ध्यान करने बैठते हैं तो मन भटकने क्यों लग जाता है? || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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ध्यान करने बैठते हैं तो मन भटकने क्यों लग जाता है? || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्न: आचार्य जी, प्रणाम । ध्यान करने बैठते हैं, तो मन भटकने क्यों लग जाता है? क्या किया जाए कि ध्यान बना रहे?

आचार्य प्रशांत: उन विषयों में चले जाईए, और देखिए कि उनमें ऐसा क्या ख़ास है कि आप आकर्षित हो जाते हैं।

वो विषय ही तो आपका जीवन हैं, उन्हीं में ज़िंदगी गुज़ार रहे हो चौबीस घंटे। वही विषय आप पर हावी हैं, वही विषय आपकी पूरी ज़िंदगी संचालित कर रहे हैं। तो ज़ाहिर-सी बात है, वो विषय, आप किसी भी क्रिया में बैठें, आप किसी भी प्रयोजन से बैठें, आपको बार-बार पकड़ने भी चले आएँगे। तो किसी भी क्रिया में बैठने से अच्छा है उन विषयों का ही परीक्षण कर लिया जाए।

जो विषय इतने ताकतवर हैं, कि आपको बार-बार घसीट ले जाते हैं अपने साथ, उनको थोड़ा जाँच-परख तो लीजिए, बात तो कर लीजिए कि – “क्या दोगे मुझे?”

“चलो चले चलता हूँ तुम्हारे साथ।”

“बुला रहे हो, चलो चलता हूँ तुम्हारे साथ।”

“हाँ बताओ, क्या दे रहे हो मुझे।”

और ये सवाल पूछने के लिए ध्यान में बैठने की ज़रुरत भी नहीं है, क्योंकि वो विषय आपको मात्र ध्यान के समय ही थोड़े ही आक्रान्त किए हुए हैं।

हमने कहा कि वो विषय तो आपको दिनभर घेरे हुए हैं। तो पूछिए, “दिनभर जैसे जी रहा हूँ, तो क्यों जी रहा हूँ?” उन विषयों को ताकत, प्रधानता, आपने ही तो दी है। आपने ही तो निर्णय किया है कि – “ये विषय महत्वपूर्ण हैं, मुझे इन्हीं से लिप्त रहना है।”

जैसे की आप घर में कोई पालतू पशु पाल लें, कोई कुत्ता पाल लें, और दिनभर आप उसे घुमाएँ, अपनी गोद में रखे रहें, अपने साथ सुलाएँ, अपने साथ खिलाएँ, और फ़िर आधे घंटे के लिए आप कहीं कोने में आसन लगा कर बैठें, कि अब ध्यान करना है, तो अभी वो कुत्ता आपके साथ क्या करेगा? वो आएगा, आपके कान में कूँ-कूँ करेगा, आपको चाटेगा, गोद में बैठेगा। कहेगा कि – “हमारे ही साथ खेलो , हमें दुलारो,” क्योंकि दिनभर उसी के साथ तो रहते हो।

उस कुत्ते का नाम कुछ भी हो सकता है – लोभ, भय, कामवासना। दिनभर उसके साथ रहते हो, तो फ़िर जब आधे घंटे ध्यान लगाने बैठते हो, तो वो तब भी तुम पर हावी रहता है।

कुत्ते को तुम ये थोड़े ही सिखा पाओगे कि – “साढ़े-तेईस घंटे तो मेरे साथ रह, और आधा घंटा मुझसे दूर रहा कर, कुकुर। तू श्वान जाति है, और हम अभी बिलकुल ब्रह्मलीन हैं।” दिनभर तो वो डॉगी जी था, आधे घंटे में वो श्वान थोड़े ही बन जाएगा। दिनभर तो उसको बोल रहे थे, “ओ बेबी,” और आधे घंटे के लिए बोल रहे हो, “हट श्वान, कुकुर,” वो थोड़े ही मान लेगा। वो कहेगा, “हम तो मुँह चाटेंगे ही तुम्हारा।”

ज़्यादातर ध्यानियों की यही हालत है। दिनभर, “बेबी, बेबी,” आधे घंटे के लिए, “हट! श्वान।” काट और लेगा। कुत्ता वफ़ादार होता है, इसलिए बेवफ़ाई पसंद नहीं करेगा। एकदम काट लेगा।

“बेवफ़ा मालिक!”

वफ़ादार कुत्ता, बेवफ़ा मालिक। काटे तो जाओगे ही।

ऐसे ही तो करते हो न? दिनभर जिसको खुद ही पालते हो, पोसते हो, ध्यान और अध्यात्म के ख़ास क्षणों में चाहते हो कि वो दूर ही दूर रहे। ऐसा होगा?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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