प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, ध्यान अथवा योग से उत्पन्न होने वाले सुखद अनुभवों से मुक्त कैसे हों?
आचार्य प्रशांत: मुक्त क्या होना है! और अपनेआप को याद दिलाना है कि जब उसकी छाया ऐसी है, तो वो कैसा होगा!
बड़ी गर्मी पड़ रही है, तपती लू, जेठ माह की — मान लो, यही महीना है जून का — तुम चले पहाड़ों की ओर, मैदानों की गर्मी से बचने के लिए। और जाना है तुमको दूर, ऊपर, रुद्रप्रयाग। पर रुड़की पार किया नहीं, हरिद्वार के थोड़ा निकट पहुँचे नहीं कि मौसम बदलने लगा, हवा ठंडी होने लगी, दूर हिमालय की रूपरेखा दिखाई देने लग गयी। सुखद अनुभव होने शुरू हो गए। क्या करोगे? रुक जाओगे या यह कहोगे कि जिसकी झलक मात्र जलन का, ताप का, दुख का निवारण कर रही है, उसका सान्निध्य कैसा होगा!
अचरज होता है मुझे, जब लोग योग, ध्यान, भक्ति आदि की आरम्भिक अवस्थाओं में जो मानसिक अनुभव होते हैं, उन्हीं पर अटक कर रह जाते हैं। यह वैसी ही बात है कि कोई रुद्रप्रयाग जाने के लिए चला है, और रुड़की में ही बैठ गया। ऐसी ही बात है कि कोई मसूरी के लिए निकला है, और देहरादून से पहले ही बैठ गया।
सच्चे साधक के लिए ये सुखद अनुभव प्रेरणा हैं, दोगुनी गति से आगे बढ़ने की। और जिसे आगे नहीं बढ़ना, उसके लिए ये जाल हैं; वह रुक जाएगा। वह कहेगा, 'इतना ही काफ़ी है, कौन जाए हिमशिखर पर। पहले जितना ताप था, मैदानों पर जितनी जलन थी, वह अपेक्षतया तो कम हो गयी न; थोड़ा सुकून मिला, इतना ही काफ़ी है।'
तो यही दो कोटि के लोग होते हैं। साधक और संसारी में यही अंतर होता है। संसारी को थोड़ा सुकून चाहिए, उसे पूर्ण मुक्ति चाहिए ही नहीं। जब उसका दुख बहुत बढ़ जाता है, तो वह कुछ समय के लिए अध्यात्म की शरण में जाता है कि दुख बहुत बढ़ गया है, थोड़ा-सा कम हो जाए। अपेक्षतया, रेलेटिवली (उसके सापेक्ष) थोड़ी सी शांति मिल जाए।
और जैसे ही उसे थोड़ी सी शांति मिलती है, वह फिर जाकर के संसार के कीचड़ में लोटने लगता है। उसे वास्तव में वह थोड़ी सी शांति चाहिए ही इसलिए है ताकि वह तरोताज़ा होकर के दोबारा भीड़ में, ताप में, जलन में लिप्त हो जाए।
साधक का लक्ष्य ऊँचा होता है। साधक ज़िद्दी होता है। वह कहता है, 'थोड़ा नहीं, पूरा चाहिए।' तो जब थोड़ा-सा सुकून मिलता है, तो साधक की ऊर्जा दोगुनी हो जाती है। वह कहता है, 'बढ़ो-बढ़ो, आगे बढ़ो।'
और संसारी को जब थोड़ा सुकून मिलता है, तो संसारी की ऊर्जा आधी रह जाती है। वह कहता है, 'अब आगे जाकर क्या करना है, यहीं रुक जाओ! फिर यहीं से लौट लो।'
तो घूम-फिरकर बात वहीं पर आ जाती है। प्रश्न एक ही है — हिमशिखर से प्रेम है क्या?
अगर प्रेम होगा, तो रास्ते के दुख और रास्ते के सुख, दोनों आगे बढ़ने की ही प्रेरणा बनेंगे। और अगर प्रेम नहीं है, तो रास्ते के दुख और रास्ते के सुख, दोनों वापस लौटने के ही कारण बनेंगे।