प्रश्नकर्ता: यह सब कुछ जो बताया जा रहा है, जो चल रहा है, चाहे ध्यान की विधियाँ, चाहे कुछ भी, जितना भी हमने अब तक करा। उसकी अनुभूति हमें कैसे हो? यह क्यों कराया जा रहा है। कौन सी स्थिति, हमें बताई जा रही है; हमें पहुँचाया कहाँ जा रहा है? और पहुँचना कहाँ है? वो हमें समझ नहीं आ रहा।
आचार्य प्रशांत: तुम्हें खाना खिलाया जा रहा है, उसके बाद क्या बोलोगे कि, "अब बताओ कि खाना खिलाया क्यों?" खाना भी खाओगे, और उसके बाद, उत्तर भी माँगोगे। भूख मिट गयी – क्या यही उत्तर पर्याप्त नहीं है? विचित्र ही होगा कोई आदमी, जो खाना खाने के बाद, यह पूछे, "यह क्या चीज़ है? और यह मुँह से भीतर क्यों डाली जाती है?"
भूख किसे लगी है? क्या नाम है उसका? अरुण?
प्र: अरुण।
आचार्य: अरुण, खाना खाने के बाद पूछ रहा है कि, "यह क्या चीज़ है थाली पर और यह क्यों दी जाती है?" अपनी भूख से पूछो न।
ध्यान क्यों है? क्योंकि तुम अशान्त हो। भक्ति क्यों है? क्योंकि तुम अशान्त हो। सत्संग, अध्ययन, इनकी क्या आवश्यकता है? तुम अशान्त हो।
और अगर ऐसा हो रहा है कि सारी विधियाँ आज़मा रहे हो और फिर भी तुम्हारी हालत में कोई बदलाव नहीं आ रहा, तो वो सारी विधियाँ व्यर्थ हैं, उन्हें त्यागो। तुम्हारे प्रश्न से ऐसा ही लग रहा है। "यह सब जो हम कर रहे हैं, वो क्यों कर रहे हैं?" यह बात तो वही पूछेगा जिसे लगातार करते रहने के बावजूद कोई लाभ ना हुआ हो। तो ऐसा लग रहा है कि जो कुछ आज तक करते आए हो उससे कोई लाभ हुआ नहीं।
बढ़िया है, छोड़ दो।
इतना भी अगर पता चल गया कि, "जो कुछ भी कर रहा हूँ, उससे भूख तो मिटती नहीं", तो अच्छा है। यह खाने-पीने पर जो ऊर्जा लगाते होओगे, पैसा लगाते होओगे, समय लगाते होओगे, वो बचेगा। आदमी, सत्य की तलाश में, आदमी भूख मिटाने के लिए बहुत दौड़ता है और बहुत समय नष्ट करता है। अपने-आप को बहुत निवेशित करता है। आदमी अपना पूरा जीवन इसी कोशिश में गँवा देता है कि किसी तरह शांति मिल जाए।
हमारी ज़िंदगी में, हम सबसे ज़्यादा व्यय किस पर करते है? शांति पर ही तो करते हैं।
तुम एक-एक रुपया जो खर्च कर रहे हो, शान्ति पर ही कर रहे हो, भले ही परोक्ष रूप से। तुम एक-एक पल जो बिता रहे हो, तुम एक-एक कदम जो बढ़ा रहे हो, वो किसके लिए है? शांति के लिए ही है। और यह सब कुछ करके भी, करोड़ों कदम बड़ा कर भी, करोड़ों पल गँवा कर भी, अगर शान्ति नहीं मिल रही, तो अर्थ यही है कि जीवन व्यर्थ जा रहा है।
जो कुछ अभी तक करते आए हो, उसको ज़रा ग़ौर से देखना, शायद वो सब यूँ ही है, व्यर्थ।
प्र२: आचार्य जी, वैसे तो मैं सरकारी नौकरी करता हूँ, मगर कई बार ऐसा ख़याल आता है कि कोई बहुत बड़ा व्यापार हो। अस्पताल खोल दूँ, या बहुत कोई बड़ी चीज़ हो, जबकि वास्तविकता में तो मैं ऐसी जगह हूँ कि वहाँ तक पहुँचना असंभव है। लेकिन, एक दूसरी चीज़ और है कि आध्यात्मिकता और ध्यान करने में भी मेरी रुचि है। तो क्या यह अंतर्विरोध है? मैं और बड़ा व्यापार कैसे कर सकता हूँ? आपने अभी उत्तर भी दिया था, प्रयत्न, अगर उसमें नहीं कर रहे हैं तो...?
