दूध बिना भी जी सकते हो भाई! || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)

Acharya Prashant

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दूध बिना भी जी सकते हो भाई! || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)

आचार्य प्रशांत: हवस ही नहीं शांत होती दूध पीने की। क्या करोगे दूध पी-पीकर? कौन-सी सेहत चमका ली है? हाँ, सौ तरीके के रोग और पैदा कर लिए हैं उससे। लेकिन एक पूरी इंडस्ट्री खड़ी हो गई है जिसके मुनाफ़े दूध पर आश्रित हैं। तो दूध को बाजार में पुश(धकेला) किया जा रहा है, किया जा रहा है, पियो-पियो, हर चीज़ में दूध डाल दिया गया है।

और हमारे लिए ऐसा-सा बन गया जैसे अरे! दूध के बिना खाना कैसे चलेगा? क्यो? कल रात को यहाँ पर नहीं खाया था क्या? उसमें दूध था? पनीर था? दही था? क्या था? तो क्या हुआ था? अपच हो गया? हैजा हो गया? जॉन्डिस, आंत्रशोध, क्या-क्या हो गया? दो-चार को एड्स लग गया, क्या हुआ? क्या हो गया अगर कल बिना बिलकुल दूध का खाना खा लिया तो, बताओ न?

आपके सवाल में एक बड़ा ठोस अज़मप्शन है कि इस इंडस्ट्री को तो चलना ही चलना चाहिए। आप कह रहे हैं, 'इसको तो चलना ही चलना चाहिए। अब इसके बाद बताइए बछड़े को कैसे न मारे?'

क्यों चलना चाहिए? क्यों चलना चाहिए, बताइए न? नहीं, क्योंकि बात आपकी नहीं है।

प्र: मीन वाइल (फिलहाल) है।

आचार्य: यह मीन वाइल क्यों? आज ही क्यों नहीं? मीन वाइल की क्या बात है? मैंने जब छोड़ा था, एक क्षण में छोड़ा था, एक क्षण में। और मुझे पनीर बहुत प्यारा था, पनीर पकौड़े। बचपन से भी साथ जाते थे कहीं, छोटा था, जाते थे, मटर-पनीर। वो दिन है, आज का दिन है, पनीर की कोई तलब उठी ही नहीं, कितने साल हो गए अब।

मीन वाइल की क्या बात है? मीन वाइल कोई हवा है, पानी है, जिसके बिना जी नहीं सकते? एक चुनाव की बात है, अभी चुनाव कर लो। जैसे कल रात को चुनाव किया था। खैर, वो चुनाव नहीं था, वो ज़बरदस्ती थी। पर चुनाव हो सकता है या नहीं हो सकता है?

किसी रेस्तरां में घुस गए और वो वीगन ही है और, और कुछ नहीं खुला हुआ है। तो उसी में जो कुछ दिया हुआ, उसी मेंन्यू में से चुन लोगे कि नहीं? और ये भी हो सकता है कि कोई बताए नहीं कि वीगन है। वैसे एक बात बताऊँ आपको, बहुत सारी चीज़ें जो आप सोचकर खा रहे हैं कि वो दूध की हैं, वो दूध की होती नहीं हैं। क्योंकि टोफ़ू पनीर से बहुत सस्ता पड़ता है। और जो वीगन मिल्क है, चाहे ख़ासतौर पर सोया का, वो गाय-भैंस के दूध से बहुत सस्ता पड़ता है। तो आपका दूधिया भी आपको जो दे रहा है, वो हो सकता है वीगन पदार्थ हो।

इतना तो पक्का समझ लीजिए कि आप जब किसी रेस्तरां में मटर-पनीर मंगाते हैं तो वो मटर-टोफ़ू होता है। पक्का समझ लीजिए क्योंकि टोफ़ू पनीर जैसा ही होता है बिलकुल। और अगर अच्छे से बनाया जाए तो पनीर से ज़्यादा मुलायम हो जाता है और सस्ता है पनीर से। तो क्यों नहीं कोई टोफ़ू इस्तेमाल करेगा, पनीर कोई क्यों चलाए? चीज़ भी बन जाता है।

आलमन्ड मिल्क, कोकोनट मिल्क, ये कहीं ज़्यादा सेहतमंद होते हैं, गाय-भैंस के दूध से। तो लोग मिल्क का तो कंजमप्शन करेंगे ही न? आप सीधे-सीधे एनिमल मिल्क की जगह कोकोनट मिल्क पर क्यों नहीं आ जाते?

