दूसरे को अपना बोझ मत बनने दो || आचार्य प्रशांत (2014)

Acharya Prashant

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दूसरे को अपना बोझ मत बनने दो || आचार्य प्रशांत (2014)

प्रश्नकर्ता: क्या मेरा हल्का होना सामने वाले को पता चलेगा?

आचार्य प्रशांत: यही बोझ है।

प्र: सर, मैं इसलिए पूछ रही हूँ…

आचार्य: हम्म हम्म हम्म… मत पूछो! यही बोझ है। सामने वाला ही तो बोझ है न! ये विचार भी कि – “मेरे हलके होने से क्या सामने वाले को पता चलेगा” – इस क्षण तुम्हें ये विचार आ कैसे सकता है?

प्र: क्योंकि सर, अगर उसको मेरा…

आचार्य: अभी भी अगर दूसरे का विचार आ रहा है कि उसे दिखेगा कि नहीं दिखेगा, तो यही तो बोझ है। इस बात को समझो। तुम्हारे सवाल का मैं कोई जवाब नहीं दे सकता, सिर्फ़ यही जवाब दे सकता हूँ कि ये सवाल ही तो बोझ है। तुम्हारे सवाल में ‘दूसरा’, अपने पूरे वज़न के साथ समाया हुआ है – यही तो बोझ है। तुम्हें दिख नहीं रहा है?

तुम्हारा सवाल क्या है? कि मेरे मन पर कोई बैठा हुआ है। कोई भी और उत्तर तुम्हारी मदद नहीं कर सकता, एक ही उत्तर दे सकता हूँ कि इस सवाल को ही मत पूछो। जब तक ये सवाल बाकि है कि – “मेरे हल्का होने से दूसरे पर क्या असर पड़ेगा?” तब तक तुम हुए कहाँ हल्के? तुम काल्पनिक सवाल पूछ रहे हो, हुए नहीं न?

जिस क्षण वास्तव में हल्के होओगे, उस क्षण ये प्रश्न शेष नहीं रहेगा कि – “मेरे हल्का होने से इस पर, और उस पर और उस पर क्या प्रभाव पड़ेगा?” तुम इस प्रश्न से ही मुक्त हो जाओगे, और इसी का नाम है – ‘हल्का होना’। तुम्हें इस प्रश्न का उत्तर नहीं चाहिए, तुम्हें इस प्रश्न से मुक्ति चाहिए। बात को पकड़ो, अच्छे से। तुम्हें इस प्रश्न का उत्तर नहीं चाहिए, तुम्हें इस प्रश्न से ही मुक्ति चाहिए। यही सवाल तुम्हारा बोझ है – “दूसरे क्या सोचेंगे? दूसरे पर क्या असर पड़ेगा, दूसरा क्या बोलेगा?”

देखो! एक बात अच्छे से समझो। कोई और तरीका नहीं है। ये पूरा जो सवालों का जंगल है न, हममें से कोई नहीं है जो इसे साफ़ कर सके। सिर्फ़ एक बोध है जो इसको बिलकुल हटा देगा, वो ये कि – दूसरे है नहीं। सब एक आत्मा का प्रकाश हैं।

जब तक तुम इस बोध में जीना नहीं शुरू करते, जब तक ‘दूसरे’ हैं, जब तक संसार अपने पूरे वैविध्य के साथ तुम्हारे सामने खड़ा है, तब तक ये सवाल बाकी ही रहेंगे और बढ़ते ही जाएँगे। कहा न कि पूरा जंगल है। इस जंगल के तुम कितने पत्ते, डाल, टहनियाँ काटोगी? इस पूरे जंगल के मूल में जाओ। ‘दूसरे’ हैं नहीं, अपने मन पर ध्यान दो, उसको आत्मा में स्थापित रखो। जब तक ‘दूसरे’ हैं, तब तक इस तरह के सवाल बचे रहेंगे, और परेशान रहोगी।

जब तक इस भाव में स्थापित नहीं हो जाती कि चारों दिशा जो है, सो एक स्रोत का प्रकाश है, दिखभर अलग-अलग रहा है, तब तक बिमारी बनी ही रहेगी।

प्र: सर, क्या एक तरह का मेमोरी लॉस (विस्मरण) मदद कर सकता है?

आचार्य: हाँ! बिलकुल कर सकता है, जो अपने कहा, “मेमोरी लॉस * ”, अष्टावक्र गीता में बिलकुल यही कहा है – “ज्ञान का विस्मरण ही मुक्ति है।" 'विस्मरण'- * मेमोरी लॉस ! ज्ञान का विस्मरण ही मुक्ति है।

जो कुछ तुमने याद कर रखा है, उसको भूलना ही तो मुक्ति है। क्या याद कर रखा है तुमने? देखो क्या-क्या याद कर रखा है, भूल जाओ उसको – यही मुक्ति है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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