दो कौड़ी के सेलेब्रिटी! || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)

Acharya Prashant

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दो कौड़ी के सेलेब्रिटी! || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)

प्रश्नकर्ता: आजकल ये शायद उपयोगी आध्यात्मिकता है कि सन्तुलन बनाएँ। काफ़ी प्रसिद्ध लोग भी ये बोल रहे कि डोंट गो इन एक्सट्रीम (अति में मत जाओ), सामंजस्य बना कर रखो। संतुलन बनाओ हर चीज़ में। मेरा ख़ुद का भी पिछला उदाहरण है कि मैं एक्सट्रीम में चला गया था जैसे कि पढ़ाई आदि में। तो उसके बाद मन काफ़ी विद्रोह पर उतर आया था। तो क्या ये सही है? संतुलन कैसे बनाएँ? पीने की तरह में, बहुत सारी चीज़ों में युवाओं को? जैसे कल भी मुझे सुनने को मिल गया था, कैंप के एक प्रतिभागी से कि मैं कोई कड़े नियम नहीं बनाता। इस तरह से रोज़ सुनने को मिलता ही रहता है, तो इसका सच क्या है?

और एक दूसरा छोटा सवाल है कि हर मनोरंजन की तरह एक विद्यार्थी लत की सूचना देने वाला बन जाता है। कुछ भी मनोरंजन आप करें, तो उसका सही स्थान क्या है? कैसे करें? या उसकी ज़रूरत है भी नहीं? या जिससे मेहनत काफ़ी करने के बाद थोड़ा वो भी एक तरह से ठीक है? क्या सच्चाई है इसकी वो समझ नहीं आ रहा है। मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: कम या ज़्यादा, भले ज्ञान के लिए, भले मनोरंजन के लिए, वो किसके लिए कर रहे हो? वो करनी क्यों ज़रूरी है? ये कोई मापदंड नहीं हो सकता कि जो कुछ भी करो वो थोड़ा कम करो। संतुलन में करो। न ये बात कही जा सकती है कि जो कुछ भी करो बहुत ज़्यादा-ज़्यादा करो। अति में करो। न ये कहा जा सकता है कि कुछ भी मत करो, सब शून्य करो। क्योंकि ये जब बात कही जा रही है, तो इसमें ये तो कहीं शामिल नहीं है कि कौन कर रहा है और क्यों कर रहा है। आप जो भी करते हैं किसके लिए करते हैं? किसके लिए करते हैं, भाई? आप कौन हैं?

प्र: चेतना हैं।

आचार्य: चेतना हैं। कैसी चेतना हैं?

प्र: अतृप्त चेतना।

आचार्य: अतृप्त चेतना हैं, बन्धक चेतना हैं। तो आप जो भी करेंगे किस उद्देश्य से करेंगे?

प्र: मुक्ति के उद्देश्य से करेंगे।

आचार्य: मुक्ति के उद्देश्य से करेंगे। जिस सीमा तक मनोरंजन से मुक्ति मिलती हो, मनोरंजन बहुत अच्छा है। मैं आपसे बातें कर रहा हूँ, इन बातों का उद्देश्य मुक्ति है। बीच में जब मुझे लगता है कि मन को गाजर देनी ज़रूरी है, तो थोड़ा-सा हँसा देता हूँ आपको। मनोरंजन मुक्ति में सहायक हो गया, अच्छी बात। अब यहाँ बैठकर के मैं चुटकुलों की झड़ी लगा दूँ तो? और कोई ऐसा भी हो सकता है कि जो सिर्फ़ हँसी-मज़ाक की भाषा समझता हो। उसके लिए ज़रूरी भी हो सकता है कि उसके साथ, मैं सिर्फ़ मज़ाक ही करता रहूँ। वो उसकी मुक्ति में सहायक होगा। कुछ भी सही हो सकता है, कुछ भी ग़लत हो सकता है उसका आपकी चेतना पर असर क्या हो रहा है ये देखना होता है।

आप समझ रहें हैं?

