धर्म का विकृत व प्रचलित रूप है "लोकधर्म"

Acharya Prashant

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धर्म का विकृत व प्रचलित रूप है "लोकधर्म"
भगवद्गीता में श्रीकृष्ण को बोलना पड़ता है, “अर्जुन! ये सीधा-सीधा श्लोक है बिल्कुल इन्हीं शब्दों में है; अर्जुन! जब तक तुम वेदों की सकाम ऋचाओं से ऊपर नहीं उठते, जब तक जो काम्य कर्म हैं तुम उनसे बँधे हुए हो, तब तक तुम्हें मेरी बात समझ में नहीं आएगी।” उपनिषदों में कामनाओं की बात नहीं है, पर मंत्रों में है, वहाँ सब कुछ कामनागत ही है। सब प्राकृतिक देवी, देवताओं से कहा जा रहा है हमारी ये कामना पूरी कर दो वो कामना, और कामनाएँ सारी वही हैं पुरानी कामनाएँ — बेटा दे दो, ज़मीन दे दो, हमारे पशुओं के ज़्यादा दूध आए और हमारे शत्रुओं को आग लगाकर के मार दो, यही हैं। ये लोकधर्म है। और वास्तविक धर्म — निष्कामता। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम।

आचार्य प्रशांत: हाँ।

प्रश्नकर्ता: लोकधर्म क्या है? और जो लोकधर्म प्रचलित चलता है उसका कोई महत्व भी है या बस उसका नुकसान ही है? और आप इसके इतने विरोध में क्यों हैं?

आचार्य प्रशांत: धर्म माने वो दिशा जो अहंकार को लेनी चाहिए अपने आचरण में, अपने विचार में, अपनी पहचान में। लोकधर्म का अर्थ है वो दिशा जो मैं परंपरा से लेता रहा हूँ। बैठ जाइए। (प्रश्नकर्ता से कहते हुए) जो मैं परंपरा से लेता रहा हूँ, और इसीलिए आगे भी लेना चाहता हूँ क्योंकि परंपरा में सुरक्षा है। लोकधर्म का अर्थ है ये कहना कि जो मेरी पुरानी आदत है वही मेरा अध्यात्म है। उसकी ओर अहंकार ज़्यादा आकर्षित होता है क्योंकि वो सब कर चुकने के पश्चात अहंकार आज तक शेष है न!

तो एक तर्क उसको प्रमाण सहित मिल जाता है, वो कहता है — देखो, एक-हज़ार साल से मैं इसी धर्म का पालन कर रहा हूँ, और इतना तो हुआ कि मैं आज तक बचा हुआ हूँ। और कोई लाभ हुआ हो न हुआ हो बचे रहने का लाभ तो हुआ है न। फ़लाने तरीके की मान्यता है, फ़लाने तरीके का कर्मकांड है, फ़लाने तरीके के प्रतीक हैं, पहचान हैं, मैं इनको पकड़कर चल रहा हूँ हज़ार साल से। आप बता रहे हो कि कुछ नुकसान हुआ है, नुकसान तो मुझे ज़्यादा दिख नहीं रहा। पर एक लाभ ज़रूर दिख रहा है स्पष्ट। क्या? मैं बचा हुआ हूँ।

और उसके बाद और भी कई लाभ हैं। जैसे कि स्वयं सोचना नहीं पड़ता, और निजी सोच के कोई खतरे उठाने नहीं पड़ते। अपनी ओर से कोई प्रयोग नहीं करना पड़ता, कोई जिज्ञासा, कोई परीक्षण नहीं करना पड़ता। जो चला आ रहा है उसी को चलने दो, ये ‘लोकधर्म’ है।

‘लोकधर्म’ धारणा को धर्म बना लेने का और आदत को अध्यात्म बना लेने का नाम है। धारणा को क्या बोल दिया?

श्रोतागण: धर्म।

आचार्य प्रशांत: और आदत को क्या बोल दिया?

श्रोतागण: अध्यात्म।

आचार्य प्रशांत: इसी को और बढ़ाना हो तुकबंदी करके, तो बोल दो — सुविधा को समाधि बोल दिया। और ये सब बोलने के पीछे स्वयं को समझा लिया — अगर ये सब गलत होता, तो मैं आज तक बचा ही क्यों होता। ये आज से चार पीढ़ी पहले भी हुआ, उससे चार पीढ़ी पहले भी हुआ, उससे भी पाँच पीढ़ी पहले हुआ। अगर ये बातें ठीक नहीं होती, तो हम आज तक बचे ही क्यों होते। ये लोकधर्म का आंतरिक तर्क होता है। अगर हम बचे हुए हैं, तो हमारे बचे रहने से ही सिद्ध हो जाता है कि ये धर्म श्रेष्ठ है।

तुम्हारे बचे रहने से ये नहीं सिद्ध हो जाता कि धर्म श्रेष्ठ है क्योंकि धर्म वास्तव में वास्तविक धर्म तुम्हारे बचे रहने का नाम है ही नहीं। वो इस बात का नाम नहीं है कि तुम कितने लंबे समय से कायम हो, वो इस बात का नाम है कि तुम्हारी गुणवत्ता क्या है।

तुम आँकड़े गिनते हो। तुम गिनते हो कि कितने हज़ार साल से हम बचे हुए हैं। तुम आँकड़े गिनते हो कि कितने करोड़ या कितने सौ-करोड़ हमारी तादाद हो गई। तुम क्वांटिटी (मात्रा) के ग्राहक हो, और वास्तविक धर्म क्वालिटी (गुणवत्ता) का नाम है क्वांटिटी का नहीं।

तुम कहते हो — कुछ बात तो है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहाँ हमारा। ये बात धर्म पर लागू नहीं होती। आज आप क्या गा रहे थे? “प्रेम भले ही प्राण ले।”

‘धर्म’ लंबा जीने का नाम नहीं है, धर्म अपनी आबादी और तादाद बढ़ाने का नाम नहीं होता। धर्म सही जीवन में अपनी आहुति दे देने का नाम होता है। पर अहंकार तो है डरा हुआ छोरा। उसके लिए यही बात सबसे बड़ी है — ऐसे ही तो चलता रहा है न! ऐसे ही तो चलता रहा है। और देखो चलते-चलते यहाँ तक आ गए।

