प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, अष्टावक्र कहते हैं कि ध्यान की विधियाँ बंधन हैं। मेरी जिज्ञासा यह है कि इतनी सारी ध्यान की विधियाँ क्यों हैं?
आचार्य प्रशांत:
विधियाँ उनके लिए हैं, जिन्हें सत्य को तो पाना है, और अपनी ज़िद को भी बचाना है। ख़ुदा को भी पाना है, और अपनी ज़िद को भी बचाना है। ध्यान की विधियाँ उनके लिए हैं।
जैसे की कोई सौ किलो वज़न उठाकर दौड़ने का अभ्यास करे, और कहे कि – “बहुत मुश्किल है, और मंज़िल पर पहुँचने के लिए कम-से-कम पाँच वर्ष का अभ्यास तो चाहिए।” बिलकुल चाहिए पाँच वर्ष का अभ्यास अगर ज़िद है तुम्हारी कि सौ किलो वज़न लेकर ही चलना है। अब ये जो सौ किलो वज़न है, इसका नाम – ज़िद है, धृति है, अहंकार है।
तो एक तो तरीका यह है कि इस अहंकार को, इस झूठी आत्मीयता को बचाए रखें, और साथ-ही-साथ ज़बरदस्त अभ्यास करते जाएँ। तो एक दिन, सुदूर भविष्य में एक समय ऐसा आएगा जब आप सौ किलो का वज़न लेकर भी आगे बढ़ जाएँगे, पहाड़ चढ़ जाएँगे। और सहज तरीका यह है कि वो जो ज़िद है, उसको सहज ही नीचे रख दीजिए, और सहज जी आगे बढ़ जाइये।
वो जो आप चाहते हैं, वो सहज प्राप्य है।
तो विधियाँ उनके लिए हैं, जो सशरीर स्वर्ग पहुँचना चाहते हैं। जो कहते हैं कि – “हमारा काम -धंधा, हमारी धारणाएँ, हमारी मान्यताएँ जैसी हैं, वैसी ही चलती रहें, और साथ-ही-साथ मुक्ति भी मिल जाए।” तो फिर उनको कहा गया है, “अभ्यास करो।”
अन्यथा अभ्यास की कोई ज़रूरत नहीं है।
तो अभ्यास आवश्यक है या नहीं, वो इसपर निर्भर करता है कि आपमें सत्य के प्रति एकनिष्ठ प्यास है या नहीं। अगर आपमें एकनिष्ठ प्यास है, तो किसी अभ्यास की ज़रूरत नहीं। पर अगर आपका चित्त यदि खंडित है, बँटा हुआ है, दस दिशाओं में आसक्त है, तो फिर तो बहुत अभ्यास करना ही पड़ेगा।
और याद रखिए – आसक्ति मजबूरी नहीं होती, आसक्ति एक चुनाव होती है। आप चुनते हो अपनी आसक्तियाँ।
चूँकि आसक्ति एक चुनाव होती है, इसीलिए आपको सहज ध्यान, सहज समाधि भी चाहिए या नहीं, ये बात भी आपके चुनाव पर है।
चुनिए – तो अभी मिल जाए।
न चुनिए – तो कभी न मिले।
फिर ये कहते रह जाएँगे कि जिनको अभी मिल गया, वो तो अपवाद थे। वो अपवाद नहीं थे। उन्होंने निर्णय किया था कि अभी चाहिए। और वो निर्णय मानसिक तल पर नहीं होता, बौद्धिक तल पर नहीं होता, बहुत विचार करके नहीं होता। वो निर्णय प्रेमवश होता है, वो निर्णय बड़ी मजबूरी में होता है। वो निर्णय बड़ी कातरता में होता है, बड़ी विवशता में होता है। आप चाहकर भी उस निर्णय को बदल नहीं सकते।
वो निर्णय, निर्विकल्पता में होता है।
सोच समझकर निर्णय करेंगे, तो कभी नहीं कर पाएँगे।
