धर्म विषयक विस्तृत चर्चा || आचार्य प्रशांत (2017)

Acharya Prashant

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धर्म विषयक विस्तृत चर्चा || आचार्य प्रशांत (2017)

प्रश्नकर्ता: ये जो परिस्थितियाँ वर्तमान में चल रही हैं जिसमें असत्य की सत्य के ऊपर जीत देखी जाती है तो ऐसी परिस्थितियों में एक मनुष्य अपने आदर्शों को कैसे कायम रख सकता है? कैसे दृढ़ संकल्प रह सकता है? उसके लिए आप कुछ ज्ञान या दिशानिर्देश दें।

आचार्य प्रशांत: पहली बात तो ये है कि असत्य आज तक सत्य पर जीता नहीं। कोई है यहाँ पर जो असत्य का पक्ष लेना चाहता हो? असत्य भी यदि कभी जीतता प्रतीत होता है तो सत्य का नाम लेकर, सत्य का चेहरा पहनकर। असत्य बेचारे की मजबूरी ये है कि वो खुलेआम बोल भी नहीं सकता कि मैं असत्य हूँ क्योंकि अगर वो खुलेआम बोलेगा कि मैं असत्य हूँ तो लोग पूछेंगे, ‘ये बात सत्य है कि असत्य?’

असत्य को भी कहना यही पड़ता है कि मैं (सत्य हूँ)। तभी आप उसके फेर में आते हैं, नहीं तो आएँगे नहीं। असत्य कभी जीतता नहीं। सत्य या तो सीधे-सीधे जीतता है या असत्य के रूप में जीतता है। और जो ये खेल चल रहा है ये कोई आज का नहीं है। वर्तमान में कोई सामाजिक परिस्थितियाँ विशेष रूप से भ्रष्ट नहीं हो गयी हैं।

आदमी जैसा है वैसा सदा से था। आदमी का मन जैसा है वैसा सदा से था। ये खेल लगातार चलता ही आ रहा है लेकिन हमें नये की उम्मीद रहती है और चूँकि हमें नये की उम्मीद रहती है इसीलिए हम इस खेल में फँसे रहते हैं। नये की उम्मीद कई तरीकों से हो जाती है। नये की उम्मीद ये भी बता देती है हमें कि देखो नया-नया कुछ अच्छा हो रहा है। देखो कोई नया अवतार ही उतर आया। देखो कोई नयी तकनीक आ गयी है। विज्ञान के कुछ नये आविष्कार हो गये है। एक नया युग, एक नया स्वर्ग उतरने वाला है।

ये भी मन की जो नये की चाहत है, उसका प्रतीक है और मन की जो नये की चाहत है वो इसमें भी परिलक्षित होती है कि देखो ये युग विशेषतया गर्हित है, ये भी तो एक नयी ही बात हुई न कि पहले जितना बुरा नहीं होता था अब उससे ज्यादा बुरा हो रहा है नयी बात।

ये मन की जो नये की तलाश है, वो इन सवालों के माध्यम से प्रकट हो रही है। और चूँकि मन को नये की तलाश है इसलिए ये चक्र चलता रहेगा। मन नये को बाहर खोजेगा, समय में खोजेगा, परिस्थितियों में खोजेगा। जिसको आप सत्य-असत्य का खेल कह रहे हैं ये लगातार चलता रहा है। जिनके लिए चलना था, उनके लिए चला, जिनके लिए नहीं चलना था उनके लिए नहीं चला। अन्यत्र मैंने कहा था कि जो परम, उसे परम जो भरम, उसे भरम। जिन्होंने जाना उन्होंने सदा जाना, जिन्होंने नहीं जाना उन्होंने कभी नहीं जाना।

कुरुक्षेत्र में एक था जिसे गीता मिल रही थी और बहुत सारे थे जो खम ठोक रहे थे और लड़ने को तैयार थे। वहीं पर जहाँ पर गीता की देशना चल रही है चारों ओर लोग एकत्रित हैं जिन्हें उस उपदेश से कोई लेना ही देना नहीं वो अपनी ही दुनिया में मगन है। वो कह रहे हैं, ‘आज इसको कैसे मारना है, बाण पर धार रखी कि नहीं, व्यूह-रचना कैसी है?’ जिसको जिधर रहना होता है, रहता है।