ठीक वैसे जैसे घर में कई बार आप अपने अभिभावकों को या दादा- दादी को कुछ बोले कि आपके तौर-तरीके जो हैं ये बहुत अच्छे नहीं हैं। जिस तरीके से, मैं एक उदाहरण देता हूँ।

घर में एक पोता हो जाए या पोती, और दादा-दादी उसे कुछ अंधविश्वास की बातें बता रहे हों या मान लो जातिवाद सिखा रहे हों कई बार, पता भी नहीं चलता हम क्या सिखा जाते हैं। ज़रूरी नहीं है कि जातिवाद जानबूझकर सिखाया जा रहा हो। वो कई बार प्रच्छन्न होता है इंपलीसिट (अंतर्निहित) होता है। और आप उनसे कहें कि देखिए इस तरीके से परवरिश करना ठीक नहीं है, आप इनके मन में अंधविश्वास भर रहे हैं बच्चों के। तो दादी का खट से जवाब आएगा, ‘यही कर-करके हमने भी तो आठ बच्चे बड़े कर दिए। तुम लोगों की सबकी परवरिश तो हमने ऐसे ही करके कर दी।

(श्रोतागण हँसते हैं)

अब दादी लगी हुई हैं उसकी आँख में कार्बन मलने में। कार्बन, क्या नाम से?

श्रोतागण: काजल।

आचार्य प्रशांत: और वो मिर्ची जलाकर के उसकी नज़र उतारने में और आप बोल रहे हो कि ये जो आप कार्बन घिस रहे हो डॉक्टर बोलते हैं कि ये गड़बड़ भी कर सकता है, मत करो, बच्चे की कोमल आँखों पर ये गड़बड़ कर देगा। तो दादी का खट से क्या जवाब आएगा? यही कर-करके हमने आठ बच्चे तुम्हारे जैसे बड़े कर दिए। तुम हो ही क्या हमारे एक बटे आठ। तेरे कुल एक हुआ है, मेरे तो आठ थे। मैंने आठ बड़े कर दिये। ये तर्क रहता है अहंकार का। वो इतना डरा हुआ है कि उसके लिए सबसे बड़ी बात यही है हम बच गए, हम जी गए, हम किसी तरीके से सरवाइव (बच जाना) कर गए।

लेकिन अध्यात्म सर्वाइवल (जीवित रहने) का नाम नहीं है, अध्यात्म गरिमा का नाम है। सरवाइव करना और ठसक के साथ जीना, दो अलग बातें होती हैं।

लोकधर्म कहता है, ‘जो चल रहा है। दैट विच हैज सरवाइवड इज़ ग्रेट, जस्ट बिकॉज इट हैज सरवाइवड। (वो विचार जो जीवित रहा है, वो केवल इसलिए महान है कि वो जीवित रहा है।) हाँ तो सरवाइव तो जानवरों की भी इतनी प्रजातियाँ कर गई, मनुष्य तो बहुत नया है।

जानवरों की करोड़ों प्रजातियाँ हैं, और पेड़-पौधों की हैं जो हमसे बहुत-बहुत पुरानी हैं, तो वो फिर सबसे महान हो गए। मच्छर, कॉकरोच, केंचुआ, कछुआ, मगरमच्छ, ये छिपकली ये सब आपसे बहुत ज़्यादा पुराने हैं। इनको तो छोड़ दो, पेड़ भी हमसे बहुत ज़्यादा पुराने हैं।

पेड़ मिला है एक उसको, कहा जा रहा है कि इस पेड़ ने तो शायद ईसा मसीह को भी देखा होगा, इतना पुराना है। दो-हज़ार साल पुराना पेड़ मिल गया उसको, कह रहा है दो-हज़ार साल पुराना लग रहा है ये। और होते हैं, हम जानते हैं। कोई बाहर की बात नहीं है भारत में भी बहुत-बहुत सैकड़ों साल पुराने वृक्ष होते हैं। तो मात्र शारीरिक तौर पर बचे रहना कौन-सी बड़ी बात हो गई। या हो गई?

पर ‘लोकधर्म’ के लिए यही सबसे बड़ी बात होती है, क्योंकि वो जो सबसे आदिम प्राकृतिक वृत्ति होती है, उससे संचालित होता है। आदिम प्राकृतिक वृत्ति क्या है? शरीर को बचाओ, अपनी तादाद बढ़ाओ। चूहे, अपना शरीर भी बचाओ किसी तरीके से और अपनी तादाद बढ़ाओ।

वहाँ ये नहीं होता कि “आत्मा से प्रेम ही धर्म है, प्रेम भले ही प्राण ले।” वहाँ प्राण अगर दिया भी जाएगा, तो अंधविश्वास और धारणा की रक्षा के लिए दिया जाएगा। सत्य के यज्ञ में आहुति की तरह प्राण नहीं दिया जाएगा वहाँ।

समझ में आ रही है बात?

‘लोकधर्म’ का एक और तर्क सुनो। आप जानते ही हो मैं क्या सुनाऊँ। ‘अरे! इतने सालों से चल रहा है, तो हमारे पूर्वज क्या सब बेवकूफ़ थे। तुम भी कल किसी के पूर्वज होओगे।’ अच्छा! अपने ऊपर बुरा लगता है। ये तुम्हारे बगल में बैठा हुआ है टट्टू। मैं तुमसे पूछूँ टट्टू कैसा है? तुम्हारा नाम टीटू, तुम्हारे दोस्त का नाम? टट्टू। मैं पूछूँ ये टट्टू कैसा है, तुम बोलोगे — एक नंबर का गधा है, मूर्ख है, पागल है, बेवकूफ़ है। ठीक है। ये टट्टू भी कल किसी का पूर्वज होगा। और तुमने ही अभी कहा कि टट्टू? बेवकूफ़ है।