मज़ेदार बात सुनिए — बहुत बड़े ग्राहक इन उत्पादों के खुद डेयरीज हैं। अब वो दूध में पानी नहीं मिलाते। वो कह रहे हैं, 'हमारा भी पाप बचा' क्योंकि सोय मिल्क वास्तव में सस्ता है। पत्ती से बनता है न वो तो, पत्ती है। तो कौनसी ऐसी मजबूरी है कि छोड़ नहीं सकते? नहीं समझ पा रहा हूँ।

मुझे तो, मैं बहुत सत्रह-अठारह का था, तभी मुझे यह स्पष्ट हो गया था कि भैंस का दूध तो वही सब पदार्थ लिए होगा जो आपको भैंसा बना देगा। नहीं? बाहर बलेरो (गाड़ी) खड़ी हुई है हमारी संस्था की वो पेट्रोल से चल सकती है। पेट्रोल डीज़ल से महंगा होता है। न वो मिट्टी के तेल से चल सकती है, जो सस्ता होता है। अरे! जिसका जो कंफ़िग्रेशन है वो उसी चीज़ से चलेगा न? आदमी को अपनी माँ का दूध चाहिए, भैंस का थोड़ी चाहिए।

आप भैंस के बच्चे को बकरी का दूध पिलाये तो क्या होगा? आप ऊँट के बच्चे को शेरनी का दूध पिलाये तो क्या होगा? कुछ क्या होगा बोलिए तो? सुनने में ही आप हँस रहे हैं कि ऐसा थोड़ी ही कर सकते हैं। तो आप आदमी के बच्चे को भैंस का दूध क्यों पिलाते हैं? यह बात एकदम ज़ाहिर नहीं है, बस बात इतनी-सी है कि आदत लग गई है। कभी यह सोचा ही नहीं कि यदि प्रकृति चाहती ही होती कि हम बहुत लंबे समय तक दूध का सेवन करें तो हमारी माताओं को उतने ही लंबे समय तक दूध आता।

हम पैदा होते हैं, जितने समय तक हमें दूध की आवश्यकता है, माँ से मिल जाता है। उसके बाद आपको दूध चाहिए ही नहीं। चाहिए ही होता तो सबसे पहली जो माँ है शरीर की, वो प्रकृति होती है, उसने व्यवस्था कर दी होती। कोई ऐसा पशु है अस्तित्व में जो अपनी माँ के अलावा किसी और का दूध पीता हो, बोलो? आदमी अकेला है जो ये करतूत कर रहा है। कोई ऐसा पशु है अस्तित्व में जो पूरी तरह से व्यस्क हो जाने के बाद भी दूध पीता हो? दूध बच्चों का आहार है न? तुमने बढ़िया गबरू, झबरीले शेर को दूध पीते देखा है कभी कि शेरनी का दूध पी रहा है?

तो आप कैसे हो जाते हो कि अब तीस साल, चालीस साल के रॉय साहब बन गए हैं और पी क्या रहे हैं? नुन्नू का दूध। वो दूध नुन्नू के लिए है आपके लिए थोड़े ही है। जिस दिन नुन्नु छ: महीने, आठ महीने का हो गया, पार कर गया, उसके बाद उसे दूध त्याग देना चाहिए। प्रकृति ऐसी व्यवस्था कर देती है कि दूध अब उसे मिल ही नहीं सकता।

