्रता प्रेमपूर्ण होती है, उसमें कुछ जान होती है; उनको झूठ नहीं बोलना पड़ता। उनको छवि नहीं बनानी पड़ती। तो किसी के सामने अपनी एक छवि बनाना वैसे भी उसके साथ एक अन्याय ही है। क्योंकि जैसे ही तुमने छवि बनाने की कोशिश की वैसे ही तुमने रिश्ते में, उस सम्बन्ध में(चाहे वह किसी के साथ भी हो) मिलावट कर दी। उसे नकली बना दिया। और यह काम हम दिन-रात करते हैं। शायद ही कोई ऐसा हो हमारे जीवन में जिसके साथ हम असली हो पाते हों। हम अपने साथ ही असली नहीं हो पाते। हम अपनेआप को ही गौर से देखने में इतना डरते हैं। हम कैसे अपनेआप को किसी और के सामने प्रकट कर दें, खोल दें। बड़ा मुश्किल लगता है।
याद रखना प्रभावित करने का मतलब है डरा हुआ होना । अगर मैं डरा नहीं हूँ तो मैं प्रभावित करने की कोशिश नहीं करूँगा। मेरे लिए इतना ही काफी होना चाहिए कि मैंने अपनेआप को क्या जाना है? मेरी छवि मेरी अपनी आँख में होनी चाहिए। अपनेआप को देखने के लिए मेरी आँखें पर्याप्त होनी चाहिए। मुझे ये आवश्यकता ही नहीं है कि मैं अपनेआप को तुम्हरी नज़रों से देखूँ। अगर मुझे ये करना पड़ रहा है तो इसका मतलब है कि मैं अँधा हूँ। और अंधेपन के जीवन में कुछ ख़ास रखा नहीं है। जीवन में आप कुछ नहीं कर पायेंगे, अगर आप यह सोचते रह गए कि *मैं सम्मान कैसे पा लूँ; मैं दूसरों की आँखों में साफ़-सुथरा कैसे बना रहूँ*। कुछ हो नहीं पायेगा। आप इतिहास पर ही चले जाइये तो जिन भी लोगों ने जीवन को जाना है; जो मानवता के सितारें हैं, उन्होंने कभी अपनी छवि की परवाह नहीं करी। वो प्रभावित करने के लिए नहीं जिये। इसलिए उन्हें अक्सर गालियाँ भी बहुत मिलीं। चाहे साइंस का क्षेत्र हो, चाहे धर्म का, चाहे एक्सप्लोरेशन का, साहित्य का। कोई भी क्षेत्र आप उठा लीजिये, जिन भी लोगों ने वास्तव में कुछ पाया है वो कभी इस चिंता को लेकर नहीं चल रहे थे, इस विचार को लेकर नहीं चल रहे थे कि सब मुझसे राज़ी-ख़ुशी रहे। बहुत दुश्मन बने उनके। जीज़स को सूली पर चढ़ा दिया गया|गैलिलियो ने जब जाना कि पृथ्वी गोल है, तब उसे भी प्रताड़ित किया गया|और इतिहास भरा हुआ है ऐसे सैंकड़ों उदाहरणों से| अभी ये तुम्हारी अवस्था नहीं है कि तुम ये सवाल अपने मन में आने दो कि दूसरों को प्रभावित कैसे किया जाये| अपनेआप को जानो| तुम्हारा व्यहवार, तुम्हारी अपनी समझ से निकले , तुम्हारे डर से नहीं | खड़े रहो, प्रामाणिक हो, सच्चे रहो| इसका मतलब यह नहीं कि सामने वाले से लड़ना है| मैंने बिलकुल उल्टी बात कही है| मैंने कहा है कि अगर एक प्रेमपूर्ण जीवन बिताना है तो ये धोखाधड़ी बंद करनी पड़ेगी| बात कुछ-कुछ समझ में आ रही है?
