आचार्य प्रशांत: एक राजा है, उस राजा का एक बेटा है। राजा का बेटा अच्छे से जानता है कि मुझे जो भी कुछ मिला है वो अपने पिता की वजह से ही मिला है। नाम, शरीर, शिक्षा, मैं जो भी कुछ हूँ, मुझे सब कुछ पिता ने ही दिया है। वो जब तक छोटा है, पिता की गोद में बैठा है। पिता सिंहासन पर बैठा है और ये जो बेटा है ये भी पिता की गोद में खेल रहा है, इस कारण ये भी सिंहासन पर ही बैठा है, सिंहासन पिता का है, ये बच्चा जब तक छोटा है पिता की गोद में खेलता है, पिता सिंहासन पर है तो बच्चा भी कहाँ पर होता है? सिंहासन पर ही होता है।
बच्चा बड़ा होता जा रहा है। बच्चा देखता जा रहा है कि वो जो भी है पिता की वजह से है, ऐसा भी नहीं है कि वो इस तथ्य से अवगत नहीं है, लेकिन ये भी एक बात है कि वो बड़ा हो रहा है, और बड़ा होने का अर्थ ही यही है कि वो पिता की गोद से अपने को दूर करता जा रहा है। पिता के प्रेम में कोई अंतर नहीं है, वो पिता के पास आज भी जाएगा तो पिता बैठा लेगा पास में, पर वो पिता से दूर होता जा रहा है। सब कुछ मिला हुआ है उसको मगर सिंहासन नहीं मिला हुआ है।
सिंहासन उसे कब उपलब्ध था?
जब वो छोटा था, और वो सहज भाव से पिता की गोद में जाकर बैठ जाता था। उसे सब मिला हुआ है, बड़ा हो गया है। लेकिन उसे अब क्या उपलब्ध नहीं है?
प्रश्नकर्ता: सिंहासन।
आचार्य: बेटा क्या करता है कि एक दिन जा कर पिता की हत्या करने की कोशिश करता है। और आदमी का इतिहास भरा हुआ है ऐसी घटनाओं से जहाँ बेटे ने बाप की हत्या करनी चाही है सिंहासन के लिए।
वो जाकर बाप की हत्या करने की कोशिश करता है कि ‘तुझसे मुझे सब कुछ मिला पर सिंहासन पर तो तू ही है’।
बेटा चाहता है कि पिता की हत्या कर दूँ और हत्या करके मैं बैठ जाऊँ सिंहासन पर, इसके आगे की कहानी मुझे नहीं पता, मुझे नहीं पता कि वो पिता की हत्या कर पाया या नहीं, पर ये पता है कि अब वो ग्लानि में जिएगा।
वो ‘बेटा’ हम सब हैं।
हमें जिससे सब कुछ मिला है, हम उसी के सिंहासन पर बैठना चाहते हैं। हमारा अहंकार कहता है, "उस परम सिंहासन को पाए बिना नहीं मानूँगा।" तो इसलिए वो ईश्वर को भी मानसिक बना लेना चाहता है कि सिंहासन पर कब्ज़ा कर लूँ मैं भी।
सिंहासन तक पहुँचने का एक सरल और सहज तरीका उपलब्ध है, वो तरीका है प्रेम का। जाओ पिता के करीब चले जाओ, सिंहासन मिल जाएगा। पर वो ये नहीं करेगा। वो पित्रहंता है, जो बाप को ही मार देगा। हम सब वही हैं, हम जिससे हैं, जिससे हमारा वजूद है, हम सब लगातार उसकी हत्या करने में लगे हुए हैं, और वो जो हत्या करने का औज़ार है उसका नाम है ‘धर्म’। धर्म का इस्तेमाल किया जाता है सत्य को मारने के लिए, और दुनिया में कोई धर्म ऐसा नहीं है जो सत्य की हत्या करने की कोशिश ना करता हो। क्योंकि बेटा बड़ा हो रहा है, उसकी बड़ी-से-बड़ी आकांशा यही है कि किसी तरीके से सिंहासन मुझे मिल जाए। सिंहासन का स्वाद उसे लग चुका है। एक समय था जब सिंहासन उसी का था। कब?
