प्रश्नकर्ता: यह बात शायद जब कुछ इसके बारे में सोचता हूँ, तो कभी-कभी यह ख़याल आता है कि हमारी जो शिक्षा व्यवस्था है, वो प्लानिंग (योजना) पर बहुत फ़ोकस करती है। या थॉट प्रोसेस (विचार प्रक्रिया) और ब्रेन (मस्तिष्क) पर बहुत फ़ोकस (एकाग्र) करती है, यह बहुत ज़िम्मेदार है।
परन्तु जब हम इतिहास को देखें और बरसों की स्प्रिचुअल प्रैक्टिसेस (आध्यात्मिक साधनाओं) की बात सुनें। और गुरु तो इतिहास में शिक्षा व्यवस्था से बहुत पहले से हैं, तो यह कहानी इतनी पुरानी है कि मनुष्य जाति भुगत ही रही है इसकी वजह से। यह आज की पैदाइश नहीं है। इतना ही समझ पाता हूँ कि यह बात बहुत पुरानी है।
जब यह समझ में आती है बात, तब शायद उन विधियों की खोज शुरू हो जाती है कि कैसे एक विधि पकड़ी जाए और उसका सहारा लिया जाए। और आज से शायद पहले भी बहुत बार हम बात कर चुके हैं।
आप, कृष्णमूर्ति या कोई और मास्टर (गुरु) जिन्होंने इस बात के बारे में ज़्यादा जाना है, या बात की है; वो एक ऐसी बेसिक एक्सपेक्टेशन (साधारण आशा) रखते हैं हमसे, जो शायद एक बहुत बड़ी छलाँग है। अभी जैसे आप ऊँची कुर्सी पर बैठे हैं, मैं समझ रहा हूँ कि उसको सिद्ध करना, कि 'देखिए, इतना आसान है'। पर शायद हम नहीं कर पाते। अपने व्यक्तिगत जीवन में इस तरह से उससे एक दूरी बनाकर रखना, जो मन कर रहा है, या जैसा मैं हूँ।
तो आप या कृष्णमूर्ति हुए, उन्होनें एक बहुत बड़ी उम्मीद शायद लगायी है मानव जाति से कि आप कर पाएँगे। तो वहाँ जब हम ओशो की बात सुनते हैं; ओशो ने भी इस बारे में सौ से ऊपर करीबन विधि हों या जिनको आप ढर्रा बोलते हैं, वह दी हैं।
अब, जब मैं अपने व्यक्तिगत जीवन में देखता हूँ कि सिर्फ़ किताबों पर यक़ीन न किया जाए, ख़ुद देखा जाए कि कैसे जिया जाता है। जब मैंने कोई पद्धति अपनाई है, तो मैंने उसको छोड़ा भी है। पाया है कि मैं उसको छोड़ पाया हूँ, और किसी एक चीज़ से एक मौन भी धारण कर पाता हूँ। तो पाता हूँ कि उससे स्वस्थता का आभास होता है — एक दूरी बनी है। उस मौन को धारण करने से एक दूरी बनी है।
कोई ऐसा नहीं है कि मैंने पकड़ रखा है कि ओशो को पकड़ रहे हैं या किसी को पकड़ रहे हैं। मैं जानता हूँ कि वह ढर्रा है, शायद है। किसी और से बात करूँगा तो शायद बोलेगा, 'ढर्रा है'। तो मुझे लगता है यहाँ पर व्यवहारिक होना, उसकी महत्वता शायद हम बहुत आसानी से छोड़ रहे हैं।
व्हाट इज़ प्रैक्टिकल फ़ॉर ऑल ऑफ़ अस इज़ व्हेर माय जेनेसिस इज़, द क्वेश्चन इज़ कमिंग फ़्रॉम। (हम सभी के लिए व्यवहारिक क्या है यहीं से मेरे प्रश्न की उत्पत्ति हो रही है)। तो शायद वो यही संघर्ष हो, जो अगर मैं पकड़ पा रहा हूँ, उसी की बात वह कर रहे हैं। इस पूरी तलाश में मैं अपनेआप को यहाँ पाता हूँ ।