पर हम उसे आर्टिफ़िशियल तरीके से दूध दिए जा रहे हैं, दिए जा रहे हैं, दिए जा रहे हैं। और ये हमारी एक सनक बन गई है, ये लस्ट (हवस) है।

पेरिस में देखा मैंने, वो पाँच-सात हज़ार तरीके की चीज़ बना रहे थे, अतिश्योक्ति कर रहा हूँ। चलो सौ तरीके की। बात समझिए क्या बोलना चाह रहा हूँ। हरी, गुलाबी, नीली, पीली, ऊँट की, गधे की, तुम बताओ तुम्हें कौनसी चीज़ चाहिए। उन्हें चीज़ से ही ऑब्सेशन है। अब आपको ये बात अजीब लगता है न? उनको ये बात आवश्यक लगती है। बस इतनी-सी बात है। आपको अजीब लग रही है, उन्हें आवश्यक लगती है। आपके लिए चीज़ का मतलब होता है, चीज़। वहाँ पर आप चीज़ बोलोगे तो आपको चार-पाँच चीज़ें और स्पेसिफ़ाई करनी पड़ेगी। कौनसी प्रजाति का, कितने दिन का, किस रंग का और पता नहीं क्या-क्या होता होगा उसमें।

और जहाँ तक इसमें यह बात है कि इंडस्ट्री के आर्थिक हितों का क्या होगा — मैं कहता हूँ, देखिये भारतवासी चाय तो नहीं छोड़ देंगे, लस्सी तो नहीं छोड़ देंगे, पनीर की भी उनको लगी ही गई है लत, दाल भी मंगाते हैं, दाल-मखनी। तो इन्ही चीज़ों का प्लांट बेस्ड उत्पादन करिए न। और आसान पड़ता है।

इतने सारे, आपने खुद ही कहा, दो सौ-तीन सौ किलो के जानवर — इतने बड़े-बड़े जानवर संभालने से अच्छा एक प्लांट लगा लीजिये। प्लांट भी सस्ता पड़ेगा, उत्पादन भी सस्ता होता है, मुनाफ़ा भी ज़्यादा होगा। पाप भी नहीं लगेगा, आंतरिक नुकसान भी नहीं होगा। असल में बहुत तर्क देने की ज़रूरत है नहीं। आप जितने लोग बैठे हैं, आप सब मन-ही-मन जानते हैं कि ये काम ऐसा है जो रुकना चाहिए। आप ये भी अच्छे तरीके से जानते हैं कि दूध के उत्पादन में और माँस के उत्पादन में चोली-दामन का साथ है। जानते हैं कि नहीं जानते हैं?

जो दूध पी रहा है, वो परोक्ष रूप से माँस का उत्पादन कर रहा है। आपको क्यों लगता है, भारत माँस के निर्यात में नंबर एक है, क्यों है? क्योंकि भारत में दूध बहुत पिया जाता है। दूध पीने वाला व्यक्ति ही माँस का निर्माण कर रहा है। जिस जानवर का आप दूध पीते हैं, वही जानवर जब दूध नहीं दे पाता तो वो कटता है और उसका माँस बनता है और वो माँस एक्सपोर्ट होता है। ये बात एकदम साफ़ नहीं है? नहीं है?

इतना ही नहीं है, दूध पीकर आप माँस को सब्सिडाइज़ करते हैं। सब्सिडाइज़ कैसे करते हैं, समझ रहे हैं? भाई, मान लीजिए जानवर को कटना है जब वो दो सौ किलो का हो जाए। अब अगर उसमें से सिर्फ़ माँस का उत्पादन होना होता तो दो सौ किलो का उसे करने के लिए उसे खिलाओ-पिलाओ और उसमें आपने जो कुछ खर्चा करा, उस खर्चे के एवज में आपको सिर्फ़ क्या मिलेगा? माँस। तो वो जो माँस है उसकी कीमत क्या हो जाती है? ऊँची। बढ़ जाती है न? क्योंकि आपने इतना खिलाया-पिलाया और मिला माँस। तो माँस महंगा हो जाता है।

