ध्यान की सर्वोत्तम पद्धति || (2018)

Acharya Prashant

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ध्यान की सर्वोत्तम पद्धति || (2018)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मेरा प्रश्न है कि ‘ध्यान’ की कौन-सी विधियाँ हैं जो सीखी जा सकती हैं? ऐसी कौन-सी पद्धति अपना सकते हैं?

आचार्य प्रशांत: अभी ये पद्धति है कि – सुनो।

पद्धतियाँ हज़ारों हैं, लाखों हैं। जो तुम्हारी अवस्था है, उसके हिसाब से पद्धति है। और ध्यान की तुम्हारे लिए उचित पद्धति क्या है, ये तुम्हें ‘ध्यान’ ही बता सकता है। या तो तुम्हारा ध्यान, या किसी और का ध्यान।

मैं चाहता हूँ कि ध्यान तुम्हारा ऐसा रहे, कि जब वो टूटने लगे, तो तुम्हें पद्धति बता दे बचने की। ऑटो-रिपेयर (स्व-चालित सुधार) की उसमें सुविधा रहे। जैसे शरीर में होती है न, कि शरीर में चोट लगती है तो शरीर ख़ुद ही उसे ठीक कर लेता है।

तो ध्यान में भी ऐसी जीवंतता रहे, कि ध्यान टूटा नहीं और ध्यान ख़ुद ही उपाय बता दे कि अब इसको ठीक कैसे करना है।

जीवन में प्रतिपल बदलते माहौल हैं। हर माहौल के लिए कोई तुम्हें विधि नहीं दे गया। जिन्होंने बड़ी करुणा के साथ तुम्हें विधियाँ दी भी हैं, वो बेचारे सौ, सवा-सौ, चार-सौ, पाँच-सौ पर जाकर अटक गए। इससे ज़्यादा कौन अब बताएगा। लेकिन जीवन में स्थितियाँ कितनी हैं, सौ, चार-सौ, या करोड़ों?

तो तुम्हें ध्यान की करोड़ों विधियाँ चाहिए। और ये बात तुम्हें किताब में नहीं मिलेगी। इसके लिए तो तुम्हें स्वयं ही सजग रहना पड़ेगा, कि इस माहौल में ध्यान का क्या अर्थ है।

ध्यान को फिर अनवरत होना पड़ेगा, लगातार। ध्यान अगर लगातार है, तो बाहर जो तुम कर्म करोगे, वो कर्म ही ध्यान की विधि बन जाएगा। ‘ध्यान’ ही तुम्हें ध्यान की विधि दे रहा है। अब तुम्हारे कर्म ऐसे हो रहे हैं, कि तुम्हारा ध्यान बचा रहे, और गहराए। वो ‘ध्यान’ श्रेष्ठ है।

वही ‘ध्यान’ चलेगा, बचेगा। बाकी तो ध्यान तुम कुछ समय को लगाओगे, फिर उचट जाएँगे। उस ध्यान में कुछ रखा नहीं, जो टूट जाता हो। लोग ध्यान में बैठते हैं, फिर खड़े भी तो हो जाते हैं। मैं कहता हूँ कि इसमें कोई ग़लती नहीं कि तुम ध्यान लगाने बैठे, सुबह सात बजे। पर उठ क्यों गए? ध्यान करने में बुराई नहीं है, पर जो ध्यान ‘करना’ शुरु करे वो फिर ध्यान तोड़े नहीं।

तो ऐसी विधि मत आज़माओ, जिसका टूटना लाज़मी है।

जो प्रचलित विधियाँ हैं, वो तुम्हें ये तो बताती ही हैं कि ‘ध्यान’ कैसे शुरु होगा, और फिर ये भी तो बता देती हैं कि उठ कब जाना है। और तुम उठे नहीं, कि तुम्हारे दिमाग में घर, दुकान, बाज़ार चक्कर काटने लगते हैं। होता है या नहीं? तुम उठते ही इसीलिए हो कि – सात बजे बैठे थे, अब आठ बज गए हैं, अब तो दुकान जाने का समय हो गया।

“थोड़ी देर में ऑफिस (दफ्तर) की बस आ रही है। ध्यान से उठो, बहुत हो गया ध्यान।”

फिर तुम कहते हो कि, "अब मैंने एक दूसरा टोपा पहन लिया है।" ये भी तो खूब चलता है। पहले ध्यान वाला टोपा था, अब दूसरा टोपा पहन लिया। तो ‘ध्यान’ टोपा बदलने का नाम नहीं होता।

‘ध्यान’ ऐसा हो कि फिर लगातार बना रहे – चौबीस घण्टे अटूट बना रहे। और जैसे-ही उस पर टूटने का संकट आए, तो ध्यान तुम्हें स्वयं बता दे कि इस संकट का सामना कैसे करना है। संकट का सामना करने के लिए जो कर्म किया जाएगा, वही ‘ध्यान’ की विधि है।