आपके बगल में वो बैठा है टट्टू, इनका नाम टीटू, इनका नाम टट्टू। (श्रोतागण की ओर हाथ से इशारा करते हुए) टट्टू क्या है? बेवकूफ़ है। और आज से पाँच-सौ साल बाद यही टट्टू किसी विशाल परंपरा का गौरवशाली पुरखा होगा। जो आज का क्या है? टट्टू। जो आज का बंदा जब कल किसी का पुरखा बनेगा, और बेवकूफ़ है। तो तुम ये क्यों मान रहे हो कि किसी भी समय पर कुछ लोग बुद्धिमान और कुछ लोग बेवकूफ़ क्यों नहीं होते, होते हैं।

और ये भी आप जानते हो कि चाहे इक्कीसवीं शताब्दी हो, चाहे पंद्रहवीं शताब्दी हो, चाहे दसवीं शताब्दी हो, चाहे पाँचवी शताब्दी हो, समाज में यदि बेवकूफ़ और बुद्धिमान दोनों होते हैं, तो दोनों में अनुपात कितना होता है?

निन्यानवे मूर्ख होते हैं, तो एक बुद्धिमान होता है। जी हाँ! हमारे पुरखों पर भी यही बात लागू होती है, सौ में से निन्यानवे पुरखे भी बेवकूफ़ ही थे। आप नियमों का अपवाद थोड़े ही बन जाओगे। जो बात है, सो है। जैसे ही ये कहोगे, कहेंगे, ‘साला! अपने ही बाप-दादाओं को बेवकूफ़ बोल रहा है।’ तेरे बाप-दादे होंगे बेवकूफ़, मेरे नहीं थे।

जी आपकी प्रतिक्रिया से पता चल रहा है। अरे, ये बहुत सोचने की बात है न! जब दुनिया में किसी भी समय में किसी भी समाज में मूर्ख भी होते हैं और ज्ञानी भी होते हैं, और सौ में से निन्यानवे मूर्ख ही होते हैं, तो आज से पाँच सौ साल पहले, हज़ार साल पहले चाहे भारत हो, चाहे अफ्रीका हो, चाहे अरब हो, चाहे यूरोप हो, चाहे चीन हो। आप पंद्रहवीं शताब्दी का चीन ले लो, दसवीं शताब्दी का भारत ले लो हर समय हर समाज में सौ में निन्यानवे बेवकूफ़ ही होते हैं। ये प्रकृति का नियम है इसमें अहंकार को आहत करने वाली कोई बात नहीं है ऐसा होता है। ये लगभग वैसी सी बात है कि जैसे खरगोशों के दो कान होते हैं, इसमें आहत होने की क्या बात है, ये प्रकृति का नियम है।

पर लोकधर्म कहता है, ‘नहीं! जो कुछ पीछे है वो श्रेष्ठ है, वो स्वर्णिम है।’ क्यों है भाई? क्यों है? और एक प्रश्न पूछ रहा हूँ बुरा लगेगा लेकिन लगने दीजिए।

(श्रोतागण हँसते हैं)

मिट्टी की देह है वैसे ही खत्म होनी है अच्छा लगे बुरा लगे, क्या करना है। (मुस्कुराते हुए) ज्ञान के ज़्यादा साधन आज हैं या हज़ार साल पहले थे?

श्रोतागण: आज हैं।

आचार्य प्रशांत: जितनी शिक्षा आज मिल रही है तब मिलती थी?

श्रोतागण: आज।

आचार्य प्रशांत: एक से बड़े एक अंधविश्वासों में फँसने की ज़्यादा संभावना आज है या पहले थी?

श्रोतागण: आज, पहले।

आचार्य प्रशांत: अरे यार! आज आपको कोई बात बताई जाती है आप तुरंत जाते हो गूगल कर लेते हो, तथ्य सामने आ जाता है। तब आप एक गाँव में रहते थे और अगले गाँव तक जाने के लिए भी बीच में जंगल था और गाँव में थे कुल ढाई-सौ लोग। तो गाँव के स्तर पर जो अंधविश्वास है कभी भी उसका उन्मूलन हो सकता था? तो ज्ञान की बात ज़्यादा आज होगी या पीछे होगी?

श्रोतागण: आज।

आचार्य प्रशांत: इसीलिए हम कहते हैं:

“परम से न विलग हो, परंपरा बस यही है और शेष विषय अतीत के, नहीं जरूरी नहीं हैं”

ये लोकधर्म कहता है, ‘नहीं, नहीं, नहीं, जो कुछ पीछे हैं वही श्रेष्ठ है, आँख मूँदकर उसका पालन करते रहो। और पीछे है क्या, ‘लोकधर्म’ को इससे भी ज़्यादा मतलब नहीं है। ऐसा थोड़े ही है कि लोकधर्म को मानने वाले इतिहास के तथ्यगत अध्ययन में कुछ रुचि रखते हैं, वो इतिहास भी नहीं जानते। उनसे कहो, पीछे क्या है? कहेंगे, ‘पुराने जमाने में।’ अरे! पुराना जमाना माने क्या? कुछ भी। कहेंगे, ‘पुराने जमाने में।’ अरे! पुराने जमाने में ऐसा थोड़े ही होता था।

इनके हिसाब से सबकुछ पुराना जमाना है, आज से सौ साल पहले भी पुराना जमाना था और आज से एक-लाख साल पहले भी पुराना जमाना था। इनके हिसाब से सब एक है पुराना जमाना है कोई, जिसकी इनके पास एक बिल्कुल परी कथा जैसी छवि है कि — ऋषि वगैरह घूम रहे हैं और सतयुग चल रहा है, और सब कुछ बहुत अच्छा-अच्छा, बढ़िया-बढ़िया, मीठा-मीठा है। क्योंकि तुम इतिहास पढ़ ही नहीं रहे हो तुम्हें पता ही नहीं है कि दुनिया कैसी रही है, और लोग कैसे रहे हैं और सौ में से निन्यानवे लोग हमेशा बेवकूफ़ रहे हैं।

ये बात भीतर से हमें बहुत आहत करती है कि बिल्कुल हो सकता है कि हमारी ही देखी जाए वंशावली, तो उसमें एक-से-एक मूर्ख निकल आएँ। पर इसमें आहत होने वाली क्या बात है? क्यों, क्यों आहत हो जाएँ? क्यों आहत हो जाएँ? क्यों आहत हो जाएँ? वंशावली में और आप पीछे तक जाओगे, तो बंदर निकलेंगे। तो आहत क्या हो जाएँ? है यही सच्चाई, इसमें ऐसी क्या बात है?

