दो तरह की निर्भरता दूसरों पर || आचार्य प्रशांत, आइ.आइ.टी दिल्ली में (2020)

Acharya Prashant

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दो तरह की निर्भरता दूसरों पर || आचार्य प्रशांत, आइ.आइ.टी दिल्ली में (2020)

प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। आपने अभी समझाया किस तरह से कंप्लीटनेस और ऑथेंटिसिटी रिलेटेड (सम्बन्धित) हैं। मेरा सवाल ये है कि जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं, हर दिन नया जानते हैं, नया सीखते हैं, बहुत से टाइम (समय) हम दूसरे लोगों से वो चीज़ें सीखते हैं, तो कहीं-न-कहीं हम उन पर डिपेंडेंट (निर्भर) तो हो ही जाते हैं। तो किस तरह से हम, मतलब जैसा वो कहेंगे, तो हमें मतलब, क्योंकि हम उनसे वो चीज़ें सीख रहे हैं, तो कहीं-न-कहीं जैसा वो कहेंगे वैसे करना पड़ेगा। तो इस चीज़ में हम अपनी ऑथेंटिसिटी कैसे मेंटेन कर सकते हैं और किस तरह से ये जान सकते हैं कि हम कंप्लीट हैं, क्योंकि हम सीख तो रहे ही हैं? थैंक यू (धन्यवाद)।

आचार्य प्रशांत: कह रहे हैं कि “जिनसे हम चीज़ें सीखते हैं, उन पर भी तो डिपेंडेंट हो गए न, कि वो हमको सिखा रहे हैं?” बेटा, तस्वीर पूरी देखो। तुम छोटे हो, तुम्हें कहीं पर जाना है, और तुम बिल्कुल डिपेंडेंट , निर्भर रहते हो कि गुल्लू भैया आएँगे तो उनकी बाइक पर या उनकी साइकिल पर उनके पीछे बैठ कर जाओगे, ठीक है? अभी तुम क्या हो, डिपेंडेंट हो न? क्योंकि तुम्हें साइकिल चलानी आती नहीं है, तो तुम डिपेंडेंट हो कि कोई आएगा, तुमको अपनी साइकिल पर बैठा कर के तुम्हें जहाँ जाना है वहाँ छोड़ कर के आ जाएगा। ये तुम्हारी पर-निर्भरता है, है न?

अब कोई आया, और उसने तुमसे कहा, “देखो, तुम बेकार ही दूसरों पर निर्भर हो, ये बहुत गलत बात है। ज़िंदगी में दूसरे पर निर्भर रहोगे तो गुलामी होगी और भय रहेगा, ये बेकार की चीज़ है, नहीं निर्भर रहना चाहिए।“ तो तुमने कहा, “अच्छा, बताइए फिर क्या करें?” उन्होंने कहा, “अरे! साइकिल खुद क्यों नहीं चला सकते तुम?” तुमने कहा, “ये बात तो बहुत सीधी है, सोची क्यों नहीं पहले!” तो तुमने कहा, “आप ही साइकिल चलाना सिखा दीजिए।“ अब वो तुमको साइकिल चलाना सिखाने लगे, तो तुम पैडल मारो, वो पीछे से तुम्हारी साइकिल पकड़ें, और ये सब करें। तो तुम्हारे मन में गजब खयाल उठा, तुमने कहा, “देखो! ये भी तो डिपेंडेंसी (निर्भरता) है! पहले अगर हम डिपेंडेंट थे इस बात के लिए कि किसी की साइकिल के पीछे बैठ कर जाना पड़ता था, तो अब हम डिपेंडेंट हैं कि यही तो हमारी साइकिल पकड़ कर हमें चलाना सिखा रहे हैं।“ लेकिन तुम भूल रहे हो, पूरी तस्वीर नहीं देख रहे, कि ये ऐसी निर्भरता है जो तुम्हारी बड़ी पर-निर्भरता को खत्म कर देगी।

बात आ रही है समझ में?

ये वो डिपेंडेंसी है जो तुम सिर्फ़ एक मेथड की तरह इस्तेमाल कर रहे हो। ये तुम्हारी शाश्वत स्थिति नहीं बन गई, ये सिर्फ़ तुमने एक बीच का उपाय निकाला है, और वो उपाय ही होना चाहिए। तुम्हें लगातार ये खयाल रखना चाहिए कि ये हालत भी कि कोई मेरी साइकिल पीछे से थाम कर मेरी मदद कर रहा है सीखने में, बहुत दिन तक न चले ये स्थिति भी।

तो इसीलिए जब कोई तुम्हें कुछ सिखा रहा हो, और सीखने के कारण से, छात्र होने के कारण से तुम्हें उस पर निर्भर होना हो, तो उसे कोसो मत, कि “इसने मुझे अपने ऊपर डिपेंडेंट बना लिया।“ वो तुम्हें डिपेंडेंट बना नहीं रहा है, वो तुम्हारी डिपेंडेंसी खत्म कर रहा है। एक दिन आएगा, जल्दी ही दिन आएगा कि तुम साइकिल खुद चला रहे होगे और तुम्हें किसी की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। ठीक है?

तो मतलब जब दूसरों से रिश्ता हो डिपेंडेंसी का, तो उसमें ये बात जाँच लेना— उस रिश्ते की दिशा क्या है, किधर को जा रहा है। एक दिशा ये हो सकती है कि डिपेंडेंसी है जैसी, वैसी ही आगे भी बनी रहेगी, बल्कि अभी जैसी है, आगे और गहरी हो जाएगी— एक तो ये है डिपेंडेंसी। और दूसरी ये है कि “डिपेंडेंट हूँ, लेकिन जिसके साथ हूँ वो शुभचिंतक है मेरा। तो वो मुझे बहुत दिन तक अपने ऊपर आश्रित रहने नहीं देगा, बहुत जल्दी वो मुझे स्व-निर्भर बना देगा।“ और जाँचते रहो बार-बार, कि “ये जो मेरा दूसरे से रिश्ता है, इस रिश्ते की वजह से मुझमें स्वावलंबन आ रहा है या मैं और ज़्यादा गुलाम और परतंत्र होता जा रहा हूँ, दूसरे पर आश्रित?” — ये जाँचते रहो बार-बार।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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