श्रोता : यस सर|
वक्ता : ये जो प्रभावित करने की ज़रुरत है, ये हमारे मन में बहुत बचपन से डाल दी जाती है। एक अपनी छवि स्थापित करो। बहुत अच्छा लगता है जब हमें कोई और बोल देता है कि तुम बड़े अच्छे हो। हमें सिखाया ही यह गया है कि तुम सफल तब होगे जब कोई अन्य आ करके तुम्हें प्रमाणपत्र दे कि तुम बेहतरीन हो|तुमने ये पाया, तुम्हारे इतने मार्क्स आये या कोई भी और बात। इसमें हमारी गलती बहुत कम है। हमारी परवरिश ही ऐसी हुई है। हमारी शिक्षा ही ऐसी रही है। हमें लगातार ही यही बताया गया है कि अपनेआप को दूसरों की नज़रों से देखो। दूसरे अगर बोल देंगे कि तुम भले हो तो तुम भले, दूसरे अगर बोल देंगे कि तुम बुरे तो तुम बुरे। अपनी आँखों से खुद को देखना क्या होता है ये हमें कभी सिखाया नहीं गया। नतीजा? हमनें अपनी आँखें करीब-करीब खो ही दी हैं। आपके शरीर में जितनी इन्द्रियाँ हैं, अगर आप किसी का भी बहुत दिन तक इस्तेमाल न करो तो उसे लकवा मार जाता है। आप तीन साल तक ये उँगलियाँ मत चलाइये, हाथ सीधा रखिये, तीन साल बाद आप कोशिश करेंगे भी चलाने की तो पायेंगे कि अब नहीं हो रहा। खत्म हो गयी ताकत करीब-करीब। बड़ी मुश्किल होगी। इसी तरीके से ये जो आपकी शक्ति है कि आप अपने आपको अपनी आँखों से देख सकें, अपनी समझ से देख सकें। क्योंकि आपने इसका इस्तेमाल ही नहीं किया बचपन से तो ये करीब-करीब खत्म होने की कगार पर है। कुछ साल और नहीं इस्तेमाल करोगे तो पूरी तरह खत्म हो जाएगी और फिर तुम पक्के गुलाम बन जाओगे। फिर तुम्हारे पास अपनी आँखें शेष ही नहीं रहेंगी। फिर तुम पूरी तरीके से सामाजिक जंतु ही बन जाओगे। समाज तुमसे कहेगा की तुम बड़े सम्मानीय हो तो तुम मान लोगे कि मैं बहुत अच्छा हूँ। समाज कहेगा कि आपकी यह बात ठीक नहीं है, तो तुम मान लोगे कि ये बात ठीक नहीं है। तुम पूरे तरीके से बंधन बन जाओगे।
अभी समय है। अभी सब पहले साल में हो, 18 – 19 साल तुम्हरी उम्र होगी। अभी समय है। अभी झेल सकते हो। प्रभावित करने की इस दौड़ से बाहर निकलो। ये जो प्रभावित करने वाली बात है, छवि वाली बात है, यह इतनी गहराई में घुस चुकी है हमारे भीतर कि हममें हमारा कुछ शेष ही नहीं रहा है। हम पूरे तरीके से बाहरी प्रभावों से भर चुके हैं।
उदाहरण देता हूँ: तुम यहाँ पर बैठकर जैसा व्यहवार अभी कर रहे हो, अकेले में नहीं करोगे। अपने कमरे में जब अकेले होगे तब नहीं करोगे। अभी तुम जो भी कर रहे हो वो तुम्हारा नहीं है, वह प्रभावित है बाकी लोगों की उपस्थिति से। क्योंकि यहाँ पर बाकी लोग हैं इसलिए तुम्हारा होना प्रभावित हो रहा है क्योंकि तुम अपने आपमें कुछ नहीं हो। तुम ठीक वही हो जाते हो जैसा वातावरण तुम्हें कर देना चाहता है। तुम वातावरण के गुलाम हो। तुम्हे डांट दिया जाए, तुम शांत हो जाते हो। तुम्हारे बगल में कोई बैठा है, जिसे काना-फूसी करनी है, तो तुम भी चालू हो जाते हो। स्वंयं क्या करना है इसकी कोई निजता तुम्हारे पास नहीं है। ये बीमारी पहले ही बहुत दूर तक जा चुकी है। बस आखिरी स्टेज पर है। अभी रोक सकते हो तो रोक लो। वरना इसके बाद पाओगे कि बहुत मुश्किल हो गयी है। तुम देखते नहीं लोग कैसा जीवन बिता रहे हैं? सड़क पर जो आम आदमी चलता रहता है उसे देखो। उसके भीतर अपना खुद का कुछ भी शेष नहीं बचा है। वो पूरे तरीके से बाहरी प्रभावों का गुलाम हो चुका है। वो ठीक वही करता है जो दूसरों को पसंद है। उसके जीवन में प्रेम भी उसका अपना नहीं है। वो शादी-ब्याह भी ठीक वैसे ही करता है जैसे लोगों ने कहा था| “*सम्मान बना रहे*“। वहाँ पर भी उसके जीवन में प्रेम नहीं है। इज्ज़त बनी रहे इस हिसाब से कुछ करो। वो नौकरी, व्यवसाय, काम भी ऐसा ही चुनता है जिसमें उसे दूसरे इज्ज़त दें। उसे इस बात से कोई प्रयोजन नहीं रह जाता कि दिन के दस घंटे काम करते हुए वो खुद कैसा महसूस करता है। ना। वो इसी बात पर चलने लगेगा कि मैं सरकारी नौकरी ले लूँ क्योंकि सरकारी नौकरी जो लेते हैं उनको इज्ज़त बहुत मिलती है। और तुममें से कई लोग अभी से उस जाल में फंस चुके होगे। तुमने ये कभी नहीं सोचा होगा कि काम जीवन होता है। अभी से लेकर 60 – 70 साल की उम्र तक तुम दिन के 10 – 12 घंटे काम करते हुए गुजारोगे। काम का निर्धारण यह देखकर नहीं किया जा सकता कि माँ-बाप या समाज इससे मुझे कितनी इज्ज़त देगा , मेरी कैसी छवि बनेगी। काम करने का निर्धारण सिर्फ इससे किया जा सकता है कि मैं उन पलों को जियूँगा कैसे| रोज़ दिन के 10 – 12 घंटे मुझे जीने हैं इस काम के साथ। मैं कैसे जियूँगा ?