कोई बोले — इसका मतलब तुम कह रहे हो तुम्हारे पुरखे बेवकूफ़ थे? सीधा सा जवाब है — हो सकता है, बिल्कुल हो सकता है। क्योंकि सौ में से निन्यानवे लोग तो? हमेशा ही बेवकूफ़ होते हैं। तो मेरे पुरखे भी बेवकूफ़ हो सकते हैं। उसमें इतनी चौकने वाली क्या बात है? मेरे भी, तुम्हारे भी, सबके।

बात आ रही है समझ में?

लोकधर्म का मतलब है कहानियों में जीना। आज से चार-सौ-करोड़ साल पहले फ़लाना युग चल रहा था। आज से चार-सौ-करोड़ साल पहले इंसान क्या बंदर भी नहीं था, पर वो लगे हुए हैं। इनसे पूछो कि भाई! ये सब शब्द सुने हैं तूने पैलियोलिथिक ऐज (प्रागैतिहासिक काल है जो लगभग 2.6 मिलियन से 10,000 वर्ष पूर्व तक चला।), नियोलिथिक ऐज (प्रागैतिहासिक काल है जो लगभग 10,000 से 4,000 वर्ष पूर्व तक चला।) तू बता रहा है इतने करोड़ साल पहले फ़लाने ऋषि हुए।

अरे! उतने करोड़ साल पहले तो बंदर नए-नए शुरू हुए थे, तुम उन्हीं को ऋषि बोल रहे हो, तो बताओ।

(श्रोतागण हँसते हैं)

हमारे जितने भी ऋषि हुए हैं, आप भारत की बात कर रहे हो; वो सब पिछले तीन, चार-हज़ार साल के हैं, दस-हज़ार साल के भी नहीं हैं ऋषि। तुम कहाँ लाखों साल, तुम कहाँ करोड़ों साल में पहुँच गए, कह रहे हो इतने करोड़ साल पहले ये ऋषि हुए। कहाँ से हो गए? ये लोकधर्म है सब। यूँही उछालना लंबा-लंबा फेंकना, ये लोकधर्म है। और कोई पूछे कब हुए? तो बोल दो — पुराने जमाने में। वन्स अपॉन अ टाइम। (एक समय की बात।) पुराने जमाने में। अरे! पुराना जमाना माने क्या, बताओ? कोई उत्तर नहीं है।

क्यों? क्योंकि उत्तर पाने के लिए मेहनत करनी पड़ती है। मेहनत करने में धारणाएँ टूटती हैं, कमर भी टूटती है। कौन मेहनत करे। इससे अच्छा जो बता दिया गया, चुपचाप उसको सुन लो।

समझ में आ रही है बात?

लोकधर्म वो जो शिक्षा और ज्ञान से बड़ी नफ़रत करे, ज़बरदस्त नफ़रत। लोकधर्म वो जिसकी शब्दावली में ज्ञान एक गाली हो। चल रे! ज्ञान के पोते, ज्ञान मत झाड़।

बात आ रही है समझ में?

(श्रोतागण हाँ करते हुए)

लोकधर्म माने बैठे बिठाए अमर चित्र कथा का सेवन, और कहना — यही तो है, यही तथ्य है, यही इतिहास है, यही धर्म है।

इस हद तक ज़बरदस्त है लोकधर्म, कि कहीं पर मैंने बहुत एक साधारण सी बात कही कि साहब! जब हमें आजादी मिली थी तो औसत जो आयु थी किसी भारतीय की वो तीस साल भी नहीं थी। उस पर बिल्कुल ट्रक भर-भरकर के लोगों की आपत्तियाँ, और आक्षेप, और गालियाँ आई। उन्होंने कहा, ‘ये देखो, ये क्या बात है, पुराने जमाने के लोग ज़्यादा जीते थे।’

इन्हें तथ्यों से कोई मतलब ही नहीं है। ये एक बार भी कोई किताब खोलकर नहीं देखेंगे, ये गूगल खोलकर भी नहीं देखेंगे। इनके हिसाब से उन्नीस-सौ-सैंतालीस का भारतीय, दो-हज़ार-चौबीस के भारतीय से ज़्यादा लाइफ एक्सपेक्टेंसी (जीवन प्रत्याशा) रखता था। इनको मैंने कहा कि गाँधी का अहिंसात्मक आंदोलन कुछ हद तक इसलिए भी था क्योंकि उस समय पर भारत की बड़ी दुर्दशा थी। इतना गरीब देश, भूखा देश, नंगा देश, ये कहाँ से सशस्त्र क्रांति कर देता। करोड़ों लोग तो अकाल में दाने-दाने के लिए मोहताज होकर मर रहे हैं। उस आदमी को तो कोई भी अगर जाकर के थोड़े से दाने दिखा देगा तो वो उसके पीछे चल देगा। कैसे गौरव और गरिमा के लिए क्रांति संभव हो पाती? तो जवाब देते हैं, ‘हँ! ये देखो, इन्हें तो पता ही नहीं है कि भारत तो अतीत में सोने की चिड़िया था।’

इनके हिसाब से पिछली शताब्दी के पूर्वार्ध का भारत सोने की चिड़िया था, ये लोकधर्म है। ‘पुराने जमाने में हम सोने की चिड़िया थे।’ अरे! कौन-से पुराने जमाने में सोने की चिड़िया थे? और इस सोने की चिड़िया का मतलब क्या होता है? लोकधर्म की ये भी निशानी है इसमें मुहावरे बहुत चलते हैं, खाली मुहावरे, खोखले मुहावरे, जुमले सोने की चिड़िया।