भक्ति का जो स्वर्ण युग था, वो वो युग भी था जब भारत पर हमले-दर-हमले हो रहे थे और उसी समय सन्त, मीठे गीत गा रहे थे। पंजाब आक्रान्त था। मैंने बुल्ले शाह का ज़िक्र किया थोड़ी देर पहले। सारे सिख गुरु, बुल्लेशाह — ये सब ठीक उस समय भक्ति की रसधार बहा रहे थे जब पंजाब में हिंसा चरमोत्कर्ष पर थी, जो परम उसे परम, जो भरम उसे भरम।

अगली बात आपने करी आदर्शों की।

आध्यात्मिकता का अर्थ ही होता है, आदर्शों का आमूल-चूल विनाश। इस समाज के सामने समस्या ये नहीं है कि ये आदर्शहीन है। समस्या ये है कि आप सबके पास खूब आदर्श हैं। आदर्श ही आदर्श हैं। आदर्श माने कौन? आदर्श माने वो जिसका आप अनुकरण करना चाहते हो। जिसके पीछे लग जाना चाहते हो सो आदर्श।

कोई है यहाँ जो किसी-न-किसी के पीछे न लग जाना चाहता हो? कोई है यहाँ जिसके मन में भविष्य को लेकर के एक मोहित कर देने वाली छवि न हो? आदर्श तो खूब हैं आपके पास। आप कहते हो, ‘ये आदर्शों का विघटन काल है।’ मुझे बताओ कौन है जो आदर्शवादी नहीं है? एक-एक इंसान आदर्शवादी है।

कोई राजनेता आपका आदर्श है, कोई खिलाड़ी आपका आदर्श हो सकता है, कोई फ़िल्मी अभिनेता आपका आदर्श हो सकता है, कोई धन कुबेर आपका आदर्श हो सकता है और अगर कोई व्यक्ति नहीं है आपका आदर्श तो कोई धारणा आपका आदर्श हो सकती है, कोई विचार आपका आदर्श हो सकता है।

ये आदर्श नहीं है क्या कि जब इतने साल के हो जाओ तब तक अपना मकान खड़ा कर लेना, ये आदर्श नहीं है? कौन है जो उस आदर्श के पीछे नहीं चल रहा? ये आदर्श नहीं है क्या कि एक स्वस्थ परिवार, इस छवि का नाम है। आप एक फ़ोटो दिखाते हैं, कहते हैं, ‘इसको कहते हैं हैप्पी फैमिली।’ ये आदर्श नहीं है?

ये आदर्श नहीं है क्या कि अगर तुम कुछ हो तो इतनी आयु तक तुम्हें इतनी धनराशि अर्जित कर ही लेनी चाहिए? ये आदर्श नहीं है? कौन है जो आदर्शों पर नहीं चल रहा? जिनको आप कहते हैं कि ये तो व्यभिचारी हैं या आतंकी हैं या अपराधी हैं, वो सब तो महा आदर्शवादी है। जहाँ आदर्श है, वही हिंसा है। क्योंकि आदर्श का मतलब होता है कि आपने कल्पना कर ली है और उस कल्पना के पीछे दौड़े चले जा रहे हैं।

आपको जीने से नहीं मतलब है आपको भविष्य को आदर्श के अनुरूप कर लेने से मतलब है अब। अहंकार अब इतना सघन है कि वो परमात्मा के सामने भी झुकने को तैयार नहीं वो कह रहा है बस अब मैंने जैसी छवि बना ली ज़िन्दगी वैसी ही चलनी चाहिए इसी का नाम तो आदर्श है। एक-एक व्यक्ति जो बैठा है उसके मन में छवि है कि आदर्श बेटा कैसा होता है। आपका बेटा आपकी छवि के विरुद्ध ज़रा सा आचरण कर दे, देखिए आपको कैसी जलन उठेगी।

हर रिश्ते में क्या आदर्श की पैठ नहीं है? आपका विवाह हुआ हो या न हुआ हो आपको पहले पता होता है कि आदर्श पत्नी कैसी होती है। दस साल की लड़की होगी उसे पता होगा आदर्श पति क्या होता है। आपको ये तक पता है कि आदर्श वेकेशन किसको कहते है। पता है कि नहीं पता है? घर में विवाह होगा आपको पहले ही पता होता है कि आदर्श विवाह किसको कहते हैं। वो आपको फ़िल्मों ने सिखाया।

तो आदर्शों से तो आप भरे हुए हैं और आप कह रहे हैं कि आदर्श नहीं है आज की दुनिया में। मुझे तो आदर्श ही आदर्श दिख रहे हैं। आदर्श तो सिर्फ़ सन्तों के पास नहीं होते बाकी सबके पास होते हैं। सन्त अकेला होता है जो प्रवाहमान होता है। वो कहता है, ‘जिधर ले जाएगा परमात्मा उधर को चल देंगे। हमारे पास अपनी कोई परिकल्पना नहीं, हमारा अपना कोई हठ नहीं।’ बाकी तो सब आदर्शों पर जीते हैं। और आपके आदर्शों से वस्तुस्थिति जहाँ ज़रा मेल नहीं खाती देखिए आप कैसे हड़बड़ाते हैं? आपको कैसी चोट लगती है?