लेकिन जब मैंने कहा कुछ भी सही, कुछ भी गलत इसका मतलब ये नहीं कि आप कहें, ‘अच्छा, कुछ भी सही हो सकता है तो वो भी सही है। जो दूसरी बात कही वो बहुत-बहुत ज़रूरी है। देखो, जो भी कर रहे हो, उसका तुम्हारे मन पर असर क्या हो रहा है? पूछो अपनेआप से, ‘मैं इसलिए हूँ क्या? मैं ये करने आया था? पिछले तीन घंटे बर्बाद कर चुका हूँ, मैं ये कर क्या रहा हूँ? मुझे अच्छे से पता है सुबह साढ़े छः बजे मुझे झरने पर पहुँचना है। मुझे बिच (समुद्र तट) पर पहुँचना है। एक्टिविटी (गतिविधि) करनी है। मैं बारह बजे लेट गया था और अभी बज रहे हैं दो और बारह से दो बजे तक मैंने क्या किया है मोबाइल के साथ?’ भाई लोग हाथ उठाएँगे। किस-किस ने कल ये किया था? चलो..चलो..चलो। लम्बा वाला, पूरा। (श्रोतागण हाथ उठाते हैं) शाबाश। क्योंकि बीच में पूछा नहीं अपनेआप से, ‘क्या मिल रहा है इससे। ये करके सुबह साढ़े-छः बजे उठ जाऊँगा मैं?’ आज कितने लोग देर से पहुँचे थे? (श्रोतागण हाथ उठाते हैं) शाबाश। यही पूछना होता है न।

'आया था किस काम को, सोया चादर तान। सूरत सँभाल रे ग़ाफ़िल, अपना आप पहचान।।'

ग़ाफ़िल माने? ग़ाफ़िल माने भ्रमित, मदहोश। मदहोश। हाँ, बढ़िया। (फ़ोन चलाने का अभिनय करते हुए) बढ़िया। ( श्रोतागण हँसते हैं) और उसी में एक कोने पर टाइम (समय) भी लिखा हुआ है। दो बजकर उन्नीस मिनट हो चुके हैं, वो दिख ही नहीं रहा।

प्र: लेकिन सबसे ज़्यादा तो आपको सुनने में समय जाता है। जब भी समय मिलता है, तो यूट्यूब पर आचार्य जी को सुन रहे हैं।

आचार्य: मेरे यूट्यूब चैनल के व्यूज़ देखकर ऐसा लगता नहीं। (श्रोतागण हँसते हैं) असली व्यूज़ कहाँ हैं, वो आपको भी पता है।

तीस मिलियन, बिलियन में जाते हैं वहाँ। तो रात-रात-भर किसको देखा जा रहा है इसकी गवाही तो आँकड़े देंगे और गूगल रिपोर्ट्स दे देंगी, कि रात-रात-भर क्या देखा जा रहा है। अपने चैनल का पता है वो रात-रात-भर तो नहीं देखा जा रहा।

पूछ तो लीजिए, ‘क्या मिला?’ और उस बात से कलेजा बिलकुल छलनी हो जाए, ये क्या किया अभी। तुरन्त सज़ा दीजिए अपनेआप को। ‘ये क्या किया?’ इतना प्रेम होना चाहिए अपनी भलाई से कि ज़रा भी बर्दाश्त न करे और धोखा खाना। इतना धोखा तो खा चुके हो, भाई।

क्षमा कीजिएगा पर इसको देशी में बोलते है — लतमार होना। लतमार माने लतोड़। लात पड़ी जा रही है, पड़ी जा रही है और ‘हें-हें-हें!’ (हँसने का अभिनय) फ़र्क ही नहीं पड़ रहा। 'लात खाईत जात है, लजाईत नाहीं।' लाज ही नहीं आती। लज्जा आनी चाहिए। शर्म बहुत महत्वपूर्ण चीज़ है। दुनिया की किसी भी संस्कृति से ज़्यादा भारत ने लज्जा को महत्व दिया कि लाज रखो थोड़ी। वो लज्जा बहुत ज़रूरी चीज़ है।