आचार्य: बेटा, तथ्यों से दूर हो। जो ध्यान वगैरह तुम करते हो, उसमें भी नहीं देख रहे कि ज़मीनी हक़ीक़त क्या है। वास्तव में चल क्या रहा है, ध्यान के नाम पर और जो तुम्हारे सपने हैं ज़िन्दगी के लिए, उनको भी तुम तथ्यों के तराज़ू पर नहीं तोल रहे, कि, "मुझे बहुत बड़ा व्यापार खड़ा करना है, अस्पताल खोलना है! उसमें जो २०० करोड़ लगेगा वो, लाऊँगा कहाँ से?" और यह दोनों बातें बिलकुल एक हैं।
याद रखना, जो धोखा खाएगा वो एक ही जगह धोखा नहीं खाएगा, वो पचास जगह धोखा खाएगा। जो डरेगा, वो एक ही जगह नहीं डरेगा, वो कई जगह डरेगा। जो कामुक है, वो किसी एक के प्रती कामुक नहीं रहेगा, उसकी वासना, तमाम जगह फैलेगी। समझ रहे हो? कोई अगर नशे में है, तो क्या सड़क का कोई खास गड्ढा ही उसको नहीं दिखाई देगा कि सभी गड्ढों को लेकर ही वो बेहोश, रहेगा?
बोलो?
श्रोतागण: सभी गड्ढों से।
आचार्य: इसी तरीके से अभी तुम्हारा हाल चल रहा है। अगर तुम्हारा ध्यान सच्चा होता तो उसने तो तुम्हें सत्य में स्थापित कर दिया होता। वहाँ कहाँ फिर, व्यर्थ कल्पना पसरती? पर तथ्यों को तुम कहीं भी नहीं देख रहे। ना अपने ध्यान के क्षेत्र में, और ना अपने व्यापार के क्षेत्र में।
ज़िंदगी के प्रति ईमानदार हो जाओ, तथ्यों में जीना सीखो।
पूछो अपने-आप से कि, "यह जो ध्यान है, यह सार्थक है क्या मेरे लिए?" आध्यात्म रुचि नहीं होता, ध्यान रुचि नहीं होता, वो जीवन का केंद्र होता है। कोई यह कहे कि, "मेरी अध्यात्म मे ज़रा रुचि है", तो वैसी ही बात कर रहा है, जैसे कोई बोले, "भैया एक पैकेट चिप्स देना।" यह कोई स्वाद, रुचि, ज़ायके की बात थोड़े ही ना होती है।
अध्यात्म तलवार होता है, जिससे अपना ही गला काटा जाता है।
यह चिप्स चबाने की बात नहीं हो रही यहाँ पर। मनोरंजन थोड़े ही है। मनोरंजन में रुचि होती है, मन को जो दिशा भाये वो उसको रुचिकर लगती है।
मन की सारी दिशाओं को व्यर्थ जान लेना ध्यान है।
तो ध्यान रुचि कैसे हो सकता है?
आगे बढ़ने की मत सोचो। अभी तो अपने-आप से यह पूछो कि, "जैसा मेरा जीवन चल रहा है, उसका क्या हाल है?" बहुत ईमानदारी से, पूरी सच्चाई के साथ, अपनी ज़िंदगी को देखो। कैसा बीतता है दिन, किनसे मिलते हो? क्या खाते हो, क्या पीते हो? दिन भर अनुभव क्या होता रहता है?
आगे की बात बाद में। पहले अभी की बात।
इतना करो, फिर बहुत रास्ते खुलेंगे। जो संभावनाएँ अभी तुम्हें पता भी नहीं चल रही, वो सामने आ जाएँगी। पर जब तक तुम कल्पनाओं से घिरे हो, तब तक वास्तविक संभावनाएँ तुम्हारे सामने नहीं आएँगी।
ठीक है?