कब? कहाँ? कैसे? क्राइटेरिया (मानदंड) क्या है सोने की चिड़िया कहलाने का, बताओ तो? कुछ उत्तर नहीं है। बस ऐसे ही पीछे जो कुछ है वो सब स्वर्णिम है। और पीछे जो कुछ है सब स्वर्णिम है — ये बात किस मनोविज्ञान से आ रही है कहिए तो पेश करूँ।

(श्रोतागण से पूछते हुए)

वो यहाँ से आ रही है कि पीछे, सबसे पीछे कोई रचयिता, भगवान बैठा हुआ है। तो जितना पीछे जाओगे, तुम भगवान के उतने निकट होते जा रहे हो न। सारी समस्या ये है। कि अतीत में तुम जितना पीछे जाओगे तुम भगवान के उतना निकट जा रहे हो, इसीलिए चीज़ें उतनी बेहतर होंगी पीछे।

और यही वज़ह है कि बहुत सारे देशों में जहाँ पर धारणा से ही बहुत प्यार है, जहाँ अपनी बिलीफ़ (मानना है) और जो रिलीजियस (धार्मिक) आग्रह उनसे बहुत प्यार है, जैसे पाकिस्तान वगैरह; वहाँ पर वो किसी भी हालत में स्कूल कॉलेजों में इवोल्यूशन (विकास) पढ़ाने नहीं देते। क्योंकि अगर ये तय हो गया कि हम इवोल्यूशन से आए हैं, तो वो सारी बात खंडित हो जाएगी कि वन फाइंड डे गॉड मेड मैन। (एक दिन ईश्वर ने मनुष्य की रचना की।) और सारा जो लोकधर्म है वो इस बात पर चलता है कि वन फाइंड डे गॉड ने मैन की रचना करी। और चूँकि गॉड पीछे है, अतीत में है, तो इसीलिए अतीत में तुम जितना पीछे जाओगे, तुम गॉड के उतने समीप होते जाओगे, और इसीलिए चीज़ें उतनी सुंदर होती जाएँगी।

लेकिन तथ्य ये है कि तुम पीछे जितना जाते जाओगे, तुम उतना ज़्यादा जंगल में प्रवेश करते जाओगे। तुम जितना पीछे जाओगे, तुम ईश्वर के नहीं बंदर के निकट होते जाओगे।

समझ में आ रही है बात?

लोकधर्म वो जिसे तथ्यों से बड़ी आपत्ति है बदहजमी है बिल्कुल तथ्य नहीं चाहिए आँख बंद करके कल्पना करनी है बस, ये लोकधर्म है। और इसीलिए लोकधर्म को वास्तविक धर्म से बड़ी चिढ़ है।

वास्तविक धर्म कहता है, “तथ्य ही सत्य का द्वार है।”, वेदांत कहता है, “व्यवहारिक तल से होकर के ही पारमार्थिक तल पर पहुँचा जा सकता है और व्यवहारिक तल का अर्थ होता है तथ्य।” वेदांत की वास्तव में कुल बात ये है कि अगर तुम व्यवहारिक तल पर उत्कृष्ट नहीं हो, तो पारमार्थिक तल को तो बेटा भूल ही जाओ। व्यवहारिक तल माने ये जो जगत है हमारा, सांसारिक तल। और इस सांसारिक तल पर उत्कृष्ट होने का मतलब होता है चीज़ों को जस का तस जानना। आम को आम जानना, चाकू को चाकू जानना, कल्पनाओं के बुलबुले नहीं उड़ाना।

तथ्य सत्य का द्वार है जो तथ्यों के संपर्क में आ गया प्रयोग करके, परीक्षण करके, इंद्रिय और मन का संयम रखकर के मात्र वही है जिसके लिए सत्य की संभावना खुलेगी। ये वास्तविक धर्म है।

तो वास्तविक धर्म सारा सम्मान किसको देता है तथ्यों को, और लोकधर्म सारा समान किसको देता है कल्पना को। तो इसीलिए लोकधर्म के लिए जो तथाकथित अनीश्वरवादी है वो भी उतना बड़ा खतरा नहीं होता। ‘लोकधर्म के लिए बड़े से बड़ा खतरा होता है वास्तविक धर्म।’

अब आपको समझ में आएगा कि मुझ पर सबसे ज़्यादा आघात नास्तिकों द्वारा नहीं, तथाकथित धार्मिकों द्वारा क्यों किए जाते हैं। क्योंकि नास्तिक उनके लिए खतरा है ही नहीं। लोकधर्म के लिए नास्तिक कोई खतरा नहीं है, लोकधर्म के लिए खतरा है असली धर्म।

बहुत सारे तो ऐसे हैं जो मुझे इतना याद करते हैं भक्त हैं बेचारे, वो भक्त मुझे इतना याद करते हैं, इतना उन्होंने अपने भगवान को याद किया होता उन्हें भगवान मिल जाते। भगवान से ज़्यादा मुझे याद करते हैं, दिन में दो-दो बार याद करते हैं। सोचिए तो क्यों, मैं क्यों इतना बड़ा उनके हृदय में शूल बनकर घुसा हुआ हूँ। कारण समझ में आ रहा है?

लोकधर्म के लिए न बाज़ारवाद खतरा है, बाज़ारवाद और लोकधर्म तो साथ चलते हैं। लोकधर्म के लिए अनीश्वरवाद, नास्तिकता ये सब भी कोई खतरा नहीं है। पर लोकधर्म के लिए सत्य माने वास्तविक धर्म बहुत बड़ा खतरा है। लोग कहते-कहते हैं, ‘आचार्य जी, आप भी उपनिषद पढ़ा रहे हो। पर वो लोग जो वेद-वेदांत की बहुत बात करते हैं वो बिल्कुल आपके कट्टर दुश्मन हैं। आचार्य जी, आप गीता पढ़ा रहे हो, पर कृष्ण भक्त तो बिल्कुल उतारू हैं, खत्म कर दें आपको।’ ऐसा क्यों हो रहा समझ में आ रहा है? क्यों हो रहा है?