आप चाहते थे आपका बेटा एक तरीके का निकले और बेटा ज़रा मौजी निकल गया, बेटा ज़रा उतना बुरा नहीं निकला जितना आप चाहते थे आपको देखिए कैसी चोट लगती है? आप अपने बेटे को माफ़ ही नहीं कर पाएँगे। इसका जीवन हमारे आदर्शों से मेल नहीं खाता भाई, आपके महान आदर्शवाद का करें क्या? ये भी एक आदर्श की बात है कि मैं अपने लिए नहीं जीता, समाज के लिए जीता हूँ। इस पंक्ति से आपने अपना सवाल शुरू किया था। ये भी एक आदर्श की ही बात है। समाज की भी बात कर कौन रहा है? आप ही तो कर रहे हैं न? आपको ही बेचैनी है।

सिखाने वाले सिखा गये हैं कि हमारे अलावा कोई दूसरा हैं नहीं तो हम जब भी बात करेंगे तो किसकी करेंगे? अपनी ही करेंगे। पर अपनी बात करना ज़रा बुरी चीज़ है, स्वार्थ हैं। ये आदर्श भी हमें कुछ बड़े लोग सिखा गये और हमने उस आदर्श को अंगीकार कर लिया बिना देखे, बिना जाने, बिना किसी पड़ताल के।

‘दूसरों के लिए जियो।’ पर मुझे तो ये पता है, मेरे गुरु ने तो मुझे ये सिखाया है कि दूसरा कोई होता नहीं तो फिर किसके लिए जियें? आदर्श है लेकिन हमारे पास कि न, जो दूसरों के लिए जिये वो महात्मा। जो दूसरों के लिए जी रहा है वो जी भी रहा है? जिसका दूसरेपन में, परायेपन में यकीन है उसे जीवन मिला क्या?

अपनी बात सर्वोपरि है, अपनी बात करें और बिना किसी झिझक के करें। पूरा स्वागत है, खुली बात है। मंच आपका है, छोड़िए समाज को। आप जैसे हैं, समाज वैसा है। हम जैसे हो जाएँगे समाज वैसा हो जाएगा। समाज पिछलग्गू है हमारा, छाया है हमारी, प्रक्षेपण है हमारा। समाज की तो चिन्ता ही छोड़ दो। अपना तुम कर लो परिष्कार और हो गया समाज सुधार।

समाज सुधार की फ़िक्र करना, अपनेआप को अक्षुण्ण बनाये रखने का बड़ा सिद्ध तरीका है। ‘मुझे परिवर्तित नहीं होना, अपनेआप को बचाना है। मुझे नहीं बदलना तो मैं समाज को बदलता हूँ। हम सामाजिक क्रान्ति करने निकले हैं।’ क्यों? ‘क्योंकि अपने भीतर इतनी सी भी क्रान्ति नहीं करनी।’ ये बात ज़रा जँची नहीं।

आप ज़रा भीतर को मुड़ जाएँ, अपनेआप को देख लें, आप पाएँगे कि उसी क्षण से चमत्कार होगा, जादू होगा उसी क्षण से, जिसे आप समाज कहते हैं वो बदलने लग जाएगा। पूरा संसार ही, समाज मात्र नहीं, पूरा संसार ही बदलने लग जाएगा। वैसे भी देख लीजिए न जिसे हम समाज कहते हैं क्या वो यहाँ जितने लोग बैठे हैं, सबके लिए एक ही चीज़ है?