अब आप जो खिलाते-पिलाते हैं उससे दो चीज़ें मिलती हैं, पहले दूध फ़िर माँस। तो माँस दूध को सब्सिडाइज करता है और दूध माँस को सब्सिडाइज करता है। दोनों सस्ते हो जाते हैं। अगर आप दूध पीना छोड़ दो और सिर्फ़ माँस के लिए जानवर तैयार किया जाये तो माँस इतना महंगा हो जाएगा कि लोग माँस खाना कम कर देंगे, इंडस्ट्री बंद हो जाएगी। दूध पी-पीकर के आपने स्लॉटर इंडस्ट्री चला रखी है। और ये दोनों ही इंडस्ट्रीज़ एक झूठ पर चल रही हैं। जो कोई उस झूठ का पर्दाफ़ाश करता है, वो सहमने लग जाते हैं। चाहे वो अमूल हो, चाहे कोई और हो।

आप कह रहे थे, 'लिंचिंग हो जाएगी।' कितनी धमकियाँ तो मुझे आ चुकी हैं कि आप बाक़ी आध्यात्मिक बातें करते हैं करिए, ये दूध वाले मुद्दे पर मत बोलिए। बिलकुल धमकियाँ! खूनी धमकियाँ! क्योंकि लोगों के करोड़ों, अरबों दाँव पर लगे हुए हैं। मैं जो बोल रहा हूँ, उससे उनके पेट पर लात पड़ रही है। एक पूरी इंडस्ट्री पर खतरा आ जाता है। पर मुझे ये नहीं समझ में आता यह बात मुझे बार-बार बोलने की ज़रूरत क्यों पड़ती। बात इतनी साफ़ नहीं है कि किसी को भी दिख जाए। आपको कैसे नहीं दिखती?

और कैसे आप कह दोगे कि आध्यात्मिक हो या उपनिषदों में रुचि है, या वेदांत में रुचि है, या चेतना के उत्कर्ष में रुचि है। जब आप दिनभर अपने भोजन में ही हिंसा डाले हुए हो — खाने में क्या-क्या डाला? हल्दी डाली, तेल डाला, नमक डाला और क्या डाला? हिंसा डाली, खून डाला और फ़िर कहते हो उपनिषद पढ़ना है। कौन-सा उपनिषद? खून पीकर उपनिषद!

देखिये, नुकसान नहीं होगा और हो भी तो झेल लीजिये। एक तरह का नुकसान होगा, तीन तरह के लाभ भी हो जाएँगे।

प्र१: मैं वो इंडस्ट्री छोड़ चुका हूँ।

आचार्य: बहुत बढ़िया। आपमें से बाक़ी लोग भी यहाँ जो बैठे हो, दो तरह के लोग होंगे — एक उस इंडस्ट्री के ग्राहक, दूसरे उत्पादक। मैं दोनों से ही बोल रहा हूँ, नुकसान नहीं होगा। एक चीज़ मैंने जिंदगी में पकड़ी और मेरे साथ चली, मुझे लाभ भी हुआ। सही काम का गलत अंजाम नहीं होता। कुछ आप ठीक करने जा रहे हैं उसका आपको बुरा नतीजा नहीं मिल सकता। हाँ, जो नतीजा मिल सकता है वो कुछ समय तक आपको हो सकता है कि बुरा लगे, कुछ समय तक। फ़िर आपको समझ में आएगा कि उसका जो नतीजा था, वो अच्छा ही था क्योंकि सही का नतीजा गलत कैसे हो सकता है? सत् से असत् कैसे आ जाएगा? नहीं हो सकता न?

तो जो कुछ सही है, उसको आँख मूंद करके करिए फ़ल की चिंता छोड़ दीजिये। सही काम आपने कर दिया उसका फ़ल अच्छा आ गया। आपको मुड़ कर देखने की जरूरत ही नहीं है, अच्छा फ़ल आ चुका है। आपको हो सकता है बाद में पता चले कि आ चुका है, लेकिन आ चुका है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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