आधुनिक विचारधारा ने लिबरलिज़्म (उदारवाद) ने उसको ऐसा कर दिया। ये तो सप्रेशन (दमन) है। देयर इज़ नो नीड टू फील अशेम्ड ऑर गिल्टी (इसमें शर्मिंदा या दोषी महसूस करने की कोई ज़रूरत नहीं है)। उन्होंने शेमिंग (शर्मसार) को ही शेम-शेम (शर्म करो-शर्म करो) कर दिया। किसी भी चीज़ में लज्जा आ रही हो तो कहेंगे, ‘फ़लानी शेमिंग (शर्मिंदगी) कर रहे हैं।’ मुझ पर इल्ज़ाम लगाएँगे, ’स्प्रिचुअल शेमिंग (आध्यात्मिक शर्मिंदगी) करते हैं।’ जैसे कहते हैं न, बॉडी शेमिंग, दिस शेमिंग, दैट शेमिंग, ईगो शेमिंग , वैसे ही, ‘ये ईगो शेमिंग करते हैं।’

नहीं, शेम बहुत ज़रूरी चीज़ है। बहुत ज़रूरी चीज़ है। शेम का मतलब समझते हैं क्या? जो मैं हो सकता था वो मैं हो नहीं पाया, स्वीकार करता हूँ, दुखी हूँ, सिर झुकाता हूँ। लाज में सिर कैसे हो जाता हैं? ऐसे ( सिर को नीचे झुकाते हुए)। इसका मतलब यही होता है कि मैं स्वीकार करता हूँ, मैंने अपने ही ख़िलाफ़ अपराध कर दिया। ये लज्जा है। निर्लज्ज मत हो जाइए।

समझ में आ रही है बात?

ये बहुत विचित्र, बहुत बेकार, व्यर्थ, ज़हरीले और बद‌‌तमीज़ सिद्धान्त है — डोंट जज एनिबॉडी , डोंट बी जजमेंटल (किसी को जज मत करो, निर्णयात्मक मत बनो)। क्या-क्या बोला? डू एवरीथिंग इन बैलेंस , बी मोडरेट। (श्रोतागण उत्तर देते हैं) हाँ, अवॉइड एक्सट्रीम , बी पॉजिटिव (हर काम संतुलन में करें, संयत रहें, अति से बचें, सकारात्मक रहें)।

इसलिए इतना बोलता हूँ कि जिन्होंने जाना है, थोड़ा उनसे भी सुन लो। ये तुम किन सेलेब्रिटीज़ की बात कर रहे थे कि सेलेब्रिटीज़ आजकल ऐसी बात करते है। दो कौड़ी के सेलेब्रिटीज़! किसी को भी सेलेब्रिटी तो बना लेते हो। ये सेलेब्रिटी हो गया। कोई भी सेलेब्रिटी है। और वे ज्ञान देने लग जाते हैं।

बड़ा उल्टा हो गया है। मालूम है, पहले जो ज्ञानी होता था वो सेलेब्रिटी बनता था। अब वो सेलेब्रिटी है वो ज्ञानी हो गया।

अभी आज ही एक कांफ्रेंस (सम्मेलन) चल रही है— 'थॉट लीडर्स ऑफ़ दिस सेंचुरी' (इस सदी के विचारक नेता)। और उसमें जो स्पीकर्स (वक्ता) हैं, क्या बताऊँ स्टार स्टैंडेड लाइनअप (सितारों से सजी पंक्ति बनाएँ) बिलकुल। उनमें एक हैं नयी-नवेली अदाकारा, जिनका काम है जिस्म की नुमाइश करना और वो जिस्म की नुमाइश भी इसीलिए कर पाती हैं क्योंकि उनकी माँ भी यही किया करती थीं। और वो थॉट लीडर हैं। वो सेलेब्रिटी हो गयीं। अब वहाँ से ज्ञान देंगी, हाउ टू लीड योर लाइफ़ (अपना जीवन कैसे व्यतीत करें)। और तुम लोग कहोगे, ‘ये है कुछ बी पॉजिटिव।’

बुरा लग रहा है क्या मैंने बोल दिया ‘जिस्म की नुमाइश’? उनके पास वो जिस्म न हो, तो उनको देखने जाओगे? ईमानदारी से बताना। अच्छा, उनके पास एक्टिंग न भी हो, तो भी देखने जाओगे या नहीं? ईमानदारी से बताना। भाई लोग अच्छे से जानते हैं, ’एक्टिंग देखने जाता भी कौन हैं!’ (श्रोतागण हँसते हैं) न उन्हें एक्टिंग दिखानी हैं, उन्हें भी पता हैं; न हमें एक्टिंग देखनी हैं, हमें भी पता हैं। पूरा समझौता है अन्दर-ही-अन्दर। ये थॉट लीडर्स हैं, सेलेब्रिटीज हैं। ये ट्वीट करते हैं, उसको हज़ारों लोग रिट्वीट कर रहे हैं। ‘क्या बात बोल दी, वाह!’

