प्रश्नकर्ता (प्र): ध्यान का आखिरी बिंदु क्या है और ध्यान की अवस्थाएँ क्या-क्या हैं?
आचार्य प्रशांत (आचार्य): ध्यान का आखिरी बिंदु, चरम बिंदु होता है मौन। और वही ध्यान का प्रथम बिंदु भी है। मौन की जगह जब मन होता है, तब मन मौन की ओर भागता है। मन का होना अपने-आपमें एक पीड़ा है। मन मौन की तरफ़ भागता है और बीच में कोई अवस्था वगैरह नहीं होती। या तो मन है या मौन है। बीच में जितनी भी अवस्थाएँ हैं, वो मन की ही अवस्थाएँ हैं। और उसमें से कोई निम्नतर-उच्चतर नहीं है। निम्नतर-उच्चतर कह कर के तो आप ये कह रहे हो कि इनमें से कोई अवस्था दूसरे से श्रेष्ठ है।
मौन मन की सभी अवस्थाओं से इतना अलग और इतना ऊँचा है कि उसके सामने मन की अवस्थाओं की तुलना व्यर्थ ही है। ऐसा समझ लीजिये जैसे कि आप एक रुपय की तुलना करें एक करोड़ से, या दो रुपय की तुलना करें एक करोड़ से, कोई फ़र्क नहीं पड़ता न? और ये तो मैंने एक करोड़ कहा। अगर एक करोड़ की जगह मैं कह दूँ अनंत, असीम, तो दोनों ही तुलनाओं में आपको पता चलेगा कि एक लें कि दो लें, कि दस लें, कि बीस लें, नतीजा शून्य। गणित की भाषा में कहूँ तो एक बँटा अनंत हो या एक सौ बटा अनंत हो, दोनों एक बराबर है न? या आप ये कहोगे कि सौ बँटा अनंत सौ गुना है एक बँटा अनंत का? क्या ऐसा कहना चाहोगे? तो मौन के समक्ष मन की सभी अवस्थाएँ एक बराबर हैं। उनको निम्नतर या उच्चतर कहा ही नहीं जाना चाहिए। मौन अनंत है।
मन की कोई भी अवस्था हो, है तो मन की ही न, है तो गति की ही न, है तो विचार की ही न? और जहाँ गति है, जहाँ विचार है, वहीं पीड़ा है। आपको यह साफ़-साफ़ देखना होगा कि ऊँचा विचार और नीचा विचार, अच्छा विचार और बुरा विचार, ये सबकुछ मात्र विचार को बनाए रखने के बहाने हैं। “मैं अगर बुरे विचार में हूँ, तो मैं अच्छे विचार की ओर चला जाऊँ”, गति हो गई न? “मैं अगर अच्छे विचार में हूँ, तो इसी को बनाए रखूँ,” गति कायम रही न? ये सब गति बनाए रखने के और न ठहरने के बहाने हैं।
मौन की ओर जाना है और उसकी शुरुआत भी मौन से ही होती है। मौन ही है जो आपको पुकारता है मौन की तरफ़। आपको मौन का यदि कुछ पता न होता, तो आप मौन की ओर आकर्षित भी नहीं होते।
प्र: अगर हमें परमात्मा से प्रेम करना ही है, तो हमें क्या करना चाहिए?
आचार्य: पहली बात तो ये है कि कोई बाध्यता नहीं है। “*हैव टू लव गॉड*” (भगवान से प्रेम करना ही है) जैसा कुछ होता नहीं है। कोई मजबूरी नहीं है, कोई दायित्व नहीं है। आप जिसको जानते नहीं, समझते नहीं, आप उससे प्रेम क्या करेंगे?
यह तो छोड़ ही दीजिये कि आप परमात्मा को नहीं जानते, आप तो प्रेम को भी नहीं जानते। और आप बात कर रहे हैं परमात्मा से प्रेम की। परमात्मा से प्रेम जैसा उस अर्थ में कुछ होता नहीं जिस अर्थ में आप आमतौर पर प्रेम को जानते हैं। आप बीवी-बच्चों से प्रेम जानते हैं, आप आदर्शों से प्रेम जानते हैं, आप विचारों से प्रेम जानते हैं, आप वस्तुओं से प्रेम जानते हैं। इन सब से प्रेम जानते हैं आप। उस अर्थ में परमात्मा कोई प्रेम का विषय नहीं हो सकता।
सत्य से कोई प्रेम नहीं किया जाता और इन सब धारणाओं ने नुकसान भी बहुत पहुँचाया है कि लव गॉड (भगवान से प्रेम करो)। फिर तो सत्य से भी आपका सम्बन्ध वैसे ही हो जाएगा, जैसा आपका दुनिया में उन सब से सम्बन्ध है जिनसे आपका तथाकथित प्रेम है। आपका प्रेम होता है अपने पड़ोसियों से, और रिश्तेदारों से, और पत्नी से, और कैसा प्रेम होता है? स्वार्थ का, शरीर का, वासना का। तो फिर परमात्मा से भी वैसा ही प्रेम हो जाता है आपका।
सत्य में हुआ जाता है और सत्य में होने का एक मात्र तरीका है कि जो झूठा है, उसको झूठा जान लो। और जो झूठा है उससे तुम घिरे ही हुए हो। झूठे को झूठा जानने के लिए तुम्हें कुछ करना नहीं है, कहीं जाना नहीं है, कुछ नया नहीं करना है। कोई विशेष आयोजन नहीं करना पड़ेगा क्योंकि झूठ से तो दिन-रात घिरे ही हुए हो न? जो हो रहा है, बस ज़रा शांत हो कर के उसको देख लेना है। मौन हो कर के सारी आवाजों को और शोर को सुन लेना है। हो गया।
ज्यों ही सारे शोर को सुना, त्यों ही कई बातें एक साथ हो गईं। पहली बात: शोर को तुम सुन नहीं सकते बिना मौन हुए, तुम मौन में हो गए। दूसरा तुमने शोर और मौन में भेद सीख लिया। इसको विवेक कहते हैं। तीसरा तुम जान गए कि इन दोनों में कीमती कौन है। इसी को प्रेम कहते हैं, ‘किसकी ओर जाना है।’
अपने तौर-तरीकों की व्यर्थता और निरर्थकता को देख लेना ही सत्य से प्रेम कहलाता है। वही सत्य की अनुकम्पा भी है, और वही सत्य के प्रति तुम्हारा प्रेम भी है। सत्य की अनुकम्पा के बिना तुम असत्य को असत्य जान नहीं सकते। और एक बार असत्य को असत्य जाना और सत्य को सत्य, तो सत्य इतना प्यारा लगता है कि उसके बिना जी नहीं सकते–ये प्रेम है।