चौबीस घंटें और सातों दिन वाला ध्यान अच्छा है। यह एक बहुत प्यारी अवधारणा है। मेरे लिए ये अभी भी एक अवधारणा ही है, क्योंकि मैं बार-बार हारता हूँ, मैं बार-बार पीड़ा का अनुभव करता हूँ। हाँ, मैं जानता हूँ कि यह महत्वपूर्ण है क्योंकि हर कोई इसे चाहता है।
हर किसी ने इसके बारे में कहा है; पतंजलि से लेकर ओशो तक, कृष्णमूर्ति तक, हर कोई इसके बारे में बोल रहा है। पर, उनके मार्ग कभी-कभी कुछ चीज़ें करने के लिए कहते हैं, ताकि उस सबसे मानवता की सेवा की जा सके। तो यह है; मैं जहाँ हूँ।
आचार्य प्रशांत: आपको कैसे पता कि पतंजलि जो विधियाँ देते हैं या अन्य गुरुओं ने जो विधियाँ दी हैं, वो लोगों के काम आयी ही हैं, व्यवहारिक रही ही हैं? और कृष्णमूर्ति जो कहते हैं या अन्यों ने जो कहा है, चाहे अष्टावक्र हों, चाहे दत्तात्रेय हों, चाहे कबीर हों — ये सब एक श्रृंखला में हैं, एक ही हैं — इन्होंने कहा है, “क्या विधी, कैसी बात”। आपको कैसे पता कि यह काम नहीं आये?
ज्यों ही बात उठती है व्यवहारिकता की, तो उसके पीछे एक मान्यता है कि योगसूत्र काम आये हैं, कि ध्यान की विधियाँ काम आयी हैं, और सहज समाधि अव्यवहारिक है; कम लोगों को उससे लाभ हुआ है, यह आपको कैसे पता? बताइए कैसे पता? क्योंकि सवाल की बुनियाद में यह बात है।
कुछ लोगों ने अक़्सर कहा है कि कृष्णमूर्ति असफल रहे; आपको कैसे पता कृष्णमूर्ति असफल हैं? हम अस्तित्व के तौर-तरीक़े जानते हैं क्या? जिस दिन जीज़स को सूली लग रही थी, उस दिन कौन कहता कि जीज़स सफ़ल हैं? हम इतने जानकार हो गए कि हम कृष्णमूर्ति पर — और यह अभियोग ही है कि कृष्णमूर्ति ने जो कहा वह किसी के काम नहीं आया। यह कई गुरुओं ने कई दफ़े कह दिया है कि कृष्णमूर्ति व्यवहारिक नहीं हैं, कि कृष्णमूर्ति से बहुत लोगों को फ़ायदा नहीं होगा। आपको कैसे पता कि कृष्णमूर्ति से किसी को फ़ायदा नहीं हो रहा?
पहली बात तो, क्या संख्याएँ गिनी जा सकती हैं? दूसरी बात — क्या बात संख्याओं की है? सौ सुनार की एक लोहार की! चल रही होगी हज़ारों की भीड़ आपके पीछे; अगर कृष्णमूर्ति को सुन के, गुन के कोई एक भी फूल खिल जाता है, तो वह आपकी हज़ारों की भीड़ से ज़्यादा महत घटना घटी है। पहली बात तो संख्याएँ गिनी नहीं जा सकती। दूसरी बात, गिन भी ली तो संख्याओं का क्या मोल।
गुरुओं ने विधियाँ दी हैं — ज़रा समझिएगा विधियों की बात — पतंजलि विधियाँ देते हैं, अन्य शास्त्र हैं जिनमें सौ से ऊपर विधियाँ हैं; क्या वो विधियाँ सबके काम आयी हैं? क्या वो विधियाँ सबके काम आयी हैं?
