दिलेरी से जिओ, मौत नहीं डराएगी || आचार्य प्रशांत (2018)

Acharya Prashant

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दिलेरी से जिओ, मौत नहीं डराएगी || आचार्य प्रशांत (2018)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मुझे मृत्यु से बहुत डर लगता है। स्वयं को मृत्यु के लिए कैसे तैयार करूँ?

आचार्य प्रशांत: मृत्यु का यही मतलब होता है न, कि कल नहीं आएगा? कल अब नहीं आएगा। मृत्यु का मतलब होता है भविष्य की मृत्यु; समय नहीं बचा न अब। जब और समय न बचे तो उसको कह देते हैं कि मृत्यु आ गई। ज़ाहिर सी बात है जो मौत से डर रहा है वो वास्तव में इस बात से डर रहा है कि समय नहीं बचेगा। तो वो तो ठीक भी है।

कोई चीज़ अगर चाहिए हो और ख़त्म हो जाए, तो बुरा लगना लाज़मी है। समय चाहिए और समय ख़त्म हो गया; बुरा तो लगेगा। प्यास लगी है, पानी पीना है, ख़त्म हो गया; बुरा तो लगेगा। तो ऐसा इंतज़ाम कर लो कि समय की ज़रूरत ख़त्म हो जाए।

समय चाहिए होता है किन्हीं कामों के लिए। समय की आवश्यकता होती है कुछ काम निपटाने के लिए। समय माने जानते हो न क्या होता है? बदलाव। घड़ी में भी तुम बदलते समय को तभी पकड़ पाते हो, जब काँटों की स्थिति बदलती है। और समय का तो अर्थ ही होता है कि जो चीज़ें पहले जैसी थीं, अब वैसी नहीं रहीं। एक पल भी अगर समय बीता तो एक पल पूर्व जैसी स्थिति थी एक पल पश्चात वो वैसी नहीं रहती; समय माने बदलाव।

तो जिसको अभी समय चाहिए, उसको अभी क्या चाहिए? बदलाव। है न? क्योंकि समय तो तुम्हें चाहिए ही तब जब अभी कुछ बदलने की ज़रूरत है। जब अभी कुछ ठीक नहीं है और उसे बदला जाना आवश्यक है। तो हमने ये दो-तीन बातें अभी तक देखी हैं।

हमने कहा कि मृत्यु का मतलब होता है भविष्य का छिन जाना; अब समय नहीं बचेगा। और समय हमें चाहिए होता है किसी काम के लिए। अन्यथा समय क्यों चाहिए? समय की चाहत का अर्थ ही है कि अभी कुछ बदला जाना शेष है। कुछ है ऐसा जो अभी वैसा नहीं है जैसा उसे होना चाहिए। और इसीलिए तुम डरते हो मौत से। क्योंकि अभी तुम वैसे नहीं हो जैसा तुम्हें होना चाहिए।

तुम चूँकि वैसे नहीं हो जैसा तुम्हें होना ही चाहिए था, इसीलिए ज़रा बेचैन हो। स्थिर नहीं हो पा रहे। इसीलिए फिर मन में समय की माँग है। मन कहता है दो दिन और दे दो मैं ठीक हो जाऊँगा, अभी तो ठीक हूँ नहीं। तो फिर समय चाहिए। जो ठीक नहीं होता, वो भविष्य की माँग करता है। जो जितना ठीक नहीं होता वो भविष्य की उतनी ज़्यादा माँग करता है। जो भविष्य की जितनी माँग करे, समझ लो वो मौत से उतना घबरा रहा है।

तो जिन्हें भविष्य के फंदे से छूटना हो, या जिन्हें मौत का डर दूर करना हो उनके लिए उपाय सीधा है — वैसे हो जाओ जैसा तुम्हें होना ही चाहिए। वो काम पूरा कर लो जिसके लिए जन्म हुआ है तुम्हारा। समय रहते समय का उपयोग कर लो, फिर ये ख़ौफ़ सताएगा ही नहीं कि 'अरे! समय पूरा हो गया, अब मेरा क्या होगा?'

