प्रश्न: सर, प्रश्न यह था कि हम अपना ऑब्जेक्टिव एक लाइन में कैसे लिखेंगे रिज्यूम के अन्दर।
वक्ता: तो सवाल यह है कि सी.वी पर क्या लिखना है या यह है कि पता नहीं है कि क्या करना है?
श्रोता: सर, पता नहीं है क्या करना है।
वक्ता: तो उसी की बात करें कि पता नहीं है कि क्या करना है। रिज्यूम, सी.वी, वगैरह यह सब तो छोटी चीज़ें हैं। हैं ना? अगर अपनी क्लैरिटी हो कि करना क्या है, तो फिर इनकी कोई खास एहमियत रह नहीं जाती कि क्या लिखें क्या ना लिखें! सही बात तो यह है कि ऐसा भी कोई नियम नहीं है कि आपको लिखना ही है। बहुत सी.वी होते हैं जिन पर आप ऑब्जेक्टिव नहीं लिखते हैं तो कोई फ़र्क नहीं पड़ता। मैंने कभी कोई ऑब्जेक्टिव नहीं लिखा। मैंने भी सी.वी बनाए थे। कभी कोई ऑब्जेक्टिव वगैरह लिखा नहीं। दो बातें हैं मूल प्रश्न पर कि पता ही नहीं है कि क्या करना है। तुमको बार-बार यह इसलिए लगता है कि पता नहीं कि क्या करना है, क्योंकि तुम सोचते हो कि कुछ बहुत बड़ा है करने के लिए।
समझना बात को।
जो कि कई सालों बाद कभी सुदूर भविष्य में तुम्हारे हाथ लगेगा, कोई बहुत बड़ी चीज़ जो करने के लिए है ही और तुमने देखा भी यही है की लोग कहते हैं की लम्बे लक्ष्य हों, बड़ी सोच हो और फिर चलते जाओ, चलते जाओ उसको हासिल करो। अब दूर का जितना लक्ष्य बनाओगे वह उतना ज्यादा अस्पष्ट होगा। है ना? लेकिन फिर भी हमें ऐसा लगता है कि कोई मजबूरी है कि बहुत दूर का कोई लक्ष्य होना ही चाहिए। बहुत आसान है देख पाना कि लक्ष्य क्या है ? जो सामने है वही लक्ष्य है और उसमें कोई स्पष्टता की ज़रूरत नहीं क्योंकि स्पष्ट ही है , सामने ही है लेकिन वहाँ तुम्हें दिक्कत आ जाती है। दिक्कत यह आ जाती है कि वह बहुत छोटा लगता है। दिक्कत यह लगती है कि मैं किसी और को कैसे बताऊँ? यह तो अभी की बात है। बात लम्बी चौड़ी होनी चाहिए। बात दूर तक जानी चाहिए। बात बड़ी प्रतीत होनी चाहिए। बात ऐसे होने चाहिए कि कहीं दूसरे उसे पढ़ें तो कहें -“वाह! इस आदमी में कुछ जान है और उस आदमी में जान क्या है? उसमें इतनी जान है कि उसने कुछ बहुत दूर का पकड़ रखा है। तो तुम पूछ रहे हो कि जानते ही नहीं कि लक्ष्य क्या है। मैं कह रहा हूँ कि जान पाओगे भी नहीं अगर तुमने लक्ष्य वही लम्बे चौड़े भविष्य में बहुत आगे के बनाए रखे हैं। अभी यहाँ बैठे हो तो क्या लक्ष्य है ? हद से हद यह कह सकते हो कि बात को सुन रहे हो, हद से हद यह कह सकते हो कि कुछ सीखना चाहते हो, समझना चाहते हो। तो ठीक है, तुम जीवन में जहाँ भी जा रहे हो चाहे कोई काम कर रहे हो, चाहे मिल रहे हो किसी से क्या इतना ही कह देना काफ़ी नहीं है कि ” भई, समझना चाहते हैं। जिंदगी को देखना चाहते हैं, इस काम के करीब आना चाहते हैं, बस इतना कह देना काफ़ी है। यकीन जानो, अगर इसको पढ़नेवाला समझदार होगा, तो इसमें उसको आपत्ति नहीं होगी कि तुमने बस इतना सा ही लिख दिया कि, मैं तो जीवन को समझना चाहता हूँ , मैं इस क्षेत्र को बारीकी से देखना चाहता हूँ ; उसे कोई आपत्ति नहीं होगी। वह कहेगा- बात बिलकुल ईमानदारी की है और वह कहेगा, बात बिलकुल व्यवहारिक भी है क्योंकि इससे ज़्यादा कोई कर भी क्या सकता है। समझ रहे हो ना? तो बहुत आसान है लक्ष्य लिखना। बहुत-बहुत आसान है। उससे अधिक आसान कुछ हो नहीं सकता।