विधि उसके ही काम आती है जो समर्पण के साथ सुन ले। विधि तो फिर आगे की बात है, बहाना है एक तरह का। असली बात यह है कि आपने सुन लिया। आपने अपना कर्ताभाव त्याग दिया। आपने कहा, 'जो कहा जा रहा है, ठीक है।'
आप अपना कर्ताभाव त्याग दो, उसके बाद गुरु ने यह भी कहा हो न कि 'तुम्हारी विधि यह है कि रोज़ एक बार सुबह दौड़ जाया करो, एक बार शाम को दौड़ जाया करो। या कि जाया करो और पड़ोसी का घर छूकर के आ जाया करो या जब खाना खाने बैठो, तो तीन बार कटोरी बजा दो।' तो भी वो विधि आपके उतने ही काम आनी है। क्योंकि बात किसी कृत्य की, किसी प्रक्रिया की थी ही नहीं; बात थी झुक जाने की, बात थी उस लोच की। और अगर आप झुके नहीं हो, तो आप फिर जीवनभर कटोरियाँ बजाते रहो, उससे कुछ मिलेगा नहीं आपको।
विधि तो ऐसा ही है जैसे प्रेम में दिया गया तोहफ़ा। तोहफ़े की क़ीमत है या प्रेम की? और यदि प्रेम नहीं है, तो तोहफ़े की क्या कीमत है? ठीक उसी तरीक़े से जब आप गुरु के सामने समर्पित रहते हैं, तो वो विधि दे देता है आपको, मंत्र दे देता है। कुछ भी बोल सकता है कि यह करो। वो कोई बिलकुल ऊल–जलूल, ऊटपटाँग बात भी हो सकती है, जो वो आपसे कहे कि करो।
ठीक वैसे जैसे प्रेम में अक्सर कुछ ऊल–जलूल बातें भी हो जाती हैं। माँ-बेटे का संवाद सुनिए कभी आप। छोटा बच्चा हो, वहाँ किस भाषा में बात चल रही होती है? वो आठ महीने का है अभी, क्या बात चल रही होती है? अब आ सकता है कोई जो कहे, 'देखो यह जो है, यह प्रेम का नया शास्त्र है।' वो उसकी रिकॉर्डिंग (संग्रहण) कर सकता है, फिर उसको लिख सकता है, और फिर आने वाली सारी नस्लों को हस्तांतरित कर सकता है कि इस शास्त्र का जो रोज़ पारायण करेगा, वह प्रेम में दीक्षित हो जाएगा। कुछ हो जाना है? वह शास्त्र ऐसे बोलता है— 'कुत का तू कुल्लू।' क्योंकि माँ बच्चे की तो यही बात होनी है।
और मानवता ने यही करा है। गुरुओं ने प्रेम से जो तोहफ़े दे दिए, उन तोहफ़ों को पकड़ कर बैठ गए हैं; प्रेम बहुत पीछे छूट गया। वो तोहफ़े अपनेआप में बहुत काम के नहीं हैं।
एक दफ़ा मैं ऋषिकेश में था। एक सज्जन थे अमेरिका से। वो इन्हीं एक-सौ-बारह विधियों के शास्त्र पर अपना केंद्र चलाते हैं, अपनी आजीविका चलाते हैं। वो ज़रा रुष्ट हो गए। वो मेरे पास आए, उन्होंने वो पूरा ग्रंथ मेरे हाथ में थमा दिया। मैंने कहा — 'मैं इसे जानता हूँ।' बोले, 'देखिए, इसमें इतनी विधियाँ हैं, इनका पालन करेंगे तो ध्यान तो लगेगा ही न, शांति आएगी।'
मैंने उसके पन्ने खोले। मेरी निहार इस विधि पर पड़ी, वो कहती थी कि किसी गहरे कुएँ में चाँद की आकृति को देखो, और एकटक देखते जाओ ध्यान लग जाएगा। यह विधि है, ध्यान की। मैंने कहा, 'एक बात बताओ। कुआँ न हो, तो खोदोगे? आज के ज़माने में कुआँ कहाँ पाओगे चाँद की आकृति देखने के लिए? या कुदाल लेकर साथ चलोगे? और अगर अरब में रहते हो, जहाँ खोदते-खोदते भी पानी न मिले, पेट्रोल मिल जाए भले।'
बोले —'नहीं, आप समझ नहीं रहे हैं।'
मैंने कहा — 'समझाओ'।
बोले – 'एक-सौ-बारह हैं, बाकि मेरे काम आ जाएँगी।'
मैंने कहा — 'तो चुनाव करा न?'
बोले — 'हाँ।'
मैंने कहा — 'किस आधार पर करा?'
बोले — 'यह जान कर कि मेरे लिए क्या उचित है।'
मैंने कहा — 'तो फिर जब यहाँ चुन सकते हो कि किस मौक़े पर क्या करने से ध्यान लग सकता है, तो उसी तरीक़े से जीवन में प्रतिपल क्यों नहीं चुन सकते?'
