प्रश्नकर्ता: आचार्य जी! यदि हम किसी पर निर्भर हैं तो क्या उसकी मदद करना गलत है?
आचार्य प्रशांत: कोई यदि आप पर निर्भर है तो आप गौर से देखिए— कहीं आप भी तो उस पर निर्भर नहीं हैं! आप कह रहे हैं कि कोई आप पर निर्भर है और आप उसे सपोर्ट कर रहे हो, आप उसकी मदद कर रहे हो, और आप कह रहे हो— ये दोनों बातें एक साथ चलती हैं, जब कोई आप पर निर्भर होता है तभी तो आप उसकी मदद कर रहे होते हो। और आपने कहा कि चूँकि मैं कह रहा हूँ कि निर्भरता ठीक बात नहीं है, तो फिर मदद करना भी ठीक बात कैसे हो सकती है क्योंकि आपने तो निर्भरता और मदद को एक साथ ही देखा है हमेशा।
आप पाते हैं, उदाहरण के लिए कि आपका बच्चा आप पर निर्भर है और आप उसकी मदद किये जाते हैं। आपने इन दोनों को जब भी पाया है साथ पाया है। तो इसीलिए थोड़ा आपको सन्देह हो रहा है कि मैंने कहा कि— मदद करो बिना निर्भरता के— वो हो कैसे सकता है? बिलकुल हो सकता है। ऐसे हो सकता है कि जब कोई आप पर निर्भर होता है और आप उसकी मदद करते हैं, तो आप भी उस पर बहुत निर्भर हो जाते हैं।
अभी मेरी चर्चा हो रही थी एक सज्जन से। उसमें बड़ी एक बात निकाल कर आयी। उन्होंने कहा कि मैं हमेशा से ही बहुत ज़िम्मेदार रहा हूँ, अब पचास के ऊपर उम्र हो रही है मेरी, और जो मेरा पूरा विस्तृत परिवार है– एक्सटेंडेड फैमिली ; मैंने इन सब की मदद की है हमेशा— रूपए से, पैसे से, हर तरीके से। लेकिन आज मैं पाता हूँ कि ये सब लोग मेरे खिलाफ़ हुए जा रहे हैं। ये सब इतने कृतघ्न हैं कि ये तो छोड़िए कि मेरा एहसान मानें, ये तो सक्रिय रूप से मुझे नुकसान पहुँचाते हैं।
तो मैंने पूछा, ‘एक बात बताओ। आप तो इनकी मदद करते रहे, इन्होंने कभी आपकी मदद करी?’
बोले, ‘अरे नहीं! ये ऐसे लोग ही नहीं है जो कभी मेरी मदद करते, यही तो मेरी शिकायत है, यही तो मैं आपसे कहने आया हूँ।‘
मैंने कहा, ‘फ़िर से रुकिए। गौर से बताइए— उन्होंने मदद करी नहीं, कि आपने कभी मदद ली नहीं?’