पर ये विचार ही हमारे दिमाग से साफ़ हो चुका है क्योंकि हमारा दिमाग सिर्फ प्रभावित करने की होड़ में लगा हुआ है। हम पूरी तरीके से भेड़ बन चुके हैं। उनकी ज़िन्दगी दूसरों के प्रभाव में चलती रहती है जिनका अपना कोई विवेक नहीं होता। और हम सोच रहे हैं कि हम दूसरों को प्रभावित कर रहे हैं। जैसे कि भेड़ों का एक झुण्ड एक तरफ को भागा चला जा रहा हो और हर भेड़ यह सोच रही हो कि बाकी सब भेड़ उधर इसलिए चल रही हैं क्योंकि मैं उधर को चल रही हूँ। जैसे मैंने सबको प्रभावित कर रखा है। वो इतनी बेहोश है कि उसे खबर भी नहीं कि उसने किसी को प्रभावित नहीं कर रखा है, तुम सिर्फ गुलाम हो दूसरों के। इस बेहोशी में ज़िन्दगी बिताना बहुत कष्ट को आमंत्रण देना है। तुम देखो ना ठीक अभी। तुम कॉलेज में आये हो। तुममें से बहुत कम लोग होंगे(और बात सिर्फ तुम्हारी नहीं है, हर कॉलेज की यही हालत है) जो अपनी समझ से, अपने विवेक से और अपने आनंद से इंजीनियरिंग कर रहे हैं कि मुझे बहुत मज़ा आता है। काम्प्लेक्स नंबर सॉल्व करने में, इलेक्ट्रोमैग्नेटिक थ्योरी पढ़के मुझे बहुत मज़ा आता है। तुममें से बहुत कम लोग होंगे। शायद ही ऐसा कोई हो जो इस आनंद के कारण यहाँ हो। तुममें से ज़्यादातर लोग यहाँ इसलिए हो क्योंकि समाज में इंजिनियर की छवि अच्छी है और तुम दूसरों से प्रभावित हो गए, दूसरों ने कहा कि *चले जाओ इंजीनियरिंग कर लेना। अच्छा है*।
दोनों ही कारण बाहरी ही हैं। दूसरे तुम्हे सीधे कहें “*इंजीनियरिंग कर लो बेटा। बहुत स्कोप है आगे*“, तो यह भी एक बाहरी कारण है और तुम इंजिनियर इसलिए बनो कि इंजिनियर बनकर तुमको इज्ज़त मिल जाएगी, किसी की नज़र में, तो यह भी बाहरी कारण है। जो एकमात्र उचित कारण हो सकता है इंजीनियरिंग करने का, वह हमारी ज़िन्दगी से गायब है। तो इसलिए कह रहा हूँ कि बीमारी पहले ही अपने आखिरी चरण में पहुँच चुकी है। उसे यहीं पर रोक दो। प्रभावित करने की ये होड़ तुम्हें कहीं का नहीं छोड़ेगी। पूरा का पूरा गुलाम बना देगी। अपनी शर्तों पर ज़िन्दगी नहीं जी पाओगे। और ज़िन्दगी एक ही है।
बात आ रही है समझ में?
सभी : जी सर|
वक्ता : अगर कोई वास्तव में, असली आदमी है तो उसको दिखाओ अपना असली चहरा। जैसे तुम ‘हो’। और एक विश्वास रखो कि अब जो होता हो, हो। अपना एक नकली चहरा दिखा कर, एक नकली सम्बन्ध बना कर, मिल भी क्या जाना है? बने तो असली बने, मैं भी असली, तुम भी असली। और फिर उससे बनेगा एक असली सम्बन्ध। जिन संबंधों की आधारशिला ही झूठ पर हो वो किसी को क्या दे देंगे?
– ‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।
संवाद देखें:- https://www.youtube.com/watch?v=RFEX11ZBiR0