फिर मैंने पूछा — 'अच्छा, चुनोगे कैसे? इस आधार पर कि अहंकार बचा रहे, सुविधा बची रहे?'
बोले — 'नहीं, इस आधार पर चुनूँगा कि अहंकार विलीन हो जाए और ध्यान लग जाए।'
मैंने कहा — 'ठीक इसी तरीक़े से, फिर जीवन में हर मौक़े पर चुन लो। फिर तो चुनने वाले तुम नहीं हुए न। क्योंकि अगर तुम अहंकार बचाए रखने के लिए चुनते, तो तुम चुन रहे होते। अब तो जो तुम चुन रहे हो, वो चुनाव है ही नहीं; वो तो बोध का सहज कर्म है।'
एक-सौ-बारह का जो आँकड़ा है, वो ख़ुद बड़ा सांकेतिक है। एक-सौ-बारह का क्या अर्थ है? एक-सौ-बारह का अर्थ है — अनेक। तो एक-सौ-बारह विधियाँ नहीं दी गयी हैं, बताया गया है कि सैकड़ों हो सकती हैं, हज़ारों हो सकती हैं। जो तुमको रुचे वही हो सकती है।
जीवन में प्रतिपल एक अलग विधि है; बस समर्पित रहे आना, बस झूठे मत हो जाना। और वो विधियाँ इतनी हैं, और इतनी विविध हैं कि जितना विविध जीवन है। जैसे जीवन में नहीं तुम्हें पता होता कि अगला क्षण क्या स्थिति, क्या घटना, क्या माहौल लेकर आएगा तुम्हारे सामने; वैसे ही तुम्हें यह भी नहीं पता होना चाहिए कि अगले क्षण में तुम्हारे लिए ध्यान की उचित विधि क्या है।
कोई क्यों कहता है मुझे या कृष्णमूर्ति को, कि हम विधियों के विरोधी हैं। आपको एक-सौ-बारह विधियाँ मिल जाती हैं, तो आप प्रफुल्लित हो जाते हैं। और जब कृष्णमूर्ति कहते हैं या मैं कहता हूँ कि अनंत विधियाँ हैं। एक-सौ-बारह नहीं हैं, हज़ारों हैं, लाखों हैं। तो फिर यह बात अरुचिकर क्यों लगती है?
इसलिए लगती है, क्योंकि एक-सौ-बारह एक सीमित आँकड़ा है, उसमें मन आश्वस्ति पाता है। हमें पता चल गया एक-सौ-बारह हैं, इन्हीं एक-सौ-बारह के बीच से चुनाव करना है। और जब कह दिया जाता है कि विधियाँ अनंत हैं, जहाँ मौजूद हो और जैसे हो, उसी क्षण जीवन अनुसार एक उचित विधि, एक नयी विधि तुम्हें खोज निकालनी है; तब ज़रा ज़िम्मेदारी लगती है।
पहले तो आसान था न, पाँच रटी-रटायी चीज़ें हैं, उन्हीं में से किसी पर ऊँगली रख दो। अब तो बड़ी ज़िम्मेदारी डाल दी गयी कि अगर यहाँ बैठे हो कुर्सी पर, तो यहाँ पर ध्यान की सही विधि निकाल लो। और अगले ही पल माहौल बदल चुका है, संसार बदल चुका है, जीवन बदल चुका है, मन बदल चुका है; अब फिर एक नयी विधि निकालो।
जो विधि इस कक्ष के भीतर प्रासंगिक है, वो बाहर धूप में नहीं होगी। क्योंकि बाहर धूप में तुम, तुम नहीं रहे जो यहाँ पर हो। मन बदला, तो विधि भी बदलेगी। और फिर जब तुम सड़क पर चले जाओगे, और जब तुम अपनी गाड़ी के स्टीयरिंग के साथ हो, तब फिर तुम्हें नयी विधि चाहिए; पुरानी विधियाँ काम नहीं आएँगी।
तो जब मैं कहता हूँ कि कोई विधि उपयोगी नहीं हो सकती, तो मैं कह रहा हूँ कि अनंत विधियाँ उपलब्ध हैं, इसीलिए कोई एक ख़ास निश्चित विधि उपयोगी नहीं हो सकती।
नो मेथड ऑफ मेडिटेशन (ध्यान की कोई विधि नहीं) का मतलब होता है — इन्फ़ाइनाइट मैथड्स ऑफ मेडिटेशन (ध्यान की अनंत विधियाँ)। नो मेथड का अर्थ होता है कि प्रतिक्षण एक नया तरीक़ा होना ही चाहिए, क्योंकि प्रतिक्षण नया है।
जैसे कि हर साँस नयी होनी चाहिए। जैसे कि किसी के सामने बैठते हो, तो तुम्हारी मौजूदगी होती है, तुम्हारी उपस्थिति होती है, तुमने आधे घंटे पहले जो बात की होती है, वही आधे घंटे बाद थोड़े ही कर रहे होते हो। किसी के पास बैठते हो, तो जो बात का पूरा स्वाद है, माहौल है, कलेवर है; वो बदलता रहता है कि नहीं बदलता रहता है? आगे बढ़ता है कि नहीं बढ़ता है? हृदय में प्रेम होता है, लेकिन बातें तो बदलती रहती हैं न?