(एक श्रोता की ओर संकेत करते हुए) मैं आपसे पूछूँ, ‘समाज माने क्या?’ और मैं आपसे पूछूँ (दूसरे श्रोता की ओर संकेत करते हुए), ‘समाज माने क्या?’ क्या आप एक ही उत्तर दोगे? तो क्या प्रत्यक्ष बात नहीं है कि हम जो हैं हमारा समाज वैसा ही है? आप पियक्कड़ हैं, आपका समाज कैसा होगा? पियक्कड़। आप जैसे होते हैं, आपका समाज वैसा होता है।

मैंने थोड़ी देर पहले कहा जादू, ये बहुत जादुई बात है कि दूर कहीं एकान्त में बैठा हुआ भी यदि कोई परिवर्तित हो जाता है तो उसके माध्यम से पूरी दुनिया कैसे बदल जाती है। भारत में ये परम्परा सदा से थी कि जो वास्तव में ध्यान में रत हो जाए कि भक्ति में लग जाए उसे अब छेड़ना मत, परेशान मत करना।

जो संन्यस्त होने का मन बना ले उसका विरोध मत करना बल्कि हो सके तो उसे खाने-पीने की आपूर्ति किए जाना और उससे ये मत पूछना कि तू कुछ करता तो है नहीं तो तुझे खाना-पीना, कपड़ा क्यों दें। क्योंकि ये राज़ समझ लिया गया था कि एक आदमी जो जग गया उसके जग भर जाने से सबका कल्याण हो जाता है तो उसे चुपचाप खाना-पीना दिये जाओ, अकेले बैठे रहने दो। ये मत पूछो कि तू श्रम कितना करता है। वो श्रम कर रहा है उसका श्रम आन्तरिक है।

एक आदमी जो जगा उसके जगने भर से दुनिया का कायाकल्प हो जाता है।

उपनिषद् कहते हैं कि जो मुक्त हो गया उसका कुल भी तर जाता है उसके साथ। जैसे कर्मफल का सिद्धान्त ही टूट जाता हो। हो सकता है आपका जो कुल हो वो अनाचारियों से, पापियों से भरा हुआ हो लेकिन यदि आप जग गये, आप तर गये तो आपके साथ आपका पूरा कुनबा भी तर जाएगा। अब कुनबे की जो परिभाषा है वो ज़रा व्यापक परिभाषा है। कुनबे का यही नहीं मतलब कि जिनसे आपका रक्त सम्बन्ध हो। आप उठिए, आप जगिए।

आप एक दीया जला दें और उसको एक मन्दिर में रखे तो मन्दिर की दीवारें प्रकाशित होती है कि नहीं और वही दीया आप एक कचरे के ढेर के पास ले जाएँ तो क्या कचरे का ढेर प्रकाशित नहीं होगा? कहिए। प्रकाश भेद नहीं करता, अग्नि भेद नहीं करती। वही लौ जो मन्दिर में देवता के सामने स्तवन कर सकती है ठीक वहीं लौ जाकर के कचड़े को जला सकती है। देवता के सामने देखिए कैसी विनम्र, विनीत रहती है। देखा है लौ को? देवता के चरणों में है, हाथ जोड़े जल रही है, बहुत सिर नहीं उठा रही। वहीं लौ जब कचड़े के पास जाती है तो कचड़े के लिए महाकाल बन जाती है। छोटी सी लौ जला लें उससे फिर जो होना होगा वो हो जाएगा।

प्र २: धर्म के बारे में मुझे आपसे जानना है कि धर्म का जो उद्देश्य है वो ईश्वर की इबादत करना है, आराधना करना है, साथ-साथ ये भी है कि आपस में प्रेम रहे लोगों में, जो परेशानियाँ हो हमारी दूर हो जाएँ। आज के समय में जो देखने को मिल रहा है धर्म का इस्तेमाल किसी अन्य चीज़, अन्य चीज़ों के लिए किया जा रहा है और जो आध्यात्मिकता है वो कहीं देखने को नहीं मिल रही है जिससे सुकून मिले, चैन मिले। उसके बारे में आपकी इसमें क्या राय है?

आचार्य: अब राय क्या है? ऐसा है मैं क्या बताऊँ इसमें? जो आपको आपके अपने व्यक्तिगत केन्द्र से लगता है कि करना चाहिए वो आप करोगे ही। जब आपसे बात हो ही थी तो हमने कहा था कि असत्य कभी यह बोल के तो नहीं खुलेआम घूमेगा न कि मैं असत्य हूँ। अधर्म कभी ये खुलेआम घोषणा तो नहीं करेगा न कि मैं अधर्म हूँ। तो जिसको जो करना है वो कर रहा है और जिसको जो करना है उसी को धर्म का नाम दे रहा है।

आपकी अपनी जो व्यक्तिगत रुचि, प्रति-रुचि है आप उसी को धर्म का नाम दे देते हो। देखो न, शुरुआत ही आप किससे कर रहे हो कि धर्म का मतलब है, ईश्वर की इबादत करना। अब ये ईश्वर ने तो बोला नहीं और किसकी इबादत करना? और इबादत माने क्या? और ये इबादत करता कौन है? पर कुछ बातें ऐसी होती हैं जिन्हें हम छेड़ना ही नहीं चाहते, उन्हें हम कहते हैं कि ये बातें तो पक्की-पक्की हैं।