अगर तुम लक्ष्य के प्रति ईमानदार रहो और लक्ष्य के प्रति ईमानदारी का अर्थ यही होता है कि मेरा लक्ष्य वही है जो मेरे सामने है। भविष्य किसने देखा है ? उसमें तुम कैसे तीर चलाते रहोगे? और ठीक-ठीक बताओ , तुम तीर चला भी लो, तो तुम्हें पक्का है कि तुम वही करना चाहते हो जो आज सोच रहे हो? तुमने कल जो सोचा था, आज भी वही करना चाहते हो? ईमानदारी से बताना। तुमने परसों जो सोचा था क्या तुमने कल वही किया? क्या तुम पंद्रह की उम्र में वही कर रहे थे जो पांच की उम्र में सोचा था? पच्चीस की उम्र में वही कर रहे हो जो पंद्रह की उम्र में सोचा था? ऐसा तो कुछ होता नहीं। न तुम्हारे साथ न किसी और के साथ।
हाँ, जीवन पर इतना हमारा बस ज़रूर है या यूँ कह लें कि जीवन से हमें इतना आश्वासन ज़रूर मिला हुआ है कि जो सामने है, जो उपलब्ध है , उसमें डूब जाओ , उसमें कोई बाधा नहीं डलेगी। तुम सिर्फ उतनी सी ही बात रखो ना! तुम क्यों लम्बी चौड़ी बातें करते हो ? बीरबल की खिचड़ी पकाते हो? कि यह होगा फिर वह होगा, फिर वह होगा, फिर वह होगा, फिर वह होगा। तुम उन बातों से किसी और को प्रभावित करना चाहते हो, तो वैसे भी प्रभावित नहीं होगा। जो लोग लम्बा चौड़ा बयान देते हैं, सबसे ज़्यादा खिंचाई भी उन्हीं की होगी। अच्छा तो तुम विश्वपति बनना चाहते हो , बड़ी कंपनी की सी.ई.ओ बनना चाहते हो, तुम चाहते हो कि तुम्हारा अपना संगठन हो और उसमें इतने लोग हों, इतने हज़ार का टर्न ओवर हो, तो ज़रा बताना यह सब कैसे होग? किऔर भविष्य की यात्रा तुम जितने भी ख्याली पुलाव पका रहे हो, वह शुरू तो अभी से ही होनी चाहिए ना ? उनकी शुरुआत तो अभी से ही होनी चाहिए? ज़रा दिखाना कि अभी शुरुआत कैसे हुई है!
और तुम ऐसा कुछ दिखा नहीं पाओगे। खुद ही फँसोगे ऐसे बातें करने में और दूसरे के समक्ष फंसो न फँसो, यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है, अपनी नज़रों में तो सफाई नहीं रहेगी ना? खुद पाओगे कि जीवन साफ़ नहीं है। दृष्टि स्पष्ट नहीं है, दुविधा में घूमोगे, कुछ पक्का नहीं रहेगा। उससे क्या फ़ायदा कि तुम अभी से एक मोहर लगा दो और बात को सील कर दो, कि यह रहा मेरा लक्ष्य! जीवन आगे बढ़ता जाता है, तुम जीवन को देखते जाते हो, एक-एक कदम चलते जाते हो, बस यही ठीक है क्योंकि आज जो तुम्हारा लक्ष्य है, वह तुम्हारे आज की मनोस्थिति से निकल रही है ना? अगर तुम वाकई ज़िंदा हो तो तुम्हारी मनोस्तिथि बदलेगी कि एक ही जैसे हालत में रहते हो ? बोलो जल्दी?