प्रत्येक क्षण ही संकट आ ही रहे हैं, क्योंकि संसार ध्यान तोड़ने को बहुत कुछ भेजता है। फिर तुम जो भी कुछ कर्म कर रहे हो, वो ध्यान की एक विधि है। वो ध्यान की एक नई, ताज़ी, मौलिक विधि है। वो विधि तुम्हें किसी किताब में नहीं मिलेगी।

किताबों में जो विधियाँ हैं, क्या उनका कोई अर्थ है? बिलकुल है, पर सीमित है। वो तुम्हें बहुत दूर तक नहीं ले जा पाएँगी, क्योंकि उन सारी विधियों का अंत है। वो सारी विधियाँ समय-सापेक्ष हैं। उसमें से एक भी विधि ऐसी नहीं, जो निरंतर चल सके। और जो निरंतर चल सके, वो विधि एक ही होती है। वो फिर विधि नहीं, उसका नाम ‘ध्यान’ ही है। उसको ‘ध्यान की विधि’ कहना उचित नहीं होगा, फिर वो स्वयं ‘ध्यान’ है। क्योंकि ‘ध्यान’ ही अकेला है, जो निरंतर हो सकता है। आत्मा निरंतर है।

आत्मा के अलावा क्या निरंतर है?

तो ‘विधि’ की तो परिभाषा ही यही है – जो शुरु होती हो, और फिर जो ख़त्म भी होती हो। ये ख़त्म होना बड़ा गड़बड़ है। जो विधि कभी ख़त्म ना हो, वो अब विधि नहीं रही। अब वो क्या हो गई? अब वो ‘ध्यान’ ही हो गई। वो फिर ठीक है। ऐसी विधि तलाशो, जो कभी चुकती ना हो, कभी ख़त्म ही ना होती हो।

प्र: आचार्य जी, लोग जब ‘ध्यान’ की बात करते हैं, तो ऐसा लगता है कि ‘ध्यान’ ऐसा कुछ है जो थका दे। आप जो कह रहे हैं, वो थकाएगी नहीं। एफर्ट-लैस है, सरल है। यही है न?

आचार्य: एफर्ट-लैस , लगातार, अन्डेटेक्टेबल (जो पता ना चले)। क्योंकि अगर उसका डिटेक्शन (पता चलना) हो रहा है, अगर उसका पता लग रहा है, अगर वो चेतना में एक बिंदु की तरह, एक छवि की तरह उभर कर आ रहा है, तो थोड़ी देर में थक तो जाओगे ही।

प्र: क्या ये भी अभ्यास करने से आएगा?

आचार्य: सुनो पहले। समझो। और गहरा प्रेम रखो शांति की तरफ़।

जब शांति की तरफ़ गहरा प्रेम होता है, तो अशांति हटाने के लिए आदमी ख़ुद ही विधियाँ खोज लेता है। यही ‘ध्यान’ है। जब शांति के लिए गहरा प्रेम है, तो अशांति हटाने के लिए आदमी खुद ही उपाय खोज लेता है। वही ‘ध्यान’ की विधियाँ हैं।

प्र: आचार्य जी, कई बार ऐसा होता है कि जब ध्यान करता हूँ, तो शरीर अकड़ जाता है। गर्दन पूरी अकड़ जाती है। कई बार ध्यान करते-करते गिर भी जाता हूँ। फिर लगता है कि – क्या है ये सब? फिर उठो, ध्यान में बैठो।

आचार्य: इसीलिए पैदा हुए थे कि अकड़ जाओ, गिर जाओ, मुद्रा लगाओ? ये परमात्मा का मैंडेट (आदेश) है? क्यों कर रहे हो ये सब?

प्र: अपने आप ही। मन करता है ऐसा करने का।

आचार्य: तो फिर करे जाओ।

पहले तय कर लो – डोसा खाना है, या बर्गर खाना है। रेस्त्रां में भी जाते हो, तो पहले तय करते हो। वेटर के सामने भी अगर खड़े होकर ऐसी बातें करोगे, तो कहेगा, “भक्क।” वो पूछ रहा है – “डोसा या बर्गर? पहले तय कर लो।” और तुम कह रहे हो, “कभी मन इधर करता है, कभी उधर करता है।”

संसार तक इस तरह की बातें गँवारा नहीं करता, यहाँ तो अध्यात्म है। यहाँ बिना तय करे कैसे काम चलेगा?

प्र: कुछ ऐसा करना है, जो निरंतर हो।

आचार्य: ये चाह निरंतर है? इसको निरंतर रखो, यही ‘निरंतरता’ है।

‘निरंतर’ की निरंतर चाह रखो।

इतना तो कर सकते हो?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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