सच पूछिए तो सबका एक ही असली धर्म है। जानते हैं क्या? अपने झूठ की रक्षा। उसके अलावा किसी का कोई धर्म नहीं है। उस झूठ की रक्षा के हज़ार तरीके हो सकते हैं। आप कोई ग्रन्थ उठा लो, उस ग्रन्थ से अपनेआप को सम्बन्धित कर लो और आप कहो, ‘मैं इस ग्रन्थ के लिए लड़ रहा हूँ।’ आप जीवन में कुछ आदर्श तय कर लो, ‘मुझे अपने समुदाय के लिए कुछ करना है। मुझे अपने परिवार के लिए कुछ करना है, मेरा धर्म है कि मैं अपने बेटे को डॉक्टर बना दूँगा या मेरा धर्म ये है कि मन्दिर में दो दिन जाऊँगा और वहाँ कुछ कर्मकांड इत्यादि करूँगा।’ आप कुछ भी बना सकते हो।

आप चाहे जितने नाम दे दो उन सबके पीछे कर वहीं रहे हो आप जो आपको करना है। और आपको क्या करना है? आपको वो करना है जो स्थितियाँ आपसे करवा रही हैं, कठपुतली जैसे हो। जो आका आपसे सब कुछ करवा रहे हैं उन्हीं आकाओं ने आपको ये भी सिखा दिया है कि जो कुछ करो वो धर्मोक्त होना चाहिए। जो कुछ करो उसकी अनुमति, स्वीकृति धर्म से मिलनी चाहिए तो फिर उसमें आप ये भी एक चीज़ जोड़ देते हो। आप कहते हो, ‘मैं ये कर रहा हूँ, मैं ये कर रहा हूँ, मैं ये कर रहा हूँ, मैं ये कर रहा हूँ, मैं ये कर रहा हूँ और मैं जो कुछ कर रहा हूँ, पाँच चीज़ें मैं कर रहा हूँ और मैं जो कुछ कर रहा हूँ छठी चीज़, उसको धर्म कहते हैं।’ ये सब तो धर्म की अपनी-अपनी परिभाषाएँ हैं, चलती रहती हैं। क्या बोलूँ?

वास्तविक धर्म तब होता है जब आप ज़रा दिल कड़ा कर पाओ, थोड़ी हिम्मत खड़ी कर पाओ अपने व्यक्तित्व से बाहर निकलने की। ‘मेरी व्यक्तिगत परिभाषाओं से आगे कोई और है और नमन है मेरा उसको।’ तब धर्म है। जब तक आप कह रहे हो, ‘मेरी गीता, मेरा धर्म ग्रन्थ।’ तब तक धर्म कहाँ है? तब तक तो आप गीता के ऊपर चढ़कर बैठ गये हो। ये धर्म है?

जब तक आप कह रहे हो, ‘मेरा ज्ञान, मेरी शान्ति’ तब तक कहाँ धर्म हैं? आप खुद शान्ति का गला घोट रहे हो। जैसे ही आप कहते हो, ‘मेरा धर्म’, अधर्म शुरू हो जाता है। धर्म के बारे में कोई कुछ नहीं कह सकता। शास्त्र भी जो कुछ बताते हैं, अधर्म के बारे में ही बताते हैं। चेताते हैं कि ये सब अधर्म है बचना।

भाषा भी देखो न उनकी कैसी होती है, अकाम, अपरिग्रह, अहिंसा, अचौर्य। ये क्या बताया जा रहा है? कि किस-किस चीज़ से बचना है। धर्म कोई क्या बताएगा? धर्म का तो मतलब है कि जिसे बताना था वो गया, जिसे सुनना था वो गया। तुम चले जाओ यही धर्म है। तुम जबरन बैठे रहो ठसक में, यही अधर्म है।

प्र ३: एक तरफ़ तो अध्यात्म में हम लोग कहते हैं कि हिसाब-किताब की बात भी हो। दूसरी ओर हम मिनिमम स्टैंडर्ड की, आदर्श की बात करते हैं, “प्राण जाए पर वचन न जाए”। तो इस व्यापार केन्द्रित संसार में हम लोग देखते हैं कि हम अपने आदर्शों को कितनी बार तोड़ते हैं, अपने फ़ायदे और नुकसान के लिए। अपने आदर्शो को इस संसार में कैसे मेंटेन किया जा सकता है?