लोकधर्म अधर्म से नहीं घबराता, क्योंकि अधर्म तो वो स्वयं है; लोकधर्म सच्चे धर्म से घबराता है। इसलिए मुझे जो विरोध भी आता है मालूम है वो कहाँ से आता है? पकड़िएगा। मुझे विरोध अमेरिका में बैठे भारतीयों या हिंदुओं से नहीं आता। बेंगलोर, मुंबई, गुड़गाँव, चंडीगढ़ यहाँ बैठे लोगों से भी मुझे विरोध नहीं आता, मुझे विरोध आता है उन शहरों से जो सबसे ज़्यादा धार्मिक हैं। सबसे ज़्यादा जो धार्मिक जगहें हैं मुझे वहाँ से सबसे ज़्यादा विरोध आएगा, चाहे वो काशी हो, उज्जैन हो, मथुरा हो, यहाँ से आएगा। और इन जगहों पर भी जो ग्रामीण इलाके होंगे, अशिक्षित सबसे ज़्यादा जो जितना अशिक्षित होगा, जितना अंधविश्वास की चपेट में होगा वो उतनी कट्टरता से मेरा विरोध करेगा।

अपवाद हो सकते हैं। अब तो पढ़े-लिखे जाहिल भी होते हैं। वो अंग्रेजी में बात करते हैं नेगेटिव एनर्जी, औराज, वाइब्स, क्रिस्टल्स एंड जेम्स (नकारात्मक ऊर्जा, आभा, वाइब्स, क्रिस्टल और रत्न) की, और जाकर के पॉडकास्ट में बैठा करते हैं, वो भी हो सकते हैं।

पर ज़्यादा संभावना यही है कि अगर कोई ज़बरदस्त गाली-गलौज कर रहा है, तो पहली बात तो वो उसने गाली-गलौज हिंदी में करी होगी, रोमन में लिखी होगी लिखना भी नहीं आ रहा होगा। ‘यू’ की स्पेलिंग लिख रहा होगा, वाई जे बी। अरे! मज़ाक की बात नहीं है ये रोज़ होता है। ‘तू’ लिखना नहीं आ रहा होगा, ‘हूँ’ लिखना नहीं आ रहा होगा, ‘मैं’ लिखना नहीं आ रहा होगा, मैं की जगह ‘में’ लिख रहा होगा। क्यों? क्योंकि शिक्षा थोड़ा भरोसा देती है कि अपने पैरों पर खड़ा हुआ जा सकता है अपनी चेतना से जाना जा सकता है।

जो जितना कमजोर होता है वो लोकधर्म का उतना जल्दी शिकार बनता है। और इसीलिए अगर लोकधर्म को फैलाना है तो बहुत ज़रूरी है कि लोगों को कमज़ोर रखा जाए, लोगों को ज्ञान से दूर रखा जाए। अब समझ में आ रहा है कि क्यों आप गीता सत्र देखते हो, तो घर, आस-पड़ोस, पूरा मोहल्ला आपत्ति करने लगता है, क्योंकि अगर आप ज्ञान की तरफ़ बढ़े तो बहुत सारे पिंजड़ों से मुक्त हो जाओगे।

हमारे लोग बड़े भोले हैं कई। किसी ने अभी लिखा कि ये सब आचार्य जी को इतनी गालियाँ पड़ती हैं, हम कभी भी उसका जवाब भी नहीं देते। तो किसी ने आकर के वहाँ बिल्कुल अस्सी साल के बुढ़ऊ की तरह समझाया — अरे! नहीं, वो सब भी अपने ही बच्चे हैं। बस भोले हैं और बहके हुए हैं।

अरे! न वो भोले हैं न बहके हुए हैं वो भलीभाँति जानते हैं वो क्या कर रहे हैं। मैं उनके लिए एक अस्तित्वगत खतरा हूँ, वो भोले और बहके हुए नहीं हैं। उनका बस चले तो अभी आकर के गोली चला दें। तुम यही कहते रह जाओगे कि — वो तो भोले हैं बहके हैं, अपने। हमें जाकर के उनको प्यार और सब्र से समझाना चाहिए।

सीधे बोलो न कि हिम्मत नहीं है। सीधे बोलो न कि जो गाली देते हैं उनमें तुम्हारे ही घर के लोग शामिल हैं, इसीलिए तुम्हारे पास कोई रास्ता ही नहीं है कड़ाई करने का। तुम्हारा स्वार्थ जुड़ा हुआ है उनसे जो गाली देते हैं।

तो वास्तविक धर्म बस उनके लिए है जो बहुत कड़ी शर्तें पूरी करते हों। अगर आपके ममता के, कामना के, स्वार्थ के तार जुड़े हुए हैं, तो वास्तविक धर्म का रास्ता आपके लिए नहीं है।

समझ में आ रही है बात ये?

लोकधर्म वही है जिसकी बात कठोपनिषद में हो रही थी प्रेय मार्ग। जो कुछ अहंकार को अच्छा लगता है वो धर्म के नाम पर करो। धर्म के नाम पर वो सब कुछ करूँगा जो मुझे पसंद है, जो मुझे लगता है सुख दे देगा, जो मुझे प्रिय है। दो मार्गों की बात हो रही थी ‘यमराज-नचिकेता’ चर्चा में, श्रेय और?

श्रोतागण: प्रेय।

आचार्य प्रशांत: प्रेय, हाँ। तो जो प्रेय मार्ग है वो लोकधर्म है। हर काम अपनी मर्जी का करो और उसको जायज़ ठहराने के लिए उसके साथ एक नैतिक श्रेष्ठता की भावना जोड़ दो उसे धार्मिक कहकर के।

मैं ऐसे ही थोड़े ही तुमसे साड़ी और गहने माँग रही हूँ, मैंने पूरे दिन तुम्हारे लिए व्रत किया है — प्रेय मार्ग। अब ऐसे तुम किसी को पकड़ो कि मुझे गहने लाकर दो, मुझे साड़ी लाकर दो, तो कहेगा हैं, ‘काम की न काज की, दुश्मन अनाज की।’

(श्रोतागण हँसते हैं)