बोले, ‘अब देखिए, हम देने वालों में से हैं। वो निर्भर थे हम मदद करते थे— हम मदद देने वालों में से हैं। हमें ज़रूरत ही नहीं पड़ी उनकी मदद लेने की।‘
मैंने कहा, ‘यहीं चूक हो गई।‘
गौर से देखिएगा! जब आप किसी की मदद कर रहे होते है न, तो आप उससे बहुत बड़ा मुआवज़ा ले रहे होते हैं। जानते हैं क्या मुआवजा? मैं बड़ा हो गया तुम छोटे हो गए।। और इसीलिए अक्सर आप जिसकी मदद करते हैं, उससे बदले में आप छोटी सी मदद भी लेना नहीं चाहते क्योंकि छोटी सी मदद ले ली, तो पलड़े तराज़ू के बराबर हो जाएँगे। ये साहब वही भूल कर रहे थे— ये मदद किये जाते थे, किये जाते थे और बदले में किसी से मदद लेते नहीं थे।
जब आप किसी से मदद नहीं लेते, तो वो आपका दुश्मन हो जाता है।
ये सूत्र है, इसकोपकड़ लेना। जब आप किसी से मदद लेने से इंकार करते हो, तो वो आपका दुश्मन हो जाएगा क्योंकि मदद न लेकर के आपने उसको अपने तले दबा दिया। आपने ये सिद्ध कर दिया कि आप बड़े हो, वो छोटा है, उसको हमेशा नीचे ही रहना है, उसको हमेशा बस मदद का पात्र ही रहना है। वो कभी ऊपर आकर के आपकी छोटी-मोटी मदद भी नहीं कर सकता। आपने दिल रखने के लिए भी कभी उससे मदद नहीं माँगी। और जानते हो, इसमें आप ‘अपनी’ कितनी मदद कर रहे थे? आप अपने अहंकार को बढ़ाते जा रहे थे, बढ़ाते जा रहे थे कि मैं कौन हूँ? मैं तो दाता हूँ– देने वाला। और तुम कौन हो? तुम निर्भर हो।
तो ऐसा नहीं होता है कि एक पक्ष मदद कर रहा होता है और दूसरा पक्ष मदद ले रहा होता है। जो पक्ष मदद कर रहा होता है, वो भी गहरे अर्थों में दूसरे पक्ष से बहुत बड़ी कीमत उगाह रहा होता है। आप जिसकी मदद कर रहे हो, ईमानदारी से बताना, आप उसको कोई स्वतंत्र निर्णय लेने दोगे? क्या आप उसकी ज़िन्दगी में हस्तक्षेप नहीं करोगे? और अगर आप उसको स्वतंत्र निर्णय लेने भी देते हो तो अहंकार का सूक्ष्म खेल देखना— आप अपनेआप को बताओगे कि मैं तो इतना बड़ा दाता हूँ कि मैं देता भी हूँ और उसके बाद मैं कोई हस्तक्षेप भी नहीं करता; आप अपनी ही नज़रों में और ऊँचे हो जाओगे।
देखा आपने उससे कितनी बड़ी कीमत निकाल ली! आप कहोगे कि वो मेरा दोस्त है। मैंने पचास लाख की उसकी मदद करी और उसके बाद मैंने उससे हिसाब भी नहीं माँगा। हो सकता है आपने वाकई मदद भी करी हो और हिसाब भी न माँगा हो, पर आप देखिए कि आपने कितनी बड़ी कीमत ले ली है उससे, आपका अहंकार कितना फूल गया, गर्व कितना है आपको। बात समझ में आ रही है?
जब भी कभी हम मदद करते हैं या मदद लेते हैं, वो हमेशा द्विपक्षीय होती है। वो हमेशा लेन-देन होता है, वो हमेशा व्यापार होता है।
थोड़ी देर पहले मैंने जिस बाँटने की बात करी थी, मैंने बात करी थी– एक पक्षीय, यूनिलेटरल बाँटने की। मैंने कहा था, ‘बिना अपेक्षा के दो।‘ मैंने कहा था, ‘वो भी दे दो जो तुम्हारे पास है ही नहीं।‘ मैंने कहा था, ‘बिना उम्मीद के बाँटो, बिना गिनती के बाँटो: नेकी कर दरिया में डाल।‘
आप जिसकी मदद कर रहे होते हो न, आप देखना, आप कैसे तड़ोपोगे जिस दिन वो आपकी मदद लेने से इंकार कर दे। हममें से अधिकांश जो यहाँ बैठे हैं वो किसी-न-किसी की तो मदद करते ही होंगे। आप अपनी तड़प देखना जिस दिन आप जिसकी मदद करते हो वो इंकार कर दे। आप पीछे-पीछे भागोगे— प्रिये! मदद ले लो न! ले लो न!