आचार्य: आदर्श का मतलब समझ रहे हैं क्या है?

प्र ३: आदर्श का मतलब मेरा स्टैंडर्ड से है यहाँ पर।

आचार्य: आत्मा का कोई स्टैंडर्ड नहीं होता, आत्मा का कोई आदर्श नहीं होता।

प्र ३: जीवन व्यतीत करते समय मिनिमम स्टैंडर्ड पहले सत्य होना, सत्य की राह में चलना।

आचार्य: वो आप तय करना चाहते हैं न?

प्र ३: मेरा आदर्श है।

आचार्य: मेरा आदर्श माने?

प्र ३: किस परिस्थितियों में मैं किस लेवल तक जा सकता हूँ, उस लेवल से नीचे नहीं।

आचार्य: वो सब आप क्यों तय करना चाहते है?

प्र ३: वो है तो धर्म है।

आचार्य: वो धर्म नहीं है, वो डर है। वो डर है। आपको अपनेआप को अस्तित्व में खुला छोड़ देने में क्या भय और संकोच है? यदि ज़रा भी श्रद्धा हो कि अन्दर-बाहर, ऊपर-नीचे सब तरफ़ एक ही है और कहीं भी होऊँगा वो मेरा खयाल रख ही लेगा तो फिर ये हठ क्यों रहेगा कि मुझे पहले से ही पता हो कि मुझे अपना आचरण कैसा रखना है? डूज़ एंड डोन्ट्स (करना, न करना) कैसे रखने है?

प्र ३: राजा हरिश्चन्द्र ने क्यों रखा था?

आचार्य: राजा हरिश्चन्द्र इत्यादि धर्म के केन्द्र में नहीं आते। राजा हरिश्चन्द्र और तमाम अन्य कथाएँ जो आप पढ़ते हैं। ये सब लोक श्रुतियाँ हैं, ये धर्म नहीं है। धर्म यदि आपको जानना है तो कृष्ण के पास जाएँ, धर्म यदि आपको जानना है तो उपनिषदों के पास जाएँ, धर्म यदि जानना है तो दत्तात्रेय या अष्टावक्र के पास जाएँ। ये सब जो प्रचलित जनश्रुतियाँ हैं, इनको धर्म नहीं कहा जाता।

“प्राण जाए पर वचन न जाए।”

अब वचन तो एक शराबी आदमी का कुछ भी हो सकता है जिन्होंने ये कहा उन्होंने पहले ये कहा कि तुम इस हालत में रहो, समाधिस्त रहो कि तुम्हारा जो वचन निकले वो ब्रह्म वचन हो। उन्होंने आपके लिए थोड़े ही कहा है कि “प्राण जाए पर वचन न जाए”। युधिष्ठिर ने वहाँ वचन दे दिया द्यूतक्रीड़ा में कि द्रौपदी को मैं तुम्हारे हवाले करता हूँ, दुर्योधन। बड़ा भला करा, “प्राण जाए पर वचन न जाए”!

भाई, वचन देने वाले की पहले कोई हैसियत तो होनी चाहिए न, वचन देने वाले में पहले कोई आत्मनिष्ठा तो होनी चाहिए न? उसकी तो पहले बात करिए न। आत्मा कहाँ है? पागल आदमी के वचन को तो न्यायालय भी स्वीकार नहीं करता। एक पागल आदमी जाए और कोर्ट में गवाही दे। जज कहेगा, ‘हटो तुम।’ वो कहे कि नहीं देखिए साहब, हमारे वचन की बड़ी कीमत है। “रघुकुल रीति सदा चली आयी।” तो सुनेगा कोई? पर नहीं, “प्राण जाए पर वचन न जाए”!

आचरण अपना ऐसा रखना है कि प्राण जाए पर वचन न जाए। अरे पहले, होश तो हो ऐसा कि वचन सुनने लायक हो। सड़क पर निकल जाइए, लोगों के वचन सुनिए, सुनने लायक वचन हैं? तो फिर कैसी बात है ये कि प्राण जाए पर वचन न जाए? कमिटमेंट आप कुछ भी कर सकते हो शराब पीकर कर दो कमिटमेंट, कमिटमेंट तो आप करते ही रहते हो। सुबह भी आप कमिटमेंट करते हो कि आज उठूँगा पाँच बजे; पूरा कर लेते हो?