कोई क्रिकेटर है वो आपको गुड पेरेंटिंग (अच्छा पालन-पोषण) बता रहा है। गज़ब हो गया। इसे खुद तो पता है नहीं, ये पेरेंट (अभिभावक) कब और कैसे बन गया। बना भी है या नहीं, ये भी नहीं पता। (श्रोतागण हँसते हैं) मानता है बस कि वही है बाप। और ये आपको बता रहा है कि बच्चों की अच्छी परवरिश कैसे करें। और आप सुन भी रहे हो।

बड़ा दुख होता है, जिनकी बात सुनने लायक है वो सब न जाने कहाँ अतीत में खो गये। उनका कोई नाम लेवा नहीं। उनकी किताबें अमेजन पर ऑर्डर करो तो अमेजन बोलता है हमेशा, ’आउट ऑफ़ स्टॉक (उपलब्ध नहीं) या पच्चीस दिन बाद आएगी’। उनका नाम पूछ लो, नाम नहीं पता होते। और मैं सिर्फ़ अध्यात्म के क्षेत्र से नहीं, हर क्षेत्र की बोल रहा हूँ। जिन भी लोगों ने वास्तव में इंसानियत को आगे बढ़ाया हैं, मानवता को ऊँचाई दी है, उनका हमें कुछ नहीं पता। हमें किनका पता हैं? एंटरटेनर्स का। और एंटरटेनर्स ही हमारे मेंटर्स बन चुके हैं। उन्हीं से हम ज्ञान लेते हैं। उन्हीं से सब जीवन की शिक्षा। वो आकर बता रहे हैं, ‘अब ऐसा करना, वैसा करना।’

आप कहीं किसी बुक स्टोर पर चले जाइएगा। ऋषिकेश में नहीं, यहाँ थोड़ा अलग है मामला। एनसीआर या जहाँ भी आप रहते हैं, वहाँ बुक स्टोर में देख लीजिएगा कि बाहर डिस्प्ले में जो किताबें लगी हैं, वो लेखकों की हैं या सेलेब्रिटीज की हैं। बस ये देख लीजिएगा।

लेखक जैसी कोई चीज़ बची नहीं है। सेलेब्रिटी ही लेखक हैं। लिखना उसे आता नहीं। वो घोस्ट राइटिंग (भूतलेखन) कराता है। पर वो सेलेब्रिटी हैं। इसलिए उसकी किताब बिक जाएगी। और वही किताबें परमानेंट डिस्प्लेड (स्थायी प्रदर्शित) होती हैं। ‘आओ-आओ। देखो-देखो।’

पहले कहा जाता था कि लक्ष्मी ने सरस्वती को जीत लिया। बात वो नहीं है। माया ने लक्ष्मी और सरस्वती दोनों को जीत लिया है। अगर आप मायावी हो तो आपकी किताब भी छप जाएगी। आप विद्वान भी कहला जाओगे। जो मायावी है वही विद्वान है। और पैसा तो पाएगा ही क्योंकि मायावी है। तो माया ने लक्ष्मी और सरस्वती दोनों को जीत रखा है।

अपने पर ये उपकार करिए — जिनकी सुनी जानी चाहिए, उनके अलावा किसी की मत सुनिए। ज़रा भी नहीं।

कम-से-कम ये जो घूम रहे हैं, थॉट लीडर्स , लाइफ़ कोच , जो भी कुछ मुझे नहीं मालूम। मैं भी कोई दूध का धुला नहीं, मेरी भी मत सुनो। मुझसे पहले बहुत अच्छे, बहुत ऊँचे लोग हो गये हैं, उनके पास चले जाओ।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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