तुम अगर वाकई होशियार हो, समझदार हो, तो तुम पाओगे कि धीरे-धीरे तुम्हारा मन स्पष्ट, और स्पष्ट होता जा रहा है। जब तुम नए हो जाओगे, तो पुराने लक्ष्यों पर चल कैसे पाओगे? तुम प्रतिदिन, प्रतिपल नए हो रहे हो! और लक्ष्य तुम चाहते हो कि एक बना रहे। जब तुम लगातार नए हो रहे हो, लक्ष्य भी पुराना पड़ जाएगा ना? कि नहीं पड़ जाएगा ? कैसे चल पाओगे उस पर? फिर तुम्हें ग्लानि होती है। होती है की नहीं होती है? फिर तुम कहते हो कि अपने लिए ऐसा करना का सोचा था पर कर नहीं पाए। इसमें तुम्हारी कोई भूल है ही नहीं। तुम कर सकते ही नहीं थे। मैं तुमसे फिर पूछ रहा हूँ कि जब तुम पाँच साल के थे, तब तुम सोचते थे कि मैं ऐसा बन जाऊँ, मैं वैसा बन जाऊँ। तुम चाह करके भी वैसा बन सकते हो? बनना चाहते भी हो? अब तुम्हें ग्लानि होगी कि अपने लक्ष्यों पर चल नहीं पाया तो यह पागलपन है ना?
लक्ष्य होते ही नहीं इस काबिल कि उन पर चला जा सके।
मशीन के लक्ष्य हो सकते हैं। जीवन का कोई लक्ष्य नहीं हो सकता और अगर तुम्हें इतनी ही आतुरता है लक्ष्य बनाने की, तो मैंने जैसे शुरू में ही कहा कि जो सामने है वही लक्ष्य है और यह बड़ा ईमानदार लक्ष्य है।
जो सामनेहै, वही लक्ष्यहै।
चलो बड़ी ज़रूरत आ पड़ी तो एक कदम नहीं, तो जो दो कदम आगे है वह मेरा लक्ष्य है पर लक्ष्य को जितना ज़्यादा तुम भविष्य में खींचते जाओगे, उतना ज़्यादा वह नकली,अव्यवहारिक,अप्राप्य होता जाएगा। तुम बना लो बड़ा लक्ष्य। कोई संभावना ही नहीं रहेगी उसको प्राप्त करने की। तुम वहाँ पर रहो जहाँ पर तुम कुछ कर सकते हो। कोई भी कभी भविष्य में कुछ नहीं कर पाया। सदा जो हुआ है वह अभी हुआ है ना? तुम्हारा सारा हथियार अभी है तो तुम स्थित भी यहीं पर रहो। अपने लक्ष्य भी यहीं पर रखो। यहाँ से जितनी दूर फेंकोगे, उतना ज़्यादा तुम्हारी हालत असहाय जैसी होती जाएगी। लक्ष्य तो बड़ा होता जा रहा है, और हमारी उसे पा पाने की क्षमता छोटी होती जा रही है। अप्राप्य हो जाएगा लक्ष्य।
कागज़ पर तो लिख लोगे, बड़ा-बड़ा लिख लोगे पर उसके बाद, तुम कुछ कर नहीं पाओगे। तुम चाहते हो कि ऐसा रहे? कि कागज़ पर तो बड़ा-बड़ा लिखा रहे, दूसरों को बताने के लिए एक सुन्दर सा, चमकता हुआ आदर्श रहे। पर उस तक पहुँच पाने की कोई सम्भावना ना रहे। इसमें कोई मज़ा है क्या? इसमें तो कोई मज़ा नहीं है ना? या खुद को भी बहाना दे दिया? दिलासा दे दिया कि मैं ऐसा-ऐसा कर रहा हूँ , और यह करना है ? और खुद पा रहे हो कि दिन पर दिन, जो अपने लिए बना रखा था , ना उस तक जाने की ऊर्जा है, और ना उस तक जाने का तुक समझ में आता है। और ज़बरदस्ती करे जा रहे हो अपने साथ कि जब अब एक लक्ष्य स्थापित कर लिए अब उसके पीछे जाना ही चाहिए ना? आदर्श है भाई ! और फिर ज़बरदस्ती कितने देर तक कर पाओगे? अजीब सी हालत हो जाएगी। खींच रहे हो अपने आप को। ऐसे खींचने में गति तो आती नहीं है, ग्लानि ज़रूर आती है। ग्लानि ! उससे अच्छा यह है कि जहाँ हो, उसके आस पास का ही कोई लक्ष्य बनाओ। सबसे अच्छा यह है कि बिलकुल अभी का लक्ष्य बनाओ। वह फिर लक्ष्य होता भी नहीं है। वह नाम मात्र का लक्ष्य होता है।
जितने करीब का तुम्हारा लक्ष्य रहेगा, उतना ज़्यादा वह ईमानदारी का होगा, और उतना ज़्यादा उसको पा लेने की संभावना भी होगी। यह बात ध्यान से समझना। जितने ज़्यादा करीब का लक्ष्य होगा, उतना उसको पा लेने की संभावना होगी और अगर सौ प्रतिशत पक्का करना चाहते हो कि पाना ही है तो लक्ष्य कितना करीब का होना चाहिए? बिलकुल तुम्हारे भीतर का ! उसको सौ प्रतिशत पा ही लोगे। और जितना लक्ष्य को दूर करते जाओगे, एक महीने बाद का है, एक साल बाद का है, दस साल बाद का है, वह उतना ज़्यादा नकली होता जाएगा।
बात आ रही है ?