प्र: बचपन में।
आचार्य: फिर उसने खुद ही अपने-आप को सिंहासन से दूर कर लिया कि, "मैं बड़ा हो रहा हूँ। मुझे दुनिया देखनी है, मुझे दुनिया में जाना है।" और अब उसका अहंकार उसको ये अनुमति नहीं देता कि चुपचाप, प्रेमपूर्वक पिता के पास वापस लौट जाए। वो तो कहता है कि, "प्रेम में कैसे जाऊँ? प्रेम माने तो कमज़ोरी है।" तो वो कहता है कि, "हत्या कर दूँगा पिता की।" हम सब वही हैं।
हमें जिससे सब कुछ मिलता है, हम उसी की हत्या करना चाहते हैं। हममें से एक-एक के भीतर यही भाव है। चुपचाप सरल होकर, निष्कपट होकर, पिता की गोद में वापस जाया जा सकता है। धर्म की कोई आवश्यकता नहीं है। पद्धतियों की कोई आवश्यकता नहीं है। सत्य पर किताबें लिखने की कोई आवश्यकता नहीं है। सत्य को सिद्धांतो में बाँधने की कोई आवश्यकता नहीं है। चुपचाप भोले हो कर हँसने लग जाओ। चुपचाप प्रस्तुत हो जाओ। सिंहासन तुम्हारा है। पर कैसे करें? "मैं अभी बलिष्ठ बड़ा, नौजवान राजकुमार, पिता के कदमों में कैसे बैठूँ!"
कहानी सुनी-सुनी सी लग रही है या नहीं? करना क्या है इतने सारे शास्रों का, सीधे-सीधे निर्दोष क्यों नहीं हो सकते? इतने तो बेवक़ूफ़ नहीं हो कि कोई और आकर बताए कि जीवन क्या है। बुद्धि भी है, इंद्रियाँ भी हैं, सब दिखता है। क्या करना है किताबों का? किताबें भी इसलिए हैं ताकि जीवन की ओर नज़र ना डालनी पड़े। खुद को ना देखना पड़े, उससे अच्छा किताबों में पड़े रहो। मज़ेदार बात ये है कि जो ख़ुद को नहीं देख सकता, किताबें भी उसे कुछ दे नहीं पातीं।
कहानी को थोड़ा-सा आगे बढ़ाऊँगा। मैंने कहा था कि धर्म वो हथियार है जिसके द्वारा आदमी ने अपने पिता की हत्या करने की कोशिश की है। वो हथियार इसलिए दिया गया था कि इससे वो अपने अहंकार को काट दे। कोई शुभचिंतक था उस राजकुमार का। उसने आकर वो औज़ार उसे दिया था कि इसका इस्तेमाल अपने-आप को काटने के लिए करना, अपने अहंकार को मिटा देने के लिए। पर उस राजकुमार ने उसी का ही इस्तेमाल कर लिया पिता को ही मिटाने के लिए। और धर्मों का यही इस्तेमाल हुआ है, और कुछ भी नहीं। सत्य को ही मिटा दो, पिता को ही काट डालो। ‘धर्म’ ने ये जो खंजर दिया है, उसको अपने ऊपर चलाना कौन चाहता है? आप बड़े होशियार हैं, तो आप अपनी होशियारी दुनिया के ऊपर ही चलाते हैं। देखिए दुनिया चल रही है, कैसे हो रहा है, क्या हो रहा है? आप कभी नहीं पूछते कि, "मैं चल रहा हूँ तो क्या हो रहा है, कैसे हो रहा है?" कभी उस हथियार को अपने ऊपर तो इस्तेमाल करिए। वो दिया गया है ‘आत्म-ज्ञान’ के लिए, और आत्म-ज्ञान के अलावा और कोई ज्ञान होता ही नहीं।