उस कमिटमेंट की कोई कीमत है क्या और आध्यात्म का मतलब यह बिलकुल भी नहीं होता है कि अपने वचन के पीछे प्राण दे दूँगा। अध्यात्म का अर्थ होता है, सत्य के पीछे प्राण दे दूँगा। अपने वचन के पीछे प्राण देना तो महा अहंकार है कि हमने कह दिया, अब पूरा करेंगे। आध्यात्म का अर्थ होता है — सत्य जिधर को बुलाएगा उसके पीछे चले जाएँगे, हमारे वचन की, हमारे वादों की कोई कीमत नहीं।

सत्य कहता है, ‘परमात्मा जिधर बुलाएगा हम चल देंगे। हमारे वचन की क्या कीमत है!’ तो धर्म के नाम पर आप कहानियाँ लेकर बैठ जाते हो कि हरिचन्द की कहानी और रघुकुल रीत की कहानी। ये धर्म थोड़े ही है। आपको परमात्मा की सुननी है या अपना वचन पूरा करना है? और आपके वचन में भी गुरुता तभी आएगी जब पहले आपका वचन आपका न रहे, परमात्मा का रहे।

जब आप परमात्मा को समर्पित हो जाते हो तब आपके वचन में भी कुछ वज़न आ जाता है अन्यथा आपके वचन की क्या कीमत है? लोग इतनी बकवास करते रहते हैं वो सब वचन ही तो है उनका। कहें, ‘प्राण जाए पर वचन न जाए’ तो फिर प्राण चला जाना चाहिए। बेहतर है कि प्राण चला जाए। क्योंकि तुम्हारे वचन अगर पूरे होने लग गये तो दुनिया नरक हो जाएगी। तुम्हारे वचन पूरे हो उससे बेहतर है कि तुम्हारा प्राण चला जाए।

किसी भी बात को धर्म मत बना लिया करिए। श्रवण कुमार की कहानियाँ, हरिश्चन्द्र की कहानियाँ, नल-दमयन्ती की कहानियाँ — ये धर्म नहीं होतीं, ये कहानियाँ हैं, अफसाने हैं। अगर आप वाकई धर्म के शिक्षार्थी हैं तो वहाँ जाइए जहाँ से धर्म प्रस्फुटित होता है, वेदान्त में जाइए। किसी ने ये आपसे कहा कि हरिश्चन्द्र की कहानी ब्रह्मा के मुख से निकली थी? वेदों को कहा जाता है न कि अपौरुषेय हैं, सीधे ब्रह्म सत्ता से आये हैं।

ये कहानियाँ-वहानियाँ तो क्या हैं! हर युग में बदलती रहती हैं। कुछ पुराण तो अभी कुछ सौ साल पहले के हैं और उनमें ऐसी-ऐसी बातें है कि आप पढ़ लें पूरा तो आप कहेंगे, ‘ये क्या हो गया!’ पुराणों को भी अगर वास्तव में समझना है तो वेदान्त के प्रकाश में ही समझा जा सकता है। और वचन वगैरह की बहुत कीमत मत रखिएगा, पुराने सारे वचन तोड़ डालिए। कोई वादा सच्चाई से ज्यादा कीमती नहीं होता।

ये भीष्म और ये सब इसी चक्कर में मारे गये थे कि वचन दे दिया है। सत्य कोई वचन नहीं होता। सत्य को रखा नहीं जाता। सत्य आपको रखता है। सत्य को आप क्या रखोगे? जो आपको रखे उसे सत्य कहते हैं। वो बहुत बड़ी चीज़ है। वो आचरण बद्ध नहीं हो सकता।

प्र ४: सर, जैसे युधिष्ठिर सत्यवादी थे लेकिन जब द्रोणाचार्य को बताने की बात आयी तो झूठ बोले, मतलब उनके उनको अन्दर से तो पता था, अन्तर्मन से कि मैं झूठ बोल रहा हूँ तो ये तो प्रैक्टिकल चीज़ें ही हैं।

आचार्य: हाँ, (हँसते हुए) प्रैक्टिकल होना चाहिए (श्रोतागण हँसते हैं)। ऐसे चलता है धर्म। यही है हमारा धर्म। प्रैक्टिकल का मतलब समझते हो? जैसे भी हो सके, (व्यंग्य करते हुए) ‘जैसे भी हो सके अपना हित साधो।’ यही है धर्म!