तो अगर मन पर पूरा-पूरा बस चलता हो, तो लक्ष्य नाम की चीज़ से पूरा ही छुटकारा पा लो। पर अगर पूरा बस ना चलता हो, लक्ष्य बनाने ही हों, तो समीप के बनाओ। जितना करीब के रहेंगे, जीवन उतना असली रहेगा। मन पर बोझ उतना कम रहेगा। लक्ष्य उतना ज़्यादा एक्शनेबल रहेगा। बात समझ रहे हो ना?
देखो ना हमारे लिए बहुत आसान हो जाता है। तुम आज से दस साल बाद कोई लक्ष्य बनाओ। बड़ा मज़ा है। लक्ष्य दस साल बाद का है, अभी क्या करना है। अभी तो वैसे ही चलने दो जैसे तुम हो। अहंकार की बड़ी तृप्ती है । अभी तुम जैसे हो, उसको वैसे ही चलने दो, लक्ष्य तो बहुत आगे का है ना? और अगर तुम्हारा लक्ष्य अभी का हो, दो घंटे बाद का हो, एक दिन बाद का हो, तुम्हे कुछ करना पड़ेगा ना अभी! करना पड़ेगा ना? उस करने में मन को असुविधा है। मन इसीलिए पास का बनाता नहीं। मन दूर- दूर का बनाता है; दूर -दूर का बढ़िया है। उड़ते रहो। किसको जवाब देना है?
समझ रहे हो बात को ?
श्रोता: सर, आपने कहा की लक्ष्य दूर का बनतें हैं सिर्फ इसलिए की एक्शन लेना ना पड़े, पर ऐसा भी तो हो सकता है की जो लक्ष्य है उसके लिए रिसोर्सेस जो हमें चाहिए हों, वह न उपलब्ध हों हमारे पास?
वक्ता : तो वह उपलब्ध होने की शुरुआत कब होगी ?
श्रोता : सर, जब भी होगी! भविष्य में।
वक्ता: भविष्य में होगी या अभी होगी ? तुम्हें वास्तव में कुछ चाहिए भी है ? मैं एक सवाल पूछ रहा हूँ, तुम्हें कुछ चाहिए और तुम्हें कुछ विशेष् प्रेम नहीं है उससे, तो तुम्हारे चाहने में ना, कोई त्वरा नहीं रहेगी। कोई इमिजिएसी नहीं रहेगी कि अभी मिले। तुम कहोगे दस साल बाद में मिलेगा, तो भी चलेगा। है ना? पर अगर तुम्हें कुछ वाकई चाहिए, तो क्या तुम स्वीकार कर लोगे कि दस साल बाद भी मिले? तुम्हें कुछ चाहिए और बहुत शिद्दत के साथ चाहिए है तो तुम क्या कहोगे कि यह कब मिले?
श्रोता: अभी, जल्द से जल्द!
वक्ता: जल्द से जल्द! दस साल नहीं एक साल और अगर और ज़्यादा चाहत है उसे पाने की, तो एक साल भी बर्दाश्त नहीं करोगे ना, क्या करोगे? कब मिले? अभी! तुम कहती हो …
श्रोता: सर, स्थिति ऐसी भी हो सकती है ना कि उसको ..