और ऐसे बता दो — नहीं, ये तो धार्मिक रस्म है न। तुम्हें ये सब लाकर देना पड़ेगा। ये प्रेय मार्ग है, जहाँ धर्म के नाम पर वो सब चल रहा है जिसमें तुम्हारी मौज रहती है।

रात में ऐसे बाहर निकलकर के नाचो फ़ालतू ही, ‘हाँ मुझे प्यार हुआ, प्यार हुआ अल्ला मियाँ,’ तो पुलिस पकड़कर ले जाएगी। फिर बोल दो — नहीं, ये तो धार्मिक नृत्य है, तो कोई नहीं पकड़ता। प्रेय मार्ग। वही सब कुछ करना है जिसमें छनन, छनन, छनन, मस्त खाना है, मस्त नाचना है।

खाने में कोई बुराई नहीं, नाचने में कोई बुराई नहीं, धर्म के नाम पर क्यों कर रहे हो? करो न! बिल्कुल जी भरकर करो। पर ये क्यों बोल रहे हो कि ये धर्म है। सीधे बोलो न कि इसमें तुम्हारी मौज है इसलिए कर रहे हो।

ये क्यों बोलते हो कि ये करके परमात्मा मिल जाएगा? क्या है भैया? पूड़ी बन रही है और खीर बन रही है। क्या होगा? इससे भगवान खुश हो जाएँगे। खाओगे तुम, और निकालोगे भी सुबह तुम ही, और खुश भगवान होने वाले हैं।

(श्रोतागण हँसते हैं)

जानवर काट रहे हैं। कहते हैं, ‘बकरीद है, काट रहे हैं।’ वही जानवर क्यों कटते हैं जिनका माँस स्वादिष्ट होता है? बोलो। और काटकर के तुम ये तो करते नहीं कि बकरी काटी है तो शेर को दे दो जिसका वो प्राकृतिक आहार है। काटकर के जाओ शेर को दे आओ जंगल में, खुद क्यों खा रहे हो? अभी तो नवदुर्गा बीती हैं। भारत में यही वो समय होता है जब मंदिरों में भी खूब बलियाँ चढ़ती है हज़ारों कटते हैं भारत में, नेपाल में। मौज़ का मार्ग, प्रिय मार्ग। ‘भाई, अपुन को न ये काम करना,’ पर ये काम ऐसे ही करेंगे, तो लोग कहेंगे, ‘छी-छी! ही इज़ जस्ट सेटिस्फाइंग हिज कार्नल डिजायर्स। (वो सिर्फ़ अपनी दैहिक इच्छाओं को संतुष्ट कर रहा है।) तो एक काम करते हैं एक धार्मिक कहानी के माध्यम से ही काम करते हैं, एक धार्मिक कहानी के माध्यम से काम करते हैं।

समझ आ रही है बात ये?

कुछ भी वहाँ ऐसा नहीं है जो कामना पूर्ति के अलावा किसी और उद्देश्य के लिए हो। यहाँ तक कि भगवद्गीता में श्रीकृष्ण को बोलना पड़ता है, “अर्जुन! ये सीधा-सीधा श्लोक है बिल्कुल इन्हीं शब्दों में है; अर्जुन! जब तक तुम वेदों की सकाम ऋचाओं से ऊपर नहीं उठते, जब तक जो काम्य कर्म हैं तुम उनसे बँधे हुए हो, तब तक तुम्हें मेरी बात समझ में नहीं आएगी।” उपनिषदों में कामनाओं की बात नहीं है, पर मंत्रों में है, वहाँ सब कुछ कामनागत ही है। सब प्राकृतिक देवी, देवताओं से कहा जा रहा है हमारी ये कामना पूरी कर दो वो कामना, और कामनाएँ सारी वही हैं पुरानी कामनाएँ — बेटा दे दो, ज़मीन दे दो, हमारे पशुओं के ज़्यादा दूध आए और हमारे शत्रुओं को आग लगाकर के मार दो, यही हैं। बारिश करवा दो, बीमारी न आए। ये लोकधर्म है। कामनापूर्ति का ही बेईमानी भरा नाम। और वास्तविक धर्म — निष्कामता।

जहाँ कहीं धर्म के नाम पर आप कामनापूर्ति होते देखें, जान लीजिए ये नकली धर्म है, लोकधर्म है। क्योंकि वास्तविक धर्म निष्कामता है।

“निरहंकार होना माने निष्काम होना,” ये वास्तविक धर्म है, यही गीता का संदेश है, यही उपनिषदों की सीख है, यही संतों ने गा-गाकर के समझाया है। एक और अपने भीतर से गलतफ़हमी हटा दीजिएगा बिल्कुल कि शुरुआत लोकधर्म से होती है और फिर वास्तविक धर्म में प्रवेश होता है। मैंने पहले भी बोला है इस पर।

कई लोग कहना चाहते हैं, ‘अरे! अभी तो शुरुआत है। हम उनके साथ ज़्यादा सक्ति नहीं करना चाहते, शुरुआत में तो सब लोकधर्म वाले ही होते हैं फिर धीरे-धीरे आ जाएँगे। नहीं, गलत बोल रहे हो, विरोधी हैं।

लोकधर्म के लिए ज़हर जैसा है वास्तविक धर्म। लोकधर्म आगे बढ़कर वास्तविक धर्म नहीं बन जाता, लोकधर्म आगे बढ़कर के वास्तविक धर्म का हत्यारा और बन जाता है। तो ये बात नहीं है कि सब धर्म के ही अलग-अलग तल हैं, एक आरंभिक तल है फिर आगे का ऐसा कुछ नहीं है लोकधर्म धर्म का आरंभिक तल नहीं है। बल्कि जो लोकधर्म पर चल दिया उसके लिए अब धर्म का आरंभ कभी होगा ही नहीं।

आ रही है बात समझ में?

