ध्यान और योग से मिलने वाले सुखद अनुभव || (2019)

Acharya Prashant

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ध्यान और योग से मिलने वाले सुखद अनुभव || (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, ध्यान और योग से मिलने वाले सुखद अनुभवों से मुक्त कैसे हों?

आचार्य प्रशांत: मुक्त क्या होना है! अपने आप को याद दिलाना है कि – जब उसकी छाया ऐसी है, तो वो कैसा होगा।

बड़ी गर्मी पड़ रही हो। तपती गर्मी, लू, जेठ माह की। मान लो यही महीना है, जून का। तुम चले पहाड़ों की ओर मैदानों की गर्मी से बचने के लिए, और जाना है तुमको दूर, ऊपर, रुद्रप्रयाग। पर रुड़की पार किया नहीं, हरिद्वार के निकट पहुँचे नहीं, कि मौसम बदलने लगा। हवा ठंडी होने लगी, दूर हिमालय की रूपरेखा दिखाई देने लगी। सुखद अनुभव होने शुरु हो गए। क्या करोगे? रुक जाओगे? या ये कहोगे, “जिसकी झलक मात्र जलन का, ताप का, दुःख का निवारण कर रही है, उसका सान्निध्य कैसा होगा?”

अचरज होता है मुझे जब लोग योग, ध्यान, भक्ति आदि की आरंभिक अवस्थाओं में जो मानसिक अनुभव होते हैं, उन्हीं पर अटक कर रह जाते हैं। ये वैसी ही बात है कि कोई रुद्रप्रयाग जाने के लिए चला है, और रुड़की में ही बैठ गया। ये ऐसी ही बात है कि कोई मसूरी के लिए निकला है, वो देहरादून से पहले ही बैठ गया।

सच्चे साधक के लिए ये सुखद अनुभव, प्रेरणा हैं दूनी गति से आगे बढ़ने के। और जिसे आगे नहीं बढ़ना, उसके लिए ये जाल हैं। वो रुक जाएगा। वो कहेगा, “इतना ही काफ़ी है। कौन जाए हिमशिखर पर? पहले जितना ताप था, मैदानों पर जितनी जलन थी, वो अपेक्षतया तो कम हो गई न। थोड़ा सुकून मिला, इतना ही काफ़ी है।”

तो यही दो कोटि के लोग होते हैं।

साधक और संसारी में यही अंतर होता है। संसारी को थोड़ा सुकून चाहिए। उसे पूर्ण-मुक्ति चाहिए ही नहीं। जब उसका दुःख बहुत बढ़ जाता है, तो वो कुछ समय के लिए अध्यात्म की शरण में जाता है कि – दुःख बढ़ गया है, थोड़ा-सा कम हो जाए, अपेक्षतया, रेलेटिवली , उसे थोड़ी शांति मिल जाए।

और जैसे ही उसे थोड़ी-सी शांति मिलती है, वो फिर जाकर के संसार के कीचड़ में लोटने लगता है। उसे वास्तव में वो थोड़ी-सी शांति चाहिए ही इसीलिए है, ताकि वो तरोताज़ा होकर दोबारा भीड़ में, ताप में, जलन में लिप्त हो जाए।

साधक का लक्ष्य ऊँचा होता है। साधक ज़िद्दी होता है। वो कहता है , “थोड़ा नहीं, पूरा चाहिए।”

तो जब थोड़ा-सा सुकून मिलता है, तो साधक की ऊर्जा दुगुनी हो जाती है। वो कहता है, “बढ़ो, बढ़ो, आगे बढ़ो।” और जब थोड़ा-सा सुकून मिलता है, तो संसारी की ऊर्जा आधी रह जाती है। वो कहता है, “अब आगे जाकर क्या करना है? यहीं रुक जाओ, फिर यहीं से लौट लो।”

तो घूम फ़िरकर बात वहीं पर आ जाती है – हिमशिखर से प्रेम है क्या? अगर प्रेम होगा, तो रास्ते के सुख, और रास्ते के दुःख, दोनों आगे बढ़ने की ही प्रेरणा बनेंगे। और अगर प्रेम नहीं होगा, तो रास्ते के सुख, और रास्ते के दुःख, दोनों वापस लौटने के ही कारण बनेंगे।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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