वक्ता: जिसको चाहिए होता है वह स्थितियों का रोना नहीं रोता। यह बहाने हैं। जिसको चाहिए होता है वह कहेगा, एक कदम ही बढ़ाऊंगा पर बढ़ाऊंगा अभी! ठीक है। यात्रा हो सकती है सौ कदमों की, पर एक कदम तो अभी बड़ा सकता हूँ ना? तुम्हें वाकई कुछ चाहिए क्या? एक कदम भी बड़ा रहे हो? जिसे चाहिए होता है, वह कहता है, परिस्थितियाँ कितने भी ख़राब हों, वह एक कदम उठाने से तो मुझे कोई नहीं रोक सकता। तुम एक कदम भी उठा रहे हो? दूर का लक्ष्य बनाने में हमारे बहानों को बड़ा प्रश्रय मिलता है। बड़ी दूर का लक्ष्य है जैसे इन्होंने कहा, रिसोर्सेस जुटाएँगे, संसाधन जुटाएँगे, फिर एक ख़ास दिन आएगा जब हम उस लक्ष्य की तरफ़ आगे बढ़ेंगे। अच्छा है, बढ़िया है। दिल को बहलाने को ग़ालिब–ए– ख्याल अच्छा है। जिसे करना होता है वह अभी करता है। इसीलिए कह रहा हूँ लक्ष्य भी अभी का बनाओ। जिसे बहाने-बाज़ी करनी होती है, वह दूर- दूर की बातें करेगा। प्रेम जानते हो, प्रेम में यह कहते हो कि जानेमन पंद्रह साल बाद मिलना? जवाब दो जल्दी!
सभी श्रोता: नहीं !
वक्ता: या क्या कहते हो?
सभी श्रोता: अभी ! जल्द !
वक्ता: अभी! जल्द! आज नहीं तो कल अधिक से अधिक और अगर बहुत बड़ी मजबूरी हो तो कल नहीं तो परसों पर बहुत जल्दी रज़ामंद नहीं हो जाते हो की लॉन्ग टर्म गोल है तुमसे मिलना| पचास साल में पाएँगे तुम्हें। इसके लिए राज़ी हो जाते हो?
श्रोता: नहीं सर!
वक्ता: तो तुम्हें तुम्हारे लक्ष्यों से तुम्हे कुछ प्रेम है भी कि नहीं है? जिसे प्रेम होता है, जिसे वाकई चाहत होती है, वह अभी करता है और अभी जो कर रहे हो वह अभी का लक्ष्य है । तो करो ना अभी!
श्रोता: एक चीज़ होती है आकर्षण और दूसरा हो गया है हमारा प्रेम; पूरी लक्ष्य है तो वह हमें अपनी और खींचता है मतलब उसको पाने की चाहत है। तो हम परिभाषित कैसे करेंगे कि यह हमारा उसकी तरफ़ प्यार है या सिर्फ एक अट्रैक्शन?
वक्ता: अगर आकर्षण होगा तो दो चार दिन में ढीला पड़ जाएगा, विलुप्त हो जायेगा। अगर मात्र आकर्षण होगा तो एक लक्ष्य से दूसरे लक्ष्य पर कूदते फिरोगे। अगर मात्र आकर्षण होगा तो अगर लक्ष्य नहीं भी मिल रहा होगा तो तुम कहोगे काम चल रहा है। जब प्रेम होता है तो पूरी जान लग जाती है उस ओर।
श्रोता: फिर क्या लॉन्ग टर्म आकर्षण प्रेम हो जाएगा, फिर?
वक्ता: नहीं! बिलकुल भी नहीं. सच तो यह है की अट्रैक्शन लॉन्ग टर्म भी नहीं हो पाएगा उसमें जान ही कितने होती है ?
श्रोता: सर, फिर क्या जो हमें ऐसा लग रहा है कि अट्रैक्शन है सिर्फ़। लेकिन एक लम्बे समय से चल रहा है तो…
वक्ता: कोई दूसरा मिल नहीं रहा ना? कुछ दूसरा मिल नहीं रहा। जिस दिन मिल जाए, तो दूसरे को ऐसे फ़ेंक दोगे, गाँव की पुरानी सहेली है और गाँव में वही सब से आगे की है। उससे बेहतर कोई मिल नहीं रही है। जिस दिन शहर आओगे, उस दिन वो पुरानी वाली भूल जाएगी .वो आया नहीं था वह गाना, “मैं आया था सब छोड़-छाड़ के दिल्लीवाली गर्ल फ्रेंड छोड़-छाड़ के !”