गाड़ी तीन बजे छूटनी है, एक आदमी है जो दो बजे ही प्लेटफाॅर्म की ओर चल पड़ा है — बीस ही मिनट लगते हैं पहुँचने में — एक आदमी है, दो ही बजे चल पड़ा है स्टेशन की तरफ़। और एक आदमी है जो पौने दो बजे यकायक उठा है और उसे याद आया कि दो बजे की तो ट्रेन है। इन दोनों में से घबरा कौन रहा होगा?

प्र: पौने दो बजे वाला।

आचार्य: तुम भी इसीलिए घबरा रहे हो क्योंकि तुमने समय बहुत गॅंवा दिया है, और गाड़ी छूट जाएगी। अभी भी जितना समय बचा है, उसमें दौड़ लगा दो। वास्तविक तपस्या यही है कि एक भी पल व्यर्थ न जाए।

मौत का डर आपका मित्र है।

वो आपको एक ज़रूरी सूचना दे रहा है। और क्या है वो ज़रूरी सूचना? कि तुम अभी वैसे नहीं हो जैसा तुम्हें होना ही चाहिए। तो जैसे तुम हो उसको ज़रा साफ़-साफ़ देखो। नज़र आना शुरू हो जाएगा कि क्या कुछ है जो बदला जाना ज़रूरी है। नज़र आना आसान है, और ऐसा भी नहीं है कि तुमको पता ही नहीं है। अपने दस विकारों से तो तुम ख़ुद ही परिचित हो। हाँ, उनको पाले पड़े हुए हो, उन्हें रखने में तुम्हें कोई रस है, और उस रस की बड़ी क़ीमत अदा करते हो। दिन रात फँसे रहते हो, परेशान रहते हो। तमाम तरह के डर घूमते हैं मन में।

जिसे मौत का डर होगा उसे अन्य बहुत डर होंगे। और जिसे कोई भी डर है उसे मौत का भी डर होगा। क्योंकि मूलतः सब डर एक होते हैं, और प्रत्येक डर मिट जाने का ही डर है।

प्रत्येक डर न हो जाने का ही डर है। ख़्याल है एक, आशंका है एक, कि मैं नहीं रहूँगा। समझ रहे हो?

तो मौत के डर का इलाज़ है एक भरपूर जीवन। वैसे जी लो जैसे जीना चाहिए, फिर मौत नहीं सताएगी। और अगर मौत सता रही है तो मतलब वैसे नहीं जी रहे हो जैसे जीना चाहिए।

जितना आधा-अधूरा, कुतरा हुआ जीवन रहेगा तुम्हारा, भविष्य की उतनी चाहत रहेगी तुम्हें। जितना तुम अपने दोषों का समर्थन करोगे, जितना तुम अपनी अपूर्णताओं का समर्थन करोगे, उतना ज़्यादा तुम कहोगे कि काम अभी बाक़ी है।

काम बाक़ी इसलिए है क्योंकि तुम काम को पूरा होने दे नहीं रहे। तुम ख़ुद दोषों को सहारा देते हो। पूरब में एक बड़ा सुंदर शब्द रहा है, 'जीवन्मुक्त'। जीवन्मुक्त का मतलब समझते हो? तुम्हारे प्रश्न के संदर्भ में जीवन्मुक्त का अर्थ हुआ — जी तो रहा है, और मौत के डर से मुक्त है, सो हुआ जीवन्मुक्त। जी तो रहा है पर मौत उसे सताती नहीं, वो हुआ जीवन्मुक्त।

मौत का भय तुम्हें इशारा देता है कि उठो, जगो। कोई भी भय तुम्हें इशारा देता है उठो, जगो, कुछ बदलो। इसीलिए मैंने कहा कि ये सब भय तुम्हारे मित्र हैं। ये तुम्हें ज़रूरी सूचनाएँ भेजते हैं।

प्र२: आचार्य जी, जब ध्यान में गहराई आने लगती है, तो मुझे भय होने लगता है कि अपनी माँ से दूर जा रहा हूँ। कृपया मार्गदर्शन करें।

आचार्य: तुम्हें कैसे पता जहाँ को खींचा जा रहा है तुम्हें, वहाँ माँ पहले से ही मौजूद नहीं है?