जिस दिन ये भावना गिर गयी उस दिन जान लेना कि तुम पर धर्म का आशीर्वाद आया। जिस दिन तुमने वास्तव में जान लिया कि तुम कौन हो और तुम्हारा हित किसमें है उस दिन जान लेना कि धर्म का आशीर्वाद उतरा। ये पूजा-पाठ, कर्मकांड, किस्से-कहानियाँ, धूप-बत्ती — ये थोड़े ही धर्म होता है।

प्र ५: किताबों की बात चल रही थी, प्रकाशन की प्रक्रिया है उसमें बहुत बार आपको जमीन पर उत कर भूल-चूक करनी होती है। किताब ढंग की नहीं बनी तो पैसे काट देंगे।

आचार्य: हाँ बिलकुल। भाई एक आयाम और दूसरे आयाम में भेद करना सीखिए। इसी भेद का नाम होता है विवेक। कण-कण में नारायण हैं। बिलकुल हैं। तो पंखे के नीचे काहे बैठे हैं? धूप में काहे नहीं बैठते? वहाँ भी तो नारायण हैं। बोलिए। ये एक आयाम है शरीर का, मन का, संसार का।

‘कण-कण में नारायण हैं।’ और बगल के घर में एक पागल कुत्ता भी है। “गुरुर्विष्णु गुरूर्”... उसको एक भौं विद्या आती है। और ‘जगत मिथ्या है’। बिलकुल मिथ्या है। बस मेरी जेब में जो पैसे हैं वो मिथ्या नहीं है। कौनसी बात किस आयाम में कही जा रही है, समझनी होती है। भीतर हिसाब-किताब नहीं चलता। और जब भीतर हिसाब-किताब नहीं चलता तो संसार में हिसाब-किताब कैसे चलाना है, इसकी तहजीब आ जाती है। बात समझ में आ रही है?

संसार में जब तक जी रहे हो तब तक तो विचार करना पड़ेगा, जोड़-भाग भी करोगे, गणित भी करोगे, सोचोगे-विचारोगे, योजना भी बनाओगे और उचित ही करते हो अगर ये सब करते हो। वहाँ जो करना होता है, यहाँ नहीं करना होता। यहाँ जो करना होता है, वहाँ नहीं करना होता। एक मूल बात समझना — वहाँ (ऊपर की ओर संकेत करते हुए) सिर झुकाना होता है और यहाँ (नीचे की ओर संकेत करते हुए) सिर बिलकुल नहीं झुकाना होता।

वहाँ (परमात्मा के आगे) सिर उठ न जाए और यहाँ (संसार के आगे) सिर झुक न जाए तो यहाँ तो सिर बुलन्द रखकर। सिर का इस्तेमाल करो और वहाँ पर सिर झुका रहे, सिर का इस्तेमाल कर मत लेना। और ये दोनों बातें एक साथ साधनी होती हैं। (दोहराते हुए) ये दोनों बातें एक साथ साधनी होती हैं। हिसाब-किताब न करते तो यहाँ तक कैसे पहुँचते? कहो, पहुँच जाते? सुबह समय बाँधा होगा ये भी तो हिसाब रखने की ही बात है कि नहीं?

हिसाब-किताब न करते तो ये जो चौकोर कक्ष है ये चौकोर रह जाता? ये कैसा होता? किसी ने हिसाब ही लगाया है, फीता लेकर नापा है और फिर हिसाब लगाया है कि कितना पेंट लगेगा, कितना सीमेंट लगेगा। तब निर्माण हुआ न। तो तब यहाँ बैठकर के बड़ा आत्मिक सत्संग चल रहा है। ‘क्या शान्ति बरस रही है! आ हा, हा, हा,हा! भाइयों बड़े हिसाब-किताब के बाद बरस रही है नहीं तो धूप बढ़िया है। पेड़ों की मधुर छाँव है, अहा! भक्त चीटे हैं वहाँ बाहर!’

हिसाब-किताब करना जानो। जो हिसाब-किताब करना नहीं जानता वो इस संसार में लद्धड़ है और जो इस संसार में लद्धड़ है वो सत्य को क्या पाएगा? सत्य के दरवाज़े यहीं से खुलते हैं। तुमने ये दुनिया ही नहीं समझी तो वो दुनिया क्या समझ में आएगी?

जो प्रत्यक्ष है उसको तो जान नहीं पाये, जो कूटस्थ है उसको कैसे जानोगे? दुनिया समझ में आती नहीं, दुनिया कैसे चलती है, लोगों के मन कैसे होते हैं। अरे, अपना मन कैसा है? ये संसार की क्या व्यवस्था है, कौनसी चीज़ किस से जुड़ी है — ये जानो, समझो। तब समझ में आएगा कि मन किसको कहते हैं और समझ गये कि मन किसको कहते हैं तो उसी समझ को आत्मा कहते हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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