तो दिल्ली से मुंबई पहुँचते हो तो दिल्लीवाली छूट जाती है न? तुम्हारे तो लक्ष्यों का भी तो ऐसा ही तो है? अभी भाग रहे हो पीछे पीछे यह मिल जाए, वह मिल जाए, कोई आ कर के दूसरे सपने दिखा दें, उसके पीछे भागना शुरू कर दोगे कि नहीं शुरू कर दोगे? हाँ या ना में जवाब दो ! (सभी छात्रों से पूछते हैं)
सभी श्रोता: हाँ, सर !
वक्ता: तुम्हारे जूनियर्स थे, उनसे मैंने पूछा था, मैंने कहा था कि अभी इंजीनियरिंग कर रहे हो, शिक्षा की एक नयी शाखा खुल जाए, प्रोफेशनल एजुकेशन की ही, बचेलोर्स, शब्द है, जैसे टेक्नोलॉजी एक शब्द है वैसे गुटाटो। शब्द-शब्द में क्या अंतर है? ध्वनि है, कान में पड़ रही है – बी.गु और पता चले जो बी.गु कर रहें हैं उनको बहुत बड़ी इज्ज़त मिल रही है और बी.गु करके नौकरियां अच्छी लग रहीं हैं, आज भाग जाओगे बी.गु करने की नहीं भाग जाओगे? और सब बी.गु, बी.गु करना शुरू कर दोगे। तो यह होता है आकर्षणों का हाल। उनमें कोई जान नहीं होती।उनमें कोई ताकत नहीं होती एक तभी तक चलता है जब तक दूसरा नहीं मिल जाता। दूसरा मिले तो पहला गायब। और दूसरे का भी यही हश्र होना है तीसरा मिलेगा तो वह गायब।
श्रोता: सर , क्षमता भी तो कुछ होती है? हम काबिल भी तो होनी चाहिए ना उस चीज़ के लिए?
वक्ता: तो यह तुम्हारा आकिरी तर्क है कि हमसे हो ही नहीं सकता?
(बीच में छात्र कुछ पूछने लगते हैं, उन्हें रोकते हुए) रुक जाओ! थम जाओ! उसी भर का थोड़ी तर्क है? तुम सब का यही तर्क है कि हमारे बस की नहीं है , हमसे ना होगा।
श्रोता: सर, अभी बस की नहीं पर भविष्य में हमारे बस की है; पता है की भविष्य में बस की है।
वक्ता: भविष्य में अपने आप हो जाएगी बस की? कैसे हो जाएगी? जल्दी बता दो? फ्यूचर में आकाश से एक दिव्य ज्योति उतरेगी, (छात्र बीच में जवाब दे रहीं हैं) या तुम जैसे वह पोपेये , पोपेये आता है ना कार्टून , वह ज़रा सा पालक खाता था और उसका मसल ऐसे फूल जातीं थीं। तो कुछ ऐसा होने जा रहा है भविष्य में? कि अचानक से तुम पाओगी तुम्हारी मसल्स सारी फूल गई हैं? क्या होगा जल्दी बोलो। अवतार आएगा और तुम्हारा सारा कायाकल्प कर देगा?
श्रोता: सर, पता है की आज सिंगल स्टेप उठे हैं, फिर बीच में हम रुक जाएँगे तो भी तो कोई फायदा नहीं।
वक्ता: उठाई?
श्रोता: सर, उठाई उसके बाद।
वक्ता: क्यूँ रुक गईं?
श्रोता: सर, नहीं हो पाया।
वक्ता: नहीं हो पाया से क्या मतलब है? बोलो मैंने करा नहीं।
श्रोता: सर, रिसोर्सेस चाहिए।
वक्ता: कौन से रिसोर्सेस चाहिए? कौनसा जल्दी बोलो, रिसोर्सेस से तो ऐसा लगता है पता नहीं तुम कौनसी अर्थशास्त्रियों वाली बातें कर रही हो, रिसोर्सेस नहीं थे ?
श्रोता: सर, पैसा।
वक्ता: पैसा!
‘शब्द-योग’सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।