प्र२: मुझे नहीं पता।

आचार्य: पर तुम्हें तो पता है, क्योंकि तुमने तो विरोध कर लिया। विरोध का तो अर्थ ही होता है अपनी मान्यता पर बहुत दृढ़ हो जाना। अगर तुम्हें जो पता है उसके बारे में तुम शंकित हो, तो तुम किसी भी चीज़ का विरोध कैसे कर लोगे?

तुम कहीं खड़े हो और तुम नहीं जानते कि दायें जाना है या बायें। और तुमसे आकर कहता है दायें चले जाओ। क्या तुम उसका विरोध कर पाओगे? तुम करोगे ही नहीं। विरोध तो तभी करोगे जब मान्यता बनी हुई हो कि मुझे तो बाएँ ही जाना है। इसका मतलब है मान्यता बनी हुई है।

मान्यता ये है कि ये रोशनी मुझे जहाँ को खींच रही है, उस जगह पर मैं माँ से दूर हो जाऊँगा। ये तो बड़ी मज़ेदार मान्यता है। एक तरफ़ तो जो तुम्हें खींच रहा है उसको तुम नाम दे रहे हो रोशनी का। और रोशनी तो किसी को अंधेरे से ही दूर करती है। और तुम्हारी रोशनी तुम्हारे ही मुताबिक़ तुम्हें दूर कर रही है माँ से। तो तुम ही मुझे बता रहे हो कि तुम्हारी माँ का अर्थ तुम्हारे लिए अंधेरा है।

कहीं ऐसा तो नहीं कि वाक़ई अंधेरा हो?

प्र२: अब नहीं है।

आचार्य: अगर नहीं है तो फिर रोशनी तुम्हें जहाँ ले जा रही है, वहाँ माँ ही मिलेंगी। अगर तुम्हारे और माँ के रिश्ते में रोशनी है, तो फिर तुम रोशनी से कैसे डर सकते हो? रिश्ते में ही रोशनी है, तो रोशनी से कैसा डर? हाँ रिश्ते में अगर अंधेरा हो, तो रोशनी से डर बहुत लगेगा।

प्र२: पर अब तो मैं प्रयास भी कर रहा हूँ। फिर भी ऐसा क्यों?

आचार्य: तो बार-बार तुमको एक ही तरह का दृश्य थोड़े ही दिखाई देगा। एक बार ये दिख गया कि कोई अंधेरी जगह है जहाँ पर कोई आकर्षण खींच रहा है तुमको। अब दूसरी बार कुछ और होगा। तुम पुरानी घटना की उम्मीद में ही बैठे रहोगे क्या?

अगर तुम्हारी पात्रता है, तो बुलावा और इशारा बार-बार आएगा। हाँ उसी तरीक़े से बार-बार नहीं आएगा जैसे पहले आया।

प्र२: मैंने कहीं पात्रता ही तो नहीं खो दी है?

आचार्य: अब ये तुम जानो। खो दी तो दोबारा अर्जित कर लो। कोई अगर क़ीमती और प्यारी चीज़ होती है, और खो भी जाती है, तो आदमी क्या करता है?

प्र२: दोबारा अर्जित करता है।

आचार्य: दोबारा अर्जित करता है। इरादा है पात्रता में जीने का?

प्र२: हाँ।

आचार्य: हाँ तो मिल जाएगी।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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