और यही वज़ह है कि जिन समाजों में लोकधर्म जितना फैला हुआ है वो उतने ज़्यादा पिछड़े हुए हैं। क्योंकि लोकधर्म को फैलने के लिए अशिक्षा और अज्ञान की ज़मीन चाहिए-ही-चाहिए। ये हमारे लिए बहुत शर्म की बात होनी चाहिए हम अपने आप को धार्मिक कहना चाहते हैं, बिल्कुल कहना चाहते हैं। दुनियाभर में अगर तुलना करके देखो, और भारत में भी अगर देखो तुलना करके, तो जहाँ लोग अपने आप को जितना ज़्यादा धार्मिक बताते हैं वहाँ अशिक्षा उतनी ज़्यादा है, गरीबी उतनी ज़्यादा है। जो अपने आप को जितना धार्मिक बोलता है, उसको उनके यहाँ जाओ बीमारियाँ भी उतनी ज़्यादा होंगी, बच्चे भी उतने ज़्यादा होंगे।

पाकिस्तान दुनिया के उन गिने-चुने देशों में रह गया है जहाँ से पोलियो नहीं हट रहा। वहाँ पर फैला रखा है कि ये जो कुछ भी है ये सब तो ऊपर वाले की देन है, और ये जो पोलियो लगाने आते हैं ये पोलियो का अगर लगा देंगे, तो काफिर बन जाएँगे हम। वहाँ से पोलियो ही नहीं हट रहा ये लोकधर्म है।

पाकिस्तान की बात इसलिए करता हूँ क्योंकि हम भी अब वैसे ही बनना चाहते हैं, इसलिए आपको आगाह करता हूँ बार-बार। पाकिस्तान से, दुनिया से पोलियो कब का चला गया पाकिस्तान से नहीं जा पा रहा, वो डोज ही नहीं लेने देते। जो वर्कर्स होते हैं, उनकी हत्या कर दी जाती है, कहते हैं, ‘ये आया है इस्लाम को खत्म करने, मार दो इसको।’ आप करिएगा गूगल।

कौन जाए वहाँ पर दूरदराज के अंदरूनी इलाकों में जहाँ सब मुल्लों की ज़बरदस्त पकड़ है, वहाँ पोलियो का काम करने, जा ही नहीं सकते। वहीं भारत अब धीरे-धीरे उसी दिशा में जा रहा है बल्कि तेज़ी से उसी दिशा में जा रहा है।

अशिक्षा होगी, गरीबी होगी, शोषण खूब होगा। जो जितने ज़्यादा धार्मिक समाज हैं, दे आर कैरेक्टराइज़ बाय इनिक्वालिटी (वे असमानता की विशेषता रखते हैं।) ठीक वैसे जैसे अभी अब रिपोर्ट आई है कि भारत में जो मिडिल क्लास है वो श्रिंक (सिकुड़ना) कर रहा है। एफएमसीजी कंपनीज की आफ़त आ गई है मिडिल क्लास श्रिंक कर रहा है। माने क्या हो रहा है पर कैपिटा इनकम (प्रति व्यक्ति आय) तो बढ़ रही है। ये अजीब बात है।

मान लो तीन तल ले लो हाई इनकम, मिडिल इनकम, लो इनकम मोटे तौर पर, तो इन सबका जो एग्रीगेटेड एवरेज (संकलित औसत) है वो तो बढ़ रहा है। पर मिडिल क्लास (मध्यमवर्ग) श्रिंक (सिकुड़ना) कर रहा है।

इसका मतलब क्या है? इसका मतलब ये है कि अब दो तल बनते जा रहे हैं बस दो, एक हाई, एक लो। हाई वो जिनके पास सबकुछ है, और लो वो जिनके पास कुछ नहीं है। मिडिल क्लास भी धीरे-धीरे लोअर क्लास (निम्नवर्गीय) बनती जा रही है। हमारी जैसे वर्ण व्यवस्था है वैसे ही हमारी अर्थव्यवस्था होती जा रही है। वर्ण व्यवस्था का भी तो यही मतलब है न! जो ऊपर है उसके पास सबकुछ है, और सब लोग जो नीचे-ही-नीचे हैं उनके पास कुछ नहीं है।

अर्थव्यवस्था भी वैसी ही होती जा रही है जो ऊपर वाले हैं उनके पास सबकुछ, नीचे वालों के पास कुछ भी नहीं। ये एक तरह का ज़बरदस्त लोकतंत्र आ रहा है सब एक बराबर हो जाओगे। किस अर्थ में? किसी के पास कुछ नहीं, सब एक बराबर हो गए, साम्यवाद।

ये लोकधर्म का काम है मात्र भारत में नहीं दुनिया भर में ऐसा ही है। जहाँ-जहाँ लोकधर्म की जितनी पकड़ है वहाँ ये सब बातें पाई जाती हैं। और सबसे ज़्यादा वहाँ क्या पाया जाता है? बहुत सारे बच्चे, गजब का फर्टिलिटी रेट (प्रजनन दर), अशिक्षा, बीमारी, बच्चे, गरीबी, असमानता हर तरीके से, और बहुत सारी लड़ाइयाँ। युद्धोनमत्ता, बेलीजरेंस (विश्वासघात), लड़ने को हमेशा तैयार। अफगानिस्तान याद करो, है कुछ नहीं लेकिन मार दूँगा, मारने को तैयार। है कुछ नहीं, मारने को तैयार।

और अच्छे से समझ लो लोकधर्म में मरना-मारना बहुत ज़्यादा होता है, और मरते मारते हमेशा गरीब हैं। वो जो टॉप टायर है न वो अपने बच्चों को या खुद को कभी अनुमति नहीं देगा ये मरने-मारने के खेल में आने की। वो नीचे वालों को बिल्कुल धार्मिक ज़ज्बात से भर देंगे और ये सब नीचे वाले ही मरते हैं।

आ रही है बात समझ में?

अब ये भी दिख रहा होगा कि ऊपर वालों का ज़बरदस्त स्वार्थ है लोकधर्म को चलाने में। समझ में आ रही है बात ये?

तो लोकधर्म का एक ज़बरदस्त आर्थिक तर्क होता है। आर्थिक तर्क यही है द इलीट मस्ट बिकम सुपर रिच। (अभिजात वर्ग को अति धनवान बनना होगा।)

ये लोकधर्म का काम है — वर्ण व्यवस्था जैसी अर्थव्यवस्था।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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