सुबह बैठे थे प्रेमिका के साथ, तो कहोगे — 'कितना खूबसूरत सूरज है।' अब यही बात आधी रात को थोड़े ही बोलोगे। पर विधियों वाली बात तो यह हो गयी कि समय कुछ भी हो, माहौल कुछ भी हो, विधि वही उपयुक्त हो रही है।
अरे! जो जैसा समय है, जैसा मन का मौसम है, जैसे हालात हैं; उसके अनुरूप विधि तत्काल खोज निकालो न। और वो खोज तत्क्षण होती है। तुम खोजोगे तो देर लगेगी। क्योंकि तुम खोजोगे तो अपनेआप को बचाने का प्रयास करके खोजोगे। फिर तुम कहोगे — 'कौनसी वाली सटीक बैठेगी!'
जब तुम नहीं खोजते, तब जो सहज समर्पित कर्म है, वही उचित ध्यान की विधि है। जिसका निष्कर्ष यह हुआ कि तुम्हें अलग से कोई विधि चाहिए ही नहीं।
एक उचित जीवन ही ध्यान की सर्वोत्तम विधि है। जो सही जीवन जी रहे हैं, वो जीवन ही ध्यान है। और सही जीवन के अतिरिक्त कोई ध्यान हो नहीं सकता। वरना वही बात होगी कि तोहफ़ा पकड़ लिया, प्रेम पीछे छोड़ आए।
पतंजलि से अगर आपको लाभ होगा, तो इसलिए नहीं कि आपने पतंजलि के कहे का पालन किया। पतंजलि से आपको लाभ होगा, तो इसलिए क्योंकि आपने सर्वप्रथम यह माना कि कोई तो है, जिसके आगे सिर झुक सकता है। कहाँ झुकाया, किसके आगे झुकाया, बात बेमानी है; कहीं झुकाया न? पतंजलि के आगे झुकाया, लाभ उसी क्षण हो गया, पता बाद में चलता है।
मैं तुम से कह रहा हूँ, 'गुरुओं ने ऐसी-ऐसी विधियाँ दी हैं अहंकार को तोड़ने की, कि बौरा जाओ, भेजे में न घुसें। यह कौन से गुरु हैं और यह क्या करवा रहे हैं!'
कोई बोलता है, 'जाओ, सिर मुंडाकर आ जाओ।' अब आप कहें कि ये अब मुक्ति की विधि हो गयी। हम जाएँ और सिर मुंडाकर आ जाएँ और जीवन भर हम मुंडे ही रहें, तो इससे हमें मोक्ष प्राप्त हो जाएगा; तो नहीं होगा।
वह ऐसा था व्यक्ति, उस गुरु के सामने, जिसको रहा होगा अपने बालों से प्यार, जिसकी अहंता उसके बालों से जुड़ गयी थी। तो उसको कहा, 'जा बाल मुंडा'। अब ‘बाल मुंडाना’ कोई साधना की विधि थोड़ी ही हो गयी। हाँ, उनके लिए वो आज भी उपयोगी है जिनके मन बालों से आसक्त हों। उनके लिए वह आज भी उपयोगी है।
और गुरुओं ने हज़ार बातें कहीं हैं, 'जा बाज़ार तक जा, खीर खाकर आ जा।' आप पढ़िए सूफ़ियों की कहानियाँ, आप जाइए ज़ेन में — 'जा पहाड़ चढ़ रोज़ और नीचे उतर। जा जंगल जा और एक हाथ से ताली बजा। जा वापस तभी लौट जब मर जा, जब मर जाए तो वापस आना।"
क्या करोगे? क्या करोगे? बात यह नहीं है कि वो मरकर लौटा या नहीं। बात यह है कि ऐसी उपद्रवी आज्ञा का भी उसने पालन कर लिया। मन में यह विचार न आने दिया कि यह गुरु बौरा गया। और गुरु तो ऐसी आज्ञाएँ देगा ही, जो तुम्हें लगे कि ये तो शोषण ही है। ये पागलपन है, अत्याचार है। अच्छा हुआ शुरू में ही पता चल गया; भागो।
प्र: लेकिन सर, ऐसी कुछ विधियाँ हैं जो आजकल टीवी पर भी बहुत चल रही हैं। जिस पर लोगों ने भी बहुत ज़्यादा बवाल किया है कि 'क्या गोलगप्पे खाने से ये हो जाएगा? ये खाने से वो हो जाएगा?'
पर मैं आपका तथ्य समझ रहा हूँ कि उसके पीछे इरादा क्या है। वही चीज़ जो आप बता रहे हैं। और मुझे ऐसा लगता है कि कुछ जो समझदार लोग हैं, उनके लिए यह चीज़ बहुत मायने रखती है।
किंतु मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि जिनको यह समझ नहीं है वे समझदार नहीं हैं। पर जो कुछ मैं कहने की कोशिश कर रहा हूँ, वो ये है कि उसको करने के बाद अगर कोई उसका श्रेय लेना शुरू दे, और कहें कि मेरे पास कुछ आध्यात्मिक शक्तियाँ हैं जिससे मैं बहुत कुछ देख सकता हूँ। तो इसके बारे में आप क्या सोचते हैं, क्या यह वास्तविक प्रेम है?
आचार्य: (अस्वीकृति में सिर हिलाते हैं) देखो, प्यार में गोलगप्पा खिला दे, तो गोलगप्पे में थोड़े ही कुछ ख़ास हो गया। फिर पूछता हूँ, 'तोहफ़े वाला उदाहरण भूले तो नहीं न!' प्यार में गोलगप्पे ख़ूब खिलाए जाते हैं, गोलगप्पे की बात ही नहीं है। विचारणीय बस एक चीज़ है, क्या? प्यार था कि नहीं था। प्यार था तो गोलगप्पा अब अमृत हुआ। और नहीं था, तो तुम गोलगप्पा नहीं उसे अमृत पिला दो, तो भी कुछ नहीं मिलना है।
जो भी लोग इस तरह की बातें कहते हों कि जाओ गोलगप्पा खा लो या जो भी कर लो, यह सब है। उनकी आलोचना आप इस आधार पर नहीं कर सकते कि उन्होंने गोलगप्पा खाने को क्यों बोला या चटनी खाने को क्यों बोला। उनकी यदि आलोचना हो सकती है, उनका यदि मूल्यांकन हो सकता है, तो सिर्फ़ एक आधार पर कि जो उन्होंने कहा, वो उन्होंने अपने प्रेम और बोध से कहा या नहीं कहा।
प्रेम से यदि कहा, तो गोलगप्पा भी फल दे देगा। प्रेम से यदि कहा, तो सबसे मूर्खतापूर्ण लगने वाला काम भी ऐसे फल देगा जो कल्पनातीत है। और प्रेम से यदि नहीं कहा, तो सबसे सुगठित विधि भी असफल ही जानी है।
हज़ारों-लाखों उदाहरण हैं बड़े-बड़े जुटे हुए साधकों के जिन्होंने जटिलतम विधियों का प्राणपण से पालन किया है। वो कहते हैं कि जैसे-जैसे ठीक बताया गया है, वैसे-वैसे करेंगे। पर विधियों का पालन करते समय अपनेआप को साथ लिए रहते हैं। और तो सब छोड़ देते हैं पीछे; अपना हौसला नहीं छोड़ते। कहते हैं, 'मैं करके दिखाऊँगा।' कुछ लाभ नहीं होना है, क्योंकि अब आपका और आपके गुरु का रिश्ता प्यार का नहीं है; ज़ोर आज़माइश का है। आप अभी भी यही कह रहे हो कि करके दिखाऊँगा।
वही जीवित गुरु आपके सामने आ जाए और आपको उससे अलग कोई विधि दे दे; आप पालन नहीं करोगे। वही जीवित गुरु आपके सामने आ जाए और वही विधि दे-दे जो आप किताबों में लिख रहे हो; आप उसकी सुनोगे नहीं। क्योंकि किताब के सामने झुकना आसान होता है, 'योग सूत्र' के सामने झुकना आसान है; पतंजलि के सामने झुकना बड़ा मुश्किल है।
सवाल यह उठता है कि तुम झुके कि नहीं? जो बात तुमको तर्कपूर्ण लग रही हो, अगर तुमने वो मान ली तो क्या तुमने बात, कहने वाले की मानी है? नहीं। तब तो तुमने बात अपने तर्क की मानी है न? तुमने बात ली, तुमने उसको अपने तर्क की कसौटी पर कसा और तुम्हें वो बात तर्कयुक्त लगी, तो तुमने उसको मान लिया। अब तुम मुझे ये बताओ कि तुमने क्या कहने वाले की बात मानी? तुमने अपनी मानी न!
इसीलिए ऐसी-ऐसी बेबूझ पद्धतियाँ दी गयी हैं, जो बिलकुल बुद्धि को चित्त कर दे। विधियों में जो बोला गया है, वो करने से कुछ नहीं होगा। अंतर सूक्ष्म है, ध्यान देना! जो बोला गया है वो करने से कुछ नहीं होता; जो बोला गया है, उसके सामने झुकने से सबकुछ होता है। तुम बिना झुके वो सब करे जाओ जो करने को कहा गया है; तुम्हें कोई लाभ नहीं होगा।
और हम यही करते हैं। तुम बिना झुके, वह सब करते जाओ जो तुम्हें करने को कहा गया है; तुम्हें कोई लाभ नहीं होगा। इसी कारण लाभ नहीं होता। इसी कारण हज़ारों-लाखों-करोड़ों लोग बैठते हैं ध्यान में, कोई प्राणायाम कर रहा है, कोई आसन लगा रहा है। लाखों-करोड़ों बैठते हैं, और अपनी दैनिक प्रक्रियाओं के बाद वो अपनेआप को पुनः उन्हीं स्थितियों में पाते हैं जिनमें वो बरसों से क़ैद रहे हैं।
प्र: तो एक बार हमने आपके साथ ऋषिकेश में एक शिविर किया था। तब मैंने आपसे पूछा था इफ़ वन अनदर बैड सिचुएशन, व्हाट कैन यू डू टू कम आउट ऑफ दिस सिचुएशन (कि अगर किसी पर बुरी स्थिति आ जाए तो उससे बाहर निकलने के लिए क्या कर सकते हैं)? और तब आपने यहाँ तक कहा था कि उसे इससे बाहर निकलने के लिए तड़पना चाहिए। उसे उस स्थिति के लिए तड़पना चाहिए, जो उसके अनुसार उससे ऊपर है।
अभी मैंने पीछे कोई एक वीडियो देखी, तो वो वीडियो में किसी ने पूछा यूट्यूब पर कि शुड वन लोंग फ़ॉर समथिंग (क्या किसी को किसी चीज़ को पाने के लिए तरसना चाहिए)? तो तब आपने कहा, 'ये ठीक है। लोंगिंग इज़ राइट। तरसना अथवा लालायित होना सही है।'
तो मैं उस दिन से थोड़ा गड़बड़ में हूँ कि क्या लोंगिंग (तरसना अथवा लालायित होना) सही है? मेरे को समझ में नहीं आ रहा है कि क्या मुझे कुछ चीज़ों के लिए तरसना चाहिए? या जो स्थिति जैसी है वैसी ही रहे, और मुझे उसे बदलने के लिए नहीं तरसना चाहिए?
आचार्य: मुझसे पूछते हो कि किसी चीज़ की, व्यक्ति की, वस्तु की याद करूँ कि न करूँ, अपेक्षा करूँ कि न करूँ, कामना करूँ कि न करूँ? यह कैसी कामना है जो किसी के कहने से उठ जाएगी और किसी के मना करने से दब भी जाएगी? वाक़ई कभी कुछ चाहा है दिल से? जब कोई दिल से चाहता है, तो कोई भी मना कर ले; चाहत कैसे चली जाएगी?
मुझसे पूछते हो, 'इज़ लोंगिंग राइट ऑर रोंग ' (लालसा सही है अथवा ग़लत)? मैं कह रहा हूँ, 'दिस लोंगिंग डज़नॉट एग्ज़िस्ट। इट इज़ फ़ेक (यह लालसा है ही नहीं, यह झूठी है।)।' अब राइट-रोंग (सही-ग़लत) का सवाल क्या है? जो है ही नहीं, उसको राइट क्या बोलूँ, रोंग क्या बोलूँ; झूठा है।
तुमने लोंगिंग जानी नहीं। असली लोंगिंग वियोग होती है, विरह होती है। तुम जाकर बोलो गोपियों से कि कृष्ण की याद मत करो। लोंगिंग इज़ बैड। (लालसा बुरी है।) उद्धव ने थोड़ी सी कोशिश करी थी; फिर वो तुमको पाठ पढ़ाएँगी।
प्रेम में तड़पते हृदय को जाकर बोल दो लोंगिंग इज़ बैड (तड़प बुरी है)। और जिसका हृदय बिलकुल पाषाण हो चुका हो, उसको जाकर के बोल दो, 'लोंगिंग इज़ राइट (तड़प अच्छी है)। तुम्हें किसी के प्यार में व्याकुल होना ही चाहिए।' फिर देखो उसमें कितनी व्याकुलता उठती है!
ये बातें दिल की होती हैं। ये बातें करने की नहीं होती। ये बातें हो गयी तो हो गयी, नहीं हो रही तो जान लो कि तुम खुद बाधा हो। ये बातें ज़बरदस्ती नहीं की जातीं।
'सर, शुड आई सर्च फॉर गॉड और नॉट (आचार्य जी, क्या मुझे भगवान की खोज करनी चाहिए या नहीं)? मैंने कहा — 'यस, यू शुड (हाँ, करनी चाहिए)।' तो तुम निकल पड़े। कहाँ को जाओगे? मैंने कहा — 'नो, यू शुड नॉट (नहीं, तुम्हें नहीं करनी चाहिए) तो तुमने कहा, 'ठीक! हो गया।'
तुम्हारी खोज में कुछ त्वरा है? कुछ जान है? कुछ निजता है? कोई असलियत है? कुछ मौलिकता है? अब यही है विधियों का खेल। देख लीजिए! किसी ने विधि थमा दी, करने बैठ गए। कोई आया और कहा, 'ठीक नहीं है।' तो छोड़ दो। उसमें जान कहाँ है? जान तो तब है न, जब जहाँ हो वहीं नयी विधि मिल गयी।
आप जा रहे हो सड़क पर यहाँ झोपड़ियाँ हैं, उनमें छोटे–छोटे बच्चे खेल रहे होते हैं। मैं विधि बताता हूँ आपको। जाइएगा और किसी छोटे बच्चे को गोद में उठाकर चूम लीजिएगा, उससे बेहतर ध्यान की विधि नहीं हो सकती। यह आपको कौनसा शास्त्र बताएगा? और कौन से शास्त्र को पता है कि यहाँ महर्षि रमण केंद्र से बाहर निकलकर के छोटे-छोटे बच्चे मिलते हैं, जो चूमने के लिए उपलब्ध हैं। कौनसा शास्त्र बताएगा? (श्रोतागण हँसते हैं)
जीवन प्रतिपल नया है इसीलिए ध्यान भी प्रतिपल ही लगना होगा। और जीवन प्रतिपल नये मौक़े देता है ध्यान के। ध्यान ही ध्यान है। ध्यान नहीं है तो जीवन कहाँ है! ध्यान नहीं है तो फिर बेहोशी है, जीवन है कहाँ! जीवन में आप जहाँ भी हैं, जैसे भी हैं, वहीं पर तो ध्यान है न।