सिर्फ़ सच ही चाहिए – ये निर्णय तो वो करते हैं, जो पूरे तरीके से बिक जाते हैं, मजबूर हो जाते हैं। जो अभी बिके नहीं हैं, जिनके अभी बहुत डेरे हैं, धंधे हैं, तमाशे हैं, वो यह कह ही नहीं पाएँगे सहजता से, “और कुछ नहीं, बस एक चाहिए।” तो वो बस फिर अपने आप को बहलाने के लिए, ढांढस बंधाने के लिए, सांत्वना ही देने के लिए, विधियों का अभ्यास करते हैं, ताकि ख़ुद को फुसला सकें कि काम चल रहा है, कार्य प्रगति पर है। ताकि कहीं वो स्थिति न आ जाए कि ख़ुद को ही मुँह न दिखा पाएँ।
तो आदमी अपने आप को ही ज़रा बहला-फुसला लेता है, ज़रा स्वयं से ही ढोंग कर लेता है। अपनी ही नज़रों में न गिर जाए, इसलिए। क्योंकि सैद्धान्तिक तल पर, नैतिक तल पर, उसने मान तो लिया होता ही है कि जीवन का परम लक्ष्य है – मुक्ति। तो कैसे समझाए अपने आप को, कि – “जब परम लक्ष्य ही है मुक्ति, तो मैं तमाम तरीके के धंधे-तमाशों में क्यों फँसा हुआ हूँ।” तो वो फिर कहता है, “मैं फँसा तो हूँ, पर मुमुक्षा भी मुझमें बहुत है। देखो न मैं रोज़ ध्यान करता हूँ।”
ये आत्म-प्रपंचना है, ये ख़ुद को धोखा दिया जा रहा है।
पर चलिए, कोई बात नहीं। सौ किलो वज़न उठाकर भी क्या पता दस-बीस-पचास-सौ साल में कोई पहाड़ चढ़ ही जाए।
प्र: आचार्य जी, पतंजलि ने योग की विधियों के बारे में एक उदाहरण दिया है कि – एक बच्चा बैठा हुआ है कुर्सी पर, और वो कुर्सी पर से भाग जाने के लिए मचल रहा है। जब तक हम उसे भागने से रोकते रहेंगे, तब तक उसका मन मचलता रहेगा, और वो बैठे-बैठे भी कभी कुछ हरकत करेगा, कभी कुछ।
यदि हम उससे कहें कि वो सात चक्कर दौड़ लगाकर आए, तो वो आकर, शांत होकर, कुर्सी पर बैठ जाएगा, और उसका मन भी मचलना बंद हो जाएगा। क्या इन्हीं उदाहरणों को मापदंड बनाकर पतंजलि ने सविकल्प समाधि, व अन्य विधियाँ दीं?
आचार्य: वो तो इस पर निर्भर करता है कि आप अपने आप को बच्चा बनाए रखना चाहते हैं, या नहीं। समाधि बच्चों का तो खेल है नहीं। बड़े-बड़े वयस्क अगर अपने आप को बच्चा ही मानकर, प्रकृतिज ही मानकर रहेंगे, तो फिर तमाम तरीके की विधियाँ ही चाहिए।
बच्चा तो योनिज है, प्रकृतिज है। अभी उसकी चेतना जागृत हो सके, उसका काल ही नहीं आया है। हम दो साल के, या चार साल के बच्चे की बात कर रहे हैं। तो ऐसों के लिए तो कोई ग्रन्थ, कोई गुरु नहीं कहता कि समाधि संभव है। पर ये उदाहरण बड़ों पर लागू नहीं होता। और बड़ा यदि बच्चे जैसा आचरण कर रहा है, तो फिर वो समाधि का न अभिलाषी है, न अधिकारी।
भीतर निश्चित रूप से एक बच्चा बैठा रहता है। पर प्रौढ़ता का मतलब ही यही है कि आप उस बच्चे को पीछे छोड़ आए। तमाम तरीके की अपरिपक्व ग्रंथियाँ भीतर विद्यमान तो रहती ही हैं, पर प्रौढ़ता का, वयस्कता का मतलब ही यही है कि आप आगे बढ़ गए।
भीतर जो बन्दर बैठा है, भीतर जो उधम करने वाला, शोर मचाने वाला बच्चा बैठा है, आप अब वो नहीं रहे।