गृहिणियाँ ये सूत्र खूब जानती हैं। वो हो सकता है खुद कुछ न कमाती हों, पर जब उन्हें अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करनी होती है तो वो पति से कुछ भी लेने से इंकार कर देती हैं। और जिस दिन कोई गृहिणी कह देती है पति से, कि तुझसे कुछ नहीं लूँगी, उस दिन उसकी जान सूख जाती है पति की। वो जब तक लिये जा रही है तब तक तो छोटा दुख है, तब तक वो कहता है कि आता हूँ और पूरी तनख्वाह रख लेती है। और भारी-भरकम दुख उस दिन पैदा होता है जिस दिन वो तनख्वाह लेकर के आए और रखे, और वो कहे, ‘हटा लो। दिखाना नहीं, छूऊँगी नहीं मैं इसको!’ ये होता है हमारी मदद का तथ्य। अब आप बताइए— आप उसकी मदद कर रहे थे देकर के या वो आपकी मदद कर रही थी लेकर के?
श्रोता: लेकर के। आचार्य प्रशांत: लेकिन हम अपने मन में इसी प्रवंचना में रहते हैं कि हम तो दाता हैं। कौन दाता है कौन जाने? कौन जाने?
बाइज़ित की कहानी तो सुनी है न? कि जा रहा था अपने शिष्यों के साथ और एक आदमी गाय को खींचे लिये जा रहा था। तो उसने कहा कि चलो अभी खेल दिखाता हूँ। बताओ ज़रा इसमें कौन किसका मालिक है? तो शिष्यों ने कहा, ’ज़ाहिर है आदमी गाय का मालिक है, गाय को खींचे ले जाता है। आगे-आगे आदमी है और पीछे-पीछे गाय है।‘ बड़ी पुरानी कहानी है बड़ी मशहूर, सुनी होगी। तो वो बोलता है, ‘अभी बताता हूँ कि मालकियत किसकी है।‘ वो जाता है वो रस्सी छुड़ा देता है, जाने काट देता है, कुछ भी। अब गाय आगे-आगे और मालिक पीछे-पीछे।
(श्रोता हँसते हैं)
बोले, ‘देख लो कौन किसका मालिक है!‘ दिखावे पर मत जाना। सिर्फ़ ये दिखता हो कि कोई आगे-आगे, कोई पीछे-पीछे, तो ये मत सोच लेना कि मालिक है।
स्त्रियों को कोई समस्या थोड़े ही होती है जब फेरे हो रहे होते हैं तो पति आगे-आगे चलता है। कहती हैं, ‘तुम चलो आगे-आगे! हम बताएँगे तुमको कि मालिक कौन है!‘
(श्रोता हँसते हैं)
बात मज़ाक की तो है लेकिन मज़ाक से आगे की भी है।
आप मात्र मदद नहीं कर रहे; इसमें बहुत कुछ है आपका अपना जो दाँव पर लगा हुआ है। आप जिसकी मदद कर रहे हो आप उसी के बल पर अपनी मानसिक छवि बनाए हुए हो। कोई हो, जिसकी आत्मछवि ही यही है कि मैं तो बड़े दिलवाला हूँ, मैं तो दानी हूँ, और न मिले कोई दान लेने वाला तो अब आपकी छवि का क्या होगा ये बताइए? और आप छवि में जीते हैं; लोग दान लेने से इंकार कर दें, आप गिर जाएँगे, आपकी छवि टूट जाएगी।
आ रही है बात समझ में?
तो दीजिए बेशक दीजिए, पर गौर कर लीजिएगा कि देने के साथ कहीं उम्मीद तो नहीं जोड़ ली है! और जुड़ जाती है। और अगर उम्मीद जुड़ गई हो तो उम्मीद को टूटने दीजिए। दर्द होगा, उस दर्द को पी जाइए, उस दर्द से गुज़र जाइए। दर्द को झेलना भी कई बार बहुत ज़रूरी होता है। दर्द आवश्यक होता है। उम्मीदों के टूटने का दर्द हो, तो उस दर्द को झेल जाइए।
दर्द को झेलना भी कई बार बहुत ज़रूरी होता है। दर्द आवश्यक होता है। उम्मीदों के टूटने का दर्द हो, तो उस